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इतिहास के पन्नों से

फिर से होगा अखंड भारत

लेखिका:-प्रो. कुसुमलता केडिया

सामान्यजन के मन में है कि हो गया, जो होना था, अब तो यह इतना ही भारत रहेगा। यहां तक कि 14 अगस्त 1947 को जो भारत था, जिसके बड़े हिस्से को अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट एवं ट्रूमेन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल और एटली तथा भारत के गांधीजी, श्री नेहरू, मुहम्मद अली जिन्ना तथा सोवियत संघ के स्तालिन ने मिलकर एक अलग मजहबी नेशन स्टेट बना दिया जो अब दो अलग नेशन स्टेट – पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के रूप में है, उसे भी बहुत से लोग स्थायी रूप से ही अलग हो चुका हिस्सा मानते हैं। अफगानिस्तान तो 1922 ईस्वी से अलग हो ही चुका था। उसे भी अब लोग सदा के लिये अलग ही मानते हैं। यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री ने बारम्बार इन नेशन स्टेट का पड़ोसी के रूप में ही उल्लेख किया था और कुछ इस तरह किया था, मानो अब वे सदा के लिये पड़ोसी ही रहेंगे। इस प्रकार सामान्यजन के लिये अखंड भारत तो अब एक दूर का स्वप्न ही है। कामना तो बहुतो की है परंतु यह साकार होगी, यह बहुत कम लोगों को आशा बची है। अधिकांश को यह अनुमान भी नहीं है कि वस्तुतः भारत से कितने हिस्से अलग हुये हैं और सबके एक होने से अखंड भारत का क्या स्वरूप बनेगा?

जबकि सत्य यह है कि अगर हम विश्व इतिहास को देंखे तो अलग ही तथ्य सामने आयेंगे। 1871 ईस्वी में बिस्मार्क ने 300 अलग-अलग रियासतों में बंटी हुई जर्मनी को एक कर दिया। फिर दूसरे महायुद्ध के बाद 1949 ईस्वी में इंग्लैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्रांस ने जर्मनी को पुनः दो टुकड़ों में बांट दिया। उसके बाद, 1990 ईस्वी में जर्मनी पुनः एक एकीकृत राष्ट्र बन गया।

इसी प्रकार 16 राष्ट्रों को मिलाकर इंग्लैंड एक स्टेट 17वीं शताब्दी ईस्वी में ही बन पाया। 16वीं शताब्दी ईस्वी में पहली बार उसने आयरलैंड पर आक्रमण कर उसे अधीन बनाया और 17वीं शताब्दी ईस्वी मंे भयंकर गृहयुद्ध और मारकाट के बाद जाकर वह एक राज्य बना और फिर 18वीं शताब्दी ईस्वी में स्काटलैंड को मिलाकर वर्तमान ब्रिटेन को बनाने के लिये ‘एक्स ऑफ यूनियन’ नामक संधि हुई। 19वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में इंग्लैंड, आयरलैंड और स्काटलैंड की एकता का कानून बना और इन सभी क्षेत्रों की एक संसद बनाये जाने की संधि पर हस्ताक्षर हुये। 19वीं शताब्दी ईस्वी में जब भयंकर अकाल पड़ा और इंग्लैंड के क्षेत्र के शसकों की गलत नीतियों के कारण दस लाख से अधिक आयरिश लोग मर गये तब आयरिश राष्ट्रवाद का प्रबल उभार हुआ और ब्रिटेन की एकता फिर खतरे में पड़ गई। अंत में 20वीं शताब्दी ईस्वी में (1921 ईस्वी में ही) दोनों में संधि हुई तथा इस प्रकार ब्रिटेन एक राष्ट्र राज्य बना।
यहां यह तथ्य ध्यान में रखने योग्य है कि इधर लगभग 100-150 वर्षों से जो अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति बनी है, उसमें दुनिया में प्रायः उसी दिशा में परिवर्तन होते हैं, जो यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका की दिशा हो। इस दृष्टि से देखें तो अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य को समझने पर ही अखंड भारत के विषय में ठीक-ठीक अनुमान हो सकेगा।
पिछले 150 वर्षों में, संयुक्त राज्य अमेरिका की तो कोई हैसियत नहीं थी। वह वस्तुतः 20वीं शताब्दी ईस्वी में ही वैश्विक पटल पर उभरा है। इसी प्रकार सोवियत संघ की भी कोई हैसियत नहीं थी। स्वयं रूस कुल 300 वर्ष पूर्व ही अस्तित्व में आया है और 20वीं शताब्दी ईस्वी में ही युद्ध में उन शक्तियों की विजय के कारण, जिनका साथ लेनिन और स्तालिन ने दिया था, 1917 ईस्वी में पहली बार सोवियत संघ अस्तित्व में आया और 73 वर्षों बाद सन् 1990-91 ईस्वी में वह पुनः बिखर गया और अभी फिर रूस उस पूरे क्षेत्र को अपने प्रभाव में लेने की कोशिश कर रहा है।

प्रथम और द्वितीय महायुद्धों के बीच की अवधि में तथा द्वितीय महायुद्ध के बाद अनेक नये नेशन स्टेट बनाये गये हैं, जिनमें से अरब क्षेत्र और मध्य एशिया में बहुत छोटे-छोटे इलाके अमेरिका तथा इंग्लैंड-फ्रांस के द्वारा नेशन स्टेट बनाये गये हैं। अलजीरिया, बहरीन, ईजिप्त, ईराक, जार्डन, कुवैत, लेबनान, लीबिया, मोरक्को, ओमान, यमन, कतर, सऊदी अरब, सूडान, सोमालिया, सीरिया, संयुक्त अरब अमीरात आदि बाईस राज्य बनाये गये। इनमें से अनेक आकार और जनसंख्या दोनों ही दृष्टि से बहुत छोटे हैं।

इस प्रकार विश्व में विभिन्न राष्ट्रों की भौगोलिक सीमायें तथा स्वयं अस्तित्व भी लगातार बनते बिगड़ते नजर आते हैं। इसलिये भारत का वर्तमान रूप ही अंतिम और स्थायी है, यह मानने का कोई कारण नजर नहीं आता।

यूरोप में घटी घटनाओं पर लिखी गई अनेक पुस्तकें (जिनमें से एक महत्वपूर्ण पुस्तक है – नार्मन डेविस द्वारा लिखित ‘यूरोप: ए हिस्ट्री’, हार्पर प्रकाशन, न्यूयार्क, 1998 ईस्वी) बताती हैं कि नेशन स्टेट की भौगोलिक सीमायें 20वीं शताब्दी ईस्वी में ही कितनी बार, कितनी तेजी से बनी और बिगड़ी हैं।

यह मत्वपूर्ण है कि जिस समय इंग्लैंड और जर्मनी जैसे नेशन स्टेट अपना दायरा बढ़ा रहे थे और नये-नये इलाके अपने नेशन स्टेट में जोड़ रहे थे, उसी अवधि में 20वीं शताब्दी ईस्वी में ही भारत से अनेक हिस्से अलग किये जा रहे थे। वर्तमान भारत के उत्तर में जो पांच नेशन स्टेट हैं- कजाकस्तान, किर्गिजिस्तान, उज्बेकिस्तान, तुर्कमानिस्तान और ताजकिस्तान ये 20वीं शताब्दी ईस्वी में प्रथम महायुद्ध के बाद ही इंग्लैंड की सहमति से सोवियत संघ में शामिल करने के लिये लेनिन और स्तालिन को सौंप दिये गये। उसके पहले तक ये भारत का ही अंग थे और यहां से राजस्व भारत के खजाने में ही 20वीं शताब्दी ईस्वी के पूर्वाद्ध तक आता था। सोवियत संघ का अंग बनने के बाद ही यह रूका। स्वयं प्रख्यात कम्युनिस्ट लेखक राहुल सांकृत्यायन (जिनका मूल नाम केदार पाण्डे था और जो आजमगढ़ के ही थे) ने लिखा है कि 16,00,000 (सोलह लाख) वर्गकिलोमीटर से अधिक बड़ा यह इलाका वस्तुतः हिमालय क्षेत्र का ही अंग है और पहले यह शकद्वीप कहा जाता था तथा भारत का ही अंग था। 1920 ईस्वी में यह सोवियत संघ में शामिल हुआ। इस पूरे क्षेत्र में संस्कृत भाषा का प्रभाव रहा है। सोना, चांदी, शीशा, रांगा और तांबा सहित अनेक बहुमूल्य धातुओं की खाने यहां हैं।
इसी प्रकार उजबेकिस्तान भी महाभारत काल से भारत का अंग रहा है तथा यह भारत का उत्तर-कुरू नामक जनपद रहा है। यहां प्राचीन भारतीय सभ्यता के बहुत से अवशेष मिले हैं और यहां की भाषा पर संस्कृत का गहरा प्रभाव है। इस्लाम के नाम पर यहां कैसा भयंकर नरसंहार किया गया, इसका स्वयं राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ‘मध्य एशिया’ में वर्णन किया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि समरकंद में एक प्राचीन भारतीय वेदशाला थी जिसे मुसलमानों ने ध्वस्त कर स्वरूप बिगाड़कर मस्जिद बना दिया। इस क्षेत्र में संस्कृत के हजारों महत्वपूर्ण ग्रंथ भी मिले हैं।

किर्गिजिस्तान भी भरतवंशी तुरूष्क क्षत्रियों का क्षेत्र रहा है। यहां भी मुसलमानों ने भयंकर नरसंहार किया। तुर्कमानिस्तान 11वीं शताब्दी ईस्वी तक हिन्दू संस्कृति का क्षेत्र था और 20वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ तक भारत का अंग था। इसी प्रकार ताजिकिस्तान भी कश्मीर से सटा हुआ भारतीय इलाका है जो हिमालय का पश्चिमी अंश है और 20वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ तक भारत का अंग था। भारतीय शकों का यह क्षेत्र था। यहां की भाषा में आज भी अरबी का कोई प्रभाव नहीं है, संस्कृत का ही मुख्य प्रभाव है। इस तरह ये पांचों ही स्तान थोड़े ही प्रयासों से पुनः भारत का अंग हो सकते हैं। क्योंकि उनमें भारत से अपनी आत्मीयता की स्मृति बहुत गहरी है।

अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश वाले क्षेत्र में तो 20वीं शताब्दी ईस्वी तक संस्कृत की पाठशालायें चलती थीं और हिन्दुओं की अच्छी-खासी संख्या थी। अफगानिस्तान को रूस से सीधी टकराहट बचाने के लिये एक बफर स्टेट बनाया गया और बाद में 1947 ईस्वी में पाकिस्तान और बांग्लादेश वाले क्षेत्र को पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान का नाम देकर पूर्णतः मजहबी इलाका बना दिया गया तथा इस्लाम के लिये समर्पित कर दिया। परंतु ये दोनों ही नेशन स्टेट अनेक कबीलाई टकरावों और सामप्रदायिक टकरावों से जर्जर हो रहे हैं तथा सही राजनैतिक नेतृत्व भारत में होने पर ये क्षेत्र सहज ही भारत से जुड़ना चाहेंगे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि वस्तुतः वैश्विक राजनैतिक परिवर्तनों का प्रभाव भारतीय क्षेत्र पर भी पड़ा है और जापान से घबरा कर स्तालिन को महत्व देकर उनके कब्जे वाली कम्युनिस्ट पार्टी का चीनी क्षेत्र में आधिपत्य स्थापित किया गया। जिन कारणों से रूस और चीन में कम्युनिस्ट पार्टियों को बढ़ावा दिया गया और भारत को बांटा गया, बदली हुई परिस्थितियों में उन्हीं कारणों से सोवियत संघ का विघटन कराया गया और अब चीन का विघटन सुनिश्चित है। विशेषकर कोरोना महामारी को विश्व भर में फैलाने के कारण चीन अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी में खलनायक बन गया है और अब चीन को ‘कन्टेन’ करने के लिये जापान को बढ़ावा देना स्वभाविक है।

यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका को इस समय मुख्य चुनौती दे रहे हैं मुस्लिम आतंकवाद तथा चीनी विस्तारवाद जिसमें चीन का आर्थिक विस्तारवाद मुख्य है। उसे रोकने के लिये भू-राजनैतिक कारणों से यूरोप और अमेरिका को भारत की आवश्यकता है। इसलिये 21वीं शताब्दी ईस्वी में भारत का अत्यधिक महत्व है और भारत की अखंडता यूरोप तथा अमेरिका के लिये निर्णायक है।

राबर्ट डी काप्लान ने अपनी पुस्तक ‘दि रिवेंज ऑफ जाग्रफी’ (रेण्डम हाउस, न्यूयार्क) में अध्याय 15, पृष्ठ 326 में लिखा है कि ‘भारत विश्व राजनीति में 21वीं शताब्दी ईस्वी में धुरी राज्य है’ अर्थात् विश्व राजनीति 21वीं शताब्दी ईस्वी में भारत के इर्द-गिर्द ही घूमेगी, भारत की इसमें निर्णायक भूमिका होगी।

विश्व राजनीति को भूराजनीति तथा भौगोलिक संरचनायें बड़ी सीमा तक निर्धारित और प्रभावित करती हैं। भारत का सदा से ही अपनी भू-संरचना और भौगोलिक स्थिति के कारण विश्व राजनीति में निर्णायक स्थान रहा है। भारत का गौरवशाली इतिहास और सुशासन तथा सुव्यवस्था के साथ ही समृद्ध युद्धशास्त्र और वीरता की भव्य परंपरायें तथा प्राचीनतम काल से विकसित सैन्य व्यवस्था इसे सदा निर्णायक बनाये रही हैं और इसका लाभ इंग्लैंड को भी 90 वर्षों तक भारत के आधे हिस्से में आधिपत्य स्थापित करने तथा शेष हिस्से के राजाओं से गहन मैत्रीसंबंध स्थापित रखने के कारण मिलता रहा है।

दोनों ही महायुद्धों में इंग्लैंड के पक्ष को निर्णायक जीत में भारत की सेनाओं की निर्णायक भूमिका रही है। अन्यथा पराजय सुनिश्चित थी। ब्रिटेन में भारत की इस भौगोलिक संरचना और राजनैतिक स्थिति को अच्छी तरह समझ कर स्वयं तो इसका भरपूर लाभ लिया परंतु भविष्य के प्रति आशंकित रहने के कारण जाते-जाते इस राष्ट्र में अनेक विजातीय राज्य थोप गये और मुख्य भूमि पर भी अपने एजेंट को बैठा गये। उनके संकेत पर सत्ता में बैठे लोगों ने भारत को कमजोर रखने के लिये अनेक कार्य किये और अपने निजी राजनैतिक झुकाव के कारण भी नेहरू ने भारत को स्तालिन से बांध दिया तथा स्तालिन के संकेत पर भारत की बहुत बड़ी भूमि छद्म युद्ध का नाटक कर चीन को सौंप दी।

जापान द्वारा अचानक संयुक्त राज्य अमेरिका पर आक्रमण के कारण परमाणु बम द्वारा जापान को भारी क्षति पहुंचाने के साथ ही उसे पुनः बलशाली होने से रोकने के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका के शासन ने भी चीन के कम्युनिस्ट शासन को पोषित किया। परंतु कोरोना की विश्वव्यापी घटना के बाद विश्व परिदृश्य बदल गया है और अब चीन के समकक्ष जापान को खड़ा करना अमेरिका को स्वाभाविक आवश्यक लग रहा है।

भारत का महत्व तो संयुक्त राज्य अमेरिका के शासक सदा से समझते ही थे। इस प्रकार नई परिस्थितियों में भारत, जापान, तिब्बत और मंगोलिया को सब प्रकार से सशक्त करना और हिन्दू भारत की केन्द्रीय स्थिति सुनिश्चित होने में अपनी ओर से सहयोग करना अंतर्राष्ट्रीय प्रमुख शक्तियों की रणनैतिक अनिवार्यता हो गई है।

अतः 21वीं सदी की भूराजनीति इन सब कारणों से भारत के पक्ष में है। मजहबी आतंकवाद पर प्रभावी रोक के लिये भी यह आवश्यक हो गया है इसलिये 21वीं सदी की भूराजनीति और प्रभावक्षेत्रों के पुनर्निर्धारण की अनिवार्यता हो जाने के कारण विक्रम की 21वीं शताब्दी समाप्त होते-होते (आगामी 25-30 वर्षों में) भारत का विश्वशक्ति के रूप में उभरना सुनिश्चित हो गया है और सौभाग्यवश भारत में तदनुकूल शासक भी श्री नरेन्द्र मोदी जैसे प्रभावी राजपुरूष के आने से उपस्थित है। इसलिये 21वीं सदी की भूराजनीति भारत के विश्व शक्ति के रूप में उत्कर्ष और प्रतिष्ठा को ऐतिहासिक नियति बना रही है। इसीलिये एक शक्तिशाली और मुस्लिम आतंकवाद तथा चीनी विस्तारवाद को रोकने में सक्षम, समर्थ भारत विश्व राजनीति के लिये निर्णायक महत्व का है। हमारे पास श्री नरेन्द्र मोदी जी जैसा सक्षम और प्रभावी नेतृत्व होने से अन्तर्राष्ट्रीय निर्णायक शक्तियों को भारत पर स्वाभाविक विश्वास हो गया है। इसलिये अखंड भारत के लिये उठाये गये आवश्यक राजनैतिक एवं कूटनैतिक कदमों को वैश्विक समर्थन प्राप्त होगा और श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत पुनः अखंड होगा तथा स्वामी विवेकानंद तथा श्री अरविन्द की भविष्यवाणी सही सिद्ध होगी।
✍🏻कुसुमलता केडिया

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