किराए की कलम रखने वाले इतिहासकार और गौरव पूर्ण इतिहास

हाल में ही एक ज्योतिष-भविष्यवाणी वगैरह करने वाले बेजान दारूवाला की मृत्यु हुई तो अलग-अलग किस्म की कई बहसें भी नजर आयीं। हमें उनके साथ ही नारायणन की अंग्रेजी कहानी “एन एस्ट्रोलोजर डे” याद आई। उसका भविष्यवाणी करने वाला भी वैसे ही सुन्दर वाक्य गढ़ता था, जैसे बेजान दारूवाला। उसका एक प्रिय जुमला था “तुम्हें अपनी मेहनत का पूरा फल नहीं मिलता”! इस वाक्य से अधिकांश लोग सहमत होते, क्योंकि सबको लगता है कि वो जितनी मेहनत कर रहा है, उसका पूरा नतीजा, लाभ, उसे मिल नहीं रहा।

ये भी छल का एक अच्छा तरीका है। अगर मर्दवादी सोच को घटिया और नारीवाद को महान बताया जाए तो ये सामाजिक विद्वेष फैलाने में भी इस्तेमाल होता है। ये आसान तरीका इस्तेमाल इसलिए हो पाता है क्योंकि भारत का इतिहास हजारों साल लम्बा है। दो सौ- चार सौ, या हज़ार साल वालों के लिए जहाँ हर राजा का नाम लेना, याद रखना आसान हो जाता है वहीँ भारत ज्यादा से ज्यादा एक राजवंश को याद रखता है। हर राजा का नाम याद रखना मुमकिन ही नहीं होता। भारत के आंध्र प्रदेश पर दो हज़ार साल पहले सातवाहन राजवंश का शासन था। इनके राजाओं के नामों मे परंपरा बड़ी आसानी से दिखती है।

सातवाहन राजवंश के राजा शतकर्णी का नाम भी यदा कदा सुनाई दे जाता है। कभी पता कीजिये शतकर्णी का पूरा नाम क्या था ? अब मालूम होगा कि शतकर्णी नामधारी एक से ज्यादा थे। अलग अलग के परिचय के लिए “कोचिपुत्र शतकर्णी”, “गौतमीपुत्र शतकर्णी” जैसे नाम सिक्कों पर मिलते हैं। एक “वाशिष्ठीपुत्र शतकर्णी” भी मिलते हैं। ये लोग लगभग पूरे महाराष्ट्र के इलाके पर राज करते थे जो कि व्यापारिक मार्ग था। इसलिए इन नामों से जारी उनके सिक्के भारी मात्रा मे मिलते हैं।

कण्व वंश के कमजोर पड़ने पर कभी सतवाहनों का उदय हुआ था। भरूच और सोपोर के रास्ते इनका रोमन साम्राज्य से व्यापारिक सम्बन्ध था। पहली शताब्दी के इनके सिक्के एक दुसरे कारण से भी महत्वपूर्ण होते हैं। शक्तिशाली हो रहे पहले शतकर्णी ने “महारथी” राजकुमारी नागनिका से विवाह किया था। नानेघाट पर एक गुफा के लेख मे इसपर लम्बी चर्चा है। महारथी नागनिका और शतकर्णी के करीब पूरे महाराष्ट्र पर शासन का जिक्र भी आता है।

दुनियां मे पहली रानी, जिनका अपना सिक्का चलता था वो यही महारथी नागनिका थीं। ईसा पूर्व से कभी पहली शताब्दी के बीच के उनके सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में, सिक्कों के बीचो बीच “नागनिका” लिखा हुआ होता है। उनके पति को विभिन्न शिलालेख “दक्षिण-प्रजापति” बताते हैं। चूँकि शिलालेख, गुफाओं के लेख कई हैं, इसलिए इस साक्ष्य को नकारना बिलकुल नामुमकिन भी हो जाता है। मर्दवादी सोच होने की वजह से शायद “महारथी” नागनिका का नाम लिखते तथाकथित इतिहासकारों को शर्म आई होगी।

अगर पूछने निकलें कि विश्व मे सबसे पहली सिक्कों पर नाम वाली रानी का नाम आपने किताबों मे क्यों नहीं डाला ? तो एक बार किराये की कलमों की जेब भी टटोल लीजियेगा, संभावना है कि “विक्टोरिया” के सिक्के निकाल आयें ! हाल फ़िलहाल में अगर ऐसे नामों का सामने आना देखना हो तो कभी इंदौर के बारे में सोचिये। कभी एक बार हम लोग इंदौर में किसी सर्वेक्षण के सिलसिले में थे और इंदौर में एक आड़ा बाजार है। हम लोगों ने पूछा ये अजीब नाम क्यों ?

जिस स्थानीय व्यक्ति से पूछा था, उन्हें भी नहीं पता था। मगर उन्होंने पूछ-ताछ करके इस बारे में मालूम करने की बात कही और मामला आया-गया हो गया। मेरे दिमाग में सवाल अटका पड़ा रहा। बिहारी की हिन्दी के हिसाब से बाजार अगर टेढ़ा होता तो उसे आड़ा कहना समझ में आता। “टंग अड़ाना” जैसी कहावतों वाला रोकना या अड़ जाना भी मतलब हो सकता था। आखिर कैसे ये बाजार लोगों को रोक लेगा, या टेढ़ा है, क्यों आड़ा नाम होगा? इस सवाल का जवाब हमें कुछ साल बाद कहीं और मिला। किसी दौर में इंदौर होल्कर मराठा शासकों की राजधानी हुआ करता था और राजमाता अहिल्याबाई होल्कर वहीँ पास में रहती थीं।

उनके बनवाए मंदिर अब भी उस इलाके में हैं। इस्लामिक हमलों में भग्न, उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक के करीब करीब सभी मंदिरों के जीर्णोद्धार का श्रेय राजमाता अहिल्याबाई को जाता है। कहते हैं एक रोज उनके पुत्र मालोजी राव का रथ इस रास्ते से निकल रहा था और हाल ही में जन्मा एक बछड़ा उनके रथ के आगे आ गया। रथ रुका नहीं और टक्कर से बछड़े की मृत्यु हो गई। गाय वहीँ मृत बछड़े के पास बैठी थी कि वहां से राजमाता अहिल्याबाई का रथ गुजरा। उन्होंने रथ रोककर पूछताछ की कि ये क्या हुआ है? पूरी बात मालूम करके वो दरबार में पहुंची और मालोजी राव की पत्नी मेनाबाई से पूछा कि माँ के सामने ही बेटे को मार देने वाले की क्या सजा होनी चाहिए?

मेनाबाई बोली, उसे तो प्राण दंड मिलना चाहिए। राजमाता अहिल्याबाई ने मालोजीराव के हाथ पैर बांधकर, जहाँ बछड़ा मरा था वहीँ डालने का आदेश दिया और कहा कि इसपर रथ चढ़ा दो! अब राजमाता ने बछड़े जैसा ही रथ की टक्कर से मारने का दंड तो दे दिया लेकिन कोई सारथी रथ चलाने को तैयार नहीं था। आख़िरकार राजमाता खुद ही रथ चलाने रथ में सवार हो गयी। राजमाता को रथ बढ़ाते ही रोकना पड़ गया, क्योंकि मालोजी को बचाने एक गाय बीच में आ गयी थी। राजमाता रथ बढ़ाती कि वही गाय फिर रथ के सामने आकर खड़ी हो जाती जिसका बछड़ा मलोजीराव के रथ से मारा गया था। बार-बार हटाये जाने पर भी गाय ने अड़कर मलोजीराव को बचा लिया।

अपना बछड़ा खोकर भी उसे मारने वाले की जान बचाने पर अड़ जाने वाली इस गाय की वजह से इंदौर के इस बाजार का नाम “आड़ा बाजार” है। भारत की रानियों/राजमाताओं के बारे में सोचते वक्त अलग तरीके से सोचने की जरुरत होती है। राजमाता अहिल्याबाई होल्कर के बारे में सोचने की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि उत्तर भारत के जिस भी पुराने मंदिर को आप देखते हैं, लगभग हरेक उनका बनवाया हुआ है। दिल्ली का कालकाजी मंदिर जिसे औरंगजेब ने तुड़वाया था, वो हो या गया का विष्णुपद मंदिर, हरेक के जीर्णोद्धार में उनका योगदान रहा है।

राजमाता अहिल्याबाई होल्कर (31 मई 1725 – 13 अगस्त 1795) और उनके जैसी कई अन्य को तथाकथित इतिहासकारों ने जो स्थान नहीं दिया, वो कभी मंदिर जाते समय अपने बच्चों को आप खुद भी बता सकते हैं। बाकी जैसे अड़ा बाजार में गाय अड़ गयी थी, वैसे मंदिर जाने में शेखूलरिज्म जो बीच में अड़ता है, सो तो है ही!

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, रानी चेनम्मा, रानी अब्बक्का जैसी अंग्रेजों की गुलामी से ठीक पहले की रानियों का जिक्र होते ही एक सवाल दिमाग में आता है | युद्ध तलवारों से, तीरों से, भाले – फरसे जैसे हथियारों से लड़ा जाता था उस ज़माने में तो ! इनमे से कोई भी 5-7 किलो से कम वजन का नहीं होता | इतने भारी हथियारों के साथ दिन भर लड़ने के लिए stamina भी चाहिए और training भी |

रानी के साथ साथ उनकी सहेलियों, बेटियों, भतीजियों, दासियों के भी युद्ध में भाग लेने का जिक्र आता है | इन सब ने ये हथियार चलाने सीखे कैसे ? घुड़सवारी भी कोई महीने भर में सीख लेने की चीज़ नहीं है | उसमे भी दो चार साल की practice चाहिए | ढेर सारी खुली जगह भी चाहिए इन सब की training के लिए | Battle formation या व्यूह भी पता होना चाहिए युद्ध लड़ने के लिए, पहाड़ी और समतल, नदी और मैदानों में लड़ने के तरीके भी अलग अलग होते हैं | उन्हें सिखाने के लिए तो कागज़ कलम से सिखाना पड़ता है या बरसों युद्ध में भाग ले कर ही सीखा जा सकता है |

अभी का इतिहास हमें बताता है की पुराने ज़माने में लड़कियों को शिक्षा तो दी ही नहीं जाती थी | उनके गुरुकुल भी नहीं होते थे ! फिर ये सारी महिलाएं युद्ध लड़ना सीख कैसे गईं ? ब्राम्हणों के मन्त्र – बल से हुआ था या कोई और तरीका था सिखाने का ?

लड़कियों की शिक्षा तो नहीं होती थी न ? लड़कियों के गुरुकुल भी नहीं ही होते थे ?

हे क… क… क… क… किरण! चलिए फिल्म तो आपने आसानी से पहचान ही ली होगी कि ये “डर” नाम की फिल्म है जो 1993 में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में से एक थी। इस फिल्म में शाहरुख खलनायक की भूमिका में था। सिर्फ किस्मत की बात थी कि उसे ये फिल्म मिल गयी। जो शाहरुख़ की राहुल वाली भूमिका थी वो पहले संजय दत्त को मिलने वाली थी। उसे जेल हो गयी तो इस भूमिका के लिए सुदेश बेरी को लेने की कोशिश की गयी, मगर वो स्क्रीन टेस्ट में रिजेक्ट कर दिए गए। फिर अजय देवगन से पूछा गया और दूसरी फिल्मों के काम के कारण उसने भी भूमिका नहीं स्वीकारी।

इसके बाद आमिर खान को ये रोल दिया गया। फिल्मों में अपने हिसाब से बदलाव करवाकर डायरेक्टर-प्रोड्यूसर को परेशान करने के लिए कुख्यात आमिर खान को पहले तो ये शिकायत थी की ये राहुल का किरदार भला नायक वाले किरदार से इतना पिटेगा क्यों? खलनायक घूंसे खाता है, नायक कम पिटता है ये पता नहीं उसे क्यों नहीं सूझा। खैर, इसके बाद उसे फिल्म में दिव्या भारती को लिए जाने से भी दिक्कत थी। फिल्मों में रोल मिलने में भाई-भतीजावाद कैसे काम करता है, इसपर अब सुशांत सिंह के जाने के बाद चर्चा खुलकर होने लगी है। उस दौर में दिव्या के बदले बाद में जूही चावला को ले लिया गया था।

नायिका भी एक बार में नहीं चुनी गयी थी। यश चोपड़ा नायिका के रूप में श्रीदेवी को लेना चाहते थे। अगर “डर” में जूही के कपड़े और लहजा वगैरह देखेंगे तो चांदनी/लम्हे की श्रीदेवी तुरंत याद आ जाएगी। श्रीदेवी पागल प्रेमिका बनना चाहती थीं, और चोपड़ा राहुल का किरदार बदलना नहीं चाहते थे। इसलिए ये भूमिका पहले दिव्या भारती और फिर जूही के पास गयी। जो भूमिका सनी देओल ने निभाई थी, वो पहले ऋषि कपूर और जैकी श्राफ को दी गयी, उन्होंने जब इंकार कर दिया तो महाभारत में कृष्ण की भूमिका निभाने वाले नितीश भारद्वाज को लेने की कोशिश की गयी। सबके इनकार करने के बाद ये भूमिका सनी देओल को मिली थी।

फिल्म की कहानी तो खैर सबको मालूम ही है। आम भारतीय मनिसिकता के विरुद्ध ये फिल्म “प्यार में सब जायज है” को सही साबित करने की कोशिश करती है। इसका खलनायक राहुल अपने ही कॉलेज में पढ़ने वाली किरण से एकतरफा मुहब्बत करता है। वो जैसे तैसे हर वक्त किरण के करीब पहुँचने की कोशिश करता रहता है। किरण उसे घास भी नहीं डालती और एक नौसेना अधिकारी सुनील से शादी कर लेती है। राहुल फिर भी पीछा नहीं छोड़ता और सुनील की हत्या करके जबरन किरण को पाने की कोशिश करता है। अंततः नायक खलनायक की आमने-सामने की लड़ाई होती है और खलनायक मारा जाता है। नायक-नायिका हंसी-ख़ुशी घर लौट आते हैं।

थोड़ा गौर करेंगे तो पायेंगे कि इस फिल्म से पहले के दौर तक एकतरफा प्रेम प्रसंग में लड़की के चेहरे पर तेज़ाब फेंक देने जैसे वाकये आम नहीं थे। जबरन किसी लड़की के पीछे पड़े रहना बिलकुल निकृष्ट कोटि की हरकत मानी जाती थी। जो लोग 90 के दशक में युवा होंगे वो बता देंगे कि ऐसी हरकतें करने पर मित्र इत्यादि भी साथ नहीं देते थे। व्यक्ति समाज से बहिष्कृत हो जाता था। जैसे कई अपराधी हत्या-लूट आदि की योजना किसी फिल्म से प्रेरित होकर बनाते हैं वैसे ही इस दौर में “डर” जैसी फिल्मों का भी असर हुआ। अंग्रेजी की “केप फियर” और “स्लीपिंग विथ द एनिमी” जैसी फिल्मों से प्रेरित इन फिल्मों का असर समाज अब भी झेल रहा है।

अब जैसा कि हमारी आदतों से वाकिफ अधिकांश लोग जानते ही हैं हम “डर” जैसी फिल्मों के “एंटी-हीरो” को महिमंडित करने वाली फिल्म की कहानी तो सुना नहीं रहे होंगे। हमारी रूचि बस ये याद दिला देने में थी, कि ऐसे खलनायकों को दुराचारी और निकृष्ट ही बताये जाने की परंपरा कहाँ रही है। इस बार धोखे से हमने “ललिता सहस्त्रनाम” के कुछ हिस्से सुना डाले हैं। जैसे उत्तरी भारत में “दुर्गा सप्तशती” के पाठ की परंपरा है, वैसे ही भारत के कई हिस्सों में “ललिता सहस्त्रनाम” का पाठ किया जाता है। जैसे “दुर्गा सप्तशती” मार्कंडेय पुराण का हिस्सा है, वैसे ही “ललिता सहस्त्रनाम” ब्रह्माण्ड पुराण का हिस्सा है। भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार इसे अगस्त्यमुनि को सुनाते हैं और माना जाता है कि तमिलनाडु के थिरुमीयाचूर मंदिर वो जगह है जहाँ इसे सुनाया गया था।

ललिता सहस्त्रनाम का राक्षस भण्ड प्रेम के विकृत रूप का ही प्रतीक है। मदन-दहन यानी जब शिव ने कामदेव को भस्म किया तो उस राख से चित्रकर्म नाम के एक कलाकार ने मानवीय सी प्रतिमा बनाई। शिव पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं होने से निराश ब्रह्मा ने उस समय “भण्ड, भण्ड” का उच्चारण किया जिससे उस जीवित हो उठी राक्षसमूर्ती का नाम भण्ड पड़ा। चित्रकर्म ने ही उस राक्षस को शिव के क्रोध से जन्मने के कारण शिव की उपासना करने कहा। उसे बाली की तरह अपने विपक्षी की आधी शक्ति सोख लेने का वर मिला था। शिव के क्रोध से उपजने के कारण उसकी शक्तियां तो विध्वंसक थी ही, वरदान मिलने के बाद वो देवताओं को ही खदेड़कर खुद सब हथिया बैठा।

जहाँ से भण्ड शासन करता था, उसका नाम शोणितपुर था। शोणित का मतलब रक्त, या गहरा लाल रंग होता है। वासना को महिमंडित करती दूसरी फ़िल्में जैसे रानी पद्मावती पर बनायी गयी अभी हाल की फिल्म देखेंगे, तो उसमें भी आपको चटख लाल रंग का भरपूर इस्तेमाल दिख जायेगा। वासना का भाव दर्शाने के लिए इस रंग का खूब इस्तेमाल होता है। ललिता देवी से विवाह के लिए भगवान शिव ने कामेश्वर रूप धारण किया था। यहाँ विवाह के लिए ललिता देवी की शर्त थी कि वो जो भी कहें या करें उसके लिए उन्हें स्वतंत्रता होगी, किसी किस्म की रोकटोक नहीं होगी। स्त्री पर जबरन अधिकार जमाने को आतुर “डर”, या उसी दौर की “अग्निसाक्षी” जैसी फिल्मों की तुलना में ये ठीक उल्टा है।

ललिता देवी के भण्ड से युद्ध का समय देखेंगे तो उनके और अन्य शक्तियों के रथ भी “यंत्रों” और “मंडलों” के स्वरुप में हैं। ललिता देवी का रथ चक्रराज नौ भागों में बंटा था और उसके अलग अलग भागों में अलग-अलग शक्तियां होती हैं। देवी की दो सेनानायिका मंत्रिणी और दंडनायिका (दंडनाथ) हैं और इनके रथों का विवरण भी कुछ ऐसा ही है। हिन्दुओं के लिए “काम” के अर्थ में पाने योग्य सभी वस्तुएं होती हैं, इसलिए दंडनाथ के हथियार हल और मुसल जैसे कृषि के औजार हैं। वहीँ दूसरी सेनानायिका मंत्रिणी के रथ के दूसरे भाग में प्रेम के भिन्न स्वरुप, रति, प्रीती और मनोज होते हैं।

ललिता सहस्त्रनाम कितना महत्वपूर्ण है ये अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि श्री औरोबिन्दो की “सावित्री” (https://www.auro-ebooks.com/savitri/) के पहले भाग का पूरा एक अध्याय (तीसरा) देवी के ललिता सहस्त्रनाम से काफी मिलता जुलता है। दूसरे तरीके से देखें तो किसी भी प्रयास में कैसी बाधाएं आती हैं, वो भी नजर आता है। जैसे असुरों में से एक देवी की सेना को आलस्य के वशीभूत कर रहा होता है। एक दूसरा सबकुछ अंधकार से ढक देता है। किसी भी बड़े काम को करते समय चलो थोड़ी देर और सो लें का आलस्य भी होता है। फिर आधा काम होते होते लगता है कि अब और हो ही नहीं सकता, कोई रास्ता ना सूझे ऐसा भी होता है।

बाकी तकनीक के मामले में कोई चीज कैसे बनी है, या काम कर रही है, ये समझने के लिए तोड़-फोड़ यानि “रिवर्स इंजीनियरिंग” इस्तेमाल करते हैं। फिल्मों और दूसरे माध्यमों से अगर कोई “नेगेटिव” चीज़ें सिखाई जा रही हों, तो उसे दोबारा उल्टा करके, दो नेगेटिव से एक पॉजिटिव बनाना चाहिए। इतनी “कलात्मक अभिव्यक्ति” की स्वतंत्रता तो सबको है ही!
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित

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