सम्पादकीय : अफगानिस्तान में भारत की भूमिका

 

यदि इतिहास के दृष्टिकोण से देखा जाए तो भारत और अफगानिस्तान के संबंध युगों पुराने हैं। संपूर्ण अफगानिस्तान कभी आर्यावर्त का ही एक भाग हुआ करता था। महाभारत काल में भी भारत और कंधार के रिश्ते बहुत ही मजबूत रहे । कालांतर में इस्लाम के आक्रमणों ने अफगानिस्तान का वैदिक हिंदू अतीत समाप्त कर दिया और यहां पर मुस्लिम बहुसंख्यक हो गए जिससे 1876 में यह देश भारत से अलग हो गया। आज भी अफगानिस्तान में ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं जो अपने वैदिक हिंदू अतीत को याद करते हैं और वे यह मानते हैं कि भारत ही इनका पितृ पूर्वज है।


1947 में भारत से अलग होकर मजहब के आधार पर पाकिस्तान नाम का एक नया देश अस्तित्व में आया। वैश्विक राजनीति का यह एक सुखद और आश्चर्यजनक तथ्य है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान मजहबी आधार पर एक होने के उपरांत भी अफगानिस्तान का भारत के प्रति कहीं अधिक लगाव है और वह पाकिस्तान को अधिक वरीयता नहीं देता। भारत ने भी अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में अरबों लागत वाली कई बड़ी परियोजनाओं को स्थापित किया है जिनमें से कुछ पर काम पूरा हो चुका है तो कुछ पर अभी काम चल रहा है। भारत के साथ अफगानिस्तान अपने ऐतिहासिक संबंधों के दृष्टिगत उदार और मैत्रीपूर्ण संबंध रखता है। जबकि पाकिस्तान जैसे आतंकी राष्ट्र के प्रति उसका भी वैसा ही दृष्टिकोण है जैसा कि भारत का पाकिस्तान के प्रति है, क्योंकि पाकिस्तान अफगानिस्तान में भी अशांति और उत्पात करवाने के लिए आतंकी गतिविधियों को प्रोत्साहित करता रहता है।
अफगानिस्तान को भारत के निकट देखकर अमेरिका जैसा देश भी जलता रहता है यही कारण है कि वहां के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने स्थान में भारत की भूमिका और उसके कार्यों पर उपहास भरी टिप्पणी की थी। इसके साथ ही डोनाल्ड ट्रंप ने यह भी कह दिया था कि अफगानिस्तान की वर्तमान में जो भी स्थिति है उसके लिए भारत ,रूस और पाकिस्तान जिम्मेदार हैं । निसंदेह अमेरिका का यह बयान उचित नहीं था। जिसका भारत ने विरोध किया था। वास्तव में अमेरिका अपनी दादागिरी दिखाते हुए प्रत्येक देश के साथ भारत के संबंध वैसे ही चाहता है जैसे उसके अपने हैं। यद्यपि वह यह भी जानता है कि भारत इस समय अपनी विदेश नीति को किसी भी बड़ी शक्ति के कहने से ना तो मोड़ सकता है और ना ही छोड़ सकता है। वह अपने राष्ट्रीय हितों के दृष्टिगत निर्णय लेता है। अपनी संप्रभुता ,एकता और अखंडता के दृष्टिगत किसी भी विदेश देश से अपने संबंध निर्धारित करता है।
1980 के दशक में इंदिरा गांधी के शासनकाल में ही भारत अफगानिस्तान संबंधों को नए आयाम दिए जाने आरंभ कर दिए गए थे। बाद में जब यहां पर तालिबान ने 1990 में सत्ता पर अवैध कब्जा किया तो उस समय भारत और अफगानिस्तान के संबंधों में अप्रत्याशित शिथिलता देखने को मिली। 2001 में जैसे ही तालिबान सत्ता से अलग हुआ तो भारत और अफगानिस्तान के संबंध फिर से मजबूती प्राप्त करने लगे। वास्तव में भारत का एक कट्टर सांप्रदायिक देश से मित्रता पूर्ण संबंध हो भी नहीं सकता । क्योंकि भारत एक उदार और लचीला दृष्टिकोण अपनाकर सब लोगों के साथ समन्वय स्थापित करके चलने वाला देश है। जबकि सांप्रदायिक कट्टरता इस प्रकार की उदारता और लचीलेपन को कभी स्वीकार नहीं करती। इस प्रकार सैद्धांतिक मतभेदों के कारण तालिबान सरकार से भारत का किसी प्रकार का कोई संपर्क और संबंध हो ही नहीं सकता था।
भारत ने अब तक अफगानिस्तान को लगभग तीन अरब डॉलर की सहायता देकर इस देश के पुनर्निर्माण में अपनी सक्रिय और अहम भूमिका अदा की है। जिसके लिए वहां की जनता भी भारत का शुक्रिया अदा करती है। भारत ने अपनी इस प्रकार की योजना के अंतर्गत वहाँ संसद भवन, सड़कों और बांध आदि का निर्माण किया है। इसके अतिरिक्त कई प्रकार की मानवीय और विकास की योजनाओं पर भारत अभी भी अफगानिस्तान में काम कर रहा है। भारत की शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की भावना से अफगानिस्तान के लोग अभिभूत हैं। वहां का शासन भी यह भली प्रकार जानता है कि भारत दिल से किसी भी देश का बुरा नहीं चाहता। उसके लिए शर्त केवल एक है कि अगला देश भी अपनी साफ़ दिली से पेश आए।
अफगानिस्तान भारत की सहृदयता और साफदिली से पूर्णतया परिचित है ।वह जानता है कि भारत जो कहता है वही करता है और किसी भी देश की एकता अखंडता और संप्रभुता के लिए कभी वह खतरा पैदा नहीं कर सकता ।यही कारण है कि अफगानिस्तान के लोग भारत को अपने यहां बहुत ही खुशी खुशी काम करने दे रहे हैं अर्थात उन्हें भारत की नियत पर कोई संदेह नहीं है।
इस समय दोनों देश अधिक प्रभाव वाली 116 सामुदायिक विकास परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, नवीकरणीय ऊर्जा, खेल अवसंरचना और प्रशासनिक अवसंरचना के क्षेत्र भी सम्मिलित हैं। इसके अंतर्गत काबुल के लिये शहतूत बांध और पेयजल परियोजना (सिंचाई में भी सहायक) पर काम आरम्भ किया जाएगा। अफगान शरणार्थियों के पुनर्वास को प्रोत्साहित करने के लिये नानगरहर प्रांत में कम लागत पर घरों का निर्माण किया जाना प्रस्तावित है।
इनके अलावा, बामयान प्रांत में बंद-ए-अमीर तक सड़क संपर्क, परवान प्रांत में चारिकार शहर के लिये जलापूर्ति नेटवर्क और मजार-ए-शरीफ में पॉलीटेक्नीक के निर्माण में भी भारत सहयोग दे रहा है। कंधार में अफगान राष्ट्रीय कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (ANASTU) की स्थापना के लिये भी भारत ने सहयोग का भरोसा दिलाया है।
मई, 2017 में प्रक्षेपित दक्षिण एशियाई उपग्रह में अफगानिस्तान की भागीदारी से भारत रिमोट सेंसिंग प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोगों में अफगानिस्तान की और अधिक मदद कर रहा है।
इस प्रकार की विकासशील परियोजनाओं से पता चलता है कि भारत अफगानिस्तान को फिर से खड़ा करने में अपनी महत्वपूर्ण और जिम्मेदारी भरी भूमिका निभा रहा है। वैश्विक समुदाय की ओर से भी भारत के प्रयासों की सराहना तो की गई है कभी आलोचना नहीं की गई ।इसका अर्थ है कि वैश्विक समुदाय भी भली प्रकार यह जानता है कि भारत किसी भी देश के उत्थान और उद्धार में दिल से मदद करता है। क्योंकि भारत विस्तारवादी या आतंकवादी गतिविधियों को प्रोत्साहित कर किसी देश में अशांति पैदा करना नहीं चाहता। इसके उपरांत भी भारत अफगानिस्तान में जितना भी कुछ कर रहा है वह उसके निर्माण में ही सहयोगी है। वह अफगानिस्तान में किसी भी प्रकार का कोई सैनिक जोखिम लेना नहीं चाहता, यानि विदेशी शक्तियां यदि यह चाहें कि भारत अफगानिस्तान में सैनिक रुचि ले और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनका युद्ध भारत से चल जाए तो भारत उस बिंदु पर पूर्णतया सजग और सावधान की मुद्रा में है । हमारा मानना है कि भारत को अपनी इसी प्रकार की सजग और सावधानी भरी हुई भूमिका में ही रहना चाहिए । किसी भी प्रकार की जल्दबाजी में लिया गया निर्णय अपने लिए आत्मघाती हो सकता है। इसलिए सैनिक रुचि के मामले में भारत को संयम बरतने की ही आवश्यकता है ।यह एक अच्छी बात है कि वर्तमान नेतृत्व किसी प्रकार की नीति पर कार्य कर रहा है। यह एक बहुत ही पेचीदा तथ्य है कि पाक अफगानिस्तान में जब तक अमेरिकी सेना है तब तक वहां तालिबानों को सत्ता से दूर रखने की योजना पर कार्य किया जा सकता है । जैसे ही वहां से अमेरिकी सेनाएं हटेंगी तो वहां की सत्ता पर तालिबानों का कब्जा होना निश्चित है। ऐसे में भारत की अफगानिस्तान के प्रति नीति बहुत ही अधिक सावधानी भरी होनी स्वाभाविक है। यदि अफगानिस्तान में तालिबान हावी और प्रभावी होते हैं तो न केवल भारत का अफगानिस्तान के निर्माण में दिया गया योगदान व्यर्थ चला जाएगा बल्कि उसकी विदेश नीति भी इससे प्रभावित होगी। इसके अतिरिक्त विश्व की बड़ी शक्तियां भी भारत का उपहास करेंगी। ऐसी स्थिति में भारत को अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप भी करना पड़ सकता है। यद्यपि वह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं होगा। क्योंकि तब भारत की सेनाएं अनावश्यक रूप से ही किसी दूसरे देश की धरती पर उलझ कर रह जाएंगी । जिसका भारत की भीतरी शांति पर भी विपरीत प्रभाव पड़ना निश्चित है। क्योंकि यहां पर भी ऐसे नाग हैं जो तालिबानों से खुराक लेते हैं। वैसे अफगानिस्तान के नेता और जनता दोनों ही यह चाहते हैं कि भारत अफगानिस्तान में अपनी भूमिका को निभाता रहे और अफगानिस्तान में स्थाई शांति स्थापित करने में सहायक हो।

राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

 

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