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एकाग्र मन ही आनंद प्राप्ति का पथ

आनंद के वासस्थान और उसके पथ में प्रतिष्ठित होने के लिए इसे चार विभिन्न स्तरों में विभाजित किया जा सकता है। और प्रत्येक स्तर को पार करने के लिए प्रत्येक स्तर पर एक विशेष कार्य शैली के साथ एक विशेष प्रकार की प्रेरणा और बल की जरूरत होती है। मनुष्य केवल प्रयास कर सकता है। ईश्वर यदि उसके प्रयास से खुश होते हैं, तब वे उसकी सहायता कर देंगे। मनुष्य का कर्तव्य सिर्फ अपने प्रयासों द्वारा ईश्वर को खुश रखना है । यदि कोई कर्म सम्पन्न होता है तो उसका श्रेय सम्बन्धित साधक को नहीं, ईश्वर को देना चाहिए। मनुष्य को हमेशा उन्हें खुश करके उनकी कृपा प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए, सिर्फ इसी से उसका उद्देश्य पूरा हो जाएगा।

प्रथम स्तर पर तुम्हें ईश्वर को जानना है। परमतत्व को सभी प्रभुओं के प्रभु के रूप में जानना है। इस स्तर पर तुम्हें अपनी सारी चेष्टाओं के साथ अधिक से अधिक मनुष्यों को, अधिक से अधिक आध्यात्मिक साधकों को इस शुभ कर्म पथ पर अपने साथ लाने का प्रयास करना चाहिए। और दूसरे स्तर की बाधा न केवल मानव वृत्तियों अथवा जैव वृत्तियों से है, बल्कि जैव और अजैव दोनों सत्ताओं से सम्बंधित है। यानी तुम उन अजैव सत्ताओं की अवहेलना भी नहीं कर सकते, क्योंकि वे भी कुछ विशेषताओं से निर्देशित होती हैं। यदि तुम उनकी अवहेलना करते हुए उनकी विशेषताओं के विरुद्ध जाओगे तो वे तुम्हारे खिलाफ विद्रोह कर देंगी, जिसके परिणामस्वरूप स्थिति भयावह हो सकती है। दूसरे स्तर की अवस्था में यह स्मरण रखना चाहिए कि तुम्हारे अस्तित्व का प्रत्येक अणु-परमाणु, अस्तित्व का प्रत्येक अंश उसी परमसत्ता का अंश है। अगले चरण में वे सिर्फ प्रभुओं के प्रभु ही नहीं हैं, वे तुम्हारे परमस्रष्टा भी हैं।

जब मनुष्य तीसरे स्तर पर पहुंच जाता है, तब उसके विकास की गति और तीव्र हो जाती है। यह तीसरा स्तर मानसिक आभोग से सम्बन्धित है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस स्तर पर तीव्र प्रगति होती है, किन्तु पतन की भी अत्यन्त सम्भावना बनी रहती है। प्रत्येक पग पर ही अत्यंत सजग होकर चलने की जरूरत है। इस स्तर पर आध्यात्मिक साधक कुछ सिद्धियों को प्राप्त करते हैं, किन्तु ये सिद्धियां साधकों की कुछ प्रगति के बाद खतरनाक भी हो सकती हैं। यहां पर साधक द्वारा सिद्धियों के दुरुपयोग की सम्भावना बनी रहती है, जिसके कारण साधक का पतन हो जाता है। अत: इस स्तर पर साधकों के लिए बाहर से भी और भीतर से भी बाधाएं और कठिनाइयां आती हैं। इसके लिए उन्हें सम्पूर्ण रूप से ईश्वर की कृपा के ऊपर ही निर्भर रहना पड़ेगा।

इस स्तर पर मानसिक शक्ति की आवश्यकता पहले से ज्यादा महसूस होती है, किन्तु मानसिक शक्तियों को प्राप्त करना एक कठिन काम है। हालांकि जिन्होंने ईश्वर के समक्ष आत्मसमर्पण करना सीख लिया है, जिन्होंने यह अनुभव कर लिया है कि वे ईश्वर की इच्छा से इस धरती पर आए हैं और उनकी इच्छा से ही उनकी अनुभूति प्राप्त करने के लिए प्रयासशील हैं, उनके लिए इन मानसिक शक्तियों को प्राप्त कर लेना अत्यंत आसान है। इस अवस्था में आध्यात्मिक साधक परमतत्व को सिर्फ अपने प्रभु के रूप में ही नहीं, केवल स्रष्टा के रूप में भी नहीं, बल्कि परमगुरु के रूप में देखेंगे, जो अंधकार को दूर करने में समर्थ हैं। चौथा स्तर कुशाग्र बुद्धि का स्तर है, जहां सभी लक्ष्य, समस्त पदार्थ जगत, सभी आभोग एक बिन्दु में समाहित हो जाते हैं, अर्थात् मन बिन्दुभूत हो जाता है, एकाग्र हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि बिन्दुभूत मन ही आनंद प्राप्ति का पथ है।

प्रस्तुति: दिव्यचेतनानन्द अवधूत

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