राजभर को डूब मरना चाहिए चुल्लू भर पानी में

 

यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत के जिन महान योद्धाओं ने भारत की जिस गौरवपूर्ण सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करने के लिए और इसके धर्म को बचाने के लिए अपना प्राणोत्सर्ग किया, उन्हीं महापुरुषों के नाम पर राजनीति करने वाले अवसरवादी और इतिहासबोध व राष्ट्रबोध से सर्वथा शून्य राजनीतिक लोग उनके पौरुष, प्रताप, शौर्य, देशभक्ति और धर्म भक्ति के प्रति गद्दारी की सारी सीमाओं को लांघ रहे हैं । खबर आई है कि उत्तर प्रदेश में असदुद्दीन ओवैसी और ओमप्रकाश राजभर की पार्टियां मिलकर आगामी विधानसभा चुनाव लड़ने जा रही हैं। ओमप्रकाश राजभर की अवसरवादिता से सभी परिचित हैं। ये सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी चलाते हैं।
अब से 2 वर्ष पूर्व मैं इनसे लखनऊ स्थित उनके आवास पर मिला था ।

मुझे यह देख कर बहुत दुख हुआ कि महाराज सुहेलदेव जी के बारे में यह उतना ही जानते थे जितना आज के छद्म इतिहासकारों ने लिख रखा है। अब यह महाराजा सुहेलदेव जी की देशभक्ति को असदुद्दीन ओवैसी के साथ मिलकर नीलाम करने जा रहे हैं । जी हां , वही राजा सुहेलदेव जिन्होंने इस देश की अस्मिता ,इसके धर्म ,संस्कृति, और इतिहास की परंपराओं को अक्षुण्ण रखने के लिए विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों की 11 लाख की सेना गाजर मूली की भांति काट कर फेंक दी थी। आज उन्हीं संस्कृतिद्रोही गजनी और उसके भांजे सालार मसूद की विचारधारा को पोषित करने वाले असदुद्दीन ओवैसी के साथ महाराजा सुहेलदेव के नाम पर राजनीति करने वाला यह व्यक्ति हाथ मिला रहा है तो इससे बड़ा दुर्भाग्य इस देश का कोई नहीं हो सकता।
राजा सुहेलदेव के नाम पर राजनीति करने वाले ओमप्रकाश राजभर को यह बात समझ लेनी चाहिए कि वीर गौरवगाथा लिखने वाली बहराइच की भूमि वह पावन भूमि है जो उन 17 हिंदू राजाओं के अनुकरणीय बलिदान की रक्त साक्षी दे रही है, जिन्होंने एक विदेशी आक्रांता को यहां धूल चटाई थी और विदेशी ग्यारह लाख सेना को गाजर मूली की भांति काटकर अपनी राष्ट्रीय एकता की धाक जमाई थी। उनका वह रोमांचकारी इतिहास और बलिदान हमें बताता है कि बहराइच की भूमि ने हिंदुत्व की रक्षार्थ जो संघर्ष किया वह हर ‘पिता’ (गाँधी)और ‘चाचा’ ( नेहरू) के ‘बलिदान’ से बहुत छोटा है। उनका बलिदान निश्चय ही भारत के स्वातन्त्रय समर का एक ऐसा राष्ट्रीय स्मारक है, जिसकी कीर्त्ति का बखान युग-युगों तक किया जाना चाहिए। उन्होंने शत्रु को चांटे ही नही मारे अपितु शत्रु को ही मिटा डाला, उनका वह पुरूषार्थ उस गांधीवादी परंपरा से बहुत बड़ा है और निस्संदेह बहुत बड़ा है, जिन्होंने शत्रु से चांटा एक गाल पर खाया तो दूसरा गाल भी चांटा खाने के लिए आगे कर दिया और अंत में चांटा मारने वालों की मानसिक दासता को उसकी स्मृतियों के रूप में यहां बचाकर रख लिया।
हमें कृतज्ञता को महिमामंडित करना था, पर हम लग गये कृतघ्नता को महिमामंडित करने। इसे क्या कहा जाए—- -आत्म प्रवंचना? -आत्म विस्मृति? -राष्ट्र की हत्या? -या राष्ट्रीय लज्जा?
विदेशी आक्रांता सालार मसूद विनोद कुमार मिश्र (प्रयाग) ने अपनी पुस्तक- ‘विदेशी आक्रमणकारी का सर्वनाश: भारतीय इतिहास का एक गुप्त अध्याय’ में हमें बताते हैं -’1030 ई. में महमूद गजनवी की मृत्यु से उसका राज्य बिखरने लगा। उसके उत्तराधिकारी मसूद, मुहम्मद, मकदूर तथा बहरामशाह के काल में 1051 ई. में उसका राज्य बिल्कुल नष्ट हो गया। महमूद गजनवी की अपार लूट व धन संपत्ति ने गजनवी के मुस्लिम शासकों को आश्चर्य चकित कर दिया। महमूद गजनवी के भानजे (महमूद की बहन मौला का पुत्र) सालार मसूद ने 11 लाख की असंख्य सेना लेकर भारत पर आक्रमण किया। यह आक्रमण 1031 ई. में हुआ। उसकी मदद के लिए उसका पिता सालार साहू (ईरान का बादशाह) सेना के साथ आया। इतनी बड़ी सेना का यह भारत के भूभाग पर पहला आक्रमण था। (संदर्भ मुस्लिम शासक तथा भारतीय जनसमाज, लेखक सतीश चंद मित्तल)


11 लाख की सेना सेना नही होती है, अपितु एक ऐसा भयंकर तूफान होता है , जिसके सामने किसी का भी रूकना असंभव होता है। मैदानों की सीधी लड़ाई लड़कर इतनी बड़ी सेना को परास्त करना रणबांकुरों का और युद्घनीति के ज्ञाताओं का ही काम हो सकता है। युद्घनीति और युद्घकौशल में भारत सदा अग्रणी रहा है। व्यूह रचना के विभिन्न प्रकार और फिर उन्हें तोडऩे की युद्घकला विश्व में भारत के अतिरिक्त भला और किसके पास रहे हैं? इसलिए 11 लाख की सेना के इस भयंकर तूफान को रोकने के लिए भारत के क्षत्रिय वर्ग की भुजाएं फड़कने लगीं। सालार मसूद ने भारत के विषय में सुन रखा था कि इसकी युद्घ नीति ने पूर्व में किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं को धूल चटाई थी? इसलिए वह विशाल सेना के साथ भारत की ओर बढ़ा। यह बात नितांत सत्य है कि भारत के अतिरिक्त यदि किसी अन्य देश की ओर इतनी बड़ी सेना कूच करती तो कई स्थानों पर तो बिना युद्घ के ही सालारसूद की विजय हो जानी निश्चित थी। भारत के पौरूष ने 11 लाख की विशाल सेना की चुनौती स्वीकार की।
हमारा मानना है कि इस चुनौती को स्वीकार करना ही भारत की पहली जीत थी और सालारमसूद की पहली हार थी, क्योंकि सालारमसूद ने इतनी बड़ी सेना का गठन ही इसलिए किया था कि भारत इतने बड़े सैन्य दल को देखकर भयभीत हो जाएगा और उसे भारत की राजसत्ता यूं ही थाली में रखी मिल जाएगी, उसने सेना का गठन यौद्घिक स्वरूप से नही किया था, और ना ही उसका सैन्य दल बौद्घिक रूप से संचालित था। वह आकस्मिक उद्देश्य के लिए गठित किया गया संगठन था, जो समय आने पर बिखर ही जाना था। सत्रह राजाओं का मोर्चा हम श्री मित्तल जी के ऋणी हैं, जिन्होंने हमें अपनी उक्त पुस्तक के पृष्ठ 33 पर बताया है कि मौहम्मद बिन कासिम की भांति 17-18 वर्ष की आयु में मसूद ने भारत में इस्लाम का प्रसार तथा जीतने की भावना से सिंध नदी पार की, सिंध पार करते हुए राय अर्जुन की मुल्तान की छोटी सी टुकड़ी के साथ टकराव हुआ। दिल्ली में महिपाल से संघर्ष हुआ तथा उसका किशोर पुत्र गोपाल मारा गया। उसने रास्ता बदला वह उज्जैन होते हुए अयोध्या तक पहुंच गया, जो सदा हिंदुओं का धार्मिक केन्द्र रहा।
हिंदू शासकों ने बहराइच में मसूद की विशाल सेना को घेरने की कोशिश की। इस युद्घ का वैशिष्टय इस तथ्य में था कि पहली बार हिंदू शासकों ने शत्रु का सामना संयुक्त रूप से करने का (इस क्षेत्र में) सफल प्रयास किया। 17 राजा राय रईब, राय सूईब, राय अर्जुन, राय भीरवन, राय कनक, राय कल्याण, राय मकरू, राय सबरू, राय करन, राय प्रभु, राय बीरबल, राय जयप्रपाल, राय हरपाल, राय स्कंद, राय श्रीपाल, रायदेवनारायण, और राय नरसिंह अपने घुडसवारों तथा पैदल सैनिकों के साथ आए।


हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों के राजा सहारदेव और वलूना से राय हरदेव भी अपनी सेना लेकर कसाला नदी के किनारे आ गये। हमने इन राजाओं के साथ अन्याय किया । सन 1033 में बहराइच की भूमि उक्त ऐतिहासिक युद्घ की साक्षी बनी। बताया जाता है कि कई दिनों तक घमासान युद्घ होता रहा। स्पष्ट है कि महाभारत के युद्घ की भांति प्रतिदिन लाखों लोग युद्घ के काम आये होंगे। हमने कभी अपने 17 महान देशभक्त राजाओं की सफल कूटनीति, युद्घनीति और देशभक्ति की पराकाष्ठा का उचित पुरस्कार उन्हें नही दिया। विदेशियों ने 1033 ई. के इस महाभारत को और इसके भारतीय महान योद्घाओं को इतिहास में कहीं स्थान नही दिया। जबकि :मीराते मसूदी’ के अनुसार सालार मसूद की सेना में शीघ्र ही भगदड़ मच गयी और इस भगदड़ को देखकर सालार मसूद को असीम दुख हुआ था। 14 जून 1033 को रविवार के दिन मुस्लिम आक्रांता सेना का पराभव हुआ। बताया जाता है कि 11 लाख की सेना में से एक भी व्यक्ति ऐसा नही बचा था, जो मसूद और उसकी सेना की मृत्यु का समाचार भी अपने देश में जाकर बता देता। कितना गौरवपूर्ण अतीत है अपना? निश्चित रूप से ऐसा कि जैसा किसी का नही। ऐसे निर्णायक युद्घों के कारण ही मुस्लिमों का भारत पर आक्रमण करने का साहस आने वाले पौने दो सौ वर्ष तक के लिए समाप्त हो गया। ‘मीरात-ए-मसूदी’ के अनुसार सालारमसूद की मृत्यु के पश्चात अजमेर में मुजफ्फरखान भी मर गया। उसके उत्तराधिकारियों को हिंदुओं ने मार भगाया जो मूर्तियां मुस्लिम आक्रांताओं ने तोड़ी थीं, वे सब पुन: स्थापित हो गयीं और हिंदुस्तान की जमीन पर मंदिरों पर घंटियां बजने लगीं। दो सौ वर्ष तक वही स्थिति रही।
अत: मुस्लिम लेखक ही कह रहा है कि 1033 के पश्चात दो सौ वर्ष तक भारत की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रही। इस साक्षी को देखकर हमारे शत्रु इतिहास लेखकों को लज्जा आनी चाहिए जो हमारे विषय में ही ऐसा मत रखते हैं कि ये देश 712 ई. से ही पराधीन हो गया था।
महमूद गजनवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किये और गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को 17 बार युद्घ में परास्त किया-ये तथ्य तो हमें बताये, पढ़ाये और समझाए जाते हैं, परंतु सत्रह राजाओं ने ग्यारह लाख विदेशी सेना को गाजर मूली की भांति काटकर राष्ट्र की स्वतंत्रता की रक्षा की-ये नही बताया जाता। हमारे द्वारा देश की स्वतंत्रता की रक्षार्थ किये गये पराक्रमपूर्ण ऐसे कार्यों के विषय में सर हेनरी इलियट जैसे विदेशी लेखक का कथन है-’वास्तव में इन्हें इतिहास का कहना मिथ्या है। इन्हें अधिक से अधिक आप वार्षिक वृत्तांत कह सकते हैं।’ (इलियट एण्ड डाउसन, भाग-1)
विदेशी नायकों का गुणगान करने वाले इतिहास लेखक तनिक हैवेल के इस कथन को भी पढ़ें-जिसमें वह कहता है-’यह भारत था न कि यूनान जिसने इस्लाम को अपनी युवावस्था के प्रभावशाली वर्षों में बहुत कुछ सिखाया , इसके दर्शन को तथा धार्मिक आदर्शों को एक स्वरूप दिया तथा बहुमुखी साहित्य कला तथा स्थापत्यों में भावों की प्रेरणा दी।’
आज सालार मसूद, गजनी और गौरी की भारत विरोधी परंपरा का निर्वाह करने वाला भारत की राजनीति में भी कोई व्यक्ति है तो वह असदुद्दीन ओवैसी है । जो हिंदू समाज को ही परस्पर लड़ाने का काम कर रहा है। माना कि राजनीति और लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति को कहीं से भी चुनाव लड़ने से कोई रोक नहीं सकता और राजनीतिक पार्टियां भी एक दूसरे से समझौता या सीटों का तालमेल कर सकती हैं, लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं कि राष्ट्र विरोधी और संस्कृति द्रोही नीतियों में विश्वास रखने वाले राजनीतिक दल या किसी व्यक्ति को भी आप समर्थन दे सकते हैं । यदि आप ऐसा कर रहे हैं तो निश्चय ही भारत के नए विभाजन की ओर बढ़ रहे एक नये जिन्ना को आप समर्थन दे रहे हैं। राजभर को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए , क्योंकि वह एक ऐसे महान योद्धा के नाम पर पार्टी चला रहे हैं जिसने इस देश की राष्ट्रीय एकता, अखंडता और सांस्कृतिक परंपराओं का विरोध करने वाले संस्कृतिद्रोही राक्षसों का विरोध करने का गौरवपूर्ण इतिहास रचा था ।यदि उस इतिहास को अक्षुण्ण बनाए रखने में राजभर तनिक भी विश्वास रखते हैं तो उन्हें असदुद्दीन ओवैसी जैसे जिन्नाहवादी व्यक्ति से अपना गठबंधन तुरंत तोड़ देना चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

Comment: