मजहब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना, अध्याय -1 महजबी अफीम हुआ देश बर्बाद

 

मजहब को कुछ लोगों ने ‘अफीम’ की संज्ञा दी है। यद्यपि ऐसा कहने वाले लोगों ने मजहब को धर्म का समानार्थक या पर्यायवाची मानकर अपनी ऐसी धारणा व्यक्त की है, परन्तु सत्य यह है कि मजहब और धर्म में जमीन आसमान का अन्तर है। मजहब सचमुच एक अफीम है और एक ऐसा नशा भी है जो मानव को मानव नहीं रहने देता और उसे शैतान बनाकर उससे हर वह नीच कार्य कराता है जिसकी मनुष्य से कल्पना तक नहीं की जा सकती। मनुष्य के द्वारा किए गए ऐसे नीच कर्मों से विश्व इतिहास भरा पड़ा है, जिनके कारण मानवता का बहुत भारी अहित हुआ है।

मजहबी अफीम से हुआ देश बर्बाद ।
मानवता हुई मौन है दानवता का नाद ।।

मजहब कारण विनाश का बात बांध लो गांठ।
धर्म प्रतीक विकास का दे मानवता का पाठ।।

यह मजहब मनुष्य को हिन्दू बनाता है, मुसलमान बनाता है, सिख बनाता है, ईसाई बनाता है ,पर ‘इंसान’ कभी नहीं बनाता । जबकि धर्म मनुष्य को मजहबी न बनाकर धार्मिक बनाता है और उसे मनुष्य से देवता बनने का मार्ग बताता है। यही कारण है कि मजहब जहां विनाश का ताण्डव मचाता है , वहीं धर्म विकास की ठण्डी – ठण्डी बयार बहाकर मानवता का सृजन करता है। जो लोग मनुष्य को मजहबी दृष्टिकोण से देखते हैं, वे उसमें हिन्दू ,मुस्लिम, सिख, ईसाई के दर्शन करते हैं। देखने वाले का यह दृष्टिकोण वास्तव में मानवीय गरिमा के प्रतिकूल है। मनुष्य मनुष्य को मनुष्य ही देखे और मनुष्य ही समझे – इसी में आनन्द है। क्योंकि इस प्रकार के उसके दृष्टिकोण में व्यापकता झलकती है ।उसकी संकीर्णता का लोप हो जाता है और वह सही दृष्टिकोण से अपने मानव समाज का अवलोकन कर सकता है।

धर्म की दृष्टि दिव्य है दिव्य धर्म का तेज।
मनुष्यता बिन धर्म के हो जाती निस्तेज।।

किया राजनीति का अपराधीकरण

मजहब ने पिछले लगभग 2000 वर्ष से मानवता को उत्पीड़ित किया हुआ है ।मजहब का आतंकवाद संसार में उतना ही पुराना है जितनी मजहबी मान्यता पुरानी है। बहुत देर तक संसार को उत्पीड़ित करने वाले इस मजहब को पश्चिम के चिन्तकों ने और इनके पश्चात कम्युनिस्ट विचारधारा ने ‘अफीम’ की संज्ञा इसीलिए दी कि इसके चलते संसार में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती। वास्तव में मजहबी विचारधारा ने ही नास्तिकवाद को संसार में फैलने दिया है। धर्म की हत्या करके मजहब ने संसार का बहुत भारी अहित किया है ।क्योंकि जिन लोगों ने मजहब के भूत को समाज में नंगा नाचते देखा और अनेकों निरपराध लोगों के खून में स्नान करते देखा, उनकी धारणा यह बन गई कि मजहब एक जानलेवा बीमारी है, जिससे दूरी बनाकर रहना ही उचित है। यही कारण है कि लोग मजहब और राजनीति को भी अलग अलग करके देखने की बात करते हैं। मझ क्योंकि खूनी है इसलिए इस खूनी ने राजनीति को भी खूनी अर्थात अपराधी बना दिया है। राजनीति का अपराधीकरण करने में मजहब ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जिससे मजहब अपराधियों का ही राजनीतिकरण करने में भी सफल हो गया है।
मजहब को कुछ लोगों ने व्यक्ति का निजी मामला भी बताया है। यद्यपि हम उनकी इस प्रकार की मान्यता को भी उचित नहीं मानते । क्योंकि व्यक्ति की निजी सोच और उसका निजी चिन्तन यदि उन्मादी है, दम्भ से भरा हुआ है और उसमें एक दूसरे के प्रति घृणा का भाव है तो सामाजिक जीवन पर इस प्रकार की सोच , चिन्तन और भाव का प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता । परिणामस्वरुप मनुष्य की ऐसी मानसिकता से जो समाज बनेगा, उसमें अराजकता का और असहिष्णुता का भाव स्पष्ट रुप से झलकेगा। हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि अराजकता व असहिष्णुता से भरे समाज को मानवीय समाज कभी नहीं कहा जा सकता। ऐसे में भारत का यह चिन्तन ही उचित है कि व्यक्ति की निजी सोच और निजी चिन्तन अत्यन्त उच्च और पवित्र होना चाहिए। क्योंकि व्यक्ति की निजी सोच और निजी चिन्तन की पवित्रता से ही पवित्र और आदर्श समाज की स्थापना की जानी सम्भव है। यदि व्यक्तिगत जीवन में हम किसी मजहब की संकीर्ण सोच से प्रेरित होकर कार्य करेंगे तो उस मजहबी संकीर्ण सोच का प्रभाव हमारे व्यक्तित्व व कृतित्व दोनों पर समान रूप से दिखाई देगा। जिसका परिणाम यह होगा कि हम समाज में अपने मजहबी संकीर्ण दायरे को साथ लेकर घूमते रहेंगे, जिससे समाज अराजकता का शिकार बनेगा।

दूषित चिन्तन से बने दूषित सर्व समाज।
रोग – शोक में डूबकर मिट जाते हैं राज ।।

त्याग दीजिए नीचता धर्म करो स्वीकार।
कर्तव्य-भाव अपनाइये करेगा भव से पार।।

ऐसे में हमारा यह स्पष्ट मानना है कि मजहब को व्यक्ति का निजी मामला घोषित करने की आवश्यकता नहीं थी, अपितु मानव की सोच को मानवीय बनाने की आवश्यकता थी। जबकि मजहब को मानने वालों ने इस प्रकार की धारणा को स्थापित नहीं होने दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि समाज व्यक्ति की निजी सोच से हांका जाने लगा। संसार में जितने भर भी तानाशाह और उग्रवादी सुल्तान या बादशाह हुए हैं , उन सभी ने किसी विशेष मजहब की अपनी निजी सोच को समाज व संसार के सभी लोगों पर जबरन लादने व थोपने का प्रयास किया है, जिससे सारे संसार में अराजकता और उग्रवाद फैला।
यह बहुत ही अनुचित, अतार्किक और अवैज्ञानिक धारणा है कि व्यक्ति सोच को तो उग्रवादी और दानवीय रखे और उससे अपेक्षा यह की जाए कि वह मानवीय कार्य करेगा । यह कुछ-कुछ वैसे ही है जैसे आजकल के युवाओं को ब्रहमचर्य की शिक्षा से तो दूर रखा जाए, परन्तु उनसे अपेक्षा यह की जाए कि वह समाज में कुछ भी ऐसा अनैतिक व अनुचित नहीं करेंगे जिससे समाज में बहन – बेटियों का सम्मान सुरक्षित रखने में किसी प्रकार की कठिनाई उत्पन्न होती हो।
इकबाल ने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ – में लिखा है :–

‘मज़हब नहीं सिखाता, आपस में वैर रखना।
हिन्दी हैं, हम वतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा।।’

कवि अल्लामा इकबाल की उर्दू की देश-प्रेम की इस कविता को कांग्रेस ने बंकिम चन्द्र चटर्जी के ‘वन्देमातरम’ गीत से भी अधिक प्रमुखता देने का प्रयास किया। कांग्रेस ने ऐसा केवल मुस्लिम तुष्टिकरण की अपनी विनाशकारी नीति के कारण किया । ध्यान रहे कि यह इकबाल वही थे जो देश तोड़ने के नाम पर जिन्नाह के साथ चले गए थे । जब वह जिन्नाह के साथ भारत छोड़कर जा रहे थे , तब उन्हें एक बार भी याद नहीं आया कि जिस हिंदुस्तान को तू छोड़ रहा है वह सारे जहाँ से अच्छा है । वह सारे जहां से अच्छे हिंदुस्तान को छोड़कर उस पाकिस्तान के लिए चल दिये थे जो आज आतंक- स्थली बन चुका है । उन पर स्वयं पर मजहब का रंग इतना गहरा चढ़ा कि वे हिन्दुस्तान के प्रति अपनी आस्था को भूल गए। वह अपने उस शपथपत्र या वचनपत्र को भी भूल गए, जो उन्होंने :सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्ता हमारा’ – गाकर मां भारती को सौंपा था । इस एक उदाहरण से ही पता चल जाता है कि मजहब और मजहबी सोच मनुष्य के लिए कितनी घातक होती है ?
अब जो व्यक्ति स्वयं ही मजहब में अंधा होकर देश के प्रति अपनी आस्था को भूल गया हो ,उसके गीत का क्या प्रभाव पड़ना था ? – यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

मजहब नहीं है एक पवित्र अवधारणा

कुछ लोगों की दृष्टि में मज़हब एक पवित्र अवधारणा है। यह अत्यन्त सूक्ष्म, भावनात्मक सूझ, विश्वास और श्रद्धा है। मूलत: अध्यात्म के क्षेत्र में ईश्वर, पैगम्बर आदि के प्रति मन की श्रद्धा या विश्वास पर आधारित धारणात्मक प्रक्रिया ही मज़हब है। यह बाहय आडम्बरों, वैर भाव, अन्धविश्वास आदि से ऊपर है।’
हमारा मानना है कि मजहब को किसी भी दृष्टिकोण से एक पवित्र अवधारणा कहा जाना मूर्खता है। पवित्र अवधारणा धर्म शब्द में अन्तर्निहित है ।जो मनुष्य का मनुष्य से ही नहीं बल्कि प्राणीमात्र के साथ भी उसका ऐसा पवित्र सम्बन्ध स्थापित करती है कि वह सभी प्राणधारियों का संरक्षक बन जाता है। जबकि मजहब मानव के द्वारा अन्य प्राणियों के उद्धार करने की तो बात छोड़िए यह तो मनुष्य को मनुष्य के रक्त का ही प्यासा बना देता है। इस्लाम जब से भारत में आया तभी से उसने यहाँ पर रक्तपात और नरसंहारों के कीर्तिमान स्थापित करने को ही अपना सबसे बड़ा मजहबी कर्तव्य माना है। भारत से बाहर भी इस्लाम की तलवार ने मजहबी नरसंहार किए हैं। इतना ही नहीं ईसाइयत ने भी अपने मजहब के प्रचार प्रसार के लिए बड़ी भारी संख्या में विपरीत धर्मावलंबी लोगों का कत्लेआम किया है ।जबकि एक धार्मिक व्यक्ति ऐसी सोच से कोसों दूर रहता है, जिसमें नरसंहार या रक्तपात करने की सोच सम्मिलित हो।
स्पष्ट है कि मजहबी व्यक्ति का सारा चिन्तन और सारा ध्यान नकारात्मकता या विध्वंसात्मक प्रवृत्ति में व्यय होता है, जबकि एक धार्मिक व्यक्ति का सारा चिन्तन सकारात्मकता या सृजनात्मकता में व्यय होता है। मजहबी व्यक्ति विनाशकारी प्रवृत्तियों में लिप्त रहता है ,जबकि एक धार्मिक व्यक्ति संसार से विनाशकारी या विध्वंसक शक्तियों के विनाश में लिप्त रहता है। पहला व्यक्ति मजहबी तलवार में शान्ति खोजता है तो दूसरा अहिंसा की बयारों में, प्रेम की फुहारों में और सत्य की बौछारों में शांति खोजता है।

मजहब मग्न विनाश में करता सब से बैर।
धर्म पुजारी है प्रेम का मांगे सबकी खैर ।।

सत्य ,अहिंसा , प्रेम का करो नित्य व्यापार।
मजहबी भाव मिटाइये – करता नरसंहार।।

यदि मजहब धर्म का समानार्थक होता तो भारत का मजहब के नाम पर कभी भी विभाजन नहीं होता और यदि इकबाल व उनके अन्य साथी मजहब की इसी पवित्र विचारधारा में विश्वास रखते कि मजहब मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है तो वह मजहब के नाम पर बनने वाले पाकिस्तान का नागरिक बनना कभी स्वीकार नहीं करते। अल्लामा इकबाल जैसे लोगों ने मजहब के विनाशकारी स्वरूप को तो स्वीकार किया पर धर्म की प्रेम रूपी गंगा में स्नान करना उचित नहीं माना।
जिस अल्लामा इकबाल ने ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’- का गीत गाया, उसी के सामने हजारों लाखों हिन्दुओं का कत्लेआम मजहब के नाम पर हुआ और गांधी ,नेहरू व जिन अन्य कांग्रेसियों ने अल्लामा इकबाल के इस गीत को ‘वन्देमातरम’ से भी कहीं अधिक प्रमुखता देकर इसे भारत के लोगों के लिए सबसे अधिक स्वीकार्य बनाने का प्रयास किया उनके सामने हिन्दू बहन बेटियों की छातियां काटी गईं। यह अलग बात है कि इस सब के उपरान्त भी गांधी नेहरू व उनके कांग्रेसी साथियों के लिए इकबाल का यह गीत आदर्श बना रहा।

राम जन्मभूमि मुक्ति के लिए उठाए अनेकों कष्ट

हमारे देश में ऐसे अनेकों लोग हैं जो मुगलों को धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक मानते हैं । ऐसा कहते समय यह लोग इस तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि इन्हीं मुगलों के शासन का आरम्भ करने वाले बाबर के द्वारा 1528 ई0 में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी का अयोध्या स्थित मन्दिर केवल मजहब के नाम पर भूमिसात कर दिया गया था। तब से लेकर 1947 तक और 1947 से लेकर 2019 तक मर्यादा पुरुषोत्तम राम की जन्मभूमि को प्राप्त करने के लिए हिन्दुओं ने कितने कष्ट उठाए और कितने बलिदान दिए ? – उन कष्टों और बलिदानों को देखकर एक भी धर्मनिरपेक्ष मुगल या किसी मुसलमान का कलेजा नहीं पसीजा। वे निरन्तर मजहबी कट्टरता का परिचय देते हुए बाबरी मस्जिद के ही गीत गाते रहे और उनकी हाँ में हाँ मिलाते रहे।
यदि मजहब वास्तव में ही बैर करना नहीं सिखाता है तो 1528 ई0 के पश्चात जितनी देर भारत में मुगलों का शासन रहा ,उस काल में किसी ना किसी मुगल शासक के ह्रदय में यह बात अवश्य आ जाती कि मजहबी उन्माद के चलते यदि श्री रामचन्द्रजी के मन्दिर के स्थान पर बाबरी मस्जिद बना दी गई है तो इसे हिन्दू समाज को फिर से मन्दिर निर्माण के लिए ससम्मान लौटा दिया जाए । पर ऐसा हुआ नहीं । क्योंकि मजहब नाम का जो कीटाणु 1528 ई0 में मुगलों के मन – मस्तिष्क में घुसा था, वह उनके शासनकाल की शेष अवधि में तो यथावत बना ही रहा, उसके पश्चात भी आज तक यथावत बना हुआ है। यदि देश में सामाजिक समरसता उत्पन्न करना मुगलों का उद्देश्य होता तो वह सांप्रदायिक सोच का परिचय देते हुए किसी भी हिन्दू धर्म स्थल का विध्वंस नहीं करते और ना ही मजहब के नाम पर महिलाओं का यौन शोषण करते। वह मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर यह घोषित करते कि हमारे लिए मानवता सर्वोपरि है और हम हिन्दुत्व की उन सभी अच्छाइयों को स्वीकार करते हैं जो मानवतावादी सोच को प्रोत्साहित करते हैं। यदि मुगलों के द्वारा ऐसी विशालहृदयता का परिचय दिया जाता तो निश्चित रूप से उनके विरुद्ध हिन्दुओं के द्वारा एक भी विद्रोह नहीं किया जाता।
स्वतंत्र भारत में मुगलों के मानस पुत्र के रूप में अपनी छवि बना चुके कांग्रेसी व कमुनिस्ट भी अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि पर बनी बाबरी मस्जिद को ही भारत की धर्मनिरपेक्षता की मिसाल के रुप में स्थापित करने का प्रयास करते रहे हैं। इतना नहीं, कांग्रेस ने तो रामचन्द्रजी के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया। स्पष्ट है कि कॉन्ग्रेस व उसके विचार से सहमत भारत के अन्य धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल यदि बाबरी मस्जिद की वकालत कर रहे थे या भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बनाए रखने के लिए रामचन्द्र जी के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रहे थे तो वे ऐसा केवल मजहब की तुष्टि के लिए कर रहे थे। जब राजनीति मजहब की तुष्टि पर उतर आती है तो वह समाज में ऐसे कीटाणुओं को बिखेरती है जो सारे समाज के परिवेश को विषाक्त कर देते हैं।

राजनीति का धर्म है न्यायशील व्यवहार।
मति भंग मजहब करे अनरथ की भरमार ।।

राजनीति वेश्या बनी राष्ट्रधर्म गए भूल।
राष्ट्रनीति बिसरा दई कर दी मूल में भूल।।

सचमुच ऐसी राजनीति दिशाविहीन होती है जो समाज और देश के लिए घातक विचारधारा का भी अपने निजी स्वार्थ में पोषण करती है। ऐसी राजनीति देश के नागरिकों को न्याय नहीं दे पाती और वह पक्षपाती होने के कारण समाज व देश के लिए बोझ बन जाती है। ऐसी राजनीति के माध्यम से समाज में अनर्थ की भरमार होकर मानव समाज की मतिभंग हो जाती है । वर्तमान भारत में जितनी भी सामाजिक मजहबी विसंगतियों के आधार पर लोगों के बीच दूरी दिखाई देती हैं वे इसी प्रकार की दिशाविहीन राजनीति का परिणाम हैं। भारतीय लोकतंत्र और भारत के राजनीतिक लोगों की यही मूल में की गई भूल है।

राजनीतिज्ञों की दोगली राजनीति

भारतवर्ष के बारे में यह एक बहुत ही मनोरंजक तथ्य है कि जहाँ लोग अल्लामा इकबाल की उपरोक्त पंक्ति को बार-बार दोहरा कर यह कहते हैं कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ – वहीं ऐसा कहने वाले लोग यह भी कहते हुए सुने जाते हैं कि मजहब को राजनीति से दूर रखा जाए । अब यदि मजहब आपस में बैर रखना नहीं सिखाता है तो फिर मजहब को राजनीति से दूर करने की बात क्यों की जाती हैं ? यदि मजहब इतना ही पवित्र और सामाजिक समरसता को उत्पन्न करने वाला है तो फिर उसे राजनीति के साथ भी मिलाकर चलने में क्या आपत्ति है ? यदि राजनीति को मजहब ऐसी शिक्षा दे सकता है जो आपस में बैर रखने की बातें करने के लिए प्रेरित करता हो तो इसमें बुराई क्या है ? हमें ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग मजहब को राजनीति से दूर रखने की बात करते हैं वह अपना ऐसा वक्तव्य तभी जारी करते हैं जब हिन्दुत्व की बात करने वाला कोई नेता राजनीति में हिन्दुत्व के उन आदर्श सिद्धांतों को लागू करने की बात करता है जिनके आधार पर मानवतावाद को पोषित किया जा सकता है। कहने का अभिप्राय है कि हिन्दुत्व की बातें यदि की जाएंगी तो इन्हें राजनीति और मजहब को अलग-अलग करके देखने की आवश्यकता अनुभव होती है, और यदि इस्लाम के तुष्टीकरण की बात की जाएगी तो इन्हें ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ – की रट लगाने का अवसर प्राप्त होता है।

सांप्रदायिक संकीर्णता है मजहब का मूल ।
देश – धर्म जाएं भाड़ में बिखराता है शूल ।।

हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि मुसलमान अपने किसी त्यौहार पर गाय या बैल काटता है तो उसके पीछे उस त्योहार को मनाने की आस्था कम और हिन्दुओं को चिढ़ाने की मुसलमानों की भावना अधिक काम करती है। वास्तव में हिन्दुओं को चिढ़ाने की यह भावना भी मजहब की तंग सोच के कारण पैदा होती है। मुसलमानों की इस तंग सोच को राजनीति आकर हवा देती है और उन्हें गाय या बैल काटने की अनुमति देकर अपनी नीचता का प्रदर्शन करती है।
वास्तव में स्वतन्त्रता के पश्चात भारत में राजनीति मजहब के सामने अपने आपको बौना समझती रही है। इतना ही नहीं कई बार तो वह मजहब के कहे अनुसार नाच भी दिखाती रही है। जब सलमान रुश्दी ने साहस करके इस्लाम की वास्तविकता पर कुछ लिखा तो राजनीति यह कहने का साहस नहीं कर पाई कि सलमान रुश्दी ने जो कुछ लिखा है, वह सही लिखा है ।
जब मुसलमानों ने सलमान रुश्दी के विरुद्ध फरमान जारी करने आरम्भ किए तो राजनीति ने उस समय भी अपना मुँह छिपाना ही उचित समझा । जबकि राजनीति को उस समय मजहब की तंग दीवारों को गिराने के लिए या मजहबी रूढ़िवाद पर प्रहार करने के लिए सामने आना चाहिए था। शाहबानो के मामले में तो राजनीति मजहब के तलवे चाटती हुई दिखाई दी। जो लोग यह कहते आ रहे थे कि मजहब और राजनीति को अलग – अलग होना चाहिए, वही उस समय इस बात की पैरोकारी करने लगे कि मजहब और राजनीति को एक होकर शाहबानो पर हमला करना चाहिए। राजनीति भी पूरी बेशर्म निकली । उसने भी मजहब के कंधों पर खड़े होकर एक ‘अबला’ पर आक्रमण किया और उस एक अबला के माध्यम से न जाने कितनी ‘शाहबानो’ निर्दयी राजनीति ने अपने एक ही तीर से मार डालीं।
कभी द्रौपदी के चीरहरण पर ‘महाभारत’ हो गया था, उसका कारण केवल यह था कि उस समय की राजनीति में धर्म और शर्म दोनों ही थीं। पर आज की धर्महीन अर्थात धर्मनिरपेक्ष और बेशर्म राजनीति स्वयं ही ‘द्रौपदी’ का ‘चीरहरण’ करने में लग गई।

बेशर्म सियासत हो गई धर्म से हुई हीन।
चीरहरण में लिप्त है हो करके मतिहीन।।

जो लोग यह कह रहे थे कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना – उन्हीं के सामने यह स्पष्ट हो गया कि मुस्लिम जगत की आधी आबादी को पुरुष समाज ने अपनी बैर रखने की भावना का शिकार बना दिया। ना तो राजनीति कुछ कर पाई और ना ही मजहब के तथाकथित ठेकेदार कुछ कर पाए । सब मजहब के सामने आत्मसमर्पण करके खड़े हो गए।
कभी सुना करते थे कि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ – लेकिन हमने अपनी आंखों से देखा कि जिसके साथ मजहब – उसी की सियासत हो गई। मजहब ने सियासत की भैंस को हांकना आरम्भ कर दिया।

मजहब ने ही बांटा है भारतवर्ष को

यदि भारत के इतिहास पर विहंगम दृष्टिपात किया जाए तो पता चलता है कि जब भारत आर्यावर्त के रूप में ही आर्यान अर्थात ईरान तक अपना विस्तार किए हुए था तब उसके टुकड़ों को अर्थात प्रान्तों को काट – काटकर अलग देश बनाने की प्रक्रिया आरम्भ करने वाला कोई वायरस था तो वह मजहब ही था । इसी मजहबी वायरस ने सबसे पहले आर्यान अर्थात ईरान प्रान्त को काटकर भारत से अलग किया, समय आने पर अफगानिस्तान को अलग किया और फिर समय आने पर पाकिस्तान को लेकर अलग किया ।
इतना ही नहीं, मजहब के इस प्रकार के भयंकर स्वरूप को छिपाने के लिए फिर मजहब के नाम पर कुछ इतिहासकार उभर कर सामने आए । उन्होंने मजहब के द्वारा इतिहास की इस प्रकार की गई हत्या के सारे चिह्न ही मिटा दिए । उन्होंने इतने साफ-सुथरे ढंग से इतिहास लिखा कि मजहब का भूत भी दब गया और उसके कुकृत्य भी दब गए। भारत से वैर साधने का मजहब का यह भी एक बहुत ही उत्कृष्ट उदाहरण है। मजहब के लिए चाहे लोग कहते रहें कि वह वैर करना नहीं सिखाता, पर हम तो यही कहेंगे कि मजहब को लेकर व्यक्ति विशेष की तो बात छोड़िए पूरे देश से भी वैर करना सिखाता है ।तभी तो उसने भारत के इतिहास तक से छेड़छाड़ कर अपना वैर निकालने का उदाहरण प्रस्तुत किया है।
कुछ लोगों की भारत के बारे में यह मान्यता है कि भारत का विभाजन कुछ मुट्ठी भर लोगों की हठधर्मिता के कारण हुआ था, लेकिन वास्तव में उनका ऐसा कहना भी मुस्लिम तुष्टीकरण की उनकी परम्परागत सोच और नीति को ही स्पष्ट करता है। सच्चाई यह है कि इस्लाम को मानने वाले लोगों का बहुमत देश को तोड़ने के पक्ष में रहता है। इसका प्रमाण यह है कि जब 1945 में राष्ट्रीय असेंबली के चुनाव हुए थे तो उस समय देश के 93% मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को अपना समर्थन देकर यह स्पष्ट किया था कि वह देश तोड़ने के पक्ष में हैं।
स्पष्ट है कि उनके भीतर देश तोड़ने की अर्थात देश के भीतर एक देश माँगने की यह भावना मजहब ने ही पैदा की थी।आजादी के बाद देश में जहाँ – जहाँ मुस्लिम बहुल क्षेत्र थे वहाँ – वहाँ से हिन्दू को भगाने की प्रवृत्ति भी इसी मजहबी सोच के कारण पैदा हुई है । जिसे हमने 1989 – 90 में कश्मीर से हिन्दुओं के पलायन के रूप में देखा तो अभी कुछ दिन पहले हरियाणा के मेवात के बारे में छपी एक खबर से यह पता चला है कि वहाँ के अधिकांश गांवों से मुस्लिमों ने हिन्दुओं को चुन – चुनकर भगा दिया है या उनका धर्मांतरण करके हिन्दू से मुसलमान बना लिया है, अर्थात उन गांवों को हिन्दूविहीन कर दिया है।
वास्तव में एक दूसरे के प्रति वैर विरोध की भावना को प्रोत्साहित करने में उन मजहबी नेताओं व मजहब के ठेकेदारों का विशेष योगदान रहता है जो ‘हेट स्पीच’ के माध्यम से लोगों को एक दूसरे के विरुद्ध भड़काते हैं। निस्सन्देह इस कार्य को इस्लाम को मानने वाले लोग ही अधिक करते हैं । आज आवश्यकता इस बात की है कि मजहबी सोच, मजहबी शिक्षा और मजहबी विचारधारा को लोग भूलकर राष्ट्रहित में आने वाले अच्छे विचारों का स्वागत करें और उनको अपनाकर देश निर्माण की योजना में अपनी सहभागिता और उपयोगिता सिद्ध करें।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

 

 

 

 

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