अब अनेकों शोध पत्रों से यह बात पूर्णत: सिद्ध हो चुकी है कि अरब का मूल स्वरूप वैदिक रहा है । मोहम्मद साहब ने अपने जीवन काल में जब इस्लाम की स्थापना की तो उन्होंने अरब के पुराने हिन्दू स्वरूप को मिटाने का आदेश दिया। जिससे वे प्रतीक समाप्त करने की प्रक्रिया आरम्भ हुई जो अरब को भारतवर्ष के वैदिक धर्म से जोड़ते थे। इस कार्य को सिरे चढ़ाने के लिए मोहम्मद साहब के अनुयायियों ने हिन्दू धर्म से जुड़े धर्म ग्रन्थों, पाण्डुलिपियों ,मन्दिरों, विश्वविद्यालयों और पुस्तकालयों को या तो नष्ट कर दिया या जला दिया। कितने ही विद्वानों व धर्माचार्यों की निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गई। इसके पीछे केवल एक ही उद्देश्य था कि भारत का मूल वैदिक धर्म संसार से समाप्त हो और मोहम्मद साहब द्वारा स्थापित इस्लाम संसार का एकमात्र धर्म बने।

मजहबी अत्याचार से दुनिया गई थी कांप।
मुस्लिम मत संसार को बन गया अभिशाप।।

संसार के ज्ञान विज्ञान पुस्तकालयों और ग्रंथों का इस प्रकार विनाश करने से इस्लाम को मानने वाले लोगों की केवल साम्प्रदायिक सोच ही प्रकट नहीं होती अपितु उनके बौद्धिक ज्ञान के स्तर का भी पता चलता है । वे लोग पूर्णतया अंधकार में भटक रहे थे और उन्हें यह पता नहीं था कि जिन धर्म ग्रंथों और पुस्तकालयों को तुम जला रहे हो उससे संसार का कितना भारी अहित हो रहा है या होगा ? उन्होंने अपनी मतिमूढ़ता के चलते कुरान को ही सारे ज्ञान विज्ञान का स्रोत मान लिया। उनकी इस प्रकार की सोच से समूचे संसार का बहुत अधिक अहित हुआ है। क्योंकि इसके पश्चात बहुत से शोध अनुसंधान और आविष्कारों का क्रम अवरुद्ध हो गया।
वैदिक धर्म से सम्बन्धित ग्रन्थों, पुस्तकालयों आदि को इस्लाम के मानने वाले लोगों के द्वारा जलाने का एकमात्र कारण यह था कि उनकी यह स्पष्ट मान्यता थी कि मोहम्मद साहब ने जो भी कुछ कुरान में लिखा है, वह पूर्ण है। उससे आगे ज्ञान-विज्ञान की अब कोई आवश्यकता नहीं है। साथ ही अब तक जो पुस्तकें इलहाम के नाम पर संसार में आई हैं, वह अब सब खुदा की ओर से ही समाप्त कर दी गई हैं, इसलिए जो भी पुस्तकें इस समय संसार में हैं उन सब को जला देना या समाप्त कर देना हमारा मजहबी या दीनी दायित्व है ।
जबकि हमारे वेदों की यह मान्यता रही है कि ‘स प्रथमो बृहस्पतिश्चिकित्वान’ अर्थात परमपिता परमेश्वर बड़े-बड़े लोकलोकान्तरों का पालन करने वाला प्रथम विद्वान है, अर्थात सारा ज्ञान विज्ञान उसी में समाविष्ट है। इसी बात को ऋषि दयानन्द ने परमपिता परमेश्वर को समस्त ज्ञान-विज्ञान का आदिमूल कहकर स्पष्ट किया है। इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि समस्त ज्ञान-विज्ञान के आदि मूल परमपिता परमेश्वर के द्वारा दिए गए वेद ही समस्त ज्ञान-विज्ञान के भण्डार हो सकते हैं। उससे अलग जो भी धर्म ग्रन्थ अलग-अलग मज़हबों के लोगों ने अपनाये हैं उनमें सृष्टि का समस्त ज्ञान-विज्ञान और ज्ञान, कर्म, उपासना की विद्या का समावेश नहीं है।
वैदिक संस्कृति की मान्यता है कि सत्य के अनुसन्धान के लिए या सत्य के महिमामण्डन के लिए हमें ज्ञान विज्ञान की चर्चा अर्थात शास्त्रार्थ करते रहना चाहिए।
जबकि मोहम्मद साहब द्वारा दिए गए धर्म ग्रन्थ के मानने वालों ने यह धारणा संसार में फैलाने का प्रयास किया कि इस धर्म ग्रन्थ से अलग किसी भी धार्मिक ग्रन्थ के रहने का अब कोई औचित्य नहीं है। केवल एक किताब ही सारे ज्ञान के लिए पर्याप्त है।
इस्लाम के मानने वालों की इस प्रकार की अवधारणा ने संसार से शास्त्रार्थ परम्परा को विलुप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे सारे संसार में अज्ञान और पाखण्ड को प्रोत्साहन मिला।

अज्ञान और पाखंड को फैलाया सब ओर ।
ज्ञान और विज्ञान की होने ना दी भोर।।

भारत में जब वैदिक धर्म को कुछ लोगों ने अपनी निजी जागीर बना लिया तो वेद का वैज्ञानिक धर्म भी रूढ़िवादी हो चला। फलस्वरूप ऐसी परिस्थितियां बनीं कि जो दूरस्थ देश थे उनमें रहने वाले लोगों से आर्य ऋषियों का सम्पर्क टूट गया । जिससे उन दूरस्थ देशों में और भी अधिक रूढ़िवाद जड़ कर गया। एक प्रकार से उस समय सारे संसार के लिए प्रकाश का मूल स्रोत भारत ही प्रकाशहीन हो गया। जिससे सारे संसार से ज्ञान प्रकाश की बत्ती गुल हो गई। इस अज्ञानान्धकार का अरब भी शिकार हुआ। पहले से ही रूढ़िवादिता की जकड़न में फंसे अरब के लिए अब अज्ञान और पाखण्ड से बाहर निकलना दूभर हो गया था। अरब के लोगों की इस अवस्था का लाभ मोहम्मद साहब को मिला।

अरब का वैदिक स्वरूप

मोहम्मद साहब का जन्म से पूर्व सारे अरब जगत को वैदिक मान्यताएं प्रभावित करती थीं। उन्हीं के अनुसार सामाजिक और धार्मिक व्यवहार चलता था । यद्यपि यह सही है कि इस वैदिक हिन्दू धर्म में भी उस समय घुन लग चुका था।
अरब के समाज की स्थिति उस समय ऐसी थी जिसके पास विद्यालय का भवन भी था,उसमें पढ़ने वाले बच्चे भी थे, परन्तु उसमें कोई अध्यापक या प्रधानाध्यापक नहीं था । जो उस विद्यालय की शोभा बनता और उन ‘बच्चों’ को पढ़ा – लिखाकर श्रेष्ठ अर्थात आर्य बनाता। ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ का उद्घोष करने वाला भारत ही जब ज्ञान हीन हो गया तो सम्पूर्ण संसार में अनार्यत्व का बढ़ना स्वाभाविक था। वृक्ष को हरा भरा रखने के लिए उसकी जड़ों को सींचना इसीलिए आवश्यक होता है कि यदि जड़ सूख गई तो वृक्ष अपने आप सूख जाएगा ।
अनेकों विद्वानों का यह स्पष्ट मत है कि इस्लाम धर्म के संस्थापक मोहम्मद साहब का जन्म भी एक हिन्दू पुजारी के घर में हुआ था, जो कि मक्का स्थित काबा मन्दिर के पुजारी थे। वैदिक धर्म की पतितावस्था के चलते अरब में एक धार्मिक क्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी । जिससे सम्पूर्ण अरब जगत में व्याप्त अज्ञानान्धकार मिटे और ज्ञान के प्रकाश की वापसी हो। जिस समय इस्लाम की स्थापना हुई उस समय अरब में अनेकों यहूदी, ईसाई, हिन्दू और बौद्ध धर्मावलम्बी लोग रहते थे। इनमें से कोई भी सम्प्रदाय ऐसा नहीं था , जो वेद धर्म की सच्चाई को लोगों को बता सके । इन सबको इस्लाम के लोगों ने ‘काफिर’ कहकर सम्बोधित किया।
हिन्दू लोग धर्म के मर्म से दूर हो गए थे। इसलिए अरबी समाज में ये लोग गर्दन छुपाए बैठे थे । जब कोई अन्य मजहब अपने मत की बात करता था तो ये हिन्दू लोग वैदिक धर्म की बात को शस्त्रसम्मत ढंग से कह भी नहीं पाते थे। जब कोई व्यक्ति, संगठन या समुदाय अपनी उचित बात को लोगों के मध्य प्रस्तुत भी नहीं कर पाता है तब समझ लेना चाहिए कि वह आत्महत्या की ओर बढ़ रहा है। बहुत से हिन्दू आज भी अपनी बात को विधर्मियों के मध्य कहने में संकोच करते हैं ,ऐसे लोग आज भी हिन्दू समाज के शत्रु के रूप में कार्य कर रहे हैं।

जो घुटनों में गर्दन छुपा बैठे सभा के बीच ।
कायर वह नर होत है और होता है नीच ।।

‘काफिर’ का सीधा सा अर्थ यह था कि जो लोग इस्लाम की मान्यताओं में विश्वास नहीं रखते थे उनका संसार में रहना उचित नहीं है। संसार के सबसे पवित्र दीन इस्लाम को मानना उन सबके लिए आवश्यक है और यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो मौत ही उनका एकमात्र उपचार है।

विपरीत दिशा में हो गई क्रान्ति

वैदिक धर्म की वापसी के लिए अरब जगत में क्रान्ति तो होनी अपेक्षित थी , परन्तु वह विपरीत दिशा में हो गई । जिस मानवता की स्थापना के लिए वैदिक क्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी, वह मानवता के स्थान पर दानवता को स्थापित करने वाली क्रान्ति के रूप में लोगों को मिली । इस प्रकार की सोच के चलते अरब जगत में इस्लाम के मानने वाले लोगों के द्वारा धीरे – धीरे ऐसी खूनी क्रान्ति की गई कि इन सभी धर्मावलंबियों को वहाँ से समाप्त कर दिया गया।
इतिहास का यह आश्चर्यपूर्ण तथ्य है कि इस्लाम की स्थापना के अगले 50 वर्ष से कम समय में ही यह कार्य पूर्ण कर लिया गया। जिससे अरब देशों में विपरीत मतावलम्बी अर्थात ‘काफिर’ लगभग समाप्त कर दिए गए। काफिरों की समाप्ति का यह क्रम अरब जगत से बाहर भी चला और इस्लाम को मानने वाले लोग बड़े-बड़े लूट दल (जिन्हें सैन्य दल कहा जाना उचित नहीं है ) अन्य देशों के लिए प्रस्थान करने लगे । उनके इस प्रकार के प्रस्थान के पीछे एक ही उद्देश्य होता था कि आक्रमण किए जाने वाले देश को इस्लाम में दीक्षित किया जाए ,और वहाँ के धनमाल व औरतों को लूटकर अपना बनाया जाए। इसी प्रकार की सोच के चलते उत्तरी अफ्रीका के देश अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, मोरक्को, उतरी सूडान के मूल निवासियों को भी या तो मार काटकर समाप्त कर दिया गया या उन्हें धर्मान्तरित कर मुसलमान बना लिया गया।

मजहब के नाम पर तलवारें लेकर चल पड़े,
निरीहजनों के अनेक सिर उनके पैरों पर चढ़े।
सर्वत्र हाहाकार थी और त्राहिमाम की चीख थी,
प्राण बचाने के लिए जन हाथ जोड़े थे खड़े ।।

इन सभी देशों में इस्लाम के अत्याचार अपने चरम पर होते चलते रहे। लाखों लोगों को बेमौत मार दिया गया । चारों ओर दानवता का क्रूर चक्र चला। सारा संसार मानवता की चीख-पुकार से कराहता रहा। पर इस्लाम के तथाकथित सिपाहियों पर उसकी इस चीख-पुकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा । वे तो यह मानते रहे कि वह जो कुछ भी कर रहे हैं, उसे अल्लाह के हुक्म से कर रहे हैं। आज जो लोग मनु को कोसते हैं, उन्हें इस्लाम के द्वारा किए जा रहे ऐसे अत्याचारों पर विचार करते समय यह अवश्य विचार करना चाहिए कि यदि मनुवाद की व्यवस्था उस समय काम कर रही होती तो इस्लाम के नाम पर लोगों का सर काटते इस्लाम के तथाकथित सिपाहियों को तो मनु एक बार क्षमा कर देते परन्तु जो लोग इन सिपाहियों को पीछे से इस बात की प्रेरणा दे रहे थे कि तुम जो कुछ भी कर रहे हो वह अल्लाह के हुक्म से कर रहे हो – उन्हें मनु कदापि नहीं छोड़ते।

भारत -अरब सम्बन्ध

भारत-अरब- सम्बन्ध का इतिहास दो हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना है। प्रथम शताब्दी ई.पू. में भारत और सेल्यूसिड साम्राज्य के बीच व्यापारिक सम्बन्ध थे। व्यापार सड़क और समुद्री- दोनों मार्गों से होता था । इस सम्बन्ध में हमारे विद्वानों का मानना है कि सड़क-मार्ग उत्तर में तक्षशिला से सेल्यूसिया, कपिसा, बैक्ट्रिया, हिके़टोमोपाइलस होकर जाता था, जो एक महत्त्वपूर्ण सड़क-मार्ग था, जबकि दक्षिण से दूसरा सड़क-मार्ग सीस्तान और कार्मेनिया होकर जाता था।
‘भारतीय धरोहर’ से हमें पता चलता है कि सन् 570 ई. (?) में मुहम्मद साहब के जन्म के समय अर्वस्थान में एक उन्नत, समृद्ध एवं वैविध्यपूर्ण वैदिक संस्कृति थी। प्रत्येक घर में हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ थीं। सार्वजनिक मन्दिर, पूजा-पाठ के साथ-साथ शिक्षा एवं संस्कृति के भी केन्द्र थे। ‘हरिहरक्षेत्रमाहात्म्य’ नामक ग्रन्थ में अर्वस्थान की धार्मिक-सांस्कृतिक राजधानी व साहित्यिक क्रियाकलापों तथा अनेक उत्सवों और मेलों की कार्यस्थली ‘मक्का’ के लिए निम्नलिखित उल्लेख मिलता है : —

एकं पदं गयायांतु मक्कायांतु   द्वितीयकम्।
तृतीयं स्थापितं दिव्यं मुक्त्यै शुक्लस्य सन्निधौ।।

अर्थात्, ‘(भगवान् विष्णु का) एक पद (चिह्न) गया में, दूसरा मक्का में तथा तीसरा शुक्लतीर्थ के समीप स्थापित है।’
हिन्दू -मान्यतानुसार मक्का (मक्केश्वर) तीर्थ को स्वयं भगवान् ब्रह्माजी ने बसाया था। इन्हीं ब्रह्माजी को मुसलमान, यहूदी और ईसाई ‘अब्राहम’ या ‘इब्राहीम’ कहते हैं। इस्लामी-परम्परा में मक्का को अब्राहम ने बसाया था। मक्का शहर अति प्राचीन काल से ही विभिन्न व्यापारिक-मार्गों के मध्य में अवस्थित होने के कारण वाणिज्यिक महत्त्व का रहा है। इस्लाम अथवा मुहम्मद साहब के प्रादुर्भाव से बहुत पूर्व से ही यह शहर ‘हरियम्’ (हरम्) सहित विभिन्न धर्मस्थलों का केन्द्र रहा है। इस्लाम के आगमन के पहले के युग में यहाँ 360 वैदिक देवी-देवताओं की पूजा होती थी। सन् 622 में इस्लामी पैगम्बर मुहम्मद साहब ने मक्का में, जो एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक-केन्द्र था, इस्लाम की घोषणा की और तब से इस शहर ने इस्लाम के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। तब से यह शहर इस्लाम का पवित्रतम शहर हो गया है, जहाँ प्रतिवर्ष दुनिया के लगभग 10 लाख मुसलमान इस्लामी कैलेण्डर के अन्तिम महीने में ‘हज’ तीर्थयात्रा करने पहुँचते हैं। ‘हज’ तीर्थयात्रा को इस्लाम के पाँच स्तम्भों (ईमान, नमाज़, रोज़ा, ज़कात एवं हज) में से एक माना गया है।

भारत ने धर्म का पैगाम मक्का को दिया,
अर्व के शुष्क रेत को ज्ञान से गीला किया।
हृदय में उनके हिंद ने भाव ऊंचे थे भरे,
दी व्यवस्था हिंद ने जीना उन्हें सिखला दिया।।

मक्का के केन्द्र में दुनिया की सबसे बड़ी मस्ज़िद और हज़-यात्रा का केन्द्र ‘अल्-मस्ज़िद अल्-हरम्’ स्थित है। इसे ‘अल्-हरम् मस्ज़िद’, ‘हरम् अल्-शरीफ़’, ‘मस्ज़िद अल्-शरीफ़’, ‘मस्ज़िद-ए-हरम्’, ‘प्रधान मस्ज़िद’ और सिर्फ़ ‘हरम्’ भी कहा जाता है। प्रख्यात इतिहास-संशोधक पुरुषोत्तम नागेश ओक (1916-2008) ने उल्लेख किया है कि अरबी-शब्द ‘हरम्’ संस्कृत के ‘हरियम्’ शब्द का अपभ्रंश है, जो विष्णु-मन्दिर का द्योतक है।”
जब हम यह पढ़ते हैं कि ईसाई, बौद्ध, यहूदी आदि अन्य मतावलम्बियों को या धर्मावलम्बियों को मुसलमानों ने शीघ्र ही या तो समाप्त कर दिया या फिर उनको धर्मान्तरित कर उनका मौलिक स्वरूप बिगाड़ दिया गया, लेकिन भारत का वैदिक धर्म अपने अस्तित्व के लिए सबसे अधिक देर तक संघर्ष करता रहा तो इसका अभिप्राय केवल यह है कि वैदिक धर्म से निकल कर सारे संसार में जितने भर भी मजहब या मत पैदा हुए उन सबके वैचारिक चिन्तन में कहीं ना कहीं दोष था, कमी थी, चिन्तन की अपवित्रता थी । जिसके चलते वह उतनी मजबूती से इस्लाम की तलवार का सामना नहीं कर पाए, जितनी मजबूती से भारत के वैदिक धर्मावलम्बियों ने किया।

वैदिक धर्म का चिंतन

वैदिक धर्मावलम्बी लोगों के भीतर एक भाव था कि संसार के लोगों का धर्म अलग अलग नहीं हो सकता। सभी का धर्म एक है और यदि धर्म के नाम पर कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का गला काटता है या नरसंहार करता है तो ऐसा व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह धर्म और मानवता का शत्रु है। जिसे समाप्त किया जाना धर्म संगत है वास्तव में धर्म के साथ बेईमानी और उसकी परिभाषा को विकृत करने की सोच यहीं से आरम्भ हुई।
उदाहरण के रूप में बौद्ध धर्म को आप ले सकते हैं। जो कि मूल रूप से वैदिक धर्मावलम्बियों का ही एक मत था, परन्तु यह अहिंसावादी अवगुण या दोष का शिकार हुआ। फलस्वरूप जब इस्लाम की नंगी तलवार इसके सामने आई तो यह उसका सामना नहीं कर पाया। यही कारण रहा कि तुर्की के जितने भर भी बौद्ध धर्मावलम्बी लोग थे, उन्होंने बिना अधिक प्रतिरोध या विरोध के मुसलमान आक्रमणकारियों के सामने शीघ्र ही आत्मसमर्पण कर दिया। इसका कारण केवल एक था कि बौद्ध धर्मावलंबी लोगों को केवल यह शिक्षा दी गई थी कि आपको हिंसा का सहारा किसी भी स्थिति में नहीं लेना है । उन लोगों को अहिंसा के नाम पर भीतर से कायर बना दिया गया । यद्यपि कुछ विद्वानों की मान्यता यह भी है कि स्वयं महात्मा बुद्ध भी नहीं चाहते थे कि अहिंसा की इस प्रकार की गलत परिभाषा प्रचलित हो।

अहिंसा ने इस देश का कर दिया सत्यानाश।
हिंसा दिन प्रतिदिन बढ़ी धर्म गया संन्यास ।।

सातवीं शताब्दी के मध्य से बौद्ध धर्मावलम्बी तुर्की लोगों के इस्लाम में धर्मांतरण करने की प्रक्रिया आरम्भ हुई। जो अगले 100 वर्ष में पूर्ण हो गई । 100 वर्ष का यह कालखण्ड यद्यपि कुछ अधिक देर तक चला हुआ काल दिखाई देता है, परन्तु इतिहास के कालचक्र पर या इतिहास की कसौटी पर इसे रखने से पता चलता है कि सभ्यताओं के विनाश के लिए 100 वर्ष का समय कोई अधिक नहीं होता। 100 वर्ष का यह कालखण्ड भी इतनी देर केवल इसलिए चल पाया कि वहाँ पर जो हिन्दू लोग थे, उन्होंने बौद्धों को भी बचाने का संघर्ष किया था। क्योंकि ये हिन्दू लोग बौद्ध धर्मावलम्बी लोगों को अपने ही वैदिक धर्म की एक शाखा मानते थे। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इराक भी एक बौद्ध देश था। वहाँ का अन्तिम हिन्दू / बौद्ध राजवंश बरमक था।

इस्लाम ने किया देशों का धर्मांतरण

मानवता के विरुद्ध किए गए अपने अत्याचारों के बल पर जिस प्रकार इराक और तुर्की में इस्लाम को सफलता मिली वैसे ही विश्व के अन्य देशों या प्रान्तों में भी उसे आशातीत सफलता मिली ।पुलस्त्य ऋषि के प्रदेश पेलेस्टाइन (फिलिस्तीन) में भी मजहब के नाम पर किए गए अत्याचारों के आधार पर इस्लाम ने अच्छी सफलता प्राप्त की। फिलिस्तीन के साथ-साथ ईसाई बने सूर्यवंशी क्षत्रियों का प्रदेश सीरिया, लेबनान, जॉर्डन आदि देशों को 634 से 650 ई. के बीच मुसलमान बना दिया गया। यहाँ पर इस्लाम के मानने वाले आक्रमणकारियों ने लोगों पर मनमाने अत्याचार किए ।
कहने का अभिप्राय है कि मात्र 16 वर्ष में ही इन देशों का इस्लामीकरण कर दिया गया। इस्लाम के मानने वालों ने ऐसा ही कार्य विश्व के अन्य देशों में भी किया। जहाँ उन्हें कोई भारतवर्ष जैसी कोई बड़ी चुनौती नहीं मिली। ये लोग बड़ी सहजता से लोगों को मारते -काटते ,लूटते और उनके मूल मजहब से इस्लाम स्वीकार कराते रहे, उनकी महिलाओं के साथ मनमाने अत्याचार करते रहे।
अत्याचारों के इस पीड़ादायक इतिहास पर यदि दृष्टिपात करते हैं तो पता चलता है कि यद्यपि इस्लाम वेद के एकेश्वरवाद की स्थापना के लिए किया गया आन्दोलन था, परंतु वह दिशाहीन हो जाने पर संसार के लिए एक आफत बन गया। माना कि संसार के लोग उस समय अज्ञान और अविद्या के अंधकार में फंसे हुए थे ,परन्तु रक्तपात, हिंसा, मारकाट, लूट, डकैती व बलात्कार के इस नए वैश्विक परिवेश से तो अज्ञान और अविद्या के अंधकार में भटकते रहने वाले समाज के लोग ही अच्छे थे।
इस्लाम ने लोगों को एक नई व्यवस्था देनी चाही थी, परन्तु वह व्यवस्था के स्थान पर अव्यवस्था देने वाला मजहब बन गया। यह अव्यवस्था भी ऐसी जो पूर्णतया अराजक तत्वों के हाथों में थी। जब कोई चुनौती सामने नहीं होती है तो व्यक्ति का अहंकार सिर चढ़कर बोलता है और उसे यह भ्रान्ति हो जाया करती है कि वह जो कुछ भी कर रहा है, वह किसी अदृश्य सत्ता के आदेश से कर रहा है, जो उससे ऐसे पवित्र कार्य को करवा रही है।

भारत ने तोड़ी इस्लाम की भ्रान्ति

भारत में जब इस्लाम का प्रवेश हुआ तो राजा दाहिर सेन के रूप में अनेकों वीर योद्धाओं ने उनका वीरता के साथ सामना किया और इस्लाम को मानने वाले लोगों की इस भ्रान्ति को तोड़ दिया कि वह जो कुछ भी कर रहे हैं, वह बहुत पवित्र कार्य है।
भारतीय इतिहास के महान योद्धाओं के सम्बन्ध में इतिहासकार पी0 एन0 ओक का यह कथन पूर्णतया सत्य है कि “यूरेशिया के महान वैदिक आर्य संस्कृति के लोग “अहिंसा परमोधर्म:” की मूर्खतापूर्ण माला जपते हुए “हिंसा लूट परमोधर्म:” की संस्कृति में समाते जा रहे थे, पर अहिंसा की बीमारी से ग्रस्त भारतवर्ष में तब भी खड्गधारी सनातनी योद्धाओं की कमी नहीं थी।

खड़गधारी सनातनी योद्धा रहे विशेष ।
संस्कृति रक्षक बन गए और बचाया देश।।

ये खड़गधारी सनातनी योद्धा ही वे लोग थे जिनका प्रतिनिधित्व अपने काल में राजा दाहिर सेन कर रहे थे। उनके नेतृत्व में उस समय हजारों लाखों की संख्या में लोग घरों से बाहर निकले और देश की रक्षा के लिए अपने आपको उपस्थित कर दिया। संस्कृति और धर्म के प्रति उन योद्धाओं का यह समर्पण हमारे लिए वरदान सिद्ध हुआ। विशेष रूप से तब जबकि चारों ओर अन्य देशों की सभ्यताओं के किले लुटेरे इस्लामिक सैन्यदलों की आँधी के सामने धड़ाधड़ गिर रहे थे। इस्लाम के आक्रमणकारियों के लिए एक नहीं अनेकों अवसर ऐसे आए जब भारत के वीर योद्धाओं ने उनकी सेना के एक – एक सैनिक को यहां गाजर मूली की तरह काट कर समाप्त कर दिया। वर्तमान इतिहास में हमारे वीर योद्धाओं के ऐसे बलिदानी पर्वों का उल्लेख जानबूझकर नहीं किया गया है।
यह केवल भारत के वीर योद्धा ही थे जिन्होंने पूरी की पूरी सेना के सफाए का समाचार स्वदेश में जाकर देने के लिए भी शत्रु का कोई सैनिक छोड़ा नहीं। इस्लाम के आक्रमणों के विषय में हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भारत में ही इन आक्रमणकारियों को महिलाओं की वीरता का भी सामना करना पड़ा। भारत से अलग शायद ही कोई देश रहा हो जहां इस्लाम का सामना वहां की महिलाओं ने भी किया हो । जौहर रचाने वाली परम्परा तो निश्चित रूप से इन मुसलमानों को देखने के लिए भारत में ही मिली थी। जब 636 ई0 में खलीफा उमर ने भारत के ठाणे नामक स्थान पर आक्रमण कराया तो वहाँ से उसका एक भी सैनिक जीवित नहीं लौटा था।
जब इन लुटेरों ने राजस्थान के भरुच अर्थात भृगुकच्छ पर आक्रमण किया तो वहाँ भी इनकी स्थिति ऐसी ही बनी। वहाँ के हिन्दू वीर योद्धाओं ने युद्धभूमि में अपनी वीरता की अनुपम मिसाल कायम की थी। जिसमें शत्रु सेना के अनेकों सैनिकों को प्राण गंवाने पड़े थे।
माना कि 712 ई0 में मोहम्मद बिन कासिम द्वारा किए गए हमले के समय विदेशी आक्रमणकारी को तात्कालिक आधार पर कुछ सफलता प्राप्त हुई थी, पर इसका अभिप्राय यह नहीं है कि इसके पूर्व के उन सारे युद्धों को भारतीय इतिहास से निकाल दिया जाए जिनमें भारतीय योद्धाओं ने अपनी वीरता की धाक जमाई थी और विदेशी आक्रमणकारियों के भीतर ऐसा भय उत्पन्न कर दिया था कि उन्हें रात को सोते हुए भी भारत की खड्ग के चलने की आवाज सुनाई देती थी। जिसे सुनकर ये मुस्लिम आक्रमणकारी चारपाई पर सोते सोते हो उछल पड़ते थे। भारत का शौर्य उनसे रात की नींद और दिन का चैन छीन चुका था।

सेनापति हाकिम को किया गया परास्त

उस्मान ने अपने खलीफा काल में अपने सेनापति हाकिम को भारतवर्ष पर आक्रमण करने के लिए भेजा था। हाकिम ने भारत पर जिस आशा और अपेक्षा के साथ आक्रमण किया था उसकी वह आशा और अपेक्षा उस समय धूमिल हो गई थी जब यहाँ के वीरों ने उसे अपनी सेना से भी खाली हाथ लौटने के लिए मजबूर कर दिया गया था। हाकिम चला था कि भारत को लूटकर अपार सम्पदा का स्वामी होकर स्वदेश लौटूँगा, पर जब वह भारत पहुँचा तो कुछ देर में ही उसे पता चल गया कि यहाँ लुटेरे ही उल्टे लूट लिए जाते हैं अर्थात भारत के वीर योद्धा अपने शौर्य से लुटेरों के सैन्य दल को समाप्त कर उन्हें पंखविहीन कर देते हैं या उन्हें सीधे दोजख की आग में धकेल देते हैं।

जाना पड़ा अपने वतन हाकिम को उल्टे पैर ही।
लूटने चला था हिंद को अब मांग रहा था खैर ही।। देख शौर्य हिंद का , था कहने लगा हाकिम यह –
कभी ना आऊंगा यहाँ और न रखूंगा वैर ही।।

भारत के वीर योद्धा की वीरता को मापकर उसे यह भी आभास हो गया कि भारत के लोग किसी के धन को लूटने में तो विश्वास नहीं रखते, पर हर किसी के घमंड को तोड़ने और उसके दुस्साहस के भ्रम को मिटाने की लूट की कला में बहुत अधिक कुशल हैं।
वैसे भी भारत की नीति प्राचीन काल से यही रही है कि पहले किसी को छेड़ो नहीं और यदि कोई दूसरा छेड़ता है तो फिर उसे छोड़ो नहीं।
हमारे जिन वीर क्षत्रिय योद्धाओं ने इन विदेशी आक्रमणकारियों का जब-जब इस प्रकार घमंड तोड़ा और उनके अहंकार को लूटा , तब – तब ही भारत ने एक विशेष और गौरवपूर्ण इतिहास रचा । जिस पर इस समय निश्चय ही काम किए जाने की आवश्यकता है। हाकिम नाम के इस विदेशी आक्रमणकारी ने यद्यपि भारत की ओर पैर करके भी न सोने का संकल्प लिया था ,परंतु इन मुस्लिम आक्रमणकारियों की एक विशेषता रही है कि जब यह भारत के वीर योद्धा के हाथों मार खाते थे तो बड़ी-बड़ी कसमें भी खाते थे कि अब कभी हिंदुस्तान की ओर लौटकर नहीं देखूंगा । ये हमारे राजाओं को यह वचन ही देते थे कि इस बार मुझे क्षमा कर दो, अगली बार कभी इधर नहीं आऊंगा। पर जैसे ही इन्हें शक्ति संचय करने का थोड़ा सा अवसर उपलब्ध होता था तो यह वचन भंग कर भारत की ओर चल देते थे। हाकिम ने भी यही किया।
वचन भंग करना और काफ़िर को किसी भी प्रकार के छल कपट से मार डालना, मुस्लिमों को अपने दीन की घुट्टी में पिलाया जाता है।
जब यह मुस्लिम आक्रमणकारी हाकिम भारत पर दोबारा चढ़ाई करके आया तो भारत के वीरों ने इस बार भी उसे कड़ा सबक सिखाया था। इतना ही नहीं, दूसरी बार जब इसने आक्रमण किया तो इस बार तो वह स्वयं भी जीवित अपने देश नहीं लौट सका था अर्थात भारत के वीर योद्धाओं ने भारत भूमि पर ही उसका प्राणान्त कर दिया था। इस प्रकार इस विदेशी राक्षस आक्रमणकारी को अपने किए का सही दण्ड प्राप्त हो गया। अब वह ऐसे स्थान पर पहुँचा दिया गया था जहाँ से वह कभी लौटकर नहीं आने वाला था।

जब सिनान को मांगनी पड़ी प्राणों की भीख

‘काफिरों’ के देश भारत को इस्लामिक राज्य में परिवर्तित करना इस्लामिक आक्रमणकारियों का सबसे बड़ा लक्ष्य था । अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मुहम्मद सिनान नाम का अरब आक्रमणकारी भी भारत आया था। इस राक्षस के लिए अल बिलादुरी ने लिखा है, “यह बहुत अच्छा, सर्वगुण सम्पन्न था। यह पहला आदमी था जिसने अपने सभी सैनिकों को अपनी पत्नियों से तलाक दिला दिया और उन्हें यह पूर्ण विश्वास दिलाया था कि भारतीय स्त्रियों को लूटकर खूब मजे करायेंगे।”
दिन में सपने देखना अलग चीज है और वास्तव में सपनों के बाग की सैर करना अलग चीज है । इस राक्षस आक्रमणकारी ने भारत को लेकर चाहे जैसे सपने देखे हों पर जब उसका वास्तविकता के धरातल से परिचय हुआ तो उसे भी भयंकर निराशा ही हाथ लगी। जब इसका सामना भारतवर्ष के देशभक्त वीर योद्धाओं से हुआ तो उसे शीघ्र ही पता चल गया कि भारतीयों की महिलाओं को लूटना उतना सरल नहीं है, जितना वह मान कर आया था। उसे यह भी पता चल गया कि भारतवासी चरित्र में कितने ऊंचे हैं ? और वह अपनी बहन बेटियों के सम्मान के लिए अपने प्राणों को गंवाना कोई बड़ी बात नहीं मानते हैं। इसके लिए भारतवर्ष के वीर सैनिकों की छातियों की वज्र दीवार को तोड़ना हर किसी के वश की बात नहीं है। जितने लुटेरे, नीच ,अधर्मी और पातकी लोगों को यह विदेशी आक्रमणकारी अपने साथ लेकर आया था उन सबको भारत के योद्धाओं ने सीधे ‘जन्नत की हूरों’ के पास भेज दिया। सभी कुत्ते की मौत मारे गए।

नरपिशाचों को मार कर भेजा हूरों पास।
सिनान भी छोड़ा नहीं जो शत्रु था खास।।

स्वयं सिनान को अपने प्राणों की रक्षा के लिए भारतीय सैनिकों के सामने से भागना पड़ा, अन्यथा वह भी मौत की नींद सुला दिया गया होता। इतिहास का यह एक स्वर्णिम पृष्ठ है कि इसके पश्चात यह राक्षस आक्रमण के नाम पर भारत की ओर कभी देखने का साहस भी नहीं कर पाया था। उसे यदि किसी ने फिर से भारत पर आक्रमण करने के लिए कहा भी तो उसने कान पकड़कर यह कहना आरम्भ कर दिया था कि जब तक जीवित हूँ तब तक भारत की ओर नहीं जाऊंगा।

जियाद का भी किया बुरा हाल

सिनान के बाद भारत पर आक्रमणकारी के रूप में जियाद चढ़कर आया। उसे भी अपनी शक्ति और शौर्य पर बड़ा घमंड था। उसे लगता था कि उसके पूर्व के आक्रमणकारी चाहे भारत के शौर्य के सामने न टिक सके हों पर वह भारत के शौर्य और शीश को झुकाकर ही आएगा। यद्यपि जब वह भारत आया तो उसे भी अपनी शक्ति की सीमाओं का शीघ्र ही ज्ञान हो गया। इस आक्रमणकारी का सामना भारत की किसी बड़ी शक्ति से नहीं हुआ, अपितु भारत के वीर जाटों और मेदों ने इस विदेशी आक्रमणकारी का विनाश कर दिया था। इससे पता चलता है कि भारत में यह भी परम्परा रही है कि यदि विदेशी शत्रुओं से स्थानीय प्रजाजन संघर्ष कर उसे भगा सकते हैं तो वह भी राजा की सेना की प्रतीक्षा किए बिना इस शुभ कार्य को करने के लिए स्वतंत्र थे। ऐसे अनेकों उदाहरण है जब राजा की सेना की प्रतीक्षा किए बिना जनसाधारण ने ही विदेशियों को अपनी मातृभूमि से भगाने में सफलता प्राप्त की।

शत्रु हो जो देश का मानो उसको नीच।
उसे छोड़ना पाप है, यही हिंद की रीत।।

भारत के इन योद्धाओं के सामने वह विदेशी आक्रमणकारी टिक नहीं सका और उसे इन योद्धाओं से लड़ते हुए अपने प्राण गंवाने पड़े। विद्वानों का ऐसा कहना है कि उसकी मरे की सूचना भी अपने देश में बहुत देर बाद पहुंच पाई थी। जब जियाद के मारे जाने की सूचना उसके देश में पहुंची तो उसके बेटे को अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने का जुनून चढ़ा। यह लड़का क्रोध से पूर्णतया पागल हो गया था। उस पागलपन में ही उसने यह निर्णय ले लिया कि वह भारत पर चढ़ाई करेगा और अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेगा। अतः उसकी मृत्यु के प्रतिशोध के विचार से प्रेरित होकर उसके बेटे अब्बाद ने भारत पर आक्रमण कर दिया। उसका यह आक्रमण उस क्षेत्र पर किया गया था, जिसे आजकल अफगानिस्तान के नाम से जाना जाता है।
उस समय अफगानिस्तान में वैदिक धर्म का वर्चस्व था। वैदिक धर्मावलम्बी लोग अपने देश और धर्म पर मर मिटना जानते थे। यद्यपि कुछ लोग बौद्ध धर्म स्वीकार कर चुके थे, पर वैदिक धर्म का वर्चस्व होने के कारण वैदिक सनातनी लोगों ने इस विदेशी राक्षस का बड़ी वीरता के साथ सामना किया और इसकी सेना का सर्वनाश कर दिया। युद्ध के इस परिणाम से शत्रु की आंखें खुल गई और उसे वास्तविकता का बोध हो गया।
मुट्ठीभर सैनिकों के साथ युद्ध के मैदान में खड़े होकर हजारों लाखों की संख्या में खड़े शत्रुओं की तलवारों का सामना करना यदि किसी को सीखना है तो वह इन भारतीय योद्धाओं से सीख सकता है। साथ ही इन तलवारों के बीच रहकर भी अपने धर्म का पालन करना अर्थात युद्ध में नियमों का पालन करना भी यदि कोई सीखना चाहता है तो वह भारत के सैनिकों से ही सीख सकता है। हम भारतवासियों को निश्चय ही अपने वीर योद्धाओं के इस प्रकार के वीरतापूर्ण कार्यों पर गौरव की अनुभूति होनी चाहिए। भारत के बारे में हमें यह भी समझना चाहिए कि भारत के वीर योद्धाओं ने देश धर्म की रक्षा के लिए ईंटों की दीवारें खड़ी नहीं कीं। उन्होंने इस कार्य के लिए अपने सीनों की दीवारें खड़ी कीं और यह दीवार भी इतनी मजबूत थी कि एक बार ईंटों की दीवार का गिरना संभव था परंतु भारत के वीरों के सीनों की दीवारों का गिरना सर्वथा असंभव था। इनके लिए बड़े गर्व के साथ कहा जा सकता है कि ये दीवारें कभी नहीं गिरीं। गिरीं तो केवल बलिदान के लिए गिरीं।
वास्तव में भारत के वीर योद्धाओं की कहानियां विश्व के लिए आदर्श बननी चाहिए। इतना ही नहीं, युद्ध के मैदान में भी धर्म का पालन करने की भारत की अद्भुत परंपरा को आज के विश्व समाज को अपनाना चाहिए । आज युद्धों का स्तर बहुत अधिक गिर गया है। आज छल, कपट, धोखा, अत्याचार, अनाचार, पापाचार और बलात्कार इन सब को युद्ध में अपनाया जाता है । इस प्रकार की घृणित सोच विश्व समाज के लिए इस्लाम और ईसाइयत की देन है। नीचता और पाशविकता की प्रतीक इस युद्ध परम्परा को बदलकर भारत की आदर्श युद्ध परंपरा को लागू करना चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

Comment: