विश्वविजेता सिकंदर की भारत विजय: एक भ्रम

डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री

1.0 आक्रमणकारी सिकंदर :

अपने देश पर विदेशी आक्रान्ताओं की चर्चा होने पर सामान्य व्यक्ति प्राय: सबसे पहला नाम सिकंदर का लेता है जो यूनान के उत्तर में स्थित मेसिडोनिया का था और जिसे पहला विश्व विजेता कहा जाता है; पर उसके बारे में हमारी जानकारी प्राय: सिकंदर – पुरु ( पोरस ) के युद्ध में (326 ई.पू.) पुरु की हार, और उस संवाद तक सीमित है जिसमें सिकंदर गर्व से पूछता है कि बता , अब तेरे साथ कैसा व्यवहार किया जाए, और जंजीरों में जकड़ा पुरु धृष्टता ( या गर्व ? ) से उत्तर देता है कि जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है । कहा जाता है कि इस उत्तर से प्रसन्न होकर सिकंदर ने पुरु को न केवल बंधनमुक्त कर दिया , बल्कि उसका राज्य भी उसे वापस कर दिया । इतना ही नहीं, अपनी ओर से उसे उपहार में पूर्व का एक और प्रदेश भी दे दिया जिसमें लगभग पांच हज़ार नगर और हज़ारों गाँव थे । सिकंदर के इस व्यवहार से यह धारणा बनती है कि वह बहुत महान था, वीरोचित गुणों से युक्त था, वीरता का सम्मान करता था, साथ ही दयालु और बहुत उदार भी था । पर जब मैंने नेहरू जी की प्रसिद्ध पुस्तकें ‘ विश्व इतिहास की झलक ‘ और उसी के आधार पर लिखी ‘ इतिहास के महापुरुष ‘ पढ़ीं तो सिकंदर के सम्बन्ध में उनकी कुछ टिप्पणियों ने उक्त धारणा पर प्रश्न चिह्न लगा दिया ।

2.0 नेहरू जी की नजऱ में सिकंदर

1 नेहरू जी ने लिखा है, सिकंदर वास्तव में बड़ा आदमी था या नहीं , यह कहना मुश्किल है । कम से कम मैं अपने अनुकरण करने लायक वीर उसे नहीं मानता ( इतिहास के महापुरुष, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली ; 1984 ; पृष्ठ 13) । 2. 2 यह एक दिलचस्प ख्याल है कि अगर सिकंदर भारत के अन्दर के हिस्से की तरफ बढ़ा होता तो क्या हुआ होता । क्या उसकी विजय जारी रहती ? या भारतीय सेनाओं ने उसे शिकस्त दे दी होती? पोरस के से एक सरहदी राजा ने जब उसे इतना परेशान किया तो यह बहुत मुमकिन था कि मध्य भारत के बड़े – बड़े राज्य सिकंदर को रोकने के लिए काफी मज़बूत साबित होते । लेकिन सिकंदर की इच्छा कुछ भी क्यों न रही हो, उसकी सेना ने उसे एक निश्चय पर पहुँचने के लिए मजबूर कर दिया । बरसों से घूमते – घूमते उसके सिपाही बहुत थक गए थे और ऊब गए थे । शायद भारतीय सिपाहियों के रण – कौशल का भी उन पर असर पड़ा और वे हार की जोखिम नहीं उठाना चाहते थे (उपर्युक्त ,पृष्ठ 15 ) ।
विश्व विजेता को भारत में हार की जोखिम ? मन में उथल – पुथल होने लगी और मैं सिकंदर के बारे में और अधिक जानने की कोशिश करने लगा । यह कोशिश जितनी बढ़ती गई , मेरी सफलता की आशा उतनी ही घटती गई ; और जब यह पता चला कि सिकंदर के बारे में प्रामाणिक  जानकारी का सर्वथा अभाव है, तब तो मैं हक्का – बक्का रह गया ।

3.0 यूरोपीय साहित्य की विसंगतियां

1 भारतीय साहित्य में तो उसका कोई विवरण मिलता ही नहीं ; शायद इसलिए क्योंकि , जैसा नेहरू जी ने लिखा है, उसके आक्रमण का भारत पर कोई असर नहीं पड़ा (उपर्युक्त, पृष्ठ 17 ) ।
2 यूरोपीय साहित्य में भी सिकंदर के समकालीन लेखक वियरकच , ओनिसीक्रीटस , केलिस्थनीज़ ( जो सिकंदर के गुरु अरस्तू का भतीजा और सिकंदर का मित्र भी था ), पुटालमी आदि के लिखे ग्रन्थ तो न जाने कब नष्ट हो गए । जो कुछ भी जानकारी मिलती है वह एरियन , डायोडोरस , प्लूटार्क , जस्टिन ( सभी यूनानी ) और कर्टियस (रोमन ) के लिखे ग्रंथों से मिलती है । संयोग यह है कि ये सभी लेखक सिकंदर के चार – पांच सौ साल बाद के हैं, पर इनमें से किसी को उस समय भी सिकंदर के समकालीन किसी लेखक की कोई रचना नहीं मिली, केवल अस्त – व्यस्त उद्धरण या अंश ही मिले । इन्होंने उपलब्ध जानकारी की प्रामाणिकता की अपने स्तर पर जांच करने के लिए न तो संबंधित स्थानों की यात्रा की, न और कोई प्रयास किया । संभवत: यही कारण है कि इनके विवरणों में काफी अंतर है, कई प्रसंग परस्पर – विरोधी हैं, अनेक स्थानों पर तो उस तटस्थ दृष्टि का भी अभाव है जो इतिहास लेखक से अपेक्षित है । कुछ उदाहरण देखें :
प्लूटार्क के अनुसार पुरु की सेना में बीस हज़ार पैदल, चार हज़ार अश्वारोही , और दो सौ हाथी थे ; पर डायोडोरस के अनुसार पचास हज़ार पैदल , एक हज़ार अश्वारोही और एक सौ बीस हाथी थे । कर्टियस के अनुसार हाथी केवल पचासी ही थे । या एक और उदाहरण युद्ध शुरू होने का देखिए । एरियन के अनुसार जब पता चला कि सिकंदर ने झेलम नदी पार कर ली है, तो उसका सामना करने के लिए पुरु ने अपने पुत्र को भेजा । राजकुमार के एक ही प्रहार से सिकंदर घोड़े से सिर के बल नीचे गिर पड़ा और उसका घोडा ‘ बकाफल ‘ मारा गया ; जबकि जस्टिन का कहना है कि युद्ध प्रारम्भ होने पर पुरु ने अपनी सेना को शत्रु सेना पर आक्रमण करने की आज्ञा दी और यूनानियों के अधिपति सिकंदर को अपने व्यक्तिगत शत्रु के रूप में उपस्थित होने की मांग की । इस पर बिना विलम्ब किए सिकंदर आया , परन्तु पुरु के प्रथम वार में ही सिकंदर का घोड़ा मारा गया और सिकंदर स्वयं भी सिर के बल नीचे गिर पड़ा , लेकिन उसके रक्षकों ने उसे बचा लिया वरना युद्ध उसी समय समाप्त हो जाता । इस प्रसंग से संबंधित प्लूटार्क और जस्टिन के प्रारम्भिक विवरण में तो समानता है, पर घोड़े के बारे में प्लूटार्क का कहना है कि वह उस समय केवल घायल हुआ, मरा बाद में ; जबकि डायोडोरस ने इस युद्ध के विवरण में सिकंदर के घोड़े को कहीं घायल बताया ही नहीं है । हाँ, उसके मरने की बात बाद में अवश्य कही है, पर मरने का कारण वृद्धावस्था और थकान बताया है । एक लेखक के अनुसार पुरु घोड़े पर सवार था, दूसरे लेखकों के अनुसार हाथी पर सवार था । ऐसा ही एक उदाहरण ईरान के उस भयंकर युद्ध का देखिए जिसमें सिकंदर बुरी तरह घिर गया था और मरने वाला था । उसमें एरियन के अनुसार ईरान के तीन लाख सैनिक , डायोडोरस के अनुसार नब्बे हज़ार सैनिक, और कर्टियस के अनुसार पचास हज़ार सैनिक हताहत हुए जबकि संभवत: सिकंदर को महिमामंडित करने के लिए उसके केवल एक सौ से लेकर पांच सौ सैनिक ही हताहत बताए हैं । ऐसे ही कारणों से अनेक विद्वानों ने इन लेखकों के विवरण को प्रामाणिक नहीं माना है। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का एक यूनानी विद्वान है  स्ट्रेबो जो विश्व यात्रा के आधार पर लिखे गए अपने भूगोल सम्बन्धी ग्रन्थ के लिए विशेष प्रसिद्ध है। उसका कहना है कि इन लोगों ने जो कुछ लिखा है, वह सिर्फ सुनी – सुनाई बातों के आधार पर लिखा है। भारत के सम्बन्ध में इन लेखकों ने जो कुछ भी लिखा है, उस पर स्ट्रेबो ने बड़ी सख्त टिप्पणी करते हुए कहा है कि ये सब झूठे हैं ।

इस सबके बावजूद , यूरोपीय लोगों द्वारा तैयार किए गए इतिहास में सिकंदर के बारे में आज जो कुछ भी कहा जाता है और जो हमें  प्रामाणिक बताकर पढ़ाया जाता है, उसका आधार इन्हीं लेखकों के ग्रन्थ हैं ।

फारसी या अन्य भाषाओँ के ग्रंथों में जो जानकारी मिलती है, उसका इन लोगों ने कोई उपयोग नहीं किया है क्योंकि उनका उद्देश्य तो किसी न किसी तरह यूरोप की श्रेष्ठता प्रमाणित करना रहा है ।

4.0 सिकंदर की विरासत: ईरान से दुश्मनी

सिकंदर को जो राज्य विरासत में मिला , उसके अतीत में ईरान से पुरानी दुश्मनी का इतिहास समाया हुआ है । यूनान में तब नगर राज्य होते थे जिन्हें हम अपनी सुविधा के लिए अपने यहाँ की पुरानी रियासतों जैसा मान सकते हैं, जबकि ईरान का साम्राज्य बहुत बड़ा था — केवल भौगोलिक विस्तार में ही नहीं , बल्कि संगठन में भी । ईसा पूर्व छठी शताब्दी में ईरानी आर्य सम्राट क्रूश (Cyrus the Great) का शासन मध्य एशिया से लेकर भूमध्य सागर तक फैला हुआ था ( ईरान के शासक  आर्य सम्राट कहलाते थे, (चौंकिए मत, यह परम्परा वहां अभी हाल ही में लगभग तीस वर्ष पूर्व हुई  इस्लामी क्रान्ति से पहले तक विद्यमान थी जब वहां के शासक मोहम्मद रज़ा शाह पहलवी की उपाधि आर्य मेहर थी जिसका अर्थ है ‘आर्यों का प्रकाश’ ; स्वयं ईरान शब्द का अर्थ भी है ‘ आर्यों का देश ‘) । क्रूश के पुत्र कम्बीसस द्वितीय और उसके बाद दारा – प्रथम (Darius – I) ने साम्राज्य का विस्तार करके मिस्र, थ्रास ( वर्तमान बुल्गारिया ) और मेसिडोनिया को जीत लिया , पर ईसा पूर्व सन 486 में उसके देहांत के बाद ईरानी साम्राज्य का प्रभाव यूरोप में घटने लगा ।

क्रमश:

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