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इतिहास के पन्नों से स्वर्णिम इतिहास

आदि शंकराचार्य के शिष्य विश्व विजेता सम्राट सुधन्वा चौहान

मनीषा सिंह

कुछ समय पहले मैंने जब ये पोस्ट सोशल मिडिया पर डाला था तब उसके कुछ दिनों बाद कई जगह मैंने देखा कि कुछ लोग इसे मनगढ़ंत आदि कह रहे थे। हालांकि पोस्ट में यथासंभव संदर्भ दिये गये थे फिर भी एक अन्य पोस्ट द्वारा मैंने उनका उत्तर देने का प्रयास किया था। ये दोनों पोस्ट अलग अलग लेखकों द्वारा लिखित हैं, यहाँ एक साथ पोस्ट कर रहा हूँ, आप भी देखिये –

जगतगुरु आदि शंकराचार्य और शिष्य सुधन्वा ऐसे नाम हैं जिनके बिना भारतीय इतिहास का वर्णन अधूरा है
आइये जानते हैं चौहान वंश दिग्विजयी सम्राट सुधन्वा चौहान (चाहमान) के बारे में कई अभिलेख मिला हैं । दिग्विजय सम्राट सुधन्वा सन ५००-४७० ई.पूर्व दक्षिणी अवन्ति के शासक थे माहिष्मती नगरी उनकी राजधानी थी जो की वर्तमानं कल में मध्यप्रदेश के निमाड़ जनपद में महेश्वर नामक स्थान के रूप में ज्ञात हैं । सुधन्वा चौहान को विश्व सम्राट बनाने के पीछे गुरु आदि शंकराचार्य की अशेष कृपा थी एवं गुरु आदि शंकराचार्य की शिक्षा एवं सुधन्वा चौहान की पराक्रम एवं शौर्य (शास्त्र और शस्त्र) दोनों की गठबंधन ने सनातन धर्म ध्वजा को विश्व के चारो दिशाओ में लहराकर भारत विश्व विजय की स्वर्णिम इतिहास रचा था हमे केवल गुरु चाणक्य और चन्द्रगुप्त की कहानी मालूम थी पर आदि शंकराचार्य एवं सुधन्वा चौहान की इतिहास से हम अनजान थे (मठाम्नाय – महानुशासनम : यह ग्रन्थ आदिशंकराचार्य द्वारा प्रणीत है तथा । श्रृंगगिरी (श्रृङ्गेरी) मठ के लिए प्रमाणभूत है इसमें भी राजा सुधन्वा चौहान का उल्लेख आदिशंकराचार्य जी ने किया है )
राजा सुधन्वा चौहान ने उत्तर, दक्षिण, पूर्व एवं पश्चिम यूरोप के चारो चारो दिशाओ को जीता था युद्ध कला में पारंगत तलवार से वार की गति बिजली से भी तेज थी । आदि शंकराचार्य से ज्ञान प्राप्त कर रणविद्या में परांगत हुए थे सुधन्वा सम्राट वेदों से 18 युद्ध कलाओं के विषयों पर ज्ञान अर्जित किया था । २० प्रकार की घुड़सवारी युद्धकला आते थे हाथी अस्त्र-शस्त्र संचालन, व्यूह रचना, युद्ध नेतृत्व, तकनीक का ज्ञाता थे युद्ध के कई तरीको में पारंगत थे जैसे मल्ल युद्ध, द्वन्द्व युद्ध, मुष्टिक युद्ध, प्रस्तरयुद्ध, रथयुद्ध, रात्रि युद्ध । सम्राट सुधन्वा व्यूह रचना में पारंगत थे जिससे सेना को व्यवस्थित ढंग से खडा किया जाता था, जिसका उद्देश्य अपने कम से कम हानि में शत्रु का अधिक से अधिक नुकसान पंहुचाना जिनमे से सुधन्वा महाराज ने अपने शासनकालीन जीवनकाल में इस्तेमाल में लाये जैसे बाज़, सर्प , बज्र , चक्र , काँच, सर्वतोभद्र , मकर, ब्याल, गरूड व्यूह का इस्तेमाल युद्ध में किये थे ।

कई मुर्ख अज्ञानी आदि शंकराचार्य को अनर्गल गाली देते हैं अगर जगतगुरु आदि शंकराचार्य नहीं होते तो भारत को सुधन्वा चौहान जैसा विश्व विजयता करनेवाला भी नहीं मिलता ।
सम्राट सुधन्वा चौहान ने अनंत युद्ध लड़े थे विश्व विजय करने के लिए इनके शौर्य और पराक्रम केवल भारतीय इतिहास में ही नहीं विश्व इतिहास में शामिल हैं परन्तु दुःख की विषय यह हैं भारत में ऐसे सम्राट के इतिहास पर पाबंधी हैं क्योंकि भारत सरकार के अनुसार यह केवल बुद्ध की धरती हैं यहाँ युद्ध की कोई स्थान नहीं ।
राजा सुधन्वा चौहान से विश्व विजयी सम्राट सुधन्वा चौहान -:
सन ४९८ (498) ई.पूर्व ग्रीस के शासक थाईमोएतेस (Thymoetes) से युद्ध किया था सम्राट सुधन्वा चौहान इस युद्ध का वर्णन “Battle of Thunder” के नाम से जाना जाता हैं कहा जाता हैं इस युद्ध में ग्रीस एथेंस की भूमि में दोनों सेना इस तरह युद्ध लड़े थे जैसे बिजली आसमान से गीरकर भूमि से टकराता हैं सुधन्वा चौहान की सेना ने थाईमोएतेस (Thymoetes) को पराजित कर एथेंस ग्रीस पर कब्ज़ा किया एवं थाईमोएतेस (Thymoetes) के अधीन जितने भी राज्य आते थे जैसे बुल्गरिया, मैसिडोनिया, एवं ग्रीस दक्षिण यूरोप का राजधानी हुआ करता था दक्षिण यूरोप विजय करने के लिए एथेंस विजय करना आवश्यक था एथेंस विजय कर सुधन्वा चौहान ने सनातन वैदिक ध्वज लहरा कर विश्व विजय के लिए निश्चिंत हो चुके थे सुधन्वा ने धर्म युद्ध के नियमो का पालन कर किसी भी देश के संस्कृति को ध्वस्त नहीं किया एक हिन्दू राजा की पहचान दुश्मनी देश के राजा से होती थी तो प्रजा को हानी नहीं पहुंचाते थे देश विजय करने के पश्चात नारियों का शील भंग नहीं करते थे जिस देश को विजय करते थे उस देश के प्रजा को अपने संतान तुल्य व्यावहार करते थे वही दुसरे आक्रमणकारी जो भारत लूटने आये थे प्रजा का मान भंग किया नरसंघार किया मंदिर तोड़े एवं संस्कृति को ध्वस्त किया ।
सन ४९० (490) ई.पूर्व नबोनीदस अश्शूर साम्राज्य के अश्शूर राज का राजा था ‎असुरोंका संक्षिप्त परिचय‬ इतिहासकार श्रीविश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े के अनुसार “असुर वे हैं जिन्हें यूरोपीय “असीरियन”कहते हैं ! प्राचीन यूनानी उन्हें “असुरियन “कहते थे और स्वयं अपने को “अश्शूर ” कहते थे । प्राचीन आर्य इन्हें “असुर ” और उनके देश को “असूर्या” अथवा “असूर्य”कहते थे , ‘असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ‘! भारतीय ‘श’ के स्थान पर ‘स’उच्चारण करते थे ।
‪असुरों का साम्राज्य असीरिया (असूर्या) था । असीरिया फरात और दजला नदियों के मध्य अवस्थित था जो मोसापोटामिया और बोबिलोनिया के ध्वंसावशेषों पर खड़ी थी । असुरों की बर्बरता‬ असुर कितने बर्बर और क्रूर थे इसका अधिक विस्तार की आवश्यकता नही केवल असुर नासिर पाल ८५९ ई पू के अभिलेख से ही ज्ञात हो जाएगा । नाबोनिदस अश्शूर ने माहिष्मती साम्राज्य पर आक्रमण किया था सन ५५६ ईस्वी में और यह अश्शूर राज का अंत कहलवाया सुधन्वा चौहान की सेना से विश्व के शक्तिशाली साम्राज्य भी थर्राता था अश्शूर राज नाबोनिदास के ५ लाख की विशाल सेना को परास्त कर सुधन्वा चौहान ने अश्शुरों को यूफ्रेटस नदी के पार तक खदेड़ा सुधन्वा चौहान ने अब मेसोपोटामिया , बेबीलोनिया , एलाम, फ्रूगिया, पर्शिया एवं यूफ्रेटस नदी एवं मिस्र (egypt) टाईग्रीस नदी के पार सनातन वैदिक ध्वज को लहराकर इन अश्शूर राज्य को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया इसके पश्चात अश्शूर साम्राज्य का अंत तो नहीं हुआ परन्तु ३ पीढ़ी के बाद अश्शूर साम्राज्य फिर तैयार हुआ सुधन्वा चौहान के बाद राजा चाहमान ने अश्शुरों पर विजय पाकर समूल नाश कर दिया था अश्शुरो का ।
और इस बात का उल्लेख “The History of Archaeology Part 1”, Babylonia from the Neo-Babylonian empire to Achaemenid rule
इस दो किताब में लिखा हैं एवं इतिहासकार Hurst, K. Kris “The sword of South Asian King dynasty of Luna defeated Assyrian ruler Nabonidas and the King of South Asia became the reasons for the decline and downfall of Assyrian Kingdom” (चन्द्र का अन्य नाम लूना हैं । चन्द्रवंशी राजा का उल्लेख किया गया हैं दक्षिण एशियाई राज्य का उल्लेख हैं दक्षिण एशियाई भारतवर्ष हैं) ।
४८३ (483) ई.पूर्व अद्मेतस (Admetus) को पराजित कर सम्राट सुधाना चौहान विश्व विजयी सुधन्वा चौहान ने फ्रांस , रूस , सर्बिया, क्रोएशिया, स्पेन, ब्रिटेन , जर्मनी, प्रुशिया, एवं समूल यूरोप पर भगवा ध्वज लहराकर भारतवर्ष का साम्राज्य यूरोप तक फैलाया था विश्वविजय सम्राट सुधन्वा चौहान ने सात समंदर पार सनातन धर्म ध्वजा फहराकर विश्व विजय किया ।
विश्व विजयी सम्राट सुधन्वा चौहान ने अफ्रीका , रोम , यूरोप , एशिया (चीन , जापान, इत्यादि) समूल धरा पर सनातन धर्म ध्वजा फहराकर भारतवर्ष का साम्राज्य विस्तार किया था एवं आदि शंकराचार्य के निर्देषानुसार अश्शुरो , यवन , यूनानी के अत्याचारों से भारत एवं पृथ्वीवासी को मुक्ति दिलाकर एक पराक्रमी शौर्यशाली योद्धा बने थे सम्राट सुधन्वा ने यूरोप किसी तरह का अत्याचार नहीं किया यूरोपवासियों पर प्रजाओ की रक्षा एवं सेवा सम्राट सुधन्वा का पहला कर्तव्य था समूल धरती के राजा होने के बाद भी प्रजाओ पर किसी तरह का कर लगान नहीं लगाया था प्रजा अपने इच्छानुसार देते थे राज्य कोष में मूल्य देते थे ,सम्राट सुधन्वा चौहान मूल्य देकर किसान से खाद्य सामाग्री लिया करते थे सम्राट होते हुए भी अपनी पद का दुरूपयोग नहीं किया राजा होने के नाते वह चाहते तो किसान को बिना मूल्य चुकाए खाद्य सामाग्री ले सकते थे परन्तु ऐसा ना करते हए उन्होंने किसान की पारिश्रमिक देकर खाद्य सामाग्री लेते थे यह एक महान सम्राट के गुण हैं यह सिख आदि शंकराचार्य की थी तभी राजा इतने महान हुए ।
सुधन्वा चौहान के उप्पर उल्लेखनीय भारतीय इतिहास
1. चौहान राजवंश के एक और इतिहासवेत्ता डॉ. दसरथ शर्मा नें अपनें ग्रन्थ ‘ अर्ली चौहान डायनेस्टीज ‘ में अभिलेखीय साक्ष्यों के अलोक में राजा वासुदेव से लेकर उनकी २२ वीं पीढ़ी में आने वाले दिग्विजयी दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चौहान (तृतीय ) तक की एक सूची प्रस्तुत की है . डॉ. दसरथ शर्मा की इस सूची के अनुसार वासुदेव का राज्यारम्भ ईसवी सन ५५१ तथा दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चौहान का राज्यावसान ईसवी सन ११९२ में हुआ था . इस अवधि में कुल २२ पीढ़ी के राजाओं ने ६४१ वर्ष तक राज्य किया ।
2. प्रसिद्ध राजस्थानी इतिहासकार श्यामल दास ने अपने ‘वीर विनोद’ नामक मवाद के इतिहास ग्रन्थ में माहिष्मती पर राज्य करने वाले चौहान राजवंश की एक प्राचीन सूची प्रस्तुत की है जिसमें प्रथम शासक चाहमान की छठवीं पीढ़ी में सुधन्वा तथा ४१ वीं पीढ़ी में वासुदेव आतें हैं .इस ग्रंढ़ की प्रथम आवृत्ति १८८६ ई० में प्रकाशित हुई थी .
3. श्रृंगगिरी (श्रृङ्गेरी) मठ के लिए प्रमाणभूत है इसमें भी राजा सुधन्वा चौहान का उल्लेख आदिशंकराचार्य जी ने किया है )
4. पुस्तक शंकर दिग्विजय
आजकल के मैकोले मानसपुत्र को ऐसी इतिहास इसलिए नहीं पढाया जाता हैं क्योंकि काले अंग्रेजो की प्रोडक्शन हाउस बंद होजायेगी एवं फिरसे छत्रपति महाराज शिवाजी और महाराणा प्रताप बनने लगेंगे । भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR) ऐसे इतिहास पर रोक लगाये हुए हैं और चौहान वंशीय एवं अन्य कई राजाओ की लिपि तक को गायब करवा दिया हैं एवं इसी कारण आज भी इस्लाम में तैमुर , बाबर , टीपू , रज़िया सुल्तान जैसे हिन्दू विरोधी मूर्ति ध्वंसक तो जन्म ले रहे हैं परन्तु एक भी चौहान राजा , काल्भोज (बप्पा रावल) , भोज परमार , छत्रपति शिवाजी , नागनिका , नायिकी देवी , रानी दिद्दा हिन्दू धर्म मैं जन्म नहीं ले पा रहे हैं ।

भगवत्पाद आद्य शङ्कचार्यजी महाभाग की जयंती..

पूज्य भगवत्पादके समयको लेकर जितनी भ्रान्तियाँ हैं उतनी अन्य किसी दिव्यविभुतिको लेकर नहीं हैं ।

पाश्चात्यों ने पूज्य भगवत्पादके अद्वैत सिद्धान्तको मोहम्मदके एकेश्वरवाद से प्रेरित मानकर उनका समय मोहम्मद(५७० – ६३२ ई सन् ) के बाद का माना है । पूज्य भगवत्पादका समय ७८८ ई से ८२० ई सन् में रखा है । लेकिन पाश्चात्योंने भगवत्पादके समय निर्धारण में जो समीक्षाकी है वो असङ्गतपूर्ण है । तत्कालीन मठोंमें उपलब्ध साक्ष्योंको पर भी विचार नही किया है ।
किन्तु पाश्चात्यों का ये मत भ्रान्ति पूर्ण है अद्वैत वैदिक सिद्धांत है न कि मोहम्मद से प्रभावित्

अब हम आद्य शङ्कराचार्यजी महाराजके वास्तविक समय पर प्रकाश डाल रहे हैं ।

पूज्य भगवत्पादका मूल उद्देश्य वैदिक सनातन संस्कृतिकी पुनः स्थापना करना था । जिसमें वे पूर्ण सफल हुए थे और कश्मीर से कन्याकुमारी ,आसामसे गुजरात तक दिग्विजयकी थी और चारों दिशाओंमें चार मठ स्थापित किये थे ।

भगवत्पादके समकालीन धर्म –
भगवत्पादने भाष्योंमें बौद्ध,जैन,कापालिक,गाणपत्य,शाक्त,वैष्णव ,शैव आदि ८९ संप्रदाय प्रचलित थे । भारतमें ईसाई धर्मके अनुयायी भगवत्पादके गृह राज्य केरलमें पहली शती से ही विद्यमान हैं । सन् ६० ई में ईसाई थॉमस रो ने भारतके केरल प्रांत में क्रिश्चियन धर्मका प्रचार किया था । उसने १७५०० परिवारोंको ईसाई धर्म में दीक्षित किया था । तब से भारतमें ईसाई धर्मको मानने वाले लोग भारतमें विद्यमान हैं ।
भारतमें मुस्लिम धर्मके अनुयायी भी तबसे हैं जब से इस्लाम धर्मका अस्तित्व है । ख़लीफ़ा उमरके समय ६३४ से ६४४ ई तक अरबोंने भारतपर तीन आक्रमण किये , युद्धमें तो सफलता नही मिली किन्तु इस्लामके अनुयायी यहाँ वस गए । भारतमें सिंधु नदीके दोनों तटोंपर मुस्लिमोंसे राजा दुर्लभराज चौहान(७९३ ई सन् ) ने कर प्राप्त किया था । अर्थात् शङ्कराचार्यजीके जन्म ७८८ ई से पहले भारतमें ईसाई और मुस्लिम दोनों ही धर्मके अनुयायी विद्यमान थे ।जबकि शङ्कराचार्यजी महाराज दिग्विजयमें कम्बोज-दरद ,शकस्थानऔर बाह्लीक देश जाकर वैदिक धर्म की स्थापना की थी ,किन्तु सन् ७१२ सन् में मीर कासिमके आक्रमणके बाद से सिंधु नदी तक के देश मुस्लिम देश हो चुके थे । बाह्लीक (बल्ख़),कम्बोज(तुर्कस्तान) और शक् देश (ईरान) ये भारतसे अलग मध्यएशिया बन चुके थे जो मुस्लिम देश थे । किन्तु भगवत्पादने इन दोनों धर्मोंका कहीं उल्लेख तक नही किया जिससे उनका समय ७८८ ई न होकर ई पू पहली शती से पहले का है ।

भगवत्पादने जिन प्रमुख संप्रदायोंका खण्डन करके उनके अनुयायियोंको वैदिक ध्वज तले लाये उनमें जैन-बौद्ध-कापालिक आदि प्रमुख हैं । किन्तु शङ्करके जन्म ७८८ ई में समस्त भारत में वैदिक धर्मके ही अनुयायी थे उस समय भारतमें राष्ट्रकूट सम्राट गोविन्द तृतीयका शासन था जो वैष्णव था किन्तु ८१४ ई में अमोघवर्ष जैन संप्रदायको मानने वाला हो गया और उत्तर-पूर्वमें धर्मपाल-देवपाल बौद्ध राजा थे । इससे सिद्ध होता है कि शङ्कराचार्यके जन्म तक (७८८ ई में )पहले भारतमें वैदिक हिन्दू राजा शासन करते थे किंतु उनकी दिग्विजय के वाद (८२० ई )जैन और बौद्ध राजा शासन करने लगे । इसलिए ७८८-८२० ई सन् भगवत्पादका समय असङ्गत होता है ।

महाराज सुधन्वा चौहान –

पूज्य भगवत्पादके प्रमुख शिष्य महिष्मती नरेश सार्वभौम सुधन्वा चौहान थे ।
चौहान वंशकी नीव सन् ५५१ में शाकम्भरीमें वासुदेव चौहानने रखी थी जो कि चौहानकी ४१वीं पीढ़ी में हुए थे । वासुदेवकी ४७ वीं पीढ़ीमें राजा दुर्लभराज (७९३ ई सन्) ,६२ वीं पीढ़ी में ११७७ में पृथ्वीराज चौहान थे । चौहानवंशके इतिहासकार डॉ दशरथ शर्माने इतिहासमें चौहान वंशका जो क्रम दिया है उसके अनुसार ४१ वीं पीढ़ी के वासुदेव चौहान ५५१ ई सन् से ६१ वीं पीढ़ीके विग्रहराज चतुर्थ ११५१ ई सन् तक २० पीढ़ियों का समय ६०० वर्ष है अर्थात् प्रत्येक पीढ़ीका औसत ३० वर्ष (३०×२०=६००) हुआ । तब ५५१ ई में राज्य करने वाले राजा वासुदेव चौहानसे ४०पीढ़ियों पूर्व हुए राजा चौहान का समय होगा (४० ×३०=१२०० ) वासुदेव से १२०० वर्ष पूर्व अर्थात् ५५१ ई और १२०० =६५० ई पू । राजस्थानके इतिहासकार कर्नल टाड ने चौहान का समय ६५० विक्रम पूर्व (५७ ई पू +६५०=७०० ई पू ) माना है । इससे सिद्ध होता है राजा चौहानका समय ६५० ई पू से पूर्व का है ,उन्ही चौहानकी ६ वीं पीढ़ीमें राजा सुधन्वा चौहान हुए । अर्थात् ५पीढ़ी का समय (५×३०=१५० वर्ष) ६५०ई पू से १५० वर्ष बाद ५०० ई पू । तब चौहान वंशकी ६वीं पीढ़ीके राजा सुधन्वाके गुरु भगवत्पाद चौहान वंशकी ४७ वीं पीढ़ी के राजा दुर्लभराज चौहान (७९३ ई ) के समकालीन कैसे हो सकते हैं ?

नेपाल नरेश वृषदेव वर्मा

नेपालके प्राचीन इतिहाससे ज्ञात होता है कि ५७ ई पू में विक्रमादित्य नेपाल गए थे ,वहाँ सम्पूर्ण प्रजा का ऋण क्षमा करके सम्वत् प्रारम्भ की थी उस समय नेपालके राजा विश्वदेव वर्मन थे राजा विश्वदेव वर्मन् की ५वीं पीढ़ी में राजा नन्ददेव वर्मन थे जो शालिवाहन के समकालीन थे ७८ ई में जब शालिवाहन ने शक् प्रारम्भ की तब नेपाल नरेश नन्ददेव ने भी नेपाल में शालिवाहन सम्वत् चलाई ।

उन्ही विक्रमादित्य ५७ ई पू के समकालीन राजा विश्वदेव वर्मन के १४ पीढ़ी पूर्व में राजा वसन्तदेव का राज्याभिषेक ३०१ ई पू (२८०० कलियुग सम्वत्) में होना लिखा है । राजा वसन्तदेवसे ६ पीढ़ी पूर्वमें हुए राजा वृषवर्मा का समय ४८० ई पू से पहले का है । इन्ही राजा वृषवर्मा के समय में आद्य शङ्कराचार्यजी महाराज नेपाल गए थे और वृषवर्मा उनके शिष्य हो गए ।

जब वृषवर्मा ४८० ई पू में शङ्कराचार्यजी नेपाल गए थे तब ७८८ ई में उनका समय कैसे सम्भव है ?

कोङ्ग नरेश तिरु विक्रमदेव

कोङ्ग नरेश तिरु विक्रमदेवके ई सन् १७८ (शा०शाके १००) के ताम्रपत्र अभिलेख में लिखा है कि इन राजाको एक शङ्कराचार्य(परवर्ती) ने जैनमत से शैवमत में परिवर्तित किया था । तब फिर आद्य शङ्कराचार्यका समय ७८८ ई कैसे सम्भव है ?

कार्षापण स्वर्ण मुद्रा –
आदि शङ्कर भगवत्पादने अपने ग्रन्थोंमें कार्षापण मुद्रा का उल्लेख किया है जो कि पुरातत्वके अनुसार ई पू २ शती तक ही प्रचलनमें थीं ।उसके बाद कार्षापण का चलन बन्द हो गया ।

महिष्मती, पाटलिपुत्र और स्त्रुघ्न
भगवत्पादने अपने ग्रन्थोंमें स्त्रुघ्न और पाटिलपुत्र नगरोंका विशेष उल्लेख किया है जो कि उनके समय में व्यापार का केंद्र थे । स्त्रुघ्नसे पाटलिपुत्र तक राजपथ जाता था । किन्तु स्त्रुघ्न नगर ३०० ई के बाद उजड़ चुका था फिर १० वीं शती में दुवारा वसाया गया था । पाटिलपुत्र भी ६०० ई में उजाड़ हो चुका था बाद में ११ वीं शती में पुनः वसाया गया ।
जब दोनों नगर ५०० ई से १०० तक उजाड़ हो चुके थे और भगवत्पादके समय में व्यापारके केंद्र थे तब ७८८ ई भगवत्पाद का समय कैसे सम्भव है ?
राजा सुधन्वा चौहान की नगरी माहिष्मती भी चौथी शती तक नष्ट हो चुकी थी ।

कश्मीर नरेश जालौक

राजतरंगिणीके अनुसार कश्मीरमें शङ्कर पर्वत पर स्थित जालौक द्वारा बनवाया गये शिव मन्दिर पुरातात्विक परीक्षण से ई पू ५ वीं शती के हैं । ४७६ ई पू में शङ्कर भगवत् का कश्मीर जाना सिद्ध है । राजतरंगिणी के अनुसार जालौकके गुरु आद्य शङ्कर थे ।

गढ़वालके इतिहाससे अनुसार ई पू ३०० से विक्रमादित्यके समय तक गढ़वालमें कुशली वंशके राजा राज्य करते थे उन राजाओंके बद्रीनाथ मन्दिरसे अलग अलग समय के ४ अभिलेख हैं । ये कुशली राजा शङ्कर सम्प्रदाय के थे । तब आदि शङ्करका समय ७८८ ई कैसे हो सकता है ?

कुमारिल भट्ट –
आद्य शङ्कचार्यजी के समकालीन कुमारिल भट्ट ने बौद्धोंको पराजित किया था ।
कुमारिल भट्ट मीमांसक थे । उनके द्वारा बौद्धोंको पराजित किये जानेका उल्लेख आचार्य सुवन्धु ने वासवदत्ता में किया है –
“केचिज्जैमिनिमतानुसारिण इव तथागतमतध्वंसिन:” !
सुवन्धुकी वासवदत्ता की प्राचीनता का प्रमाण योगाचार्य पतंजलिके महाभाष्य ४/३/८७ में इस प्रकार है
“अधिकृतं कृते ग्रन्थे ‘ ‘बहुबलं लूग्वक्तव्य: ‘-वासवदत्ता,सुमनोत्तरा । न च भवति भैवरथी । ” इससे सिद्ध होता है वासवदत्ता ई पू ४ शती की रचना है । उसमे भट्टपाद कुमारिल(जैमिनि मतानुयायी ) के द्वारा बौद्धोंको पराजित करने का उल्लेख है । कुमारिल भट्टके प्रमुख शिष्य मण्डन मिश्र थे जो बाद शङ्कराचार्यजी के शिष्य सुरेश्वराचार्य हुए ।

शङ्कराचार्यजी द्वारा स्थापित चारो मठोंमें गुरुशिष्य परम्परासे प्राप्त पीठ पर विराजमान हुए शङ्कराचार्योकी पूरी २५०० वर्षों की लिखित है ।

भगवत्पाद आदि शङ्कराचार्यजी महाराजका जन्म समय इतना विवादास्पद था ही नही जितना बना दिया गया ।

सार्वभौम सुधन्वाके ताम्रपत्र अभिलेखमें पूज्य भगवत्पादका जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई पू ) दिया है और शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई पू ) दिया है । इससे भगवत्पाद का समय ५०७-४७५ ई पू सिद्ध होता है । #नारायण__समारम्भां__शंकराचार्य_मध्यमाम् !
#अस्माकं__गुरुपर्यन्तां__वन्दे_गुरु_परम्पराम् !!

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