610 ई0 में इस्लाम की स्थापना पैगंबर मोहम्मद साहब द्वारा की गई । इसके कुछ समय पश्चात ही इस्लाम के आक्रमणकारियों के भारत पर आक्रमण आरंभ हो गए ।638 ई0 से 712ई0 तक के 73वर्ष के कालखंड में 9 खलीफाओं ने 15 आक्रमण भारतवर्ष पर किए । यद्यपि यह सारे आक्रमण बहुत ही कम प्रभाव रखने वाले थे परंतु एक बात तो निश्चित रूप से कही जा सकती है कि भारत के सुदृढ किले पर विदेशी आक्रमणकारियों की गिद्ध दृष्टि बड़ी गहराई से जम चुकी थी।

इस गिद्ध दृष्टि के चलते ही भारत पर पहला और प्रमुख अरब आक्रमण 712 ईसवी में मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में हुआ ।।मोहम्मद बिन कासिम इस्लाम के प्रारंभिक काल में उम्मयद खिलाफत का एक अरब सिपहसालार था। उसने 17 वर्ष की आयु में भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी क्षेत्र पर हमला बोला। सिंध नदी के साथ स्थित सिंध प्रांत व पंजाब के क्षेत्रों पर आधिपत्य करना चाहा। यह अभियान भारतीय उपमहाद्वीप में आने वाले प्रारंभिक प्रथम घटनाक्रम का है।
उस समय भारत के इस महत्वपूर्ण प्रांत पर शूरवीर पराक्रमी शासक राजा दाहिर का शासन था ।राजा दाहिर सेन सिंध के सिंधी ब्राह्मण सेन राजवंश के अंतिम राजा थे ।जिनका जन्म 663 ईसवी में सिंध में हुआ था ।जिसकी दो पुत्री प्रमिला व उर्मिला थी ।उनके नाम कई इतिहासकार उर्मिला को सूर्य देवी भी कहते हैं तथा अन्य नामों से भी पुकारते हैं उनका एक पुत्र था जयसिंह सेन।
यह राजा दाहिर सेन मूलतः कश्मीरी पंडित थे। पाक में 8 जुलाई 2019 को महाराजा रणजीत सिंह जी की प्रतिमा लगाने के बाद राजा दाहिर सेन को सरकारी नायक करार दिया गया है।
दाहिर सेन अपने धर्म संस्कृति और देश से अत्यधिक प्रेम करते थे । यही कारण है कि उनकी मृत्यु के सदियों पश्चात भी उनके शौर्य और पराक्रम की वीर गाथा लोग आज तक भी गाते हैं। उनकी शौर्य गाथा में निम्न गीत बनाया गया था और गीत सिंधी भाषा में लिखा गया था। परंतु उसका हिंदी अनुवाद निम्न प्रकार है :-
जय हो जय हो सिंधु नरेश दाहिर।
तुम्हारी जय हो
भारत की मिट्टी के रखवाले जय हो।
जय हो लाडो रानी महा गौरवमई।
जय वीर पुत्रियां उर्मिल प्रमिल।
जय हिंदू वीर बप्पा रावल।
लौटा के लाए स्वाभिमान।
जय सिंधु देश महान।

राजा दाहिर सेन की अर्धांगिनी लाडो रानी भी अद्भुत पराक्रम और साहस की प्रतिमा थी। उस वीरांगना के बारे में भी उस समय के समाज में लोगों में बहुत अधिक श्रद्धा भाव था ।जिसने राजा दाहिर की शहादत के बाद स्वयं तलवार संभाल ली थी । जब रानी ने अपने पति के पश्चात शत्रु दल को काटना आरंभ किया तो उनके इस महान कार्य में उनकी दोनों वीरांगना बेटियां भी उनका साथ दे रही थीं।दृश्य बहुत ही उत्तेजक और रोमांचकारी हो उठा था। लड़ते-लड़ते रानी ने वीरगति प्राप्त की।
रानी के पश्चात राजा दाहिर की दोनों बेटियों को खलीफा की सेवा में भेज दिया गया, परंतु उन दोनों बहादुर और देशभक्त बेटियों ने भारत के और अपने पिता के अपमान का बदला लेने का मन बना लिया था। फलस्वरूप बड़ी चतुराई और बौद्धिक कौशल का परिचय देते हुए उन्होंने खलीफा से अपने पिता के अपमान का बदला लिया और मोहम्मद बिन कासिम का उसी के खलीफा के द्वारा कत्ल कराने में भी सफल रही। देश के पराक्रम की प्रतीक बनीं इन दोनों बेटियों पर सारे भारत को आज तक गर्व है। आज हमारे राजा दाहिर उनकी रानी लाडो रानी और दोनों बेटियों का स्मृति स्थल और उनके कर्मस्थल की गौरव गाथा गाने वाला सिंध पाकिस्तान में स्थित है।
उक्त के अतिरिक्त किन-किन ऋषि, मुनि, योद्धा और महापुरुषों के कौन-कौन से स्मृति स्थल आज के पाकिस्तान में हैं ?
बाद में भारत के पराक्रम का प्रतीक बनकर उभरे रावल बप्पा रावल और गुर्जर प्रतिहार शासक नागभट्ट प्रथम ने मिलकर भारत के अपमान का बदला लिया और सिंध से लेकर ईरान तक के सारे क्षेत्र को मुस्लिमों से मुक्त कराने में सफलता प्राप्त की । इतना ही नहीं बप्पा रावल ईरान से लगभग डेढ़ दर्जन मुस्लिम कन्याओं को भी अपने साथ लेकर आए और उनसे विवाह किया । भारत में अकबर द्वारा राजपूतों की कन्याओं से विवाह करने का उल्लेख तो मिलता है ,लेकिन एक शूरवीर बप्पा रावल द्वारा ‘मुगलों के बापों’ की कन्याओं को लेने का उल्लेख नहीं किया जाता ।
बप्पा रावल ने रावलपिंडी नामक शहर बसाया था। पिंड का मतलब ग्राम से होता है और रावल उनके अपने नाम पर था। जिसको आज पाकिस्तान में रावलपिंडी कहते हैं। जो वर्तमान में पाकिस्तान में हैं।
सिख धर्म से जुड़े सैकड़ों गुरुद्वारे भी पाक में हैं।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाला तक्षशिला विश्वविद्यालय कभी संसार के लिए ज्ञान विज्ञान का केंद्र हुआ करता था। जहां पर दूर-दूर देश के विद्यार्थी आकर अपनी ज्ञान पिपासा शांत किया करते थे। वैदिक धर्म ध्वजा फहराने वाले उस तक्षशिला विश्वविद्यालय के ध्वंसावशेष भी इस समय पाकिस्तान में ही पड़े हुए हैं। इसी विश्वविद्यालय ने पाणिनि और चाणक्य जैसे महामानव का निर्माण किया था। इसी स्थान पर बैठकर महामति चाणक्य ने भारत की रक्षा सुरक्षा के लिए विशेष प्रबंध किए थे और देश के लिए वह नीतियां तैयार की थीं जिन पर आज तक विश्व चल रहा है। इसी स्थान पर बैठकर महर्षि पाणिनि ने अष्टाध्यायी का निर्माण किया था।
पाकिस्तान में ही कटासराज नाम का वह स्थान है जहां यक्ष युधिष्ठिर का संवाद संपन्न हुआ था ।
इसके अलावा सरस्वती नदी के किनारे सारस्वत ब्राह्मणों का पवित्र स्थान पाक में है। भारत में कुछ मूर्खों ने यह कहने का प्रयास किया है कि इसी सरस्वती नदी के किनारे बैठकर वेदों की ऋचाओं का निर्माण ऋषियों ने किया था। जबकि यह भ्रांत धारणा है ,क्योंकि वेदों की ऋचाओं का आविर्भाव तो ईश्वर द्वारा अग्नि, वायु ,आदित्य व अंगिरा जैसे ऋषियों के अंतः करण में सृष्टि प्रारंभ में ही कर दिया गया था। उन्हीं के आधार पर ईश्वर भक्ति और सृष्टि के कुशल संचालन का उचित प्रबंधन करने का शोध कार्य हमारे ऋषि मनीषियों और महामानवों ने इसी सरस्वती नदी के पास बैठकर किया था। यह संपूर्ण क्षेत्र सरस्वती अर्थात ज्ञान विज्ञान का केंद्र बन गया था और यहीं से ज्ञान विज्ञान की निर्मल धाराएं संसार में सब ओर फैला करती थीं। इसलिए इस नदी का नाम हमारे ऋषियों ने सरस्वती रखा और जिससे इस क्षेत्र की पवित्रता बहुत ही अधिक सम्मान पूर्ण हो गई थी।
पाणिनि ऋषि का जन्म स्थान पाक में है।
पूरन भगत की जन्म स्थली सियालकोट जिसका प्राचीन नाम शालिवाहनकोट था,जो पाक में है, यह राजा शालिवाहन की बसाई हुई नगरी है । इसी पराक्रमी राजा ने शकों का संहार किया था।
लवपुर व कुशपुर वर्तमान में लाहौर व कुसूर कहा जाता है जो मर्यादा पुरुषोत्तम राम के पुत्रों क्रमशः लव कुश द्वारा बसाई गई थीं, जो पाक में है।
मूल स्थान जिसे अब मुल्तान कहते हैं भी पाक में हैं।
गुजरांवाला हरीसिंह नलवा की जन्मस्थली है , जिसके शौर्य से डरकर औरतों की सलवारें पठानों ने पहननी शुरू कर दी थीं, आज पाकिस्तान में हैं।धर्म रक्षक महाराजा रणजीत सिंह का समाधिस्थल पाक में है।
ननकाना साहिब ,पंजा साहिब, शहीदों आदि स्थान सभी पाक में है।लवपुर लाहौर की जेल में सरदार भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव को कैदी के रूप में रखा गया था और वहीं पर फांसी दी गई थी भी आज पाक में है। याद रहे लाहौर में ही कांग्रेस के अधिवेशन में भारत को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने के आंदोलन की रूपरेखा बनाई गई थी।
इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि पाकिस्तान में हमारे हिंदू इतिहास के कई स्वर्णिम अध्याय दबे पड़े हैं। अपने स्वर्णिम अध्यायों के विलुप्त होने के दुख को समझते हुए ही वीर सावरकर जी जैसे लोगों को मां भारती के विभाजन का उस समय अत्यंत दुख हुआ था । यही कारण था कि हमारे क्रांतिकारियों ने उस समय भारत के फिर से अखण्ड होने की प्रतिज्ञा की थी। आज भी मां भारती की वेदना को समझने वाले लोग प्रतिदिन ऐसी ही प्रतिज्ञा के साथ जीते व सोते हैं कि भारत एक दिन अखंड होगा। निश्चय ही भारत अपने इन स्वर्णिम अध्यायों के बिना अधूरा है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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