क्या धर्मांतरण के लिए केवल मदरसों और मिशनरियों को दोषी ठहराया जाना उचित है ?

🙏बुरा मानो या भला🙏

 

—मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”

आज पूरे देश में धर्मांतरण को लेकर एक बड़ी बहस छिड़ी हुई है। धर्मांतरण के लिए एक-दूसरे पर दोषारोपण किया जा रहा है। परन्तु यक्ष प्रश्न यह है कि धर्मांतरण के लिये क्या केवल मदरसों और मिशनरियों को ही दोषी माना जाना चाहिए?

हिन्दू समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह जादू-टोने और चमत्कार में अधिक विश्वास रखते हैं। हिंदुओं में चमत्कार को नमस्कार करने की बहुत पुरानी कुप्रथा है। दूसरा हिन्दू कभी धैर्यवान नहीं होता, वह हमेशा भटकता रहता है। धर्मांतरण के लिए हिन्दू समाज का अंधविश्वास और स्वार्थपूर्ण आचरण प्रमुख रूप से दोषी है। झाड़-फूंक, गंडे-ताबीज़, जादू-टोना और पीर-फकीरों से मिन्नतें और मन्नतें करना आदि मामलों में हिन्दू महिलाओं की तादाद सबसे अधिक है। हिंदुओं की इसी कमज़ोरी का अनुचित लाभ विदेशी धर्मगुरुओं ने उठाया और भारत में अशिक्षित और अंधविश्वासी हिन्दू समाज का धर्मांतरण सबसे अधिक संख्या में हुआ।

मजार और दरगाह क्या हैं? किसी मुस्लिम फ़क़ीर की कब्रगाह को दरगाह और मज़ार बना दिया गया। सच्चाई तो यह है कि जिन लोगों ने भारत में इस्लाम को सबसे अधिक फैलाया उन्हीं लोगों की कब्रों पर हम माथा टेकते हैं, चादरें चढ़ाते हैं और अगरबत्तियां जलाकर मन्नतें मांगते हैं।

इसमें ग़लती किसकी है? निश्चित रूप से हिन्दू समाज के उन तमाम धर्मगुरुओं, प्रतिष्ठित और जिम्मेदार लोगों की जो अपने समाज को यह समझाने में विफल रहे कि ईश्वर एक है और वही सर्वशक्तिमान है। जिन लोगों ने मूर्तिपूजा और नए-नए देवी-देवताओं को जन्म दिया, चमत्कार को नमस्कार करने की कुप्रथा को बढ़ावा दिया, वेदों और उपनिषदों के पवित्र ज्ञान को छोड़कर मनघड़ंत कहानी-किस्सों का गुणगान किया, अंधविश्वास, पाखंड और बहुल देववादी संस्कृति को प्रोत्साहित किया, वह सब लोग भी धर्मांतरण के लिए दोषी हैं।

हिन्दू धर्म में कुछ पाखंडियों, धनलोलुप और व्यभिचारियों ने “व्यक्ति पूजा” को प्रोत्साहित किया। एक जीते-जागते इंसान की पूजा करना कैसे उचित माना जा सकता है? क्या किसी इंसान को परमपिता परमेश्वर के समकक्ष माना जा सकता है? क्या “व्यक्ति पूजा” को किसी भी दृष्टिकोण से धर्मसंगत ठहराया जा सकता है।

अभी तक हिन्दू समाज में मुस्लिम फकीरों की कब्रगाहों पर ही माथा टेका जा रहा था। यहां तक कुछ हद तक गनीमत थी, परन्तु अब तो सांई बाबा के नाम पर एक मुस्लिम फ़क़ीर को मंदिरों में पूजने का भी एक नया प्रचलन शुरू किया गया है। क्या साईं पूजा को हमारे वेदों और शास्त्रों में कोई स्थान दिया गया है? क्या मंदिरों में एक मुस्लिम फ़क़ीर की मूर्ति लगाना धर्मसंगत माना जा सकता है? शायद कदापि नहीं। परन्तु आस्था और विश्वास की आड़ में नए-नए अवतार वाद के धर्म-व्यापार का यह धंधा आजकल खूब फलफूल रहा है। वह दिन दूर नहीं जब अवतारवाद के इस अति लाभकारी धर्म-व्यापार में एक और नया अवतार प्रकट होगा और उसकी जय-जयकार चहुं ओर सुनाई देने लगेगी।

यहां सबसे महत्वपूर्ण यह भी है कि हिन्दू समाज में आध्यात्मिक संस्कृति का शनैः शनैः ह्रास हुआ है और आधुनिकता की आड़ में भौतिकतावादी संस्कृति को ख़ूब पुष्पित-पल्लवित किया जा रहा है। क्या यह विडंबना नहीं है कि हवन करने जैसे पुण्य और पवित्र धार्मिक अनुष्ठान को भी भौंडे और अश्लील गीतों में सम्मिलित कर उसका मज़ाक बनाया जा रहा है। हवन करेंगे-हवन करेंगे, जैसे भौंडे गीत को कोई घटिया और हिन्दू विरोधी संस्कृति का व्यक्ति ही लिख सकता है और कोई बेहद घिनौनी विचारधारा का व्यक्ति ही उसे गा सकता है।
सच कहिये तो जबसे हिन्दू समाज वैदिक संस्कृति को भूलकर “व्यक्तिगत संस्कृति” की ओर बढ़ा है, तबसे हिन्दू समाज निरन्तर गर्त में जा रहा है।

इसलिये हमारे विचार से धर्मांतरण के लिए केवल और केवल मदरसों और मिशनरियों को दोष देना निष्पक्ष नहीं माना जा सकता।
यदि हम धर्मांतरण को रोकना चाहते हैं तो हमें पुनः वेदों की ओर लौटना ही होगा और वेदों की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करना होगा। एकेश्वरवाद के महत्व को समझना और समझाना होगा। हमारी युवा पीढ़ी का अत्याधिक ध्यान आध्यात्म की ओर आकर्षित करना होगा। पीरों-फकीरों, मजारों-दरगाहों और कथित चमत्कारी और ढोंगी बाबाओं का बहिष्कार करना ही होगा।

🖋️ मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”
समाचार सम्पादक- उगता भारत हिंदी समाचार-
(नोएडा से प्रकाशित एक राष्ट्रवादी समाचार-पत्र)

*विशेष नोट- उपरोक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।  हमारा उद्देश्य जानबूझकर किसी की धार्मिक-जातिगत अथवा व्यक्तिगत आस्था एवं विश्वास को ठेस पहुंचाने नहीं है। यदि जाने-अनजाने ऐसा होता है तो उसके लिए हम करबद्ध होकर क्षमा प्रार्थी हैं।

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