कुर्सी के चक्कर में लोगों के बदल जाते हैं ईमान

नए संसद भवन का निर्माण

 

अशोक सिंह ‘अक्स’

कुर्सी की अहमियत वही लोग जानते हैं जो पहले कुर्सी पर बैठ चुके हैं, जिनके पास उस पर बैठने का अनुभव है या फिर कुर्सी पर बैठने वाले के करीबियों में से एक हों। नहीं तो फिर एक लंबे अरसे से कुर्सी पाने व हथियाने के चक्कर में पड़े हों और लगातार प्रयास विफल रहा हो। उनकी तिकड़मबाजी भी कुर्सी तक ही सीमित होती है। कुर्सी पर बैठने वालों की खुशामदी करने वालों की लंबी फेहरिस्त होती है। श्रीमान, महोदय, साहब, जनाब, मालिक आदि आदि विशेषण शब्दों का प्रयोग होने लगता है। यदि कुर्सी पर बैठने वाला के बदले बैठने वाली हो तो मैडमजी, साहिबा, मोहतरमा जैसे विशेष शब्दों का चलन हो जाता है।

कुर्सी का अपना अस्तित्व होता है, उसकी गरिमा होती है। जिसके कारण कुर्सी पाने का नशा भी बहुत अजीब होता है। इसीलिए तो लोग कुर्सी पाने के लिए मरते हैं या यूँ कहें कि मर मर कर जीते हैं। कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। येन केन प्रकारेण कुर्सी की चाहत पूरी हो जाए, और जब एकबार कुर्सी मिल जाती है तो उसे अपनी बपौती समझने लगते हैं। अपने आपको रंगे हुए सियार जैसे समझने लगते हैं। अपनों के साथ भी बात और व्यवहार का नजरिया बदल जाता है। जो सिद्धांत, वसूल व आदर्श की बातें पहले बताई और जताई जाती थी सबकी धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं।
इनके बदलते रंग को देखकर गिरगिट भी हैरान और परेशान होता होगा।
आइए आपको एक ऐसे ही जनाब से मिलवाता हूँ। उनका नाम है- नवनीतलाल मिश्रा। यथा नामो तथा गुणो। जी हजूरी और खुशामदी की सारी हदें पार कर दिया था जनाब नें। पहले तो कुर्सी पर बैठने वाले के जूते सैंडिल तक को अपने रुमाल से साफ किया करते थे। खुश करने के लिए और कृपादृष्टि पाने के लिए मिष्ठानों व मौसमी फलों की सौगात भेंट करते थे। बिल्ली के भाग्य से सिकहर टूटा और एकदिन उन्हें भी कुर्सी पर बैठने का मौका मिला। हालाँकि उन्हें कुर्सी पर बैठने का अवसर मिला पर सिर्फ एक वर्ष की अवधि के लिए। पर एक वर्ष में उनके कार्यव्यवहार से कुर्सी भी बेजार आई होगी। बंदा दिखने में तो अच्छा खासा था पर क्या करना चाहता था उसे भी पता नहीं होता..? फिर दूसरे उनके चट्टे-बट्टों की तो बात ही निराली, इस संबंध में तो वही कहावत चरितार्थ होती थी कि छोटे मियां तो छोटे मियां और बड़े मियां सुभानअल्लाह। पर बेचारे सेवानिवृत्त हो गए और कुर्सी का मजा नहीं ले पाए। इस बात का मलाल आखिरी साँस तक अवश्य रहेगा।
उनकी बिरासत मिली राजमाता मीता को .. ये वही मोहतरमा हैं जो कि कुर्सी की फिराक में ऊपरवालों की चापलूसी हद से ज्यादा कर दीं थी जिसके कारण थप्पड़ तक खानी पड़ी। लेकिन दो वर्ष बाद उसकी भरपाई कुर्सी के रूप में हुई। सो सारे गिलेशिकवे दूर हो गए पर मातहतों की तो शामत आ गई। एक-एक मिनट व सेकंड का हिसाब रखना। जरा सी देरी होने पर सीएल की धमकी…अनावश्यक रूप से देर-देर तक रोक कर रखना। तंग करना जैसे फितरत में हो। कभी-कभी तो कुछ एक सिरफिरे औकात तक दिखा देते पर उसे उन सबकी परवाह नहीं होती। बेशर्मी की हद कर दिया उसने। धीरे-धीरे लोंगों की निगाह से उतरती गई। लोग असहयोग करना शुरू कर दिए। ऐसे में कुर्सी कितने दिन सुरक्षित रह सकती है। आप खुद समझदार हैं, समझ गए होंगें…!
कुर्सी के आसपास बहुत सी राजनीति चलती रहती है। दरअसल राजनीति कम कूटनीति और छलनीति ज्यादा। कुर्सी संभालना या उसपर बैठना सीधे-साधे या ईमानदार व्यक्ति के बस की बात नहीं है। फिर जो चापलूसी पसंद नहीं करते हैं तो उन्हें कुर्सी पर बैठने का अधिकार है ही नहीं ऐसा समझना चाहिए। हमने तो कुर्सी के चक्कर में अच्छे खासे ईमानदारी व वसूलों की दुहाई देनेवालों को रंग बदलते देखा है। सब ताक पर धरे रह जाते हैं। जो पहले अपने करीबी व शुभचिंतक होने का दावा करते हैं वे ही कुर्सी पर बैठते ही सबकुछ भुला देते हैं। अपनी खाल मोटी कर लेते हैं। कान में तेल डालकर बैठ जाते हैं। शायद कुर्सी और सत्ता का एक ही रंग और नशा होता है, जिसे पाने के लिए लोग बेचैन रहते हैं और पाने के बाद मदहोश हो जाते हैं। तब तक मदहोश रहते हैं जबतक कुर्सी होती है। उसके बाद साधारण सा व्यवहार करने लगते हैं फिर लोंगों से जुड़ने की कोशिश करते हैं तो लोग उनकी तरफ ठीक उसी निगाह से देखते हैं जैसे कोई कुत्ता एक इलाके से दूसरे इलाके में जाता है तो उस इलाके के कुत्ते उसे किस हिकारत की निगाह से देखते हैं…। फिर भी मौका मिलते ही लोग कुर्सी के चक्कर में पड़ जाते हैं।

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