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जन्मजयंती पर ——————– राष्ट्रकवि दिनकर: राष्ट्रीय चेतना का ओजस्वी स्वर

           * डॉ संजय पंकज

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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मुखर और विद्रोही कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आजादी मिलने के बाद राष्ट्रकवि हो जाते हैं।साहित्य में नैष्ठिक राष्ट्रीयता के तत्व होने से अपनी परंपरा, अपनी भूमि और अपने परिवेश से स्वाभाविक जुड़ाव होता है। शौर्य,साहस, पराक्रम और हुंकार दिनकर के कृतित्व में प्रकृत रूप से समाविष्ट हैं।उनके व्यक्तित्व का ओज उनके सृजन में सहज ही परिलक्षित होता है। अपने समय के सजग और सचेत कवि का स्वाभिमान और अस्मिता-बोध इन पंक्तियों में प्रकट हुआ है-
‘सुनूं क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा,
स्वयं युगधर्म का हुंकार हूं मैं!
कठिन निर्घोष भीषण अशनि का,
प्रलय गांडीव का टंकार हूं मैं!
दिनकर ‘हुंकार’ और ‘टंकार’ को पौरुषेय शब्द मानते थे।इनका स्त्रीलिंग प्रयोग उन्हें मान्य नहीं हुआ तभी तो उन्होंने इसे पुलिंग में प्रयुक्त किया। दिनकर ने
अपने कविकर्म को समय के साथ जोड़कर विस्तार देते हुए सार्थक किया है। उनकी रचनाओं में भारतीयता का सम्यक स्वर, संस्कृति का श्रेष्ठ राग, समृद्ध परंपरा का आलोक, विरासत का वैभव, पुरुषार्थ का गान और शौर्य का बहुरंग उजागर हुआ है।श्रेष्ठ कवि, सिद्ध गद्यकार, प्रभावशाली वक्ता, गंभीर चिंतक और पराक्रमी व्यक्तित्व दिनकर अपने ओज से सदा देदीप्यमान रहे। वे लेखन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी और गैर-सरकारी पुरस्कारों से बार-बार सम्मानित हुए। साहित्य अकादमी, पद्म भूषण, ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त दिनकर ने राज्यसभा के सांसद के रूप में अपने साहित्यिक दायित्व का व्यापक स्तर पर निर्वहन किया। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के आत्मीय होने के बावजूद उनकी कई नीतियों का खुलकर विरोध किया। चीनयुद्ध के समय ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ जैसा अग्नि काव्य रचने वाले कवि ने अपनी प्रसिद्ध कविता हिमालय के माध्यम से चीन को ललकारा और चुनौती दी –
रे,रोक युधिष्ठिर को न यहां
जाने दो उनको स्वर्ग धीर,
पर फिरा हमें गांडीव – गदा
लौटा दे अर्जुन, भीम वीर!
तो दूसरी ओर नेहरू को भी संबोधित करते हुए दो टूक कहा-
‘दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है!
दिनकर की गहन अध्ययन पूर्ण महान गद्यकृति ‘संस्कृति के चार अध्याय’ इतिहास, दर्शन, चिंतन की दृष्टि से भी विशिष्टतम, अतुलनीय और अनुपम ग्रंथ है।
दिनकर के विपुल साहित्य-सृजन में राष्ट्र, प्रेम, जीवन, सौंदर्य, राजनीति, इतिहास, प्रकृति, दर्शन और अध्यात्म अपने यथार्थ के साथ प्रस्तुत हुए हैं। रेणुका, हुंकार, सामधेनी, नील कुसुम, चक्रवाल, रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र जैसे काव्य संग्रहों के प्रणेता की चेतना का विस्तार महाकाव्य ‘उर्वशी’ में देखने योग्य है। जीवन-सौंदर्य और अंतर्राग का अद्भुत यह महाकाव्य भाव वैभव और भाषा शिल्प के कारण भी अनमोल है। प्रबंध काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ युद्ध के वैश्विक संकट का बड़ा ही संतुलित वैचारिक समाधान है। शांति के मार्ग को श्रेष्ठ बताते हुए दिनकर ने युद्ध को सर्वथा निंदनीय माना है। ‘रश्मिरथी’ प्रतिभा और तेज को सम्मानित करने वाली तथा दलित विमर्श का द्वार खोलने वाली विवेकपूर्ण काव्यकृति है। आज भी सबसे ज्यादा दिनकर की पंक्तियां ही बुद्धिजीवियों से लेकर सामान्य पढ़े-लिखे तक में सूक्तियों के रूप में उद्धृत की जाती है। दिनकर की रचनाधर्मिता में समय की अंगड़ाईयों के साथ ही भव्य अतीत के स्वर्ण अध्याय और स्वप्निल भविष्य के आकार भी उपलब्ध होते हैं। भारत की समुचित और सुंदर अंतस्तात्विक परिभाषा देने वाले दिनकर ने प्रेम को सर्वोपरि माना है –
भारत नहीं स्थान का वाचक गुण विशेष नर का है,
किसी एक देश का नहीं शील यह भूमंडल भर का है,
जहां कहीं एकता अखंडित जहां प्रेम का स्वर है,
देश देश में वहां खड़ा भारत जीवित भास्वर है।’
कायरता को दीनता मानने वाले इस कवि ने पुरुषार्थ को राष्ट्रीय विकास के लिए अनिवार्य माना है। इतिहास की भूलों पर क्षोभ व्यक्त करते हुए दिनकर ने- ‘अंधा चकाचौंध का मारा, क्या जाने इतिहास बेचारा’ लिखा तो शोषित पीड़ित दमित के लिए उन्होंने पूंजीवाद को ललकारा भी-

‘हटो व्योम के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
दूध दूध ओ वत्स तुम्हारा, दूध खोजने हम जाते हैं!’
दिनकर के चिंतन पर वैदिक और आर्ष – भावधारा के साथ ही विवेकानंद,अरविंद, नजरुल इस्लाम, गांधी और मार्क्स के प्रभाव को देखा जा सकता है लेकिन सर्वोपरि है उनका मूल्य, मनुष्यता और राष्ट्रप्रेम। सुदृढ़ राष्ट्र के समग्र विकास और जीवन के समग्र विस्तार के लिए उन्होंने साहस के साथ सत्य के पक्ष में खड़ा होने के लिए आह्वान किया-
‘समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।’
दिनकर ने बच्चों के लिए भी भरपूर साहित्य सृजन किया किया। युवाओं को प्रेरित करने और ऊर्जावान बने रहने के लिए उन्होंने कविता के साथ ही गद्द-लेखन भी खूब किया।राष्ट्र के लिए बौद्धिक क्षमता के साथ ही शारीरिक शौर्य भी अनिवार्य है। दिनकर ने लिखा –
दो में से क्या तुम्हें चाहिए कलम या कि तलवार?
मन में ऊंचे भाव कि तन में शक्ति अजेय अपार!
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊंचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान!
दिनकर युगस्रष्टा समर्थ रचनाकार तो थे ही; उन्होंने समय का अध्ययन करते हुए भारत के स्वर्णिम और वैभवशाली भविष्य के भी दर्शन कर लिए थे। वे युगद्रष्टा और क्रांतदर्शी महाकवि थे। उनको जिस तरह से भारत के अतीत पर अभिमान था उसी तरह भावी भारत को विश्वगुरु के रूप में वे साफ साफ देख रहे थे और गौरवान्वित हो रहे थे। भारत की ज्ञान-संपदा कभी रिक्त नहीं हुई बल्कि निरंतर समृद्ध होती रही। सभ्यता और संस्कृति की पराकाष्ठा पर पहुंचा भारत विभिन्न ज्ञानधाराओं को सतत अर्जित करता हुआ विश्व को उदारता तथा आत्मीयता से अर्पित करता रहा।आज भारत अपने ज्ञान-विज्ञान और पराक्रम से विश्व के लिए विशेष है। शील, सौंदर्य, सद्भाव और करुणा का यह विराट देश भारत अपनी प्रतिभाशाली संततियों के बूते संपूर्ण विश्व में गर्वोन्नत होकर खड़ा है। सबका विश्वास भारत राष्ट्रकवि दिनकर की चेतना में जो उतराया तो लेखनी में इस युग-सत्य के साथ उतर गया –
एक हाथ में कमल एक में धर्मदीप्त विज्ञान,
लेकर उठने वाला है धरती पर हिंदुस्तान!
संसार को कर्मस्थल स्वीकारते हुए दिनकर मानवीय संवेदनाओं को सर्वोपरि मानते थे और मनुष्य जीवन की सार्थकता को मानवीय, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक सेवा में देखते थे।वे कर्तव्य निर्वहन करने वाले सच्चे राष्ट्रवादी योद्धा और संन्यस्त भाव के बड़े मनुष्य थे। जीवन-संघर्ष से पलायन उन्हें स्वीकार नहीं था। उन्होंने लिखा –
धर्मराज! कर्मठ मनुष्य का पथ संन्यास नहीं है,
नर जिस पर चलता वह धरती है आकाश नहीं है!


‘शुभानंदी’
नीतीश्वर मार्ग, आमगोला

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