भारतीय स्वाधीनता का अमर नायक राजा दाहिर सेन, अध्याय – 9 (ग ) की गई भारत के योद्धाओं की हत्याएं

यही कारण था कि अरब के सैनिक बड़ी नृशंसता और निर्दयता के साथ भारतीय सैनिकों की हत्या करते जा रहे थे। नरसंहार को भी इस्लाम की सेवा मानने वाले इन राक्षसों के लिए सोते हुए सैनिकों की हत्या करना भी आनन्द का विषय बन चुका था। जब नीचतापूर्ण कृत्य आनन्द का विषय बन जाए तब समझ लेना चाहिए कि अब मानवता के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है। ऐसे क्षणों को इतिहास को बड़ी सूक्ष्मता, गंभीरता के साथ देखना चाहिए। इतिहास को कभी भी नीचतापूर्ण कृत्य करके अपना विजय घोष कराने वाले विजयी योद्धा को विजयी स्वीकार नहीं करना चाहिए। उसे मानवता के लिए काम करने वाले वीरों के साहस, शौर्य और पराक्रम का अवलोकन करते हुए शत्रु के द्वारा इतिहास की मान्य परंपराओं का उल्लंघन करने और छल-बल द्वारा प्राप्त की गई विजय को भी एक ‘आपराधिक विजय’ के रूप में वर्णित करना चाहिए।
अरबी सेना के दरिंदे हमारे सैनिकों का संहार करते जा रहे थे । यदि तलवार छाती में घुसने पर हमारे किसी सैनिक की कोई चीख भी निकलती थी तो उसमें भी इन राक्षसों को आनन्द की अनुभूति होती थी।भारतीय इतिहास का कितना दुर्भाग्य है कि नृशंसता, निर्दयता और पाशविकता के पर्याय बने इन राक्षसों के इस दुस्साहस को भी उसके पृष्ठों पर उनकी वीरता के रूप में स्थापित किया गया है ? जबकि माँ भारती के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले सैनिकों की चीखों को भी इनकी तलवारों की खनखनाहट के नीचे छुपा दिया गया है।
इस प्रकार के नीचता पूर्ण अमानवीय कृत्यों का मुस्लिम और कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने वर्णन करते हुए ऐसे दरिंदे अरबी सैनिकों या सेनापतियों या अन्य इस्लामिक आक्रमणकारियों को अदम्य साहस, शौर्य और वीरता का प्रतीक कहकर महिमामंडित किया है।
जबकि भारत ने उन लोगों को अदम्य साहस, शौर्य और वीरता का प्रतीक माना है जो मानवता के लिए काम करते हैं और उन राक्षसों का संहार करते हैं जो मानवता के विरुद्ध कहीं अपराध करते हुए पाए जाते हैं। इस दृष्टिकोण से यदि निरीक्षण ,परीक्षण और समीक्षण किया जाएगा तो इस समय अदम्य साहस, शौर्य और वीरता के प्रतीक भारत के वीर सैनिक ही थे ना कि अरबी सैनिक। क्योंकि भारत के वीर सैनिक जागते हुए जहाँ अपने कर्तव्य का वीरतापूर्ण संपादन कर रहे थे वहीं सोते हुए मौन आहुति के रूप में राष्ट्रवेदी पर अपने बलिदान दे रहे थे। जबकि शत्रु पक्ष का लुटेरा दल जागते हुए भी हिंसा और अपराध कर रहा था और सोते हुए सैनिकों की हत्या करके तो और भी अधिक घृणास्पद कार्य कर रहा था।

अनेकों देश भक्तों ने दिया बलिदान

सोते हुए सैनिकों की सुरक्षा के लिए खड़े कुछ भारतीय सैनिकों ने जब शत्रु पक्ष के इस प्रकार दुर्ग में प्रवेश पा जाने के रहस्य को समझा और शोर मचाकर उन पर टूट पड़ने की अपनी स्फूर्ति का परिचय दिया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। हमारे अनेकों योद्धा तब तक स्वर्ग सिधार चुके थे । मुट्ठी भर सैनिक नींद से उठे तो अवश्य परन्तु जब तक वह अपनी तलवार या अस्त्र शस्त्र लेकर शत्रु पक्ष पर टूटते तब तक उन संभलकर उठने वालों में से भी अनेकों योद्धा अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान देकर स्वर्ग सिधार गए थे।
वास्तव में इस प्रकार के छलपूर्ण युद्ध में जितने योद्धा मारे गए वह किसी सैनिक या सैनिकों के किसी समूह की हत्या नहीं थी, अपितु वीरता की हत्या थी, पराक्रम, देशभक्ति और शौर्य की हत्या थी। वीरता की इस प्रकार की सामूहिक हत्या ने हमारे राजा दाहिर सेन को बहुत अधिक क्षति पहुंचाई। उस योद्धा ने जिस बात की कल्पना तक नहीं की थी- वह अब उसके सामने साक्षात रूप में खड़ी थी। यह अलग बात है कि इस सबके उपरान्त भी उसका शौर्य और साहस टूटा नहीं था।
इतिहास की इस घटना से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि जीवन एक उत्सव है, संघर्ष नहीं। इस उत्सव को मनाने के लिए जीवन में उत्साह, उमंग और उल्लास सदा बना रहना चाहिए। जो लोग जीवन में स्वार्थों के वशीभूत होकर उत्साह ,उल्लास और उमंग को खरीदने का प्रयास करते हैं और इनके लिए छल कपट का ताना-बाना बुनते हैं, वह अपने ही ताने बाने में उलझकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। जबकि जिन के लिए वह ऐसे ताने-बाने बुन रहे होते हैं वे देश, काल, परिस्थिति के अनुसार फिर उभरकर सामने आते हैं और लोग इस प्रकार के ताने-बाने बुनने वाले पर थूकते हैं और जिसके विरुद्ध ऐसा ताना-बाना बुना गया था उस पर व उसके स्मारकों पर युगों तक पुष्प चढ़ाते हैं।
अपने निहित स्वार्थों के वशीभूत होकर ज्ञानबुद्ध और वासवदेव ने चाहे कुछ भी कर दिया हो पर आज लोग उनके नाम तक से घृणा करते हैं, उन पर थूकते हैं। राष्ट्रद्रोही और धर्मद्रोही लोग कभी भी सम्मान नहीं पा सकते। कुछ समय के लिए उन्हें चाहे सुख और शांति का अनुभव हो जाए पर उनकी आत्मा को युग युगों तक इस प्रकार किए गए अपराध का पाप भोगना ही पड़ता है । इन राष्ट्रद्रोही लोगों को आने वाली पीढियां युगों तक उपेक्षापूर्ण हेयदृष्टि से देखती हैं । जबकि राजा दाहिर सेन को आज देश के अनेकों लोग अपना आदर्श राष्ट्र नायक मानते हैं।

उत्सव और उत्सर्ग का अद्भुत मेल

राजा दाहिर सेन के अनेकों सैनिकों ने संघर्ष को भी उत्सव के रूप में जिया और उत्सव मनाते – मनाते जीवन मृत्यु को सौंप दिया। वैसे तो जीवन मृत्यु को सौंपना बड़ा कठिन होता है, परंतु ‘दाधीच परम्परा’ वाले भारत के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। जहाँ लोक कल्याण के लिए हड्डियों का दान करने की अनोखी और अद्भुत परम्परा है । मेरा भारत इसीलिए महान है कि यह अनोखी और अद्भुत परम्पराओं का देश है । जिन परम्पराओं की दूसरे देश कल्पना तक नहीं कर सकते, उनका निर्वाह मेरे भारत ने हंसते-हंसते किया है।

जिंदगी एक जश्न है तू गीत के साथ मनाए जा।
यह जिंदगी है कौम की तू कौम पर लुटाए जा।।

यह ध्यान रहे कि जब जीवन को उत्सव के रूप में मनाते हुए मृत्यु को सौंपा जाता है तो वह मृत्यु सामान्य मृत्यु न रहकर बलिदानी परम्परा में किया जाने वाला उत्सर्ग हो जाता है। इस प्रकार भारतवर्ष में उत्सर्ग और उत्सव का बड़ा गहरा मेल है। उत्सर्ग और उत्सव को समानार्थक बनाकर स्वीकार करने को यदि संसार की तथाकथित सभ्य जातियां या देश किसी से सीखना चाहते हैं तो वह केवल भारत से ही सीख सकते हैं। जो लोग इस मेल को समझ लेते हैं वे उत्सर्ग करने वाले बलिदानी हो जाते हैं और जो इस उत्सव से बचकर किसी ऐसे स्वार्थ में फंसते हैं जो उन्हें तात्कालिक लाभ दिला सकता है, वह बे आयी मौत मारे जाते हैं। हमने उत्सर्ग और उत्सव के मेल से मृत्यु को जीतने की अनोखी मिसालें कायम की हैं।
हमारी यह अनोखी मिसालें विश्व इतिहास की गौरवमयी धरोहर हैं । जिन्हें विश्व कौतूहल की दृष्टि से देखता है। राजा दाहिर सेन के जिन सैनिकों ने सोते हुए अपनी मौन आहुति दी, उन्हें हमें विश्व इतिहास की इसी गौरवमयी धरोहर रूप में देखना चाहिए और अपने इतिहास में इसी प्रकार का सम्मान पूर्ण स्थान देना चाहिए।
जीवन के कुछ मोर्चों पर व्यक्ति को लड़ने के लिए सदा उद्यत रहना चाहिए। क्योंकि जीवन के कुछ मोर्चे ऐसे होते हैं जो जीवन को उत्सव में परिवर्तित करने की क्षमता और सामर्थ रखते हैं। इतिहास पर अपनी दृष्टि गाड़कर काम करने वाले लोग अवसरों को पहचानते हैं और जब उचित अवसर उनके प्राणों का भी ग्राहक बनकर उनके सामने आता है तो वे उसे सहज रूप में अपना जीवन सौंप देते हैं । जब इस महान घटना पर इतिहास की दृष्टि जाती है तो वह भी इन महान क्षणों को देश की आने वाली पीढ़ियों के लिए एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करता है ।
जो व्यक्ति लड़ना नहीं जानता, युद्ध उसी पर थोपा जाता है या उसको सबसे पहले मारा जाता है।
ज्ञानबुद्ध और वासवदेव चाहे चंद सिक्कों में बिक गए हों, लेकिन इतिहास ने उनको मार दिया। ज्ञानबुद्ध जिस तथाकथित अहिंसा की दुहाई देकर युद्ध से भागना चाहता था उसके विषय में तो बहुत पहले कृष्ण जी ने अर्जुन को समझाया था कि जब किसी समस्या का समाधान शांतिपूर्ण उपायों से नहीं होता, तो फिर युद्ध ही एकमात्र विकल्प बच जाता है। कायर लोग युद्ध से पीछे हटते हैं। जबकि यहाँ तो ज्ञानबुद्ध न केवल कायर है बल्कि वह देश के प्रति गद्दार भी है।

मंजिल मिलेगी एक दिन
तू कदम कदम बढ़ाए जा।
खतरा वतन पर देखकर
सर्वस्व देश पर लुटाए जा।।

  निश्चय ही ज्ञानबुध्द और उसके अन्य साथियों को यह बात समझनी चाहिए थी कि न कोई मरता है और न कोई मारता है। सभी निमित्त मात्र हैं। आत्मा अजर और अमर है… इसलिए मरने या मारने से क्या डरना?
उनके लिए यह बात तब तो और भी अधिक समझने योग्य थी जब राष्ट्र और संस्कृति की सेवा का प्रश्न उनके समक्ष खड़ा था।

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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