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इतिहास के पन्नों से

हिंदू धर्म और सामी मजहब

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“ईसाइयत अथवा इस्लाम का केन्द्रबिन्दु है इतिहास-प्रसिद्ध पुरुष; हिन्दू धर्म का केन्द्रबिन्दु है मनुष्य की उर्ध्वस्थ चेतना में विद्यमान सत्य। यदि ईसा मसीह अथवा मुहम्मद ने जन्म नहीं लिया होता, तो न ईसाइयत का उदय होता न इस्लाम का। किन्तु हिन्दू धर्म के अनुसार मनुष्य का धर्म इस प्रकार के किसी संयोग पर निर्भर नहीं करता। धर्म तो मनुष्य की आत्मा में निगूढ़ है। वह सब समय वहाँ था और रहेगा। वह शाश्वत है, सनातन है।

किन्ही बाहरी कारणों से वह धर्म कुछ समय के लिए दबा रह सकता है, किन्तु उसकी सत्ता अक्षुण्ण रहती है और सुअवसर पाते ही वह अभिव्यक्त हो जाता है। वह कुछ समय के लिए सुप्त रह सकता है, किन्तु किसी भी सारगर्भित शब्द का स्पर्श पाकर वह जाग सकता है, अथवा किसी भी अध्यात्मान्वेषी पुरुष का आह्वान पाकर वह सिंहनाद कर सकता है। अथवा अनुकूल काल आने पर वह स्वमेव उठ कर बैठ सकता है। अध्यात्म की चेतना समय-समय पर आने वाले ऋषियों-मुनियों के माध्यम से भी पनपती है, किन्तु इन ऋषि-मुनियों में कोई अनोखापन नहीं होता। इनमें से न किसी को प्रथम पुरुष माना जाता है, न अन्तिम उपदेष्टा। इस प्रकार का प्रत्येक दावा कोरा पाखण्ड है, केवल आत्मवन्चना है।”

“इस प्रसंग में सामी मजहबों [यहूदी मत, ईसाइयत और इस्लाम] की विचार-पद्धति बहुत कच्ची है। वे मानते है कि ईश्वर अपने किसी प्रिय व्यक्ति को, अपने पुत्र अथवा पैगम्बर को, अपना सन्देश सुनाने के लिए चुन लेता है। तदुपरान्तअन्य सब मनुष्यों को वह सन्देश उधार ही मिल सकता है, किन्तु हिन्दू धर्म इस प्रकार के किसी एकाधिकार को स्वीकार नहीं करता। ईश्वर-चेतना आत्मा का धर्म है और कोई भी सच्चा साधक उस चेतना में प्रवेश पा सकता है। ईश्वर और व्यक्ति के बीच किसी मध्यस्थ को घसीटना मिथ्या धारना है।”

“वस्तुतः सामी मजहबों में ईश्वर द्वारा चुना हुआ व्यक्ति-विशेष केवल एक मध्यस्थ ही नहीं है; वह मुक्तिदाता भी है, और त्राता भी। वह अपने अनुयाइयों के पक्ष में ईश्वर के दरबार में गवाही देता है। वह अपना यह काम अपने शिष्यों के सुपुर्द भी कर सकता है, और वे शिष्य इस काम के लिए दूसरे अधिकारी नियुक्त कर सकते है। फलस्वरूप इन मजहबों का नाता ईश्वर से नहीं रह जाता। ईश्वर को स्थानपन्न करने वाले लोग [एकमत्र पुत्र या अन्तिम नबी] ही इन मजहबों के ठेकेदार बन जाते है।”

– स्व. राम स्वरूप

(स्रोत: ‘हिन्दूधर्म, ईसाइयत और इस्लाम’, पृ. १४-१५)

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