ओ३म’ से ‘बोम’ तक पहुंचा अफगानिस्तान और भारत की चिंताएं

आजकल अफगानिस्तान में जो कुछ भी हो रहा है उससे हम भारतवासियों को बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। हमें यह  पता होना चाहिए कि अफगानिस्तान कभी भारतवर्ष का एक अंग हुआ करता था । आर्यावर्त कालीन अनेकों सम्राटों का इस क्षेत्र पर शासन रहा है। उस समय वैदिक संस्कृति के ध्वज वाहक अनेकों ऋषियों के आश्रम इस क्षेत्र में हुआ करते थे । कितने ही विशाल यज्ञ इस क्षेत्र में उस समय होते रहे थे । वैदिक ऋचाओं के मधुरिम संगीत से उस समय के अफगानिस्तान का सारा वातावरण संगीतमय रहता था और यज्ञ हवनों की सुगंध से अफगानिस्तानी परिवेश सुगंधित हुआ करता था।
  फिर धीरे-धीरे वह समय आया जब यज्ञ हवनों से घृणा करने वाले लोग यहां पनपने लगे और उन्होंने यज्ञ हवन की वैदिक संस्कृति से अलग हटकर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। परंतु इसके उपरांत भी जब मुस्लिम आक्रमणकारी यहां पर आए तो उस समय भी वैदिक संस्कृति की रक्षा के लिए अनेकों लोगों ने अपने बलिदान दिए। लाखों की संख्या में दिए गए उन हिंदू वीरों के बलिदानों को आज का अफगानिस्तान तो भुला ही चुका है स्वयं वह भारतवर्ष भी भुला चुका है, जिसके लिए उस समय के उन हिंदू वीरों ने अपने बलिदान दिए थे। राजा दाहिर सेन और उसकी सेना के अनेकों वीर योद्धाओं ने इस प्रकार के बलिदानों की झड़ी लगा दी थी।  उसके पश्चात न जाने कितने लोगों ने देश की संस्कृति की रक्षा के लिए इस बलिवेदी पर अपने प्राणों का उत्सर्ग किया ? आज वे सब चीजें ऐसे भुला दी गई हैं जैसे कभी हुई ही नहीं थीं।
      हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि एक समय वह भी था जब पूरे अफगानिस्तान का व्यापार सिक्खों के हाथों में हुआ करता था। अब से मात्र सत्तर वर्ष पहले पूरा सिंध सिंधियों का था, आज उनकी पूरी धन संपत्ति पर पाकिस्तानियों का कब्ज़ा है। हम यह गाते रहे कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ और ‘शांतिदूतों’ ने अफगानिस्तान में मजहब के नाम पर सभी अल्पसंख्यकों को उजाड़ने का काम आरंभ कर दिया। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भारत का कश्मीर भी वह क्षेत्र है जहां सुख समृद्धि चारों ओर बिखरी हुई थी और हमारे कश्मीरी मूल के हिंदू लोगों का वहां पर शासन था। हम तब भी इसी भूल में थे कि कश्मीर तो हमारा है और हमारा ही रहेगा। क्योंकि हमें संख्या में कोई कम नहीं कर सकता । लेकिन यह हमारी भ्रान्ति ही थी । वे लोग जनसंख्या के आंकड़ों को बिगाड़ने के अपने खेल में लगे रहे और धीरे-धीरे कश्मीर पर अपना एकाधिकार स्थापित करने की योजनाओं को लागू कराने की रणनीति खोजते रहे। शांति के पुजारी कश्मीर के केसर की खुशबू से महकते खेतों पर , वहां के भव्य भवनों और सुंदर- सुंदर झीलों पर कब आतंकियों का और आतंक का कब्जा हो गया ? यह किसी को पता ही नहीं चला। जो शरण मांग रहे थे वह आज स्वामी हो गए हैं और जो स्वामी थे अपने ही देश और अपने ही घर से उजाड़ दिए गए।अब वे देश की राजधानी दिल्ली में 10 गुणा 10 फ़ीट के छोटे-छोटे शिविरों में पड़े अपना समय व्यतीत कर रहे हैं।
   हमने उदारता और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर या सबको गले लगाकर चलने की भूल करते हुए जिन्हें शरण दी या जिन्हें अपना माना या जिन्हें गले लगाया, वही हमारे लिए नाग बन बैठे। आज के वे धर्मनिरपेक्ष बंधु इस बात पर ध्यान दें जो आज भी हमें अपने इन्हीं सद्गुणों को माने रहने की शिक्षा देते हैं और मुसलमानों की परंपरागत सोच और रणनीति को पूर्णतया उपेक्षित कर बात करने का बेतुका राग अलापते हैं। यह  हम भी मानते हैं कि देश में सांप्रदायिक सद्भाव तो होना चाहिए परंतु इसके लिए एक अनिवार्य तत्व यह है कि ऐसे प्रयास प्रत्येक संप्रदाय की ओर से होने चाहिए।
   हमें यह भी पता होना चाहिए कि एक समय वह था जब ढाका के हिंदू लोगों के द्वारा पूरी दुनिया में जूट का सबसे बड़ा कारोबार किया जाता था । आज वहां पर सुतली बम बनाए जा रहे हैं। ‘ओ३म’ से ‘बोम्ब’  तक का सफर तय करते ढाका , पाकिस्तान और अफगानिस्तान ने बड़े उतार-चढ़ाव देखे हैं। पर इन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि जब यहां पर इस्लाम नहीं था तो क्या उस समय भी यहां पर बमों के धमाके होते थे ? या वेदों की वाणी गूंजती थी और यज्ञ हवन की सुगंधि फैला करती थी ? शांति उस समय थी या शांति आज है? ओ३म की मधुर ध्वनि को सुनने वाला अफगानिस्तान आज ‘बोम’ अर्थात बम के धमाकों से आतंकित होकर अपने कान बंद किए बैठा है। ओ३म से भटक कर ‘बोम’ में पहुंचने वाला अफगानिस्तान स्वयं है। क्योंकि यह केवल इसलिए हुआ कि उसके पूर्वजों ने बम और बारूद के सामने एक समय विशेष पर हथियार फेंक दिए थे और यह भ्रांति पाल ली थी कि इस्लाम उन्हें शांति देगा, अमन और चैन की जिंदगी गुजारने के सारे अवसर उपलब्ध कराएगा । पर ऐसा हुआ नहीं।
   इससे यह पता चलता है कि जो लोग अपनी संस्कृति को भूल कर पराई संस्कृति को अपनाने की मूर्खता करते हैं वह समय विशेष पर बैठकर रोया करते हैं। आज अफगानिस्तान में अपने बीवी बच्चों को छोड़कर जो लोग भागते हुए दिखाई दे रहे हैं और दूसरे देशों में जाकर शरण लेने की कोशिश कर रहे हैं ये लोग अपने उन्हीं पूर्वजों की संतानें हैं जिन्होंने उस समय इस्लाम की तलवार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। यदि उस समय वह शक्ति के साथ इस्लाम का सामना करते और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ रहते तो आज उनकी संतानों को इस प्रकार की स्थिति से गुजरना नहीं पड़ता। यह उन्हीं लोगों की संतानें है जो कभी हिंदुओं के मारे जाने पर या उनके नरसंहार पर या ‘हिंदूकुश’ की स्थिति पर प्रसन्न हुआ करते थे और सोचा करते थे कि यह स्थिति अब कभी हमारे लिए नहीं आने वाली, क्योंकि हमने तो शांति के धर्म को अपना लिया है। आज वह इतिहास की क्रूर परिणति को देखकर सहम गए हैं। उनकी अंतरात्मा उनसे पूछ रही है कि उस समय यदि उचित प्रबंध किया होता तो क्या आज ऐसी स्थिति से गुजरना पड़ता ? जब इनके ऊपर से गुजर रही है तो पता चला है कि अत्याचार क्या होते हैं और हिंदू ने इन अत्याचारों को कितनी देर तक सहा है ? हम किसी को ताना नहीं दे रहे हैं और ना ही इसी पर व्यंग्य कस रहे हैं। हम इतिहास के उस स्वाभाविक परिणाम की ओर देश और दुनिया के लोगों का ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं जो आज भी तालिबान को दूर की कौड़ी समझकर उसकी उपेक्षा कर रहे हैं। भारतवर्ष में जो लोग यह मान रहे हैं कि यह तूफान हमसे बहुत दूर है उन्हें यह पता होना चाहिए कि कभी ऐसी ही गलती हमारे कई लोगों ने इस्लाम को लेकर उस समय भी की थी जिस समय यह अरब से उठा था। आज तो यह उत्पात काबुल में हो रहा है जो भारत की राजधानी दिल्ली से मात्र हजार किलोमीटर की दूरी पर है। समझ लीजिए कि यदि हजारों किलोमीटर दूर और अरब से चला तूफान दुनिया के कई देशों को समाप्त कर सकता है तो तालिबान भी भविष्य में भारत को लेकर क्या गुल खिला सकता है ? आती हुई बिल्ली को देखकर आंखें बंद किए बैठे भारत के राजनीतिज्ञों से तो बस इतना ही कहा जा सकता है :-

  ”तू इधर उधर की बात ना कर
   यह बता कि काफिला क्यों लुटा ?
     मुझे रह जनों से नहीं गरज
    तेरी रहबरी का सवाल है।।”

अतः भारतवर्ष के लोगों को किसी भी प्रकार की धर्मनिरपेक्षता की मूर्खता के साए में रहकर यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि उन्हें भी हथियार फेंकने से एक दिन शांति नसीब हो जाएगी ?  हथियार फेंकने की नीति यदि अपनाई गई तो भारतवर्ष के हिंदुओं को समझ लेना चाहिए कि उनकी आने वाली पीढ़ियों को भी शांति कभी प्राप्त नहीं हो पाएगी । इस बात को हमें अफगानिस्तान की आज हो रही दुर्दशा को देखकर समझ लेना चाहिए।
    जब हमने किसी भी कारण से ऐसी धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढा था या किसी भी प्रकार की असावधानी और प्रमाद का प्रदर्शन करते हुए निज धर्म और संस्कृति से पीठ फेरकर हम खड़े हो गए थे या किसी भी प्रकार के भय और आतंक से परेशान होकर हमने शत्रु के धर्म को स्वीकार कर लिया था तो उसी समय ननकाना साहब, लवकुश का लाहौर, दाहिर का सिंध, चाणक्य का तक्षशिला, ढाकेश्वरी माता का मंदिर पलक झपकते झपकते हमसे दूर हो गए थे। हमारे लिए पराए हो गए थे। वह बड़ी करुणा भरी नजरों से हमें अपनी रक्षा के लिए पुकारते रहे पर हम असहाय होकर उनकी रक्षा नहीं कर पाए थे।
    हम भारतवासियों के चक्रवर्ती सम्राट कभी संपूर्ण संसार की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेकर अपने कर्तव्य निर्वाह में लगे रहते थे। पर एक समय फिर वह भी आया जब हम अपने ही पूजा स्थलों की रक्षा करने में भी असमर्थ हो गये। ऐसा तभी होता है जब लोग अपने मूल को भूल जाते हैं। मूल की भूल से ही शूल चुभते हैं। इस बात को आज के भारत वासियों को ध्यान में रखना चाहिए।
जो लोग आज इस सोच के वशीभूत होकर भारतवर्ष का इस्लामीकरण करने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं कि देश के बहुसंख्यक वर्ग की कार कोठियां और बीवी सब उनकी हैं । उन सबका यह आज का नहीं बल्कि सदियों पुराना अनुभव है। उस अनुभव के आधार पर वह काम करते जा रहे हैं ।उन्हें पता है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान और इसी प्रकार से संसार के कई अन्य देशों को उन्होंने किस प्रकार इस्लामीकरण के रंग में रंगा है ? और किस प्रकार देर सबेर उनकी कार -कोठी, बीवी बच्चों पर अपना अधिकार जमाया है ? भारत के विषय में तो वह और भी अधिक चैन की सांस लेते हैं क्योंकि यहां का बहुसंख्यक वर्ग तो बड़ी शीघ्रता से उनके झांसे में आता रहा है। ऐसी परिस्थितियों में देश के बहुसंख्यक समाज को असंगठित करने की पूरी साजिश रची जा रही है। दुर्भाग्य से बहुसंख्यक समाज स्वयं भी विघटन, विखंडन और फूट को अपनाकर असंगठित होता जा रहा है।
आज समय को पहचानने की आवश्यकता है और इतिहास के बीते हुए कल खंड से भी शिक्षा देने की आवश्यकता है । इतिहास केवल मरे गिरे लोगों का लेखा-जोखा नहीं हैं, वह तो एक ऐसा जीवन्त ग्रन्थ और वैज्ञानिक दस्तावेज है जो हर पल और हर काल में हमारी सहायता करता है। हमें आंखें खोल कर चलने के लिए प्रेरित करता है। जो लोग या देश इतिहास को मरे गिरे लोगों का लेखा-जोखा मान लेते हैं वे उसकी ओर से आंखें फेर लेते हैं और अकाल मृत्यु का शिकार होते हैं। यह ऐसे ही नहीं था कि हमारे पूर्वजों ने इतिहास लिखने की एक अनुपम शैली हमें रामायण और महाभारत जैसे आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और इतिहास ग्रंथों को रचकर प्रदान की थी। जिनकी जीवंतता वैज्ञानिकता, दार्शनिकता और आध्यात्मिकता शाश्वत है, सनातन है और सदा हमारा मार्गदर्शन करती रहेगी। इतिहास के सच को हमें भूलना नहीं चाहिए और यह ध्यान रखना चाहिए कि आसन्न संकट को कभी उपेक्षित नहीं करना चाहिए। ‘जय श्री राम’ का नारा लगाने वाली सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह निश्चय ही इस ओर ध्यान देगी।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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