पश्चिमी संस्कृति को बढ़ावा देती व्यक्तिगत आजादी

भरत झुनझुनवाला

अमेरिका और भारत समेत अन्य पश्चिमी देशों द्वारा तालिबान की भर्त्सना यह कहकर की जा रही है कि उनके द्वारा वैयक्तिक स्वतंत्रता विशेषकर महिलाओं की स्वतंत्रता का आदर नहीं किया जाता है और वे लोकतंत्र के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य को नहीं मानते। नि:संदेह तालिबानी कई तरह से अपनी जनता के साथ क्रूर व्यवहार करते हैं। लेकिन दूसरी तरफ यह भी देखने में आता है कि चीन द्वारा वैयक्तिक स्वतंत्रता के इसी मानवीय मूल्य को न मानने के बावजूद वहां की जनता अपनी सरकार के प्रति समयक्रम में उत्तरोत्तर अधिक प्रसन्न एवं संतुष्ट दिखती है। वह देश उत्तरोत्तर आर्थिक प्रगति भी कर रहा है। रूस, उत्तर कोरिया और सऊदी अरब जैसे देशों द्वारा भी इन मूल्यों को अमान्य किया जा रहा है। तो क्या जनहित हासिल करने के लिए वैयक्तिक स्वतंत्रता की पश्चिमी परिभाषा और चुनावी लोकतंत्र ही एकमात्र रास्ता है अथवा इसके विकल्प भी हैं? लोकतंत्र के पीछे मान्यता है कि इससे जनता का हित हासिल होता है। अतः जनता के हित हासिल करने के दूसरे रास्तों को नकारा नहीं जा सकता।

वैयक्तिक स्वतंत्रता पर अमेरिका के दोगले विचार का संकेत पेटेंट कानूनों से मिलता है। बीते 5 हजार वर्षों से मनुष्य ने तमाम आविष्कार किये हैं, जैसे गाड़ी का गोल पहिया, कांच के बर्तन इत्यादि। बीते 500 वर्षों में मनुष्य ने प्रिंटिंग प्रेस इत्यदि का आविष्कार किया है। इन आविष्कारों पर कोई पेटेंट नहीं था। दूसरे मनुष्य इन आविष्कारों की नकल कर इन्हें बनाने को स्वतंत्र थे। नकल करने से आविष्कारों का सिलसिला भी थमा नहीं बल्कि नये आविष्कार होते ही रहे हैं। लेकिन अमेरिका की अगुआई में 1995 में विश्व व्यापार संगठन के अंतर्गत नक़ल करने की इस वैयक्तिक स्वतंत्रता पर रोक लगा दी गयी। साथ-साथ आविष्कारक की वैयक्तिक स्वतंत्रता को और सुदृढ़ कर दिया गया। अपने आविष्कार को मनचाहे मूल्य पर बेचने की उसकी वैयक्तिक स्वतंत्रता को सुरक्षित कर दिया गया। इस प्रकार वैयक्तिक स्वतंत्रता की अंतर्विरोधी परिभाषा बनायी गयी। सिद्धांत था कि इससे व्यक्ति स्वतंत्रतापूर्वक अपना हित हासिल कर सकेगा। लेकिन व्यक्ति की अपना हित हासिल करने की वैयक्तिक स्वतंत्रता को अाविष्कारक की वैयक्तिक स्वतंत्रता की वेदी पर बलि चढ़ा दी गयी। प्रत्यक्ष उदहारण हमें कोविड वैक्सीन में देखने को मिल रहा है। वैक्सीन को महंगे मूल्यों पर बेचकर फाइजर आदि कम्पनियों ने भारी लाभ कमाए हैं और इनकी नकल करने की स्वतंत्रता बाधित होने से आम आदमी को यह महंगे मूल्य पर उपलब्ध हो रही है। वैक्सीन के नये आविष्कार नहीं हो पा रहे हैं। बतातें चलें कि पूर्व में अपने देश में दवा की नकल कर बनाने की छूट थी। इस छूट का उपयोग करके भारतीय कम्पनियों ने उन्हीं दवाओं को बहुत कम मूल्य पर बनाया, जिन्हें पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां महंगे मूल्य पर बना रही थीं। इस प्रकार भारतीय कम्पनियों की नकल करने की स्वतंत्रता को बाधित करने से दवाओं का वर्तमान मूल्य बढ़ा हुआ है। यदि कोविड के टीके की नकल करने की भारतीय कम्पनियों को छूट दे दी जाए तो यह टीका सस्ते मूल्य पर उपलब्ध हो सकता है।

दूसरा उदाहरण श्रम बाजार का लें। वैयक्तिक स्वतंत्रता में एक स्वतंत्रता एक देश से दूसरे देश को पलायन करने की भी है। लेकिन अमेरिका द्वारा प्रसारित स्वतंत्रता के माडल में किसी भी देश के अंदर व्यक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पलायन करने का अधिकार होता है लेकिन किसी व्यक्ति को एक देश से दूसरे देश को पलायन करने का अधिकार नहीं होता है। संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग की सार्वभौमिक उद‍्घोषणा की धारा 13.1 में कहा गया है कि हर व्यक्ति को अपने देश की सरहद में यात्रा करने की छूट होगी। लेकिन दूसरे देश में यात्रा करने को छूट उपलब्ध नहीं है। यानी यात्रा अथवा पलायन करने का कथित रूप से ‘अंतर्राष्ट्रीय’ मूल्य ही अंतर्राष्ट्रीय नहीं रह गया है। इस ‘अंतर्राष्ट्रीय’ मूल्य को ‘राष्ट्रीय’ सीमा में बांध दिया गया है। जबकि माल को एक देश से दूसरे देश में ले जाने की पूर्ण स्वतंत्रता है। इस प्रकार माल की अथवा उसके मालिक की वैयक्तिक स्वतंत्रता स्थापित की गई लेकिन मनुष्य की वैयक्तिक स्वतंत्रता बाधित की गई है। अमेरिका द्वारा प्रतिपादित वैयक्तिक स्वतंत्रता का अंतर्राष्ट्रीय मूल्य वास्तव में पश्चिमी देशों के आर्थिक हितों को सुरक्षित करने का एक रास्ता मात्र है। इसमें ‘अंतर्राष्ट्रीय’ कुछ भी नहीं है।

दूसरा कथित अंतर्राष्ट्रीय मूल्य लोकतंत्र का कहा जाता है। यहां भी अंदर और बाहर का भेद है। आज से लगभग एक दशक पूर्व न्यूजवीक पत्रिका में सैमुअल हंटिंग्टन ने कहा कि इस्लामिक देशों के लोग अमेरिका के प्रति नकारात्मक हैं क्योंकि पश्चिमी देशों ने मुस्लिम देशों पर 20वीं सदी में घोर शोषण किया है। इसी क्रम में क्रिस्टोफर डिकी ने एक दूसरे लेख में लिखा कि ‘अरब देश के वे तानाशाह और अमीर जो अमेरिका के प्रति नरम हैं, वे अपने ही देश के लोगों के लोकतंत्र के अधिकारों का खुलकर हनन करते हैं।’ उन्होंने सऊदी राजशाही परिवार के एक सदस्य के हवाले से बताया कि ‘आप लोकतंत्र की इच्छा न करें। क्योंकि यदि अरब देशों में लोकतंत्र स्थापित हो जाएगा तो हर देश आपके विरुद्ध खड़ा हो जाएगा।’ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 5 सदस्यों को वीटो दिया जाना भी लोकतंत्र के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य के पूर्णतया विपरीत है। अत: अमेरिका द्वारा वैयक्तिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र के मूल्यों को उतना ही प्रसारित किया जाता है, जितना कि अमेरिका के अपने आर्थिक हितों को साधने में सहायक होता है।

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