बर्मा में तख्तापलट का क्या असर पड़ेगा भारत बर्मा संबंधों पर

रमेश ठाकुर

सवाल उठता है कि म्यांमार में सैन्य तख्तापलट होने के बाद भारत से कैसे रहेंगे रिश्ते? इसको लेकर भारत सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक भी है। जिस देश ने दुर्दांत सोच और लाचार सिस्टम को संभालने में इतनी मेहनत की लेकिन अचानक उस पर पानी फिर गया।

बामुश्किल भारत के अथक प्रयासों से म्यांमार के हालात सुधरे थे, लेकिन एक बार फिर से नाउम्मीदी के भंवर में समा गया। बड़ी मुश्किल से रोहंगिया मसला और दमनकारी हुक़ूमत को गच्चा देकर गहरी खाई से बाहर निकला था म्यांमार! वही हुआ जिसका अंदेशा था। अंदेशा एकाध महीनों से था कि वहां कुछ बड़ा होने वाला है और हो भी गया। म्यांमार में करीब 60 वर्ष बाद फिर से आपात काल लगा है। सेना ने अपनी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल कर देश की चुनी सरकार का सैन्य तख्तापलट करके अपनी पहले जैसी हुक़ूमत स्थापित कर ली। कुछ ही वर्ष पूर्व वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था का उदय हुआ था। वह भी पूर्ण रूप से नहीं, धीरे-धीरे लोकतंत्र की जड़ें निकलनी शुरू हुईं थीं। प्रत्येक क्षेत्र जैसे सामाजिक, सैन्य, काउंसलिंग व आम व्यवस्था आदि में भारत सरकार के सहयोग से वहां राजनैतिक व्यवस्था स्थापित होनी आरंभ हुई थी। लेकिन अचानक हुए तख्तापलट ने म्यांमार की लोकतांत्रिक सुधार को झटका लगा दिया है।

इतना तय है अब यहां से निकलना म्यांमार के लिए आसान नहीं होगा। म्यांमार में लोकतांत्रिक सुबह की जब आहट हुई थी, तो उसमें भारत ने अप्रत्यक्ष भूमिका निभाई थी, मुल्क का विकास हो, मानवाधिकारों का पालन हो, सिस्टम अन्य देशों की भांति संचालित हो आदि में हिंदुस्तान ने अहम भूमिका निभाई थी। पर, तख्तापलट ने सब गुड़गोबर कर दिया। म्यांमार की इस सैन्य कार्रवाई का समूचे विश्व में निंदा हो रही है और होनी भी चाहिए? दुनिया की ज्यादातर सरकारों एवं अंतरराष्ट्रीय फोरम व विभिन्न सरकारी, गैर सरकारी संगठनों ने तख्तापलट के फैसले को गलत बताया है। सेना का यह निर्णय मुल्क के सीमित लोकतांत्रिक सुधारों को झकझोर देगा। म्यांमार भारत का सबसे भरोसेमंद पड़ोसी मुल्क है। सांस्कृतिक सौहार्द और विरासतें कमोबेश एक जैसी ही रही हैं। बर्मा से म्यांमार बनने तक के सफर में भारत साथ रहा है।

सवाल उठता है कि म्यांमार में सैन्य तख्तापलट होने के बाद भारत से कैसे रहेंगे रिश्ते? इसको लेकर भारत सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक भी है। दरअसल, जिस देश ने दुर्दांत सोच और लाचार सिस्टम को संभालने में इतनी मेहनत की हो और अचानक उस पर पानी फिर जाये, तो चिंतित होना बनता भी है। म्यांमार की सेना ने फिलहाल एक वर्ष का आपातकाल लगाकर देश की बागडोर को अपने नियंत्रण में ले लिया है। यह अवधि आगे भी बढ़ सकती है। प्रत्येक सामान्य अधिकारियों पर अपना कब्ज़ा कर लिया है। अब बिना सेना के इजाज़त देश में पत्ता भी नहीं हिलेगा। एकाध वर्षों से म्यांमार सियासी रूप से कुछ मजबूत हुआ था और अपनी मौजूदगी विश्व पटल पर दिखाने लगा था। स्टेट काउंसलर आंग सान सू की दूरदर्शिता ने देश को नई दिशा देनी शुरू कर दी थी। साथ ही देश धीरे-धीरे चीन के नापाक चुंगल से भी आजाद हो रहा था। पर अचानक से आपातकाल का थोपना सुधारों की बहती गंगा को रोकने जैसा है। तख्तापलट के साथ ही सेना ने आंग सान सू की व देश अन्य बड़े नेताओं को कैद कर लिया। इसके अलावा पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, सामाजिक संगठनों के लोगों पर भी कठोर कर्रावाईयां शुरू हो गई हैं। ये सभी निर्णय नि:संदेह लोकतंत्र के रूप में वर्तमान म्यांमार के लिए काफी झटका साबित होंगे। इससे अब तक की बनाई साख को भी बट्टा लगेगा।

म्यांमार ने आपातकाल क्यों लगाया गया, इस थ्योरी को भी समझना जरूरी है। दरअसल, वहां का मौजूदा संविधान अन्य देशों के मुकाबले कुछ अलहदा है। वहां हमेशा सेना का स्वामित्व रहा है। संविधान के अनुच्छेद-417 के तहत सेना को आपातकाल में सत्ता अपने हाथ में लेने की अनुमति हासिल है। हालांकि अंदरूनी रूप से इसमें बदलाव करने की मांगें समय-समय पर उठती रही हैं। स्टेट काउंसलर आंग सान सू की इसको लेकर कई बार गिरफ्तार भी हुईं हैं, आंदोलन, धरना-प्रदर्शन भी किए हैं। साथ ही भारत ने भी वकालत की। बावजूद इसके संविधान में संशोधन नहीं किया गया। पाकिस्तान, म्यांमार और कुछ इस्लामिक देशों में संविधान के अनुच्छेद-417 का सेना कभी कभार गलत इस्तेमाल करती है। मन मुताबिक कभी भी तख्तापलट करके हुक़ूमत की बागडोर अपने हाथों ले लेती है। दरअसल, म्यांमार संविधान में कैबिनेट के मुख्य मंत्रालय और संसद में एक चौथाई सीट सेना के लिए आरक्षित होती है, जिससे नागरिक सरकार की शक्ति सीमित हो जाती हैं।

आपातकाल ऐसा दंश है जो किसी को भी आहत-परेशान कर देता है। इंसान अपनी मर्जी से खुली फिजा में सांस भी नहीं ले सकता। इस दंश का भुक्तभोगी भारत भी रहा है। हालात चाहे कितने भी बुरे क्यों न हों, कोशिश यही रहे कि किसी भी मुल्क में आपातकाल न लगे। आपातकाल लगने से वह देश पुरी दुनिया से अलग हो जाता है। उसकी कनेक्टिीविटी जीरो हो जाती है। ठीक वैसे ही जैसे एक मरीज का कोमा में चले जाना। सेना ने तख्तापलट का जो कारण बताया है वह विश्वास करने लायक नहीं है। कोरोना संकट में नाकामी और बीते वर्ष में चुनाव कराने में सरकार के विफल रहने को आपातकाल का मुख्य कारण बताया है। पर दोनों की कारण वाजिब नहीं है। आपातकाल की अवधि वर्ष निर्धारित है। इस बीच मुल्क उस सूखे पेड़ की तरह समय काटेगा, जो बारिश के मौसम का इंतजार करता रहता है। म्यांमार इन बारह महीनों में बहुत कुछ खो देगा।

सभी जानते हैं कि कोरोना आपदा कुदरती है जिस पर किसी का जोर नहीं चला। महाशक्ति कहे जाने वाला अमेरिका भी हांफ गया। कई देशों में कोरोना के कारण चुनाव टले। फिर म्यांमार की क्या औकात जो इन दोनों ही संकटों से लड़ पाता। दरअसल, ये दोनों कारण सिर्फ बहाना मात्र हैं। तख्तापलट की पटकथा सेना ने कुछ महीने पहले ही लिख डाली थी, जिसका समय आने पर इस्तेमाल किया। आपातकाल लगाने के बाद सेना ने चार्टर सिस्टम के तहत सभी नागरिक शक्तियों को अपने हाथ में ले लिया है। मानवाधिकार समूह व पक्ष-विपक्ष के लोग हल्ला न काटें इसलिए उन सभी को जेल में डाल दिया है। कई नेताओं को नजर बंद करके उनको उनके ही घरों में कैद कर दिया है। मीडिया के सभी संस्थानों पर तालाबंदी हो गई है। आपातकाल जब खत्म होगा, तब समीक्षा होगी कि म्यांमार कितने वर्ष पीछे चला गया और उसने क्या कुछ खो दिया?

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