जिसने सारी कामनाओं को जीत लिया, एक काम ना तो उसकी भी शेष है…
भारत प्राचीन काल से ही एकेश्वरवाद को मानने वाला देश रहा है। इसके ऋषियों का चिंतन बड़ा उत्कृष्ट रहा है। वैदिक चिंतन से ओतप्रोत हमारे ऋषियों ने एक ईश्वर में आस्था और विश्वास रखते हुए अपने अनेकों ग्रंथों की रचना की। उन्हीं में से हमारे उपनिषद भी सम्मिलित हैं । भारत की इस एकेश्वरवाद की परंपरा को ही प्रकट करते हुए संत नानक जी कहते हैं –
“अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बंदे।
एक नूर तेसब जग उपज्या, कौन भले को मंदे”।
एक नाम ओंकार – ‘ॐ’ – अक्षर ब्रह्म/ नाद ब्रह्म। परमात्मा का एक नाम सत्य भी है। सत् पुरूषों की संगति/ सामीप्य / सान्निध्य को सत्संग कहते हैं।
हमारे ऋषि महर्षि और महापुरुष ज्ञान के क्षेत्र में इतनी ऊंचाई को छू जाते थे कि उनका सत्संग मानो आत्मा और परमात्मा का सत्संग होता था। ईश्वर के सामीप्य और सानिध्य को उन्होंने बड़ी गहराई से अनुभव किया था। उपनिषदों के स्वाध्याय से तो ईश्वर के प्रति हमारी निकटता और भी अधिक बढ़ जाती है। उपनिषदों का अध्ययन करने के बाद ही औरंगजेब का भाई दारा शिकोह उपनिषद् स्वाध्याय के बाद गजब की मस्ती में रहते थे। सत्य के बोधत्व के बाद उन्होंने कहा कि किसी में कोई फर्क (भिन्नता) नहीं है। उन्होंने कौमी एकता पर बल दिया।
याज्ञवल्क्य जी यज्ञोपैथी के जनक कहे जाते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य व विदेहराज जनक के संवाद में गुरू-शिष्य परंपरा व इसमें सन्निहित मैत्री भाव भी झलकता है। शिक्षण में प्रश्नोत्तरी के महत्व को दर्शाता है। रागों (आसक्ति/ कामनाएं) के बीच रह कर भी जो वीतरागी (अनासक्त) हैं वे ही वैरागी हैं। सद्गृहस्थ परम सन्यासी हैं। वाणी (वाक्) – नाप तौल कर बोलें। “ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोए,
औरन को शीतल करे और आपहु शीतल होते।” जिसके मन – मंदिर में गायत्री मंत्र प्रतिष्ठित हैं उनकी वाणी सदैव कल्याणकारी होती है।
योअकामो निष्काम आप्तकाम आत्मकामो न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव संब्रह्माप्राप्येति।।
यह भी ‘बृहदारण्यकोपनिषद’ का मंत्र है। आज हम इसी पर चर्चा करते हैं। इस मंत्र में ऐसे व्यक्ति का चित्रण किया गया है जो कि कामनाओं से रहित हो गया है, जिसे कामनाएं अब स्पर्श नहीं कर पातीं, छू भी नहीं सकतीं, क्योंकि अब वह कामनाओं से बाहर निकल गया है , सांसारिक इच्छाओं ,ऐषणाओं से अब वह मुक्त हो गया है । जिसकी कामनाएं पूरी हो गई हैं या जिसको केवल आत्मा की कामना है, उसके प्राण नहीं निकलते हैं । वह ब्रह्म ही हुआ ब्रह्म को प्राप्त होता है।
उपनिषद के ऋषि के मंतव्य पर यदि गहनता से चिंतन मंथन किया जाए तो पता चलता है कि सांसारिक कामनाओं से मुक्त होकर भी एक कामना आत्मकाम बने रहने की शेष है। आत्मकाम बने रहने की इसी कामना से आत्मा का कल्याण होना संभव है। इस बात को थोड़ा गहराई से समझने की आवश्यकता है कि एक ओर तो ऋषि कह रहा है कि सारी कामनाओं से जो दूर हो गया ,रहित हो गया, बाहर निकल गया वह ब्रह्म हुआ भी ब्रह्म को प्राप्त होता है और इसी मंत्र के भीतर ऋषि यह भी कह रहा है कि ऐसा व्यक्ति आत्मकाम बना रहता है।
कैसो यह संसार है अजब खेल मेरे ईश।।
कामना के आधीन वो जो है कामनाधीश।।
सचमुच ऋषि के इस मंत्र पर विचार करते हुए यह भ्रांति होती है कि जैसे जो व्यक्ति कामनाधीश है, जिसने कामनाओं को जीत लिया है, जो कामनाओं से परे हो गया है, बाहर हो गया है, वह भी कामना के आधीन है। परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है।
उपनिषद् के ऋषि के मंतव्य को समझने के लिए हमें यह बात समझनी चाहिए कि जब हम किसी कमरे को खाली करने का आदेश करते हैं तो लोग उसमें से सारे सामान को निकाल कर बाहर रख देते हैं और हमसे कहते हैं कि – देखो ! कमरा खाली हो गया । परंतु तत्वदर्शी तब भी कहता है कि कमरा अभी भी भरा हुआ है, क्योंकि उसमें वायु अभी भी है , जिसे बाहर किया जाना संभव नहीं है। जैसे किसी कक्ष को आप वायुविहीन कभी नहीं कर सकते, वैसे ही मानव के हृदय को कभी हम कामनाओं से मुक्त नहीं कर सकते। परंतु जब इस हृदय से सांसारिक कामनाएं हट जाती हैं, दूर हो जाती हैं और केवल आत्म कल्याण की कामना शेष रह जाती है, तब उसको यही माना जाता है कि उसने सांसारिक कामनाओं को जीत लिया है, दूर कर दिया है ,उनसे वह बाहर हो गया है। वास्तव में यह बहुत ऊंची स्थिति है, क्योंकि संसार के अधिकांश लोग सांसारिक कामनाओं के जाल में फंस फंस कर मर रहे हैं, जिनके लिए इन सांसारिक कामनाओं से मुक्त होना सर्वथा असंभव हो गया है। मानो वे मर नहीं रहे बल्कि छटपटाकर आत्महत्या कर रहे हैं ।
आत्महत्या कर रहे दुनिया के बहु लोग।
बुरे फंसे हैं भोग में , पाल लिए हैं रोग।।
वैसे भी जब यह कहा जाता है कि मन का निर्विषय हो जाना ही ध्यान है तो उसका अभिप्राय भी यह है कि सांसारिक विषय वासनाओं के विष समान विषय उससे दूर हो गये हैं , जो आत्मकल्याण का विषय है अब केवल वही रह गया है।
हमारे ऋषि जहां निष्काम और आत्मकाम बनने की शिक्षा दे रहे हैं वहीं आधुनिक मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि व्यक्ति को इंद्रियों के विषयों का आनंद लेना चाहिए। क्योंकि इंद्रियों के सुख की प्राप्ति के लिए ही मनुष्य बना है। यदि वह इंद्रियों के सुख से वंचित रह जाता है तो वह मनोरोगी हो सकता है। इंद्रियों के विषय अर्थात रूप, रस, गंध, स्वाद और स्पर्श को ही यदि भोगने की या प्राप्त करने की इच्छा कहीं दबी रह गई तो व्यक्ति बीमार हो जाएगा। वास्तव में आज का मनोवैज्ञानिक रूप, रस, गंध, स्वाद और स्पर्श तक पहुंच ही नहीं पाता। इसलिए भारत के उस उच्च चिंतन से भी वंचित रह जाता है जिसमें इंद्रियों के विषयों को मनुष्य के लिए घातक माना गया है, एक प्रकार का विष माना गया है।
यह विषय वासना ही मनुष्य को पटक पटककर मारती है । बहुत देर पश्चात पता चलता है कि वास्तव में वह जिस काम के लिए संसार में आया था अर्थात ईश्वर की प्राप्ति के लिए – वह तो उससे कहीं बहुत पीछे छूट गया और वह एक ऐसे जंगल में जा खड़ा हुआ जहां से निकलने का उसे अब रास्ता भी नहीं मिल रहा है । मनुष्य की इस भटकन को समाप्त करने के लिए हमारे ऋषियों ने यह व्यवस्था की कि तुम अष्टांग योग का मार्ग पकड़ो। जिससे भटकन शांत हो और रूप ,रस, गंध ,स्वाद और स्पर्श के जंजाल से मुक्ति प्राप्त हो। संसार के इन विषयों को शांत करके, ठंडा करके और इन्हें अपने वश में करके मनुष्य जब सांस रूपी घोड़े की पीठ पर सवार होता है अर्थात प्राणायाम के माध्यम से अपने इंद्रियों के घोड़ों को साधता है तो वह उस राजपथ पर चल पड़ता है जो उसे सीधे मुक्ति की ओर ले जाते हैं।
इस अवस्था में कोई भटकाव नहीं है । ऐसा व्यक्ति ही निष्काम, आप्तकाम होकर हाथ आत्मकाम की उच्च अवस्था में पहुंचता है जिससे छोटी चीजें दूर हो जाती हैं। वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। छोटी चीजें लुप्त हो जाना ही उसकी उत्कृष्ट अवस्था है। जिसे प्राप्त करना हर किसी के वश की बात नहीं है। जिसने छोटेपन को, नीचता को त्याग दिया वह बड़ा हो गया और जब बड़ा हो गया तो वह आत्मकाम हो गया । इस आत्मकाम की अवस्था में आत्मकल्याण की कामना तो छुपी है, पर संसार की कोई कामना शेष नहीं रह गई है।
आज का मनोवैज्ञानिक चिंतन की इस ऊंचाई तक पहुंच नहीं पाया है वह समझ नहीं पाया है कि इंद्रियां के विषयों को शांत करना और उन पर सवारी करना मनुष्य की जीत है और उनके सामने हथियार फ़ेंक कर उन्हें भोगने के लिए तैयारी करना मनुष्य की हार है। क्योंकि अंत में पता चलता है कि यह हम पर भोगे नहीं गए बल्कि इन्होंने ही हमें भोग लिया है। यदि आज के मनोवैज्ञानिक को हमारे ऋषियों के इस चिंतन के साथ समन्वित किया जाए तो यह मनोविज्ञान संसार का कल्याण कर सकता है। भला यह कैसा मनोविज्ञान है जो रोगी और भोगी को और भी अधिक होगी और भोगी बनाने की शिक्षा दे रहा है ?
आत्मकाम बनने की बात को इस उदाहरण से भी समझ सकते हैं कि मिट्टी का तेल, डीजल ,पेट्रोल और वायुयान का ईंधन सब एक ही स्थान और एक ही परिस्थितियों से निकाले व शोधे जाते हैं। परंतु एक नीचे धरती पर चलने वाले वाहनों के काम आता है तो एक वायुयान को उड़ाता है। जो वायुयान को उड़ाता है निश्चय ही वह ‘आत्मकाम’ है । ईंधन तो वह अभी भी है परंतु अब वह वायुयान को उड़ाने के काम में आ रहा है । इसी प्रकार तुच्छ कामनाएं जमीन पर रह जाती हैं अर्थात विलुप्त हो जाती हैं, छूट जाती हैं, उनसे व्यक्ति बाहर हो जाता है और एक आत्म कल्याण करने वाली कामना शेष रह जाती है। जो उसे उड़ाती है और सीधे मोक्ष द्वार पर ले जाकर उतार देती है। इस कामना का बने रहना या इस कामना को अपने भीतर सुरक्षित कर लेना और इसी के प्रति समर्पित होकर कार्य करना बहुत बड़ी बात है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत