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हिंदी दिवस का औचित्य और हिंदी भाषा की महत्ता

हिंदी दिवस पर विशेष आलेख।

जितनी विद्या भूगोल में फैली हैं ,वह सब आर्यवर्त देश से मिश्र वालों यूनानी उनसे रोम और उनसे यूरोप देश में तथा उनसे आगे अमेरिका आदि देशों में फैली है (महर्षि दयानंद सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास)
अब इसमें विवाद नहीं है की विद्या का मूल स्थान भारतवर्ष में पाया जाता है और संभवत यह शिक्षा वहां से मिश्र में फैली। मिश्र से पुरातन ईरान तथा चाईल्डिया, अरब ,यहूदी जाति को प्रभावित किया। फिर यूनान तथा यूरोप के दक्षिण भाग में प्रविष्ट हुई। अंत को चीन और अमेरिका भी पहुंची ( सीक्रेट हर्ट बुक, मीटर लिंक लेखक, पृष्ठ)
सब विद्याओं और भाषाओं का भंडार आर्यवर्त देश है। सब विद्या और मत इसी देश से फैले हैं। परमेश्वर जैसी उन्नति आर्यवर्त देश की पूर्व काल में थी वैसी ही हमारे देश की कीजिए
(पुस्तक बायबल इन इंडिया, गोल्डस्टकर लेखक)

जैसी पूरी विद्या संस्कृत में हैं वैसे किसी भाषा में नहीं। मैंने अरबी आदि बहुत सी भाषाएं पढ़ी, परंतु मेरे मन का संदे ह छूटकर आनंद न आया ।जब संस्कृत देखा और सुना तब निसंदेह होकर मुझको बड़ा आनंद हुआ है ।
(लेखक दारा शिकोह उपनिषदों का भाषांतर पुस्तक)
परंतु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत के युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक यह अपनी पूर्व दिशा में नहीं आया क्योंकि जब भाई भाई को मारने लगे तो नाश होने में क्या संदे ह ।
विनाश काले विपरीत बुद्धि
जब बड़े-बड़े विद्वान, राजा, महाराजा, ऋषि , महर्षी लोग महाभारत में मारे गए तो विद्या और वेदों को धर्म का प्रचार नष्ट हो चला। इसलिए भारत अथवा आर्यावर्त की सभ्यता संस्कृति आर्य धर्म, आर्य भाषा ,संस्कृत व उसकी व्युत्पन्न हिंदी का ह्रास हुआ है।
( महर्षि दयानंद सत्यार्थ प्रकाश एकादश समुल्लास)
आज भारत के अतिरिक्त कोई अन्य देश ऐसा नहीं है जहां उसकी निजी राजभाषा न हो।करोड़ों भारतीयों की मातृभाषा हिंदी होते हुए भी राजभाषा, राष्ट्रभाषा व्यवहारिक रूप में नहीं बन पाई है ।राजभाषा का सम्मान यद्यपि संविधान प्रदान करता है परंतु व्यवहार व आचरण में नहीं है।
हिंदी को विश्व की एकमात्र समृद्ध भाषा संस्कृत से उत्तराधिकार प्राप्त हुआ है। जब संस्कृत से ही हिंदी और हिंदी से अन्य भाषाओं का जन्म हुआ है तब संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है। परंतु इस भाषा हिंदी को उचित सम्मान भारत में ही नहीं मिला।
बहुत से विद्वानों का मत है कि हिंदी में उन्नति संभव नहीं है। अंग्रेजी में विकास है, ऐसा तर्क निराधार एवं अनुचित है।
एक दृष्टिपात भाषाओं पर करें तो एशिया महाद्वीप के 48 देशों की राजभाषा अंग्रेजी नहीं है। अफगानिस्तान की भाषा पश्तो, तुर्की की तुर्की, कंबोडिया की ख मेर , श्रीलंका कीसिंहली और तमिल, कोरिया की कोरियाई, चीन व ताइवान की मंदारिन, ओमान ,सऊदी अरब, सीरिया ,ईरान ,जॉर्डन ,यमन, बहरीन ,कतर, कुवैत की भाषा अरबी ,ईरान की फारसी, इजरायल की हिब्रू, आर्मीनिया की आर्मनियन न, अजरबैजान की अजर राजभाषा है । यह देश खूब उन्नति कर रहे हैं तो फिर हिंदी के साथ ऐसा क्यों जोड़ा जाता है।
दक्षिण अमेरिका के 12 देशों में से 9 की भाषा स्पेनिश ,ब्राजील की पुर्तगाली है। इसी प्रकार यूरोप के 46 देशों में से 40 की भाषा अंग्रेजी नहीं है। डेनमार्क की डेनिश, रूस की रूसी , स्वीडन की स्वीडिश, ऑस्ट्रेया, जर्मनी की जर्मन, इटली की इटालियन , ग्रीस की ग्रीक, फ्रांस की फ्रेंच ,स्पेन की स्पेनिश है ।केवल एक देश ब्रिटेन की भाषा अंग्रेजी है। अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप में भी अंग्रेजी नहीं है ।इस प्रकार यह कहना निसार है कि केवल अंग्रेजी विश्व भाषा का दर्जा रखती है।भारत के अलावा और कोई देश अंग्रेजी को वरीयता नहीं देते परंतु वे राष्ट्र फिर भी उन्नति शील हैं या उन्नत राष्ट्र हैं।
हमारे यहां भारतवर्ष में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में बच्चों को पढ़ाई जाने की होड़ लगी है।
संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव पारित किया ,लेकिन 15 वर्ष तक अंग्रेजी में कामकाज करना अनिवार्य रखा ।संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि हमने संविधान में अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी को राजभाषा रखा है।
जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में कहा कि हमने अंग्रेजी को इसलिए रखा है कि वह विजेताओं की भाषा थी ।इस कारण नहीं कि वह महत्वपूर्ण भाषा है। अंग्रेजी कितनी ही महत्वपूर्ण हो हम उसे सहन नहीं कर सकते।
सेठ गोविंद दास ने कहा कि हजारों वर्षों से यहां एक संस्कृति है। देश में एक भाषा और एक लिपि होना आवश्यक है।
अलगू राय शास्त्री ने कहा कि अंग्रेजी हुकूमत गई। अब भाषा भी भारतीय होनी चाहिए। हम एक राष्ट्र हैं, हमारी एक भाषा होनी चाहिए।
बी,आर , घुलेकर हिंदी को राजभाषा मातृभाषा बताया।
संविधान सभा में 3 दिन तक बहस हुई तब जाकर हिंदी राजभाषा बनी।
परंतु आज भी व्यावहारिक रूप से उपेक्षित है।
हिंदी को हम संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने की वकालत तो करते हैं लेकिन अपने ही देश में उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी में अधिवक्ताओं की बहस ,अंग्रेजी में ही आदेश होते हैं।
राजभाषा पर 28 नवंबर 1958 को संसदीय समिति ने संस्तुति की थी कि सर्वोच्च एवम् उच्च न्यायालय की कार्यवाही हिंदी में होनी चाहिए ,परंतु आज 62 वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी हिंदी को अंगीकार नहीं किया गया है। अर्थात न्याय की भाषा नहीं बनाया गया।
संविधान के अनुच्छेद 348 के अनुसार किसी भी प्रांत के राज्यपाल राष्ट्रपति की सहमति से उस प्रांत की भाषा हिंदी या उस प्रदेश की राजभाषा में उच्च न्यायालय की कार्यवाही संपादित करने की अनुमति दे सकते हैं ,परंतु 2008 में विधि आयोग ने उच्चतर न्यायपालिका में हिंदी के प्रवेश पर रोक लगा दी ।यह हिंदी के साथ सौतेला व्यवहार है । इसके अलावा वीरप्पा मोइली तत्कालीन विधि मंत्री ,जो तमिल हैं, ने 27 जुलाई 2009 को हिंदी को उच्चतम न्यायालय के लिए अव्यावहारिक बताया था।
अब 2020 में शिक्षा के भारतीय करण की बात तो हम कर रहे हैं ,परंतु न्यायपालिका के लिए कोई प्रयास नहीं है। अभी हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकृति के 71 वर्ष बाद भी न्याय व्यवस्था भारत के नागरिकों की आम भाषा में नहीं है ।यह भी उल्लेख करना समीचीन होगा कि हिंदी को अधिकतर प्रांत के लोग समझते व बोलते हैं। यही नहीं केवल उत्तर भारत में लोग ही समझते हैं ।हिंदी एक साधारण भाषा है। हिंदी आम जन की भाषा है ।हिंदी भाषा ही नहीं है यह देश की विविधता को एक सूत्र में पिरोती है ।अनेक क्षेत्रीय बोलियों के समन्वय संस्कार भी हिंदी में हैं।
अपनी भाषा के बिना संस्कृति संभव नहीं। स्व संस्कृति के अभाव में राष्ट्र अपना स्वाभिमान और शौर्य और तेज खो देता है। भाषा केवल विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम ही नहीं बल्कि संस्कृति, संस्कार और सभ्यता से ओतप्रोत भी होती है। इसलिए भाषा किसी देश की पहचान होती है ।इसलिए अपने अंदर अपनी भाषा का गौरव होना चाहिए ।गौरव से आत्मविश्वास और व्यक्तित्व प्रखर होता है। मूल भाषा में अपने विचारों को हम उचित प्रकार से प्रचार व प्रसार देते हैं ।अपनी भाषा में उन्नति संभव है ।अपनी भाषा का गौरव संकट ग्रस्त होने पर राष्ट्र गौरव आपदा ग्रस्त होता है।
हिंदी भाषा भारतीय जनमानस के रक्त में प्रवाह मान हैं। संस्कृति में रची बसी है। इसी में करोड़ों लोग चिंत न , लेखन, विचार आदान-प्रदान करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदी के सामर्थ्य वान बने रहने से ही देश की शक्ति में वृद्धि होगी ।हिंदी एक भाषा ही नहीं बल्कि एक विराट सांस्कृतिक चेतना का रूप है। जिसमें अनेक जातियां, बोलियां, वर्ग, समुदाय, संस्कार, पंथ, धर्म और पूरा जीवन दर्शन बहुविध प्रकारों में सन्निहित व समाहित है। इन सब रूपों ,आकारों के विकास के लिए भारतीय भाषाओं का विश्वविद्यालय बनाया जाना अति आवश्यक है।
देश की अधिकतर जनता हिंदी लिखना पढ़ना तथा समझना जानती है ।
संपूर्ण देश में साहित्य की दोनों विधाएं गद्य और पद्य की अनेक पुस्तकें आई हैं। परंतु वहीं विज्ञान ,प्रविधि, प्रौद्योगिकी विषय पर हिंदी में पुस्तकों का अभाव अभी तक है ।आवश्यकता इस बात की है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात इस दिशा मेंआशानुरूप प्रगति नहीं हुई है ,जो होनी चाहिए। बल्कि शोध, आलेख, राष्ट्रीय आयोजनों में जो विद्यार्थियों और अध्यापकों द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं वे सभी अंग्रेजी में होते हैं, इससे अंग्रेजी को बढ़ावा मिलता है।इसीलिए हिंदी को मातृभाषा मानने वाले भी गैर भारतीय भाषा अंग्रेजी का महिमामंडन करते हैं ।तथा प्रतिस्पर्धा के बाजार में स्वयं को उतार चुके हैं ।भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान ,वनस्पति विज्ञान ,रसायन विज्ञान, प्राणी विज्ञान, कंप्यूटर विज्ञान ,ज्योतिर्विज्ञान, मौसम विज्ञान , भूविज्ञान, प्रकृति विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान, पारिस्थितिकी आदि विषयों की शिक्षा प्रशिक्षा ,अध्ययन अध्यापन हिंदी में होना आवश्यक है ।तभी हिंदी विश्व की भाषा बनने की राह पकड़ पाएगी।
‘हिंदी हैं हम ‘का नारा तभी सार्थक हो पाएगा जब हिंदी देश की मातृभाषा राजभाषा के रूप में व्यवहारिक परिवेश को प्राप्त करें।
हिंदी के विस्तार में अन्य भाषाओं का हित निहित है। क्योंकि देश में जब भी हिंदी के विरोध में स्वर उठते हैं तो उसका लाभ निश्चित रूप से अंग्रेजी को मिलता है। इसलिए अन्य भारतीय भाषाओं पर दुष्प्रभाव पड़ता है ।हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा है ,जो सभी को एकजुट रखने में सहायक है। इस बात को सुभाष चंद्र बोस ,गांधी जी व आचार्य विनोबा भावे आदि नेताओं ने भी स्वतंत्रता के पश्चात समझा। इन्होंने अपनी निज भाषा के सामर्थ्य को अनदेखा नहीं किया।
विश्व में आज भी भारत की पहचान यहां की भाषा में लिखित उपनिषद, ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र, रामायण, महाभारत ,नाट्य शास्त्र, वेद आदि से है।
हिंदी के बिना हिंद की कल्पना ही नहीं हो सकती। इसलिए सबसे प्यारी,
है हिंदी हमारी।
हम यहां पर यह उल्लेख करना भी अति आवश्यक समझते हैं कि विश्व की सर्वाधिक चौथी बोली जाने वाली भाषा हिंदी है ।करीब 53 करोड़ लोगों की भाषा 2011 की जनसंख्या के अनुसार हिंदी है ।क्योंकि हिंदी अपार संभावनाओं की भाषा है ।क्योंकि हिंदी में लचीलापन है ।हिंदी 150 देशों में बोली जाती है। 2050 तक हिंदी दुनिया की ताकतवर भाषा होगी ।
वह क्योंकि अन्य भाषा के शब्दों को भी आत्मसात करके चलती है। दक्षेस के देश ,दक्षिण पूर्व एशियाई देश ,चीन ,जापान, बौद्ध संस्कृति तथा अरब इस्लाम, गुयाना ,सूरीनाम ,त्रिनिदाद, फिजी ,मारीशस ,दक्षिण अफ्रीका ,सिंगापुर में हिंदी बोलचाल की भाषा है।
दक्षिण एशियाई निवासी समुदाय में उर्दू के अलावा मान्यता प्राप्त अल्पसंख्यक भाषा है हिंदी का प्रयोग भी होता है ।हिंदी संयुक्त अरब अमीरात में वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के विभाग यानी डिपार्टमेंट ऑफ एशियन लैंग्वेज एंड लिटरेचर में हिंदी साहित्य भाषा के स्नातक व स्नातकोत्तर पर विभिन्न पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं।
जर्मनी के स्कूलों में हिंदी पढ़ाने को लेकर भारतीय विदेश मंत्रालय ने जर्मनी सरकार के साथ समझौता किया है ।विदेश मंत्रालय किताबें व अन्य सामग्री उपलब्ध कराता है।
विदेश में हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए विदेश मंत्रालय अलग-अलग देशों में स्थित अपने दूतावासों के सहयोग से हर वर्ष 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाता है ।इस दिन हिंदी की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। आईसीसीआर ने ट्यूनीशिया ,अंकारा ,हे ग, मास्को ,दारे सलाम, थिंपू, पोर्ट लुईस में हिंदी में बातचीत के लिए कन्वर्सेशन क्लब स्थापित किए गए हैं।
इसलिए ऐसा भी आभास होता है कि हिंदी बेचारी नहीं है ,बल्कि जीवंत और धड़कती भाषा है हिंदी। देश की संस्कृति है हिंदी। हिंदी को आप ताकत माने ।भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने हिंदी को घर-घर की भाषा बनाने का संकल्प लिया है ,इससे हिंदी के विकास में पंख लगने की आशा है ।प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हिंदी भाषा की सरलता ,सहजता और सहनशीलता अभिव्यक्ति को सार्थकता प्रदान करती है ।हिंदी ने इन पहलुओं को खूबसूरती से समाहित किया है।
खुशी की बात है कि 2018 19 की अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण ने रिपोर्ट दी है कि हिंदी में सर्वाधिक पीएचडी करने वाले शोधार्थी हैं ।दूसरे नंबर पर संस्कृत के शोधार्थी हैं। 8016 शोधार्थियों में से 2396 हिंदी के ,1048 संस्कृत के हैं ।इसके बावजूद भी हिंदी विरोध की कुछ लोगों को आदत पड़ गई है, जो राजनीतिक रोटियां सेकते हैं।अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व और कई मामलों में एकाधिकार के कारण कई भारतीय भाषाएं दुर्बल होकर विलुप्त हो गई हैं, ऐसा ही कुछ लोग हिंदी के साथ करना चाहते हैं।
तय है यह वही लोग हैं जो 200 वर्ष पहले मेकॉले ने कहा था कि भारतीय भाषाओं में कोई ज्ञान नहीं है ।इसलिए भारतीयों की भलाई के लिए उन्हें अंग्रेजी व अन्य यूरोपीय भाषाओं में शिक्षा देनी चाहिए ।पर विरोधी अंग्रेजों को आशंका थी “पूरी जनता को शब्दों और विचारों के लिए किसी दूर अनजान देश पर पूरी तरह निर्भर बनाकर हम उनका चरित्र गिरा देंगे उनकी ऊर्जा बंद कर देंगे यहां तक कि उनको बौद्धिक उपलब्धि की आकांक्षा रखने में असमर्थ बना देंगे”
आज कभी-कभी वही आशंका चरितार्थ हो जाती है। वस्तुतः अंग्रेजी के वर्चस्व ने भारतीय भाषाओं की दुर्गति करके रख दिया। फिर भी हमारे कुछ नेता हिंदी भाषा को अखाड़े में खींचकर लाने में संकोच नहीं करते ।वे नेता नहीं समझते कि हिंदी हमारी राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ी है। जैसे रूस और चीन में अनेक भाषाएं हैं परंतु वहां रूसी और चीनी भाषाओं को राजभाषा राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त है, तो भारत में हिंदी को क्यों नहीं।
वस्तुतः यह विवाद बहुत पुराना है। जब वर्ष 1928 में मोतीलाल नेहरू ने हिंदी को भारत में सरकारी कामकाज की भाषा बनाने का प्रस्ताव रखा मगर तमिलों ने आपत्ति की।
10 साल बाद तमिल नेता सी ,राजगोपालाचारी ने हिंदी को स्कूलों में अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव दिया तो फिर तमिल विरोध हुआ। इसके बाद 1965 में जब हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव आया तो सी एन अन्नादुरई के नेतृत्व में हजारों लोगों ने गिरफ्तारी दी । 2 सप्ताह तक विरोध होता रहा ।करीब 70 लोगों की जान चली गई ।फिर त्रिभाषा फार्मूला बनाया गया। अंग्रेजी ,हिंदी एक अपनी राज की भाषा पढ़ाई जानी थी।
आज जिस हिंदी को जानने समझने और सीखने के लिए दुनिया के तमाम देश आतुर हैं उसी हिंदी को लेकर उसके देश के कुछ हिस्से में ही हिचक दिखाई देना अवश्य ही चिंता का विषय है ।तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था और दुनिया के सबसे बड़े उपभोक्ता बाजार के नाते तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां कारोबार के लिए भारत का रुख कर रही हैं।
यहां कारोबार चलाने के लिए ,भाषा की दिक्कत को दूर करने के उद्देश्य से हिंदी भाषी कर्मचारियों को तवज्जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां दे रही हैं लेकिन हाल में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में त्रिभाषा फार्मूला के तहत हिंदी को अनिवार्य बनाए जाने को लेकर दक्षिण के राज्य पुन विरोध पर उतर आए हैं ।यह बात भी महत्वपूर्ण है कि लोकप्रियता हासिल करने के लिए वे अपने साहित्य को हिंदी में पढ़ाने के लिए बेसब्र रहते हैं। अपनी फिल्मों को हिंदी में तैयार करा कर करोड़ों कमाते है।
यह दोहरा पन व दोगलापन इस तथाकथित विरोध को सियासी ठहराने के लिए काफी है ।दक्षिण के राज्यों के विरोध में केंद्र सरकार हिंदी को मजबूत बनाने के अपने दायित्व से पीछे हट जाती है ।तभी तो त्रिभाषा फार्मूले से हिंदी की अनिवार्यता को उसे खत्म करना पड़ा ।लेकिन अब सरकार विरोध भी शुरू हो गया है ।पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने के मकसद से नई शिक्षा नीति को तैयार करने वाली कमेटी के 2 वर्ष सदस्यों ने बगैर सहमति तेरी भाषा फार्मूले से हिंदी को हटाए जाने का विरोध किया है ऐसे में हिंदी के प्रति दक्षिण के राज्यों की इस हिचक को अनुचित माना जाना चाहिए, क्योंकि भारतीयता के लिए हिंदी का विकल्प नहीं है।
इसलिए 96 प्रतिशत लोग चाहते हैं कि देश की अखंडता को मजबूती देने के लिए हिंदी को त्रि भाषा फार्मूले में शामिल होना जरूरी है। क्योंकि हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध सकती है ,पूरे देश के लोग इसे समझते भी हैं। हिंदी का विरोध पूरी तरह से राजनीतिक है। त्रिभाषा फार्मूला लागू होना चाहिए। भाषा मजबूत होगी तो देश तरक्की करेगा ,देश मजबूत बनेगा, नागरी लिपि और हिंदी भाषा भारतीयता का मूल स्वर मुखरित करती हैं। हिंदी के बिना राष्ट्र की अभिव्यक्ति अधूरी है ,अपूर्ण है।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत समाचार पत्र

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