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नायपॉल साहित्य का नोबेल पाने वाले दूसरे हिंदू साहित्यकार थे :- (उनकी निष्पक्ष लेखनी का विश्लेषण)

 

[ #शंकरशरण ]:
#विद्याधर
सूरजप्रसादनायपॉल के निधन पर मन में पहली बात यह आई कि पूर्वजों के भारत से दूर जा चुकने के बावजूद भारत और हिंदू धर्म उनके जीवन में बना रहा। वह टैगोर के बाद साहित्य का नोबेल पाने वाले भी दूसरे हिंदू मनीषी थे। त्रिनिदाद में जन्मे #वीएसनायपॉल न ईसाई बने और न ही उन्होंने अपना हिंदू नाम बदला। नायपॉल ने भारत और भारतीयों के बारे में भी कई पुस्तकें लिखीं। उनका आरंभिक लेखन विवादास्पद भी रहा, परंतु बाद में उन्होंने भारत की विडंबना को अधिक गहराई से प्रस्तुत किया। वह बार-बार भारत आते रहे। वह यहीं रहना भी चाहते थे, लेकिन यहां के सत्ताधारियों ने रुचि नहीं दिखाई।

नायपॉल ने लेखन के अलावा कभी कोई और काम नहीं किया। आरंभिक काल में भयंकर गरीबी झेलने के बावजूद उन्होंने दो महीने छोड़कर पूरे जीवन कभी नौकरी नहीं की। सिर्फ इस कारण कि वह किसी के आदेश पालक नहीं रह सकते थे। चाटुकारिता का तो सवाल ही नहीं। इसीलिए वह बेलाग लिखने,बोलने के लिए प्रसिद्ध हुए और दुनिया ने उनका लोहा माना। विपुल कथा लेखन के अलावा उन्होंने अनूठी विधा में ‘इंडिया: ए वूंडेड सिविलाइजेशन’, ‘अमंग द बिलीवर्स’ और ‘बियोंड बिलीफ’ जैसी चर्चित पुस्तकें लिखी। दशकों के अनुभव से नायपॉल ने कहा था कि भारत में यह एक सचमुच गंभीर समस्या है कि बहुत कम हिंदू यह जानते हैं कि इस्लाम क्या है? बहुत कम हिंदुओं ने इसका अध्ययन किया है या इस पर कभी सोचा है। उनकी उपरोक्त तीनों पुस्तकें हमारे लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं।

अपने लेख ‘द राइटर एंड इंडिया’ में नायपॉल भारत में छह सौ साल चले इस्लामी शासनकाल के बारे में यहां छाई चुप्पी पर सवाल उठाते हैं। नायपॉल दिखाते हैं कि इस्लामी हमलावरों के सामने भी हमारे पूर्वज उतने ही असहाय थे जितने बाद में ब्रिटिश शासकों के समक्ष नजर आए, मगर इस पर कभी चर्चा नहीं होती। नायपॉल के अनुसार भारत के सिवा कोई सभ्यता ऐसी नहीं जिसने बाहरी दुनिया से निपटने के लिए आज भी इतनी कम तैयारी कर रखी हो। कोई अन्य देश इतनी आसानी से हमले और लूटपाट का शिकार नहीं हुआ।

शायद ही कोई और देश होगा जिसने अपनी बर्बादियों से इतना कम सबक सीखा होगा। नि:संदेह नायपॉल कोई हिंदूवादी लेखक नहीं थे। वह तो मुसलमानों एवं हिंदुओं के प्रति समान रूप सहानुभूतिशील थे। उन्होंने केवल निर्मम तटस्थता से यथार्थ को हमारे समक्ष रखा था। इसमें इस्लाम और उसकी भूमिका वैसी ही रखी गई जैसी वह रही। भारत के सेक्युलरवादी बुद्धिजीवी इसी का बुरा मानते थे। जबकि बाहरी अवलोकनकर्ता के रूप में नायपॉल अनेक वैसी बातें सरलता से देख पाते थे जो भारतीय अपने राग-द्वेष पूर्वाग्रहों, मतवादों आदि के कारण नहीं देखते।

सच पूछें तो ‘#इंडियावूंडेड_सिविलाइजेशन’ में समकालीन हिंदुओं, उनके नेताओं की बड़ी दयनीय छवि उभरती है। यह 1975-76 के बीच भारत की चतुर्दिक यात्रा करके उसी दौरान लिखी गई थी। बंबई की चाल और अवैध बस्तियां, पूना-बंबई के बीच का देहात, इंजीनियर और शिव-सैनिक, बिहार की शस्य-श्यामला धरती पर पीड़ित बाल-मजदूर, विजयनगर के खंडहरों के बीच रहने वाले लोग, जयपुर के बाहर अकालग्रस्त आबादी, प्रशासन के प्रयास, महानगरों में उच्च-वर्गीय लोगों के वार्तालाप आदि असंख्य अनुभवों के बीच नायपॉल ने भारत की घायल सभ्यता को समझने का यत्न किया था। इस पुस्तक में नव-स्वतंत्र भारत का जन-जीवन ही नहीं, वरन कई विषयों पर गंभीर विश्लेषण भी है।

गांधीजी का महात्मावाद, भारतीय बुद्धिजीवियों, प्रशासकों, आमजनों की रूढ़ियां, आदतें, टूटती परंपराएं, उभरता खालीपन, नैतिक संभ्रम, इंदिरा का आपातकाल, जेपी आंदोलन, नक्सलवाद, भारतीय प्रेस, आदि पर मौलिक टिप्पणियां हैं। जैसे, भारत को भारतीय बहुत कम जानते हैं। उनके पास जानकारी का अभाव होता है। इसीलिए, इंदिरा-विरोधी आंदोलन क्रोध और अस्वीकृति की अभिव्यक्ति तो था, किंतु विचारहीन आंदोलन था। उसके राजनीतिक कार्यक्रम में शोर और उत्तेजना ही प्रमुख थी। इसी तरह, माक्र्सवाद और गांधीवाद का जेपी द्वारा किया गया तथाकथित संश्लेषण ‘अनर्गल प्रलाप’ था। जबकि ‘नक्सलवाद एक बौद्धिक त्रासदी- आदर्शवाद, अज्ञानता और हास्यास्पद नकल की त्रासदी। ’ नायपॉल ने गांधीजी की आत्मकथा का एक निहायत भिन्न और रोचक विश्लेषण किया है। इसके माध्यम से वह हमें इस घायल सभ्यता के सामान्य हिंदू चरित्र की ताकत और दुर्बलता दोनों बताते हैं। नोआखाली में दंगों के समय जाने वाले गांधी जी का खालीपन दिखाते हुए कहते हैं कि अब गांधी के पास देने के लिए कुछ नहीं बचा था।

नायपॉल के अनुसार आज हिंदू लोग गंभीर निरीक्षण नहीं कर पाते। इसीलिए विचारहीन रूप से केवल भावनाओं से अभिभूत रहते हैं। उनमें सामूहिक स्मृति-क्षय जैसी कोई बात है, जो इतिहास को निरंतर धुंधलाती, झुठलाती रहती है। भारतीय इतिहास के पिछले हजार वर्षों में ऐसा बार-बार हुआ है। उन्होंने पाया था कि आज हमारा बौद्धिक भ्रम ब्रिटिश-काल की अपेक्षा अधिक है। भारतीय लेखकों में यूरोपीय विचारों, संस्थाओं को श्रेष्ठ समझने और अपनी हर विरासत को तुच्छ मानने की प्रवृत्ति है। यहां बाहरी आक्रमणकारी आते रहे और शासन के ऊंचे स्थानों पर बैठते रहे। उनके अधीन रहने वाले भारतीय उनकी नकल कर अपने को बचाते और अपनी हीनता छिपाते रहे। कभी वे मुगलों की नकल करते थे, कभी अंग्रेजों की, कभी रूसियों, कभी चीनियों की। आज वे अमेरिकियों की नकल कर रहे हैं। नायपॉल के शब्दों में, ‘भारत में नई मुद्राएं, नए दृष्टिकोण का संकेत देती प्रवृत्तियां अक्सर केवल शब्दों का खेल निकलती हैं।’ यह हमारी राजनीतिक, बौद्धिक दयनीयता का सबसे दु:खद पक्ष है।

विचार ही नहीं, चित्रकला, शिल्प, भवन डिजाइन, पत्रकारिता, न्याय प्रणाली आदि अनेक क्षेत्रों में नायपॉल ने यहां ‘आयातित दक्षता’, ‘उधार के सिद्धांत’ और अंधी नकल देखी। उनके अनुसार, ‘भारत में कानून कभी-कभी न्याय संबंधी खेल प्रतीत होता है। वह उन दुव्र्यवहारों से बचने का प्रयास करता है, जिसे उसे सुधारना चाहिए।’

संभवत:, नायपॉल के अवलोकनों, टिप्पणियों को सही प्रमाणित करने के लिए ही हमारे बौद्धिक, राजनीतिक वर्ग ने उन पर कभी गंभीरता से मनन नहीं किया। यहां उनकी अधिकांश पुस्तकें और विचार सरसरी तौर पर उपेक्षित ही किए गए। उनके निधन के बाद इसमें कोई परिवर्तन होगा, इसकी आशा नगण्य है, लेकिन सचेत भारतीयों को उस पर ध्यान देना चाहिए।

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