बंगाल का ‘सहज पाठ’ और केरल के ‘बेबी फ्रॉक’ राजनीति

 

नरेंद्र नाथ

कभी बंगाल में वामदलों की सरकार ने रवींद्रनाथ टैगोर की पुस्तक ‘सहज पाठ’ को स्कूली पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया था, पर अब उन्हें अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए ‘सहज पाठ’ का ही आसरा दिख रहा है। यह उनके प्रचार अभियान का हिस्सा बन चुका है।

उधर केरल के चुनाव में एक चुनाव निशान ऐसा भी रहा, जिसने वहां की लेफ्ट सरकार को यूडीएफ से ज्यादा असहज किए रखा। दोनों के बारे में यहां बता रहे हैंः-

अस्सी के दशक में रवींद्रनाथ टैगोर के ‘सहज पाठ’ को लेकर वामदल सहज नहीं थे। शायद उन्हें यह अपनी विचारधारा के करीब नहीं लगता था, और जो विचारधारा के करीब न हो, उसे स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा कैसे बनाए रख सकते थे? ‘सहज पाठ’ गुरुदेव की कालजयी रचना है, जो दो भाग में है। पहला भाग 1929, तो दूसरा भाग 1930 में प्रकाशित हुआ था। ‘सहज पाठ’ को 1930 में स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था। 1981 में लेफ्ट की सरकार ने इसको पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया था, हालांकि इस फैसले पर वह घिर भी गई थी। सरकार के इस फैसले का उस वक्त जबरदस्त तरीके से विरोध हुआ था। उसके इस कदम को गुरुदेव की विरासत को कमतर आंकने का प्रयास माना गया। बाद में लेफ्ट सरकार ने सीमित तरीके से इसे दोबारा पाठ्यक्रम में शामिल किया। जब 2011 में ममता बनर्जी ने लेफ्ट को हराकर उसके 34 सालों के शासन का अंत किया, उसके बाद टीएमसी ने पुराने स्वरूप में सहज पाठ को विस्तार से पाठ्यक्रम में जगह दी। 1981 में सहज पाठ को पाठ्यक्रम से बाहर करने के पीछे तर्क दिया गया था कि इसके बदले वैज्ञानिक एप्रोच को अपनाने की पहल की गई है। एक्सपर्ट कमिटी की ओर से दी गई विस्तृत रिसर्च रिपोर्ट को इसका आधार बनाया गया था। तब इस पर लेफ्ट की विचारधारा के करीब नहीं होने का आरोप लगा था, जो पूरी तरह से बैकफायर कर गया। ज्योति बसु सरकार के इस फैसले का उनके अपने लोगों ने भी विरोध किया। इसके बाद ज्योति बसु ने हस्तक्षेप करके स्वीकार किया कि इसे सिलेबस से हटाने का फैसला गलत था। हालांकि साथ में यह भी कहा गया कि बदले परिवेश में इसके साथ वैज्ञानिक एप्रोच अपनाने की भी जरूरत है। लेकिन जब 2011 में ममता बनर्जी सत्ता में आईं, तो सबसे पहले यही फैसला लिया कि सहज पाठ पुराने स्वरूप में सिलेबस में शामिल होगा। तब से लेकर अब तक बड़ा बदलाव यह आया कि इस बार खुद लेफ्ट आगे बढ़कर जनता के बीच इसका पाठ कर रही है। लेफ्ट के संगठनों का कहना है कि ‘सहज पाठ’ जनता से सहज संवाद का बेहतरीन और प्रभावी माध्यम है।

केरल विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के खिलाफ एक निर्दलीय उम्मीदवार के चुनाव निशान ‘बेबी फ्रॉक’ दो मासूम बच्चियों के साथ दुष्कर्म और उनकी हत्या किए जाने की हृदय विदारक घटना का ऐसा प्रतीक बना, जिसने वहां के मुख्यमंत्री को कई बार सफाई देने को मजबूर किया। दरअसल, चार साल पहले केरल के पलक्कड़ शहर में एक गरीब परिवार की दो नाबलिग लड़कियों की सनसनीखेज तरीके से हुई हत्या ने पूरे राज्य को हिला दिया था। पहले 13 साल की लड़की की लाश पेड़ से लटकी मिली। आशंका व्यक्त की गई कि दुष्कर्म के बाद उसे पेड़ पर लटका कर उसकी हत्या की गई। उसके कुछ महीनों के बाद उसकी छोटी बहन की भी लाश मिली। उसकी भी दुष्कर्म के बाद हत्या की आशंका जताई गई, लेकिन अदालत से आरोपी बरी हो गए और उसके बाद से उनकी मां इंसाफ के लिए संघर्ष कर रही हैं। उसी कड़ी में उनकी मां ने मुख्यमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया। उन्होंने चुनाव आयोग से अपने लिए ‘बेबी फ्रॉक’ चुनाव निशान की मांग की थी, जो उन्हें मिल गया। स्थानीय एनजीओ वालयार एजिटेशन कमेटी के संरक्षक सीआर नीलकंदन का कहना है कि चुनाव में उम्मीदवारी एक मां का प्रतीकात्मक संघर्ष है। उस मां का भी कहना है कि उसे विधायक या मंत्री बनने का शौक नहीं है। उसका सवाल बस यह है कि अगर राज्य में इंसाफ का राज है, तो उसे इंसाफ क्यों नहीं मिला? चुनाव के दरमियान बहुत सारे एनजीओ भी उनके साथ जुटे। मुख्यमंत्री को चुनाव अभियान के दौरान कई बार यह सफाई देनी पड़ी कि उस महिला के प्रति उनकी सहानुभूति है। दो-दो बेटियों को खो देने का जो दर्द उनके भीतर है, वह स्वाभाविक है और उनकी पीड़ा को कोई भी नजरअंदाज नहीं कर सकता। मुख्यमंत्री को कठघरे में खड़ा होते देख विपक्ष को सुखद अहसास हुआ। उसकी वजह यह थी कि मुख्यमंत्री को कहीं न कहीं बेबी फ्रॉक से अपने लिए परेशानी दिखी, वर्ना पूरे चुनाव अभियान में वे विपक्ष को बहुत ज्यादा तरजीह देने के मूड में नहीं दिखे थे। हालांकि इतना सब कुछ होने के बावजूद मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में किसी बड़े उलटफेर की उम्मीद नहीं की जा रही है। नीलकंदन कहते हैं कि कुछ लड़ाइयों के नतीजे पहले से ही मालूम होते हैं, फिर भी वे लड़ी जाती हैं।

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