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खानपान की आदतें और सियासी नजर

भारत विभिन्न धर्मों, जातियों और अलग-अलग विश्वासों को मानने वालों का देश है। यहां का संविधान देश के सभी नागरिकों को समान रूप से अपने धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करने की इजाजत देता है। पर राजनीति में गहरे जड़ें जमा चुकी तुष्टीकरण की प्रवृत्ति और वोट बैंक की सियासत ने समय-समय पर विभिन्न धर्मों और समुदायों के लोगों के संवैधानिक अधिकारों के हनन का काम किया है। पिछले कुछ वर्षों से कभी गोहत्या, कभी गोमांस की बिक्री पर प्रतिबंध, तो कभी मांस खाने या न खाने को लेकर सियासत होती आ रही है। एक वर्ग मांस की बिक्री को अपनी भावनाओं के विरुद्ध बताता है, तो दूसरा वर्ग मांस की बिक्री पर प्रतिबंध को अपनी भावनाओं के खिलाफ करार देता है।

इन दिनों देश के विभिन्न राज्यों में पर्यूषण पर्व पर मांस की बिक्री रोकने को लेकर कुछ ऐसी ही भावनाएं उभर रही हैं। कोई समुदाय विशेष की भावनाओं के सम्मान का तर्क दे रहा है, तो कोई इससे खानपान की आदतों पर चोट पहुंचने की दलील दे रहा है। मामला अदालतों तक पहुंचा और उन्हें इसे लेकर दिशा-निर्देश जारी करने पड़े। विचित्र है कि जिन मामलों को समाज के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए, उन पर भी अदालत का दरवाजा खटखटा दिया जाता है।

इस मामले में एक बात तो किसी हद तक स्वीकार की जा सकती है कि हिंदू बहुल देश होने के नाते भारत में कम से कम गोहत्या नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गाय को अत्यंत पवित्र और धार्मिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण माना गया है। पर केवल किसी एक दृष्टिकोण के लिहाज से गोहत्या पर रोक के अध्याय को यहीं समाप्त नहीं किया जा सकता। अगर हम भारत में गोवध की परंपरा पर नजर डालें तो पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के कई राज्यों में हिंदुओं और ईसाई समुदाय के लोगों द्वारा सामान्य रूप से गोमांस का सेवन किया जाता है। खासकर गरीब मांसाहारी लोगों के लिए बकरे और मुर्गे का महंगा मांस खरीद कर खाना संभव नहीं होता, इसलिए वे सस्ते मांस के रूप में बीफ खाना पसंद करते हैं। बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने गोमांस खाने के संबंध में अपने एक निबंध में गोहत्या का विरोध करने वालों के इस दावे को चुनौती दी है कि हिंदुओं द्वारा कभी गोमांस नहीं खाया गया और गाय को हमेशा से पवित्र माना गया है। हिंदू और बौद्ध धर्मग्रंथों के हवाले से आंबेडकर ने प्राचीनकाल में हिंदुओं द्वारा गोमांस खाए जाने की बात साबित की है। अपने समर्थन में उन्होंने मराठी में धर्मशास्त्र विचार और ऋग्वेद जैसे धर्मग्रंथों का हवाला दिया है। हिंदू धर्मशास्त्रों के विख्यात विद्वान पीवी काणे लिखते हैं कि ऐसा नहीं है कि वैदिक काल में गाय पवित्र नहीं थी। लेकिन उसकी पवित्रता के कारण ही बाजसनेयी संहिता में कहा गया है कि गोमांस खाया जाना चाहिए। आंबेडकर के अनुसार ऋग्वेद से ही यह स्पष्ट है कि ऋग्वेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे।

आंबेडकर ने वैदिक ऋचाओं का हवाला देते हुए लिखा है कि बलि देने के लिए गाय और सांड़ में से चुनने को कहा गया है। ऋग्वेद में इंद्र कहते हैं कि ‘उन्होंने एक बार पांच से ज्यादा बैल पकाए’। ऋग्वेद कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड़, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई। ऋग्वेद से यह भी प्रतीत होता है कि गाय को प्राचीन काल में तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जिनसे यह बात साबित होती है कि गोमांस खाने का संबंध केवल मुसलमानों, ईसाइयों या किसी गैर-हिंदू धर्मावलंबियों तक सीमित नहीं है। जहां तक मांसाहारी होने का संबंध मुसलमानों से जोडऩे का प्रश्न है, निश्चित रूप से यह महज राजनीति और देश के दो प्रमुख समुदायों के बीच नफरत फैलाने की कोशिश के सिवा और कुछ नहीं है। आज देश में गोमांस निर्यात के जितने भी बूचडख़ाने हैं, उनमें अधिकतर हिंदू धर्म के लोगों के हैं। हां, बकरीद जैसा एक त्योहार मुसलिम धर्मावलंबियों में ऐसा जरूर है, जिस दिन पूरे विश्व में करोड़ों जानवरों की बलि दी जाती है। हिंदू धर्म भी पशुओं की बलि दिए जाने की परंपरा से अछूता नहीं है। भारत ही नहीं, खुद को हिंदू राष्ट्र बताने वाले नेपाल में भी हजारों भैंसों की एक साथ बलि दी जाने की परंपरा रही है। दक्षिण भारत में भी कई जगह यह परंपरा निभाई जाती है।

जहां तक इस्लाम धर्म की शिक्षाओं और मान्यताओं का प्रश्न है, इस्लाम में मनुष्य को धरती के समस्त प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ प्राणी बताया गया है। यानी उसे अशरफुल मखलूखात की संज्ञा दी गई है। यानी खुदा द्वारा जितने भी प्राणी पृथ्वी पर पैदा किए गए, मनुष्य उनमें सबसे अशरफ (सर्वोत्तम) प्राणी है। और धरती पर प्रकृति द्वारा उपलब्ध सभी वस्तुएं मनुष्य के उपयोग और उसकी सुख-सुविधाओं के लिए ही पैदा की गई हैं। अब अगर हम इन इस्लामी शिक्षाओं को इस्लाम और मुसलमानों से अलग हटा कर भी देखें तो क्या रचनात्मक रूप से ऐसा नहीं है?

प्रत्येक मनुष्य अपनी जरूरतों के हिसाब से जानवरों के मांस और उनके शरीर के अन्य हिस्सों का उपयोग सहस्राब्दियों से करता आ रहा है। कभी खेतों में इस्तेमाल के रूप में, कभी उसकी सवारी करने की शक्ल में, कभी दवाइयों में उनके शरीर के कई हिस्सों के इस्तेमाल के रूप में, कभी जूते-चप्पल, वस्त्र, बेल्ट, पर्स और बैग आदि के रूप में, तो कभी वाहनों में जोतने की शक्ल में। यहां तक कि हमारे आराध्य देवी-देवता भी अपनी सुविधा के अनुसार कहीं जानवरों पर सवार दिखाई देते हैं, तो कहीं किसी मृत जानवर की खाल पर आसन लगाए विराजमान रहते हैं। क्या ये सब दलीलें यह प्रमाणित नहीं करतीं कि वास्तव में इंसान पृथ्वी का सर्वोत्तम प्राणी ईश्वर द्वारा रचा गया है और अन्य सभी प्राणियों पर उसे वर्चस्व हासिल है? दूसरी ओर, इस्लाम धर्म में मनुष्य से दयालु होने की बात भी कही गई है। जानवरों ही नहीं, बल्कि पेड़-पौधों पर भी दया करने की शिक्षा दी गई है। बिहार देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है। यहां मिथिलांचल सहित कई क्षेत्रों में ब्राह्मणों के विवाह समारोह में कई प्रकार के मांस निर्मित व्यंजन परोसे जाते हैं। यह उनकी परंपराओं में शामिल है। पर उत्तर भारत के दूसरे स्थानों पर ऐसा नहीं है। आखिर एक ही समुदाय में मांस के सेवन को लेकर इतने बड़े अंतर्विरोध का मतलब क्या है? अगर आप बिहार के मांसाहारी ब्राह्मणों को समझाने की कोशिश करें कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, तो वे आपको अपनी परंपराओं के पक्ष में सैकड़ों तर्क दे डालेंगे। ठीक है कि शाकाहारी लोगों की अपनी भावनाएं हैं। उन्होंने अपने संस्कारों में शाकाहार हासिल किया है। लिहाजा, उन्हें न तो मांसाहार के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, न ही उनके शाकाहारी होने की भावनाओं का निरादर किया जाना चाहिए। पर ठीक इसी प्रकार दूसरे समुदायों के खानपान को लेकर, पहनावे-वेशभूषा और बोली-भाषा आदि को लेकर उनकी अपनी भी मान्यताएं हैं। हमें इनका भी निरादर नहीं करना चाहिए। भारत जैसे देश में कानून बना कर किसी समुदाय विशेष को किसी विशेष खानपान के लिए प्रतिबंधित करना कतई मुनासिब नहीं है। पिछले कई वर्षों से कभी दारूलउलूम देवबंद द्वारा, तो कभी दूसरी अन्य कई इस्लामी धार्मिक संस्थाओं द्वारा, खासतौर पर बकरीद के अवसर पर, ऐसे फतवे जारी होते दिखाई देते हैं।

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