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संपादकीय

मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और विधायकों की वेतन वृद्घि

अरविंद केजरीवाल ने जब से दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली है, तब से ही वह किसी न किसी प्रकार के विवादों में रहे हैं। दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग से उन्होंने ‘जंग’ छेड़ी जो अब भी जारी है। इसी प्रकार उन्होंने दिल्ली पुलिस से भी दो-दो हाथ करने चाहे। वह जो कुछ भी करते हैं, उसके पीछे उनकी मान्यता दिल्ली सरकार को अधिकार संपन्न करने की होती है। यह अलग बात है कि दिल्ली की विशेष स्थिति को देखते हुए उसके मुख्यमंत्री को या सरकार को अधिक अधिकार नही दिये जा सकते। यह संवैधानिक बाध्यता है जो मुख्यमंत्री केजरीवाल और उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच विवाद का कारण बन जाती है। इस ‘विवाद’ को अन्य राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने हित साधने के लिए बाहर से फूंक मारकर हवा देने का काम करती हैं। जिससे अरविंद केजरीवाल सुर्खियों में बने रहते हैं। जो उपराज्यपाल दिल्ली में लोकतांत्रिक सरकार के गठन के पश्चात ‘गर्वनर हाउस’ से बाहर नही दिखने चाहिए, वह भी लंगर लंगोटे खींचे बाहर मैदान में दिखते रहते हैं। कुल मिलाकर किरकिरी तो लोकतंत्र की ही होती है।

अब आते हैं नये विवाद पर। चुनाव पूर्व दिल्ली की जनता से ‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल ने कुछ वायदे किये थे, वह उन वायदों को पूरा तो नही कर पाये पर अब अपने विधायकों के वेतन में चार सौ गुणा वृद्घि करने पर विचार अवश्य कर रहे हैं। जिससे दिल्ली की सियासत में उबाल आ गया है। इस पर कांग्रेस जहां विरोध में खड़ी है, वहीं भाजपा विधायक रामवीर सिंह बिधूड़ी अरविंद केजरीवाल के समर्थन में आ गये हैं। वह स्पष्ट कह रहे हैं कि विधायकों की वेतन वृद्घि नितांत आवश्यक है।

वैसे लोकतंत्र में जन प्रतिनिधि जनसेवक होता है। वह अपनी जनसेवा का वेतन ले-यह आवश्यक नही। नैतिकता के दृष्टिगत पुरानी पीढ़ी के जन प्रतिनिधियों ने वेतन लेना तो आवश्यक समझा, पर गुजारे लायक। सरकार ने अपनी ओर से मानदेय, भत्ते आदि देकर उस जनसेवक जनप्रतिनिधियों की आर्थिक समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया। उस समय के हमारे जनप्रतिनिधि यह नही देखते थे कि अमुक उद्योगपति की मासिक आय इतनी है, तो मेरा वेतन भी इतना होना चाहिए, या अमुक लोग इस प्रकार का वैभवशाली जीवन  जी रहे हैं, तो मेरे लिए भी ऐसी ही सुविधायें हों, और मेरा जीवन भी इसी प्रकार वैभवशाली हो। इसके विपरीत उनकी सोच होती थी कि मैं उद्योगपति और मजदूर के और देश के धनी वर्ग और निर्धन वर्ग के बीच की कड़ी हूं। नीचे वाला वर्ग मुझे देखे और मुझे अपने बीच का व्यक्ति समझे, वह मुझे राजा या नवाब ना समझे, और ऊपरी वर्ग भी मुझे देखे तो वह भी मेरी सरलता और सादगी का दीवाना हो जाए। इसी प्रकार की सोच से समाज में यह संकेत जाता था कि राजनीति कोई व्यापार नही है यह तो जनसेवा का माध्यम है।

राजनीति को व्यापार न मानने का यह वह दौर था जब देश के राष्ट्रपति रहते डा. राजेन्द्र प्रसाद अत्यंत सादगी से राष्ट्रपति भवन में 12 वर्ष काट गये, कोई तडक़-भडक़ नही, कोई दिखावा नही, देश के राष्ट्रपति भवन में बैठे इस व्यक्ति को देखकर लगता था कि देश का एक साधारण व्यक्ति भी देश के सर्वोच्च पद को सुशोभित कर सकता है, और देश के जनसाधारण में से भी अब ‘राजा’ बन सकता है। कोटि-कोटि जनता को उन्होंने सफलतापूर्वक यह संदेश दिया कि अब देश में वास्तविक लोकतंत्र है। देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर इस समय देश के लोगों के बीच से निकला हुआ व्यक्ति बैठा है। जो देश के दर्द को जानता है। इसी प्रकार राममनोहर लोहिया जैसे लोग जेब में एक अठन्नी ना रहते भी देश की संसद में जमकर सरकार की खिंचाई किया करते थे। ये वे लोग थे जो जनसेवा से मिली अपनी ऊर्जा का सदुपयोग करते थे और अपनी शक्ति से सरकार तक को झुका लिया करते थे। उन्हें यह ऊर्जा पैसे से नही मिलती थी, अपितु सेवा और त्याग से मिला करती थी।

आज समय बदल गया है आज तो सियासत तिजारत के लिए ही की जा रही है, इसलिए सियासत से नैतिकता और जनसेवा का भाव समाप्त हो गया है। ‘आज का एम.एल.ए अपने आपको रामावतार’ मानता है। वह वैभव का जीवन जीना चाहता है अपने ‘समय की कीमत’ जनता से मांगता है और उसे अपने वेतन के रूप में वसूलना चाहता है। भाजपा के रामवीर सिंह बिधूड़ी ने इसी सोच के साथ केजरीवाल सरकार का समर्थन किया है। आज आप अपना चार सौ गुना वेतन बढ़ा रहे हैं, तो कल को विधायकों या सांसदों के लिए मिलने वाले आवासों को भी नकारोगे, क्योंकि वे देश के किसी ‘बिड़ला-डालमिया’ के भव्य भवनों से कम कीमत के हैं, और परसों कहोगे कि हम तो आज के ‘बादशाह’ हैं, इसलिए हमारे लिए तो किलों का निर्माण किया जाए तो ही उचित है। यह तो एक अंतहीन क्रम है। हमारे ऋषि-मुनियों ने राजनीतिज्ञों के लिए सेवा और त्याग की संयमपूर्ण जीवन शैली अपनाकर उनसे अपरिग्रहवादी होने की अपेक्षा की है। यही मार्ग उचित भी है। हमें जनप्रतिनिधियों की वेतनवृद्घि से कोई आपत्ति नही है, कुछ बातें हैं जो उनकी वेतन वृद्घि के लिए उनके समर्थन में भी की जाती हैं, परंतु उन सबके उपरांत भी चार सौ गुणा वेतन वृद्घि तो अलोकतांत्रिक ही मानी जाएगी। मुख्यमंत्री केजरीवाल एक क्रांति पुरूष के रूप में उभरे अवश्य थे पर अब तो लोग उन्हें ‘भ्रांति पुरूष’ मानने लगे हैं। ऐसा क्यों? मुख्यमंत्री स्वयं सोचें। लोकतंत्र में जनहित सर्वोपरि होता है। चार सौ गुणा वेतन वृद्घि कराके हमारे जनप्रतिनिधि किस प्रकार का जनहित साधेंगे? यह समझ में नही आता। यदि राजनीति सेवा का एक माध्यम है तो यह वेतनवृद्घि नितांत अनुचित है, और यदि राजनीति व्यापार का नाम है तो यह लोकतंत्र का नाटक क्यों कहा जाता है? तब तो अच्छा है राजनीति को  सीधे-सीधे व्यापारियों को सौंप दिया जाए। क्योंकि व्यापार का काम व्यापारी ही अच्छा कर सकता है।

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