इतिहास शोध की ऑक्सफोर्ड विधि – इसकी प्रशंसा के लिए आजकल हिटिरिओग्राफी के नाम से पढ़ाया जा रहा है। इस विधि को देख कर पता चलता है कि मूर्ख को बैल (ऑक्स) क्यों कहने लगे। पहले प्रशंसा के लिए वृषभ कहते थे, जैसे गीता में अर्जुन को कहा गया है। भारतीय इतिहास नष्ट करने का प्रण विलियम जोन्स ने लिया था जिसका उद्देश्य था संस्कृत तथा भारतीय साहित्य को यूरोप की नकल दिखाना। १८३१ में ऑक्सफोर्ड में स्थापित बोडेन पीठ का एकमात्र घोषित उद्देश्य था भारतीय संस्कृति को नष्ट कर इसाई मत का प्रचार। यह उद्देश्य प्रायः सभी यूरोपीय लेखकों मैक्समूलर, वेबर, म्यूर, रॉथ, कीथ, मैकडोनेल आदि ने बहुत स्पष्ट रूप से अपने ग्रन्थों की भूमिका में लिखा है। वे बार-बारकहते हैं कि हम वैदिक सभ्यता को नष्ट करने के लिए झूठा प्रचार कर रहे हैं। पर उनके भारतीय सेवक हर भारतीय शास्त्र को झूठा समझ कर अंग्रेजी मान्यता के अनुसार तब तक संशोधन अर्थात् विनाश करते हैं जब तक अपनी इच्छानुसार नहीं हो जाय। अमेरिका, रूस, चीन नयी विश्व शक्ति बने हैं, पर वे सर्वसम्मति से ब्रिटेन को ही झूठ की परम शक्ति मानते हैं। ईराक में नरसंहार के शस्त्र की रिपोर्ट देने का दायित्व भी ब्रिटेन को ही दिया गया जिसके आधार पर उस पर आक्रमण किया जा सके। अपने अणुबमों को फूल कहते हैं (जैसे डेजी कटर)। इतिहास नष्ट करने की मुख्य विधियां निम्नलिखित हैं-
(१) घनचक्कर-मूल स्रोत को बिल्कुल नष्ट कर या छोड़ कर ३-४ व्यक्तियों के गिरोह द्वारा परस्पर के झूठे लेखों को उद्धृत करना। मैक्समूलर वेबर को उद्धृत करेगा, वेबर म्यूर को, और म्यूर वापस मैक्समूलर को। अपने निर्मित वृत्त में चक्कर लगाने को उपनिषद् में परियन्ति कहा है-
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः, स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः।
दन्द्रम्यमानाः परियन्ति मूढ़ाः, अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः॥
(कठोपनिषद्, २/१/५, मुण्डकोपनिषद्, १/२८)
दन्द्रम्यमानाः = अंग्रेजी में beating own drums। मुण्डकोपनिषद् में जंघन्यमानाः है जिसका अर्थ विद्या की हत्या करना है।

इस विधि में सुधार डेविड पिंगरी ने किया। वह ४ झूठे लेख लिखता है जिनको शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाता है। ये ४ लेख एक ही झूठ को अनुमान रूप में थोड़ा थोड़ा शब्द बदल कर लिखे जाते हैं। पांचवां लेख अपने ही ४ झूठे लेखों को उद्धृत कर उसे प्रमाणित कर दिया जाता है। इस विधि से उसने आर्यभट की ज्या सारणी को हिप्पार्कस की नकल कहा। हिप्पार्कस या किसी भी ग्रीक ने आज तक कोई ज्या सारणी नहीं बनायी क्योंकि उनकी संख्या लेखन पद्धति में यह सम्भव नहीं है। मद्रास में अंग्रेजों की कोठी बनने के बाद वहां के एक किरानी चार्ल्स विश ने अनन्त श्रेणी के बारे में रिपोर्ट किया तब यूरोप में इस पर शोध आरम्भ हुआ। (भानुमूर्ति की पुस्तक A modern Introduction to Ancient Indian Mathematics, New Age International Publishers, 2009-परिशिष्ट)। एक अन्य समस्या थी कि आर्यभट ने लिखा था कि कलि ३६० वर्ष में वे २३ वर्ष के थे। इसका समाधान पहले ही किया जा चुका था, ३६० कलि को ३६०० कलि में बदल कर।
(२) निश्चित तिथि को काल्पनिक तिथियों से बदलना-यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति, अध्रुवं नष्टमेव हि॥
अधिकांश लेखों या पट्टों मे आरम्भ या अन्त में तिथि दी रहती है जिनको अंग्रेज मिटा देते थे। खारावेल के शिलालेख में भी कलि संवत् की संख्या मिटायी गयी थी। बीच् की पंक्ति में नन्द अभिषेक के बाद ८०३ वर्ष में अपने राज्य का ४ वर्ष लिखा था। खारावेल के नेतृत्व में मगध के विरुद्ध ओड़िशा का स्वाधीनता संग्राम दिखाना था, अतः ८०३ को १०३ वर्ष किया गया। खारावेल को चेदि राज वंशावली से अलग कर उसे हठात् ओड़िशा में उत्पन्न दिखाया गया, यद्यपि उसने अपने पूर्वज के नाम पर भुवनेश्वर के निकट शिशुपाल गढ़ बनाया था। मगध से युद्ध के बदले उसने राज्य के ११ वर्ष में मगध की सहायता के लिए मथुरा में शकों को हराया था जिसके लिए आन्ध्रवंशी राजा पूर्णोत्संग ने उसे धन्यवाद दिया था। उसका जो समय निकाला गया है, उस अवधि में भारत पर कोई विदेशी आक्रमण नहीं हुआ था, बल्कि ईसा मसीह तथा उबके शिष्यों ने भारत में शरण ली थी। असीरिया के उदय के बाद ९००-७५६ ईपू में कई आक्रमण विफल रहे, पर उस काल के ३०० वर्ष बाद भारत में महाजनपद राज्य का विकास कहा गया। इसी प्रकार कर्नल टाड ने राजपूत राजाओं को हूण-शकों का वंशज सिद्ध करने के लिए यथा सम्भव सभी शिलालेख तुड़वा दिये। कुम्भलगढ़ के शिलालेख को सैकड़ों टुकड़ों में तोड़ा गया था क्योंकि उसमें राणा कुम्भा ने अपने पूर्वज बप्पा रावल को शक नहीं ब्राह्मण लिखा था। इसका उद्धार १९५१ के जयपुर के इतिहास कांग्रेस में डॉ जी एन शर्मा ने राणा कुम्भा द्वारा जयदेव के गीत गोविन्द टीका में उनके वंश परिचय से किया।
सबसे बड़ी समस्या मैसूर ऐण्टीकुअरी के जनवरी १९०० में प्रकाशित जनमेजय के ५ दानपत्रों से हुई। उनमें वर्ष, संवत्सर, मास, तिथि, वार, नक्षत्र, करण, योग सभी बीच में दिया था जिसे नष्ट नहीं किया जा सका।इसके अतिरिक्त उस दिन (युधिष्ठिर शक ८९ प्लवंग वर्ष, पौष अमावास्या) को सूर्यग्रहण का भी उल्लेख है। उनके वंशजों के ५० से अधिक दानपत्र केवल ओड़िशा में हैं जो सभी सूर्यग्रहण के समय दिये गये हैं। किन्तु यह तिथि २७-११-३०१४ ईपू रिचर्ड टेम्पल को स्वीकार नहीं थी अतः पत्रिका के सम्पादक ने कोलब्रुक से तिथि बदलने में सहायता मांगी। कोलब्रुक ने Royal Astronomer G B Airy की सहायता मांगी। उसने अनुमान से एक काल्पनिक तिथि ७-४-१५२१ ई कह दी कि उसी दिन सूर्य ग्रहण हुआ था। उस समय पुराने सूर्यग्रहण का समय निकालना ऐरी को भी पता नहीं था। इसकी पहली चेष्टा ओपोल्जर ने की थी, जिसकी गणना में ८ घण्टे से अधिक भूल थी (Canon of Eclipse, 1923)। अतः वे निश्चिन्त थे कि उनकी जालसाजी पकड़ना किसी के लिए सम्भव नहीं होगा। हर वर्ष ५ ग्रहण होते हैं पर ५ हजार वर्ष में १ ग्रहण मान कर ऐरी ने तिथि को ४५३४ वर्ष पीछे खिसका दिया। २००७ में भारतीय वैज्ञानिक कोसला वेपा की अध्यक्षता में अमेरिका के सम्मेलन में सभी ५ प्रकार की तिथियों की जांच की गयी तथा उस दिन सूर्य ग्रहण की घटना को भी ठीक पाया।
Astronomical Dating of Events & Select Vignettes from Indian History, Volume I, Edited and compiled by Kosla Vepa, Published by-m
Indic Studies Foundation, 948 Happy Valley Rd., Pleasanton, Ca 94566, USA
कई महापुरुषों की जन्मतिथि तथा कुण्डली भी उपलब्ध है। पर उनकी अन्य समकालीन व्यक्तियों की काल्पनिक तिथियों के आधार पर बदल दिया जाता है।
(३) सूक्ष्म विरोध की खोज-ज्ञान प्राप्ति के लिए ब्रह्म सूत्र में कहा है कि शास्त्र को समन्वय से पढ़ना चाहिये। शास्त्रयोनित्वात्। तत्तु समन्वयात्। (ब्रह्म सूत्र, १/१/३-४)। यही कानून की पुस्तक में लिखा है-Method of Harmonious Construction. किन्तु समन्वय निर्माण के बदले विरोधी नाश उद्देश्य है। कहीं भी २ प्रतिलिपियों में किसी शब्द की मात्रा का अन्तर मिल जाय तो पूरी पुस्तक जाली हो जाती है। समस्या यह थी कि मुस्लिम तथा अंग्रेजों द्वारा करोड़ों पुस्तकें जलाये जाने पर भी बहुत बचा हुआ है। नालन्दा विश्वविद्यालय में ९५ लाख पुस्तकें जली थीं। केरल के एक पादरी ने ६००० आयुर्वेद की पुस्तकें जलायी थीं जिससे लोग चिकित्सा के लिए चर्च के अस्पताल में आयें (आयुर्वेद का इतिहास-वेदव्यास भारती, हैदराबाद)। वेद की हर शाखा में पुरुष सूक्त के शब्द भिन्न भिन्न हैं। किन्तु वेद मन्त्र की व्याख्या के पुराण श्लोक में एक मात्रा का भी अन्तर हो जाय तो सैकड़ों गालियां मिलती हैं। एक अवसर पर मैं २ मास तक गालियां सुनता रहा-पण्डितों की पोपलीला, पुराणिक पोप पर वैदिक तोप, नर भक्षी, मुर्दों का मांस खाने वाला आदि। गाली देने वालों में उस पुराण के अनुवादक भी शामिल हो गये तो उनसे पिण्ड छुड़ाया।
(४) समानता खोज कर काल बदलना-मान लीजिए कि मैंने किसी प्रसंग में लिखा कि २+ २ = ४। बाद में पता चला कि मेरे पिताजी ने भी यही लिखा था। अतः बैल पद्धति से प्रमाणित हो गया कि पिताजी का जन्म मुझसे ३०० वर्ष बाद हुआ था। इसी प्रकार के शोधों से काल निर्धारण हुआ है।
(५) कैलेण्डर तथा उसके आरम्भ करने वालों का विरोध-काल नष्ट करने के लिए प्रिय बहाना है कि भारतीय लोग तिथि नहीं देते थे। अन्य देशों में प्राचीन कैलेण्डर ही नहीं था, वे तिथि कैसे दे रहे थे? भारत में ३१,००० वर्षों से कैलेण्डर उपलब्ध हैं। अतः पिछले २०० वर्ष की किसी इतिहास पुस्तक में शक-संवत्सर का उल्लेख नहीं है (भगवद्दत्त को छोड़ कर)। उसी के आधार पर मेगास्थनीज ने लिखा कि भारत ने स्वावलम्बी होने के कारण पिछले १५,००० वर्षों में किसी पर आक्रमण नहीं किया है। इसका सन्दर्भ १५८०० ईपू. में कार्त्तिकेय द्वारा क्रौञ्च द्वीप पर आक्रमण से है (महाभारत, वन पर्व, २३०/८-१० में लिखा है कि उस समय उत्तर ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया तथा धनिष्ठा से वर्ष या वर्षा आरम्भ हुई)। इसमें १ शून्य कम कर मैक्समूलर ने १५०० ईपू. में वैदिक सभ्यता का आरम्भ घोषित कर दिया। आर्यभट की तिथि ३६० में १ शून्य जोड़ा गया था। इसके बाद १९२३ में वह वाक्य बदलने के लिए मैकक्रिण्डल ने इण्डिका का नया संस्करण निकाला। एक अन्य वाक्य अभी तक रह गया है। सिकन्दर आक्रमण से ६४५१ वर्ष ३ मास पहले डायोनिसस ने भारत पर आक्रमण किया था। उसके बाद सिकन्दर के समय तक भारतीय राजाओं की १५४ पीढ़ियों ने शासन किया। यवन आक्रमण में मारे गये सूर्यवंशी राजा बाहु से गुप्त वंश के प्रथम राजा तक यह सही गणना है। पर मौर्य राज्य को १३०० वर्ष पीछे कर इतिहास नष्ट करना था। अतः इसका उल्लेख नहीं होता। भारत के किसी भी पुस्तकालय में मूल पुस्तकें नहीं रखी जातीं कि कहीं लोग इतिहास मत जान जायें। यदि इण्डिका रखी जाती तो अबतक इसके नये संस्करण से यह सन्दर्भ भी निकाल दिया जाता। इस अवधि में १२० वर्ष का तथा ३०० वर्ष के २ गणतन्त्र काल थे। ब्रह्माण्ड पुराण में भी परशुराम के २१ गणतन्त्रों का १२० वर्ष काल ही लिखा है। पर इसे केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रिय द्वेष रूप में ही प्रचार होता है। बाकी कामों के लिए परशुराम, राम-सभी काल्पनिक हैं। बलराम भी काल्पनिक थे पर शराब पीने के लिए वास्तविक हैं (मुरारी बापू)। मालव गण भी शूद्रक शक (७५६ ईपू) से श्रीहर्ष शक (४५६ ईपू) तक था। पर उसका इतिहास इसलिए नष्ट किया गया क्योंकि वहां के राजाओं ने शक आरम्भ कर घोर अपराध किया था। युधिष्ठिर शक का अधिकांश स्थानों पर उल्लेख है, पर सभी शक कर्त्ताओं को विदेशी शक मान कर झूठी कहानियां गढ़ी गयी हैं। विक्रमादित्य तथा उससे सम्बन्धित सभी लोगों को काल्पनिक कहा गया है। कालिदास ने घोर अपराध कर ज्योतिर्विदाभरण में विक्रमादित्य द्वारा सीजर को बन्दी बनाने का उल्लेख किया तथा ग्रन्थ निर्माण की तिथि भी दी है। अतः झूठी गणनायें कर इसे जाली कहा गया। यदि यह विक्रमादित्य के १२०० वर्ष बाद का है, तब भी इसकी बातें ठीक हो सकती हैं। यदि केवल बाद में लिखा होने से गलत है तो और १००० वर्ष बाद आज के लेखकों की पुस्तकें कैसे ठीक हैं? इसमें एक कठिनाई है कि केवल इसी पुस्तक में कालिदास का नाम तथा उनके ३ महाकाव्यों के बारे में लिखा है। इसे जाली कहने पर कालिदास का ही अस्तित्व नहीं है। पर यह कहने पर पिछले १०० वर्षों के लाखों शोध पत्र बेकार हो जायेंगे। विक्रमादित्य काल के वराहमिहिर तथा जिष्णुगुप्त के पुत्र ब्रह्मगुप्त ने भी अपना काल दिया है। वराहमिहिर की जन्मतिथि दिखाने पर एक कुलपति क्रुद्ध हो गये तथा पूछा कि अपनी मृत्यु तिथि क्यों नहीं दी? जो जानकारी चाहते थे वह मिलने पर क्रोध से पागल क्यों हो गये? उनसे पूछा कि आपने अपने किस ग्रन्थ में जन्म तथा मृत्यु तिथि दी है? कोई तिथि नहीं दे सकते क्यों कि कम आयु लिखवानी है। स्वयं दूसरों की नकल कर अपने नाम से लिखते हैं, पर प्राचीन भारत के लेखकों के बारे में सिद्धान्त है कि सभी अपने से १००० वर्ष पूर्व के लोगों के नाम से लिखते हैं-अर्थात् झूठ और त्याग का महान् समन्वय।
(६) संस्कृत मृत भाषा है-विश्व की एकमात्र जीवित भाषा संस्कृत है जिसके शब्दों का अर्थ लोक भाषाओं में आज भी वही है, जो ३१००० वर्ष पहले था। वर्तमान अर्थों से वेद समझने में सुविधा होती है और मेरे जैसा संस्कृत नहीं पढ़ा व्यक्ति भी कुछ समझ लेता है। पतञ्जलि ने भी महाभाष्य के आरम्भ में लिखा है कि ७ द्वीपों में प्रचलित लोकभाषाओं में शब्दों के अर्थ खोजना चाहिए। ७ द्वीप बहुत दूर हैं, अपने गांव की भाषा के शब्द भी नहीं देखते हैं क्योंकि बचपन से पढ़ाया गया है कि आर्य १५०० ईपू में बाहर से आये थे। वेद अध्ययन बन्द करने के लिए प्रचार हुआ कि इसकी लिपि नहीं है, जिससे लिपियों का वर्गीकरण, स्फोट शास्त्र आदि नहीं समझें।
(७) सभी पुराण अविश्वसनीय हैं-हर पुराण के बारे में आधुनिक शोध से पता चलता है कि १२०० ई से पहले कोई पुराण नहीं लिखा गया। इस तिथि का सम्बन्ध १२०४ ई में बख्तियार खिलजी द्वारा नालन्दा विश्वविद्यालय जलाने से है। आज के प्राध्यापक पुस्तकालय में बैठ कर तथा नेट से किताब देख कर शोध नहीं कर पाते। पुस्तकालय नष्ट होने पर ही कैसे पुराण लिखे गये जब लोग जान बचाने के लिए ओड़िशा, असम, नेपाल आदि में शरण ले रहे थे?

अंग्रेजी शिक्षा आते ही धर्मशास्त्र से दूर कर दिया गया हिंदू समाज? इस पर तो कभी विचार किया ही नहीं गया।।

वास्तव में अंग्रेजों की शिक्षा पद्धति शुरू हो जाने के पश्चात,
धर्मशास्त्र की शिक्षा ही नहीँ दी गयी। अधिकांश प्राध्यापक भी भारत के विषय में कुछ नहीँ जानते। दर्शन शास्त्र की पुस्तकों में केवल शंकराचार्य का दर्शन पढ़ाते है तथा उनको इस्लाम प्रभावित और मूर्ति पूजा का विरोधी बताते हैं। किसी भी इतिहास लेखक ने अभी तक विक्रम संवत् या शालिवाहन शक का नाम नहीँ सुना है। ज्योतिष लेखक तथा प्राध्यापक भी शक तथा संवत् का अर्थ भूल चुके हैं। वे मानते हैं कि वराहमिहिर अपनी मृत्यु के ८३ वर्ष बाद के शालिवाहन शक का प्रयोग कर रहे थे। समाज अध्ययन में केवल वर्ग भेद तथा संघर्ष बताया गया है। जीवन भर वेद पढ़ने वाले भी उसकी उत्पत्ति १५०० ईपू में सिन्धु घाटी सभ्यता से मानते हैं। यदि ऋग्वेद का प्रथम सूक्त भी देख लेते तो पता चलता कि उसके दो शब्दों का प्रयोग केवल तमिल में होता है। यदि पश्चिमोत्तर के आर्य वेद थोपते तो इनका प्रयोग पंजाब, राजस्थान में भी होता। भारतीय शास्त्रों की पढ़ाई भारतीय विधि से आरम्भ ही नहीँ हुई। आरम्भ से उल्टी बातें बतायी जाती हैं। अतः प्रत्यक्ष चीज भी नहीँ दीखती।

अंग्रेजों ने भारत को नष्ट करने का दायित्व ऑक्सफोर्ड की बोडेन पीठ (१८३१ ई) को दिया था। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में साम्यवाद का प्रचार केन्द्र था, जो पहले जर्मनी के उद्योग को नष्ट करने के लिए था, बाद में इसका रूस में प्रचार किया गया। ब्रिटिश दलाल लेनिन हमेशा जार से बचने के लिए ब्रिटेन में ही शरण लेता था। वेद-नाशक तथा साम्यवादी साहित्य दोनों का प्रकाशन विदेशों के लिए ही था, स्वयं ब्रिटेन में इनका कभी व्यवहार नहीं हुआ। जो पुस्तक सिलेबस में नहीं हो उसे छपवाना बहुत कठिन होता है। विश्वविद्यालय से तो ऐसा करना असम्भव है। यह केवल प्रचार साहित्य था, जार शासन तथा भारत को नष्ट करने एक् लिए। रूस तथा चीन तो बहुत पहले इससे मुक्त हो चुके हैं। भारत अभी तक इस जाल में फंसा हुआ है।
✍🏻अरुण उपाध्याय

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