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कम्युनिस्टों के लिए भस्मासुर साबित हुए कन्हैया कुमार

विष्णुगुप्त

कन्हैया कुमार से कम्युनिस्टों की बहुत उम्मीद थी, कम्युनिस्टों ने कन्हैंया कुमार को अपना आईकॉन मान लिया था, मास लीडर मान लिया था, नरेन्द्र मोदी का विकल्प मान लिया था, अपने खोये हुए जनाधार और आकर्षण को फिर से प्राप्त करने की शक्ति मान ली थी। इतना ही नहीं बल्कि जब कभी कन्हैया कुमार नरेन्द्र मोदी के खिलाफ आग उगलता था, आलोचना की हदें पार करता था तब कम्युनिस्ट काफी खुश होते थे, चमत्कृत होते थे और कहते थे कि कन्हैया कुमार ने नरेन्द्र मोदी को धो दिया, पूरी तरह से बेनकाब कर दिया, अब तो नरेन्द्र मोदी की छवि पानी भरने गयी, अब तो नरेन्द्र मोदी का जनाधार चला गया, अब जनता नरेन्द्र मोदी को खारिज कर देगी आदि-आदि। कन्हैया कुमार भी बेलगाम और शिष्टाचार की सभी मापदंड और परमपरा को तोड़ते हुए सिर्फ अश्लील और अपमानजनक टिप्पणियां करने की राजनीति को सफलता का मूल मंत्र मान लिया था। उसे अहंकार हो गया था कि जेएनयू का अध्यक्ष क्या निर्वाचित हुआ कि बहुत बड़ा तीसमार खां बन गया है, उसकी छवि सरदार भगत सिंह और सुभाषचन्द्र बोस सरीखी बन गयी है, विद्यार्थी वर्ग ही नहीं बल्कि सभी वर्ग जिस तरह से सरदार भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस आदि के समर्थन में सिर झुकाते हैं उसी प्रकार से भारत की जनता भी उनके सामने सिर झुकायेंगी। ऐसी गलतफहमी जिस भी राजनीतिज्ञ की होती है उसकी राजनीति चौपट होनी निश्चित है, उसकी छवि पर आंच आनी निश्चित है, जनता का समर्थन घटना निश्चित है, जनता के बीच जगहंसाई होनी निश्चित है। गलतफहमी, खुशफहमी और अति महत्वाकांक्षा का दुष्परिणाम यह निकला कि कन्हैया कुमार धीरे-धीरे अप्रासंगिकता की ओर बढ़ने लगा, उनकी बातें फालतू और बेअर्थ लगने लगी, कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए कन्हैंया कुमार की बातें आत्मघाती भी बनती गयीं।
अमीरी की कब्र पर जन्मी गरीबी की घास बहुत जहरीली होती है। इसी तरह चमकने के बाद धूमिल होने की पीड़ा असहनीय होती है, खास होने के बाद गुमनाम होने का दर्द बहुत ज्यादा होता है, एक बार मिली कामयाबी के बाद बार-बार मिलती नाकामयाबी अवसाद को बढाती है। कन्हैया कुमार के साथ ऐसा ही हुआ है। हर राजनीतिक चुनाव में उसे जीत की उम्मीद बढ़ गयी, अपनी पार्टी में उसे आईकॉन बनने का भूत सवार हो गया, उसकी मानसिकता पार्टी को मुट्ठी में बांध कर चलने की हो गयी, पार्टी का अनुशासन और परमपरा उसके लिए कोई अर्थ नहीं रह गया, राजनीतिक सक्रियता में अनुशासन और परमपरा को बंधन और पिजड़ा मान लिया। उसे पिजड़े में रहना स्वीकार नहीं हुआ। उस पर अराजकता और स्वच्छंदता हावी हो गयी। राजनीतिक अराजकता और राजनीतिक स्वच्छंदता हर जगह नहीं चल सकती है, हर पार्टी में नहीं चल सकती है। राजनीतिक अराजकता और राजनीतिक स्वच्छंदता तो वंशवादी और जातिवादी राजनीति के घरानों में चल सकती है, जातिवादी और वंशवादी राजनीतिक घरानों में जन्म लेने वाले लोग ही राजनीति में अराजकता और स्वच्छंदता पर सवार हो सकते हैं, अराजकता और स्वच्छंदता के सहचर बन सकते हैं, अपनी-अपनी पार्टियों में उटपटांग राजनीतिक बयान दे सकते हैं, अपने सामने सभी को बौना समझ सकते हैं, सभी को एक लाठी से हांक सकते हैं, अपनी बात को पार्टी का कानून बना सकते हैं, जो मर्जी हो वह कर सकते है। जैसे कांग्रेस की वंशवादी राजनीति में राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, राजद में यशस्वी यादव और तेजप्रताप यादव , सपा में अखिलेश यादव, अकाली दल सुखबीर सिंह बादल, द्रमुक मे स्टालिन आदि हैं। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, यशस्वी यादव, अखिलेश यादव, सुखबीर सिंह बादल, स्टालिन आदि राजनीति में कुछ भी कर सकते हैं, क्योंकि उनकी पार्टी वंशवादी है और जातिवादी है, जिन पर एक ही खानदान का वर्चस्व होता है, एक ही खानदान की जागीर होती है, एक ही खानदान की पार्टी रखैल होती है उन पर वंशवादी और जातिवादी मानसिताएं मनोरजंन करती हैं। कन्हैया कुमार किसी वशवादी और जातिवादी पार्टी की उपज नहीं हैं और न ही कन्हैंया कुमार अपने आप को राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, तेजस्वी यादव, तेजप्रताप यादव, अखिलेश यादव, सुखबीर सिंह बादल और स्टालिन की श्रेणी में खड़े समझ समझ सकते हैं। कन्हैया कुमार उस राजनीतिक विचारधारा की उपज हैं जो कहने के लिए अंर्तराष्टीय है और देश की संस्कृति और सभ्यता से उसे कोई सरोकार नहीं है, जिन पर आयातित संस्कृति और मुल्लावाद हावी रहता है।
कन्हैया कुमार के अंदर वैचारिक प्रागढ़ता कभी थी नहीं, कन्हैया कुमार की पार्टी सीपीआई के पास भी वैचारिक प्रागढ़ता थी नहीं, कन्हैया कुमार को अपना आइकॉन मान लेने वाले अन्य कम्युनिस्टों के पास भी वैचारिक प्रागढ़ता थी नहीं, कन्हैया कुमार को नायक प्रत्यारोपित करने वाले मीडिया के पास भी वैचारिक प्रागढ़ता थी नही। इन सभी के पास राजनीति की न तो समझ थी और न ही कन्हैया कुमार जैसे पर राजनीतिक दांव खेलने की कला की समझ थी। कन्हैया कुमार के पास वैचारिक प्रागढ़ता होती तो निश्चित तौर पर वह कांग्रेस का दामन थामने के लिए ललायित नहीं होता, परेशान नहीं होता, वह राहुल गांधी की चरणवंदना करने के लिए मजबूर नहीं होता जो इतने सालो के बाद भी राजनीति मंें अभी भी मनोरंजन का ही पात्र है और अपना मुंह खोलता है तो फिर अपनी पार्टी का ही बड़ा नुकसान करता है। राजनीतिक परिपक्ता कोई हंसी-खेल की चीज नहीं है। राजनीतिक परिपक्वता तभी हासिल होता है जब कोई राजनीतिज्ञ सालों से मेहनत करता है, सालो से अपना समर्थन दिखाता है, अपनी वैचारिक प्रागढ़ता पर गर्व करता है, अपनी वैचारिक प्रागढ़ता पर अडिग रहता है। उम्र और अनुभव भी बहुत मायने रखती है। कन्हैया की अभी उम्र ही क्या थी, उसके पास अनुभव ही क्या था? अभी तो उसे राजनीति की दांव-पंेंच सीखने की जरूरत थी, अपनी वैचारिक प्रागढ़ता को मजबूत करने की जरूरत थी। लंबे संघर्ष की जरूरत थी, जनता की उपयोगी नीतियो पर काम करने की जरूरत थी। आम जनता जिन समस्याओ से आक्रांत है उन समस्याओं के खिलाफ संघर्ष करने की जरूरत थी। अगर ऐसा करने में कन्हैया कुमार सही में सक्षम होता तो निश्चित मानिये कि वह एक परिपक्व राजनीतिज्ञ बन सकता था?
माना कि कन्हैया कुमार ना समझ है, नासमझी में उसने अपने उपर गिरगिट वाली कहावत को बोझ बना डाला। लेकिन कन्हैया कुमार की भूतपूर्व पार्टी सीपीआई और अन्य कम्युनिस्ट कैसे और क्यों ना समझ बन गये, उनकी राजनीतिक समझदारी कैसे पराजिज हो गयी? सीपीआई और अन्य कम्युनिस्ट कन्हैंया कुमार को अपना आईकॉन माना ही क्यों था? उसे रातोरात सिर पर बैठाया ही क्यों? इसी का तो दुष्परिणाम सामने आया है। कम्युनिस्ट पाटियां और सभी प्रकार के कम्युनिस्ट अपने आप को दुनिया का सबसे बड़े विद्वान और दुनिया का सबसे बड़े समझ वाले समझते हैं। वे यह समझते हैं कि उनकी समझ को कोई चुनौती दे ही नहीं सकता है, उनकी समझ कभी भी पराजित हो नहीं सकती है। सोवियत संघ के विघटन और माओत्से तुंग की चीन में अर्थी निकलने और पूंजीवाद की स्थापना के बाद भी कम्युनिस्ट अपनी इस खुशफहमी से बाहर निकलने की कोशिश ही नहीं करते हैं। उनको समझाने वाले या फिर उनसे सहमत नहीं रहने वालों पर वह फौरन विफर पड़ते हैं, ये सामने वाले को तुरंत उपनिवेशवाद का दलाल, शोषण करने वाला सामंत और दंगाई-सांप्रदायिक घोषित कर अछूत बना डालेंगे। अब तक मान्य परमपरा यह थी कि कम्युनिस्ट पार्टियो मे कोई रातोरात आईकॉन नहीं बनता है, रातोरात किसी को पार्टी का बड़ा नेता नहीं स्वीकार कर लिया जाता, रातोरात किसी के पीछे पूरी पार्टी नही भाग सकती है। पर कन्हैंया कुमार के प्रसंग में कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस अपनी मान्य परमपरा को तोड़ा,रातोरत कन्हैंया कुमार के पीछे खडे हो गये। जेएनयू से बाहर नहीं निकलने वाले कन्हैया कुमार को बिहार के बेगुसराय से लोकसभा का टिकट थमा दिया गया। बेगुसराय में भारत के बड़े-बड़े कम्युनिस्टों ने डेरा जमा लिया, बासूरी और तबला वाले कम्युनिस्ट लड़के-लड़कियों की गीत, नाच और संगीत का ऐसा वातावरण बना दिया गया था कि कन्हैया कुमार की जीत तो सुनिश्चित है। जनता का नतीजा आया तब कन्हैंया कुमार और कम्युनिस्ट पूरी तरह बेनकाब हो चुके थे, उनकी उम्मीदें पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी थी, उनकी उड़ान की चाहत की कब्र बनी थी।
कम्युनिस्टों ने महात्मा गांधी की लगोटी और लाठी की ताकत को नहीं समझी थी। महात्मा गांधी को उपनिवेशवाद का दलाल तक कह डाला था। महात्मा गांधी का 1942 में भारत छोड़ों आंदोलन का विरोध कर कम्युनिस्टों ने देश की आजादी मंें गद्दारी की थी और अंग्रेजों का साथ दिया था। महात्मा गांधी की लंगोटी और लाठी की ताकत का अनादर करने का दुष्परिणाम कम्युनिस्टो ने झेला है, ये कभी भी देश के उपर राज करने के लायक नहीं समझें गये। फिर आप भारत को टूकड़े-टूकड़े करने का नारा देकर भारत पर कैसे शासन करने का अधिकार पा सकते हैं? जिस दिन कम्युनिस्टों ने कन्हैया कुमार के समर्थन वाले भारत तेरे टूक्ड़े होंगे हजार इंशा अल्ला, इंशा अल्ला के नारे का अप्रत्यक्ष समर्थन किया था और इस्लाम के प्रति अपनी गोलबंदी दिखायी थी उसी दिन कन्हैया कुमार का भविष्य निर्धारित हो गया था। कम्युनिस्ट पार्टियां हों या फिर कांग्रेस, यह समझ लें कि भारत की जनता भारत के हजार टूकड़े करने वाली मानसिकता का कभी समर्पण नहीं कर सकती है और न ही उन्हें भारत का शासक बनाने के लिए तैयार होगी।

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