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खुद संयुक्त राष्ट्र ने भी फिलिस्तीन के साथ ‘खेला’ कर दिया

अतिश नाथ तिवारी

जब जर्मनी में तानाशाह हिटलर की क्रूर नाज़ी सेना यहूदियों की लाशें गिरा रही थी, तब भारत में आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठन हिटलर का समर्थन कर रहे थे। हिटलर के यहूदी विरोधी विचार और संघ के मुस्लिम विरोधी विचार आपस में मिलते-जुलते थे। उस समय यहूदी और कम्युनिस्ट, हिटलर का मुकाबला करते हुए शहीद हो रहे थे। लिहाजा हिटलर यहूदियों और कम्युनिस्टों को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता था। भारत में संघ परिवार ने हिटलर की राह पकड़ी और कम्युनिस्टों और मुसलमानों का अपना दुश्मन माना।

लेकिन जब 1948 में यहूदियों का एक अलग देश इस्रराइल के रूप में स्वीकार लिया गया और तब के फिलिस्तीन की धरती का लगभग आधा हिस्सा इस्रराइल नाम के नए देश के तौर पर मान्यता पा गया तब स्थितियां बदल गईं। यहूदियों को उनका एक देश मिल गया। लेकिन इसी के साथ फिलिस्तीन से कभी खत्म ना होने वाली दुश्मनी भी मिली।

इससे पहले तक फिलिस्तीन मुस्लिम बहुल देश था हालांकि, वहां यहूदियों की भी आबादी थी। उसके विभाजित होने और यहूदियों के एक नए देश के निर्माण से भारत में संघ परिवार को एक नई संभावना दिखी। संघ परिवार को ये भरोसा हो गया कि निरंतर हिंसा के बूते धर्म के नाम पर अलग देश बनाया जा सकता है।

इस्रराइल और फिलिस्तीन के बीच बंटवारे का दंश और सीमा विवाद ऐसे कारण रहे जो अक्सर दोनों के बीच झड़प की स्थितियां पैदा करते रहे। इस स्थिति में पश्चिमी आतंकवाद का नेतृत्व करने वाले अमेरिका ने इस्रराइल को मदद देनी शुरू कर दी। फिलिस्तीन को लगा कि वो जंग में अकेला खड़ा है और बहुत दिनों तक टिकने की स्थिति में नहीं है तो, उसने खुद को इस्लामिक देश के तौर पर प्रचारित कर खाड़ी देशों से मदद का माहौल बनाना शुरू किया। धीरे-धीरे इस्रराइल और फिलिस्तीन अमेरिका और खाड़ी देशों का मोहरा होते गए।

जैसे-जैसे फिलिस्तीन और इस्रराइल का संघर्ष बढ़ा वैसे-वैसे संघ परिवार मानसिक तौर पर इस्रराइल के निकट होने लगा। 1967 में जब छे दिनों के संघर्ष में इस्रराइल ने एक साथ कई मुस्लिम देशों पर बमबारी की तब भारत समेत दुनिया के कई देशों में फैले संघ परिवार और उसके आनुषांगिक संगठनों ने इस्रराइल को मध्य-पूर्व की मुस्लिम विरोधी ताकत के तौर पर प्रचारित किया। इसका फायदा इस्रराइल को ये मिला कि दुनिया भर के मुस्लिम विरोधी देश मुस्लिम विरोध के नाम पर इस्रराइल को मदद करने लगे। वैश्विक मामलों के जानकार डॉक्टर प्रेम कुमार मणी ने अपने एक लेख में लिखा है कि इस माहौल का फायदा उठाकर इस्रराइल ने खुद को इतना साधन-संपन्न और ताकतवर बना लिया कि अब उसे अमेरिका का मुंह ताकने की जरूरत नहीं है लेकिन, फिलिस्तीन परजीवी होता गया। उसे खाड़ी देशों की मदद से जीने की लत गई। ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान को चीन और अमेरिका की मदद से जीने-खाने की लत लगी हुई है।

आज हालत ये है कि इस्रराइल और फिलिस्तीन के बीच लगातार होती रही लड़ाइयों के बाद अब फिलिस्तीन के पास न तो संसाधन हैं और ना ही हौसला। फिलिस्तीनी नागरिक धर्म के नाम पर ईंट और पत्थरों से इस्रराइली सैनिकों का मुकाबला करते दिख रहे हैं। खुद संयुक्त राष्ट्र ने भी फिलिस्तीन के साथ ‘खेला’ कर दिया और संयुक्त राष्ट्र संघ की देखरेख वाला यरूशलम शहर पर भी इस्रराइल के कब्ज़े में जा चुका है। अब पूरी तरह से अपनी ताकत गंवा चुका अतिवादी संगठन हमास भी अपनी आखिरी लड़ाई लड़ रहा है। तथाकथित सभ्य देश जिन्होंने इस्रराइल और फिलिस्तीन के बीच के विवाद को बढ़ावा दिया और यहूदियों और मुसलमानों के बीच स्थाई दुश्मनी को हवा दी अब बाहर से आनंद ले रहे हैं।

इस्रराइल की आबादी एक करोड़ भी नहीं है। उसमें भी सत्रह प्रतिशत के आसपास मुस्लिम धर्मावलम्बी हैं। यहूदियों, मुसलमानों और ईसाइयों के सांस्कृतिक सम्बन्ध कभी ठीक वैसे रहे हैं जैसे भारत में हिन्दुओं, सिक्खों और बौद्धों के रहे हैं। यरूशलम अगर यहूदियों का मूल धार्मिक केंद्र है तो वहीं बैथेलहम में ईसा मसीह का भी जन्म हुआ और दुनिया भर में मुसलमानों की तीसरी सबसे खास जगह अक्सा मस्जिद भी वहीं है। मक्का और मदीना के बाद अक्सा मस्जिद को इस्लाम में मान्यता दी जाती है। इसी के साथ ये तीनों धर्म एकेश्वरवाद पर स्थित हैं।

पश्चिमी आतंकवाद का नेतृत्व करने वाले ब्रिटेन और अमेरिका ने यहां भी वही खेला किया जो वो भारत में करते रहे हैं। मध्य पूर्व पर कब्जा करने की अमेरिकी साजिश को यहूदी और मुसलमान अगर वक्त पर समझ गए होते तो शायद न कभी फिलिस्तीन का बंटवारा होता और ना ही आज तबाही मचाने वाली ऐसी लड़ाई हुई होती।

अब सवाल ये कि हम भारतीयों का इससे क्या लेनादेना ? लेनादेना है। 1947 से पहले तक भारत और फिलिस्तीन की स्थिति लगभग समान थी। ब्रिटेन ने भारत को 15 अगस्त 1947 को मुक्त किया था और उसके ठीक दस महीने बाद फिलिस्तीन को 14 मई 1948 को मुक्त किया। ब्रिटेन ने भारत में मोहम्मद अली जिन्ना और संघ परिवार की मदद से जबरन एक मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान बना दिया और फिलिस्तीन में एक नया यहूदी राष्ट्र इस्रराइल बना दिया। दोनों विभाजन धर्म के आधार पर हुए। यह एशिया के दो राष्ट्रों का ऐसा बंटवारा था जिसके जरिए स्थाई तौर पर दो धर्मों के लोगों के बीच बड़ी नफरत पैदा हो गई।

जब तक ब्रिटेन ताकतवर रहा तब तक अमेरिका और ब्रिटेन अंतर्राष्ट्रीय मामलों में एक ही नीति अपनाते रहे। ब्रिटेन के कारण ही कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में गया। ब्रिटेन चाहता था कि भारत के कश्मीर और फिलिस्तीन के यरूशलम को संयुक्त राष्ट्र संघ के हवाले कर दिया जाए। फिलिस्तीन का नेतृत्व ब्रिटेन के सामने कमजोर पड़ा और यरूशलम संयुक्त राष्ट्र संघ के हवाले हो गया लेकिन भारत में पंडित जवाहर लाल नेहरू का नेतृत्व था। वो ब्रिटेन और अमेरिकी चालों के खूब समझते थे। उनकी वैश्विक धाक ऐसी थी कि ब्रिटेन और अमेरिका उन पर दबाव नहीं बना पाए। बाद में ब्रिटेन का पराभव हो गया और अमेरिका तो आज भी पाकिस्तान के जरिए भारत को कमजोर करने की कोशिशों में जुटा ही है।

जब ब्रिटेन की दुनिया भर में तूती बोलती थी तब ब्रिटेन और अमेरिका पाकिस्तान को इस्रराइलबनाना चाहते थे। खुद पाकिस्तान भी इसरायल बनने की किशिशों में जुटा रहा। तब ब्रिटेन और अमेरिका ने राजनीति में धर्म का खुला इस्तेमाल किया। लेकिन भारत में पंडित नेहरू के नेतृत्व ने उसके मंसूबों को बुरी तरह से ध्वस्त किया। आज मुश्किल यह है कि फिलिस्तीन के पास ना तो यासर आराफात जैसा नेतृत्व है और ना ही भारत के पास पंडित नेहरू जैसा नेता। एक के पास हमास है तो दूसरे के पास आरएसएस।

हमारे भारत में भी फिलिस्तीनी और इस्रराइली मानसिकता के लगों की बड़ी आबादी है। एक भीड़ अमेरिका की बिसात का मोहरा है तो दूसरी भीड़ कुछ खाड़ी देशों की बिसात का मोहरा। बेहतर होता कि हम भारतीय इसरायल और फिलिस्तीन की इस जंग से कुछ सीखते वरना, अमेरिकी बिसात का मोहरा बनने से कोई नहीं रोक पाएगा।

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