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इतिहास के पन्नों से

शिवाजी की तीन चमत्कारी तलवारें

आक्रमणों से त्रस्त भारत के एक बड़े वर्ग को रीढ़-विहीन केंचुओं की तरह रेंग-रेंग कर जीने की आदत भी पड़ गयी थी। उनका भक्ति काल भी आँख मूँद कर किसी अवतार के आने की प्रतीक्षा से ज्यादा नहीं बचा था। उनके भक्त शबरी के बर्ताव की नक़ल करते। वो हनुमान या सुग्रीव जैसे नहीं थे जो सक्रीय रूप से युद्धों में योगदान देते। उनकी भक्ति अगस्त्य, विश्वामित्र या वसिष्ठ जैसे ऋषियों की तरह अस्त्र-शास्त्रों का प्रबंध करने जैसी भी नहीं थी। वो केवल शबरी की प्रतीक्षा और भावविभोर होने में समर्थ थे, अतः उन्होंने उतना ही किया।

लेकिन क्या ये एकमात्र मार्ग था? शायद नहीं। इसी काल में शिवाजी जैसे योद्धा भी हुए जो शायद शक्ति को धारण करने का सामर्थ्य रखते थे। उनके बारे में प्रचलित समकालीन वृतांतों से वो अतिमानव भी लगते हैं। कोस्मे डा गुअर्दा (Cosme da Guarda) सन 1695 के अपने वृतांत में शिवाजी के बारे में लिखते हैं, “ये अभी भी स्पष्ट नहीं है कि वो खुद के बदले दूसरों का खड़ा कर देता है या स्वयं ही कोई जादूगर या खुद शैतान है”! अपने से कहीं शक्तिशाली शत्रुओं पर लगातार विजय के कारण उनके बारे में ऐसा कहा जाना आश्चर्यजनक नहीं।

कवी प्रेमानंद की लिखी “शिवाभारत” में शिवाजी को साक्षात् भवानी के वरदान का एक जिक्र आता है। अफज़ल खान से मिलने से ठीक पहले, प्रतापगढ़ के किले में शिवाजी, देवी भवानी की उपासना में लीन थे कि देवी उनके सामने प्रकट हुई। शारीरिक बल में उनसे करीब दोगुने अफज़ल खान पर विजय का वरदान उन्हें देती हुई देवी स्वयं ही शिवाजी की तलवार में उतर आयीं। अफज़ल खान का क्या हुआ ये तो सर्वविदित है, लेकिन इस समय से शिवाजी की तलवार का नाम भवानी भी हो गया। माना जाता है कि मराठा सैनिकों का “खांडा” (एक ख़ास किस्म की तलवार) इसी भवानी तलवार की नक़ल पर बना होता था।

शिवाजी के द्वारा तीन तलवारों के इस्तेमाल किये जाने का जिक्र आता है। इनके नाम थे तुलजा, जगदम्बा और भवानी। इनमें से जगदम्बा के बारे में माना जाता है कि वो लन्दन में है (हालाँकि इसकी कभी पुष्टि नहीं हुई)। कुछ लोग कहते हैं कि शिवाजी के बघनखे और टीपू सुल्तान के बजने वाले बाघ के साथ एक तलवार ब्रिटिश म्यूजियम में होती थी। “तुलजा” के बारे में माना जाता है कि वो सिन्धदुर्ग किले में है। भवानी के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। इसकी तलाश अब भी जारी है।

तलवारों के नामकरण की परम्परा हमेशा से रही है। जैसे भगवान शिव की एक तलवार का नाम “चन्द्रहास” था। ये रावण के पास भी रही थी और बाद में ये लक्ष्मण के पास थी। संभवतः शूर्पनखा की नाक चन्द्रहास से ही कटी थी। श्री कृष्ण के पास नन्दक नाम का खडग था और गुरु हरगोबिन्द सिंह जी के पास मिरी और पीरी नाम की तलवारें थीं। इस्लाम से निकलकर दीन-ए-इलाही शुरू करने वाले अकबर ने अपनी तलवार का नाम कनक शमशीर रखा हुआ था। नहीं मिलने पर लोगों ने “भवानी” तलवार को ढूंढना बंद नहीं किया।

इस तलाश के क्रम में लोग राजमाता सुमित्रा राजे भोंसले के संग्रह में रखी एक तलवार तक भी पहुंचे। सोने की मूठ जड़ी इस तलवार पर कुछ लिखावट भी है। अपने एक पत्र में शिवाजी राजा जयसिंह को अपनी तलवार के बारे में बताते हैं कि वो “बादलों से बाहर आते चन्द्रमा” जैसा है। फिर एक तथ्य ये भी है कि जबतक शिवाजी जीवित थे, उन्हें “राजा” कहा जाता था “महाराजा” नहीं, ये उनके सिक्कों से पता चलता है। इन कारणों से “महाराजा” लिखी कुछ तलवारों को जांच के बाद भवानी तलवार नहीं माना गया। “भवानी” का न मिलना आश्चर्यजनक भी नहीं था।

देवी की तलवार किसी को यूँ ही क्यों मिलती? संभवतः मुगलिया दौर के भक्तिकाल के प्रभाव से नवरात्र में केवल देवी के सौम्य रूपों की उपासना का मध्यम मार्ग दिखता है। महिषासुर वध दुर्गा सप्तशती में मध्यम चरित्र ही है। देवी के उत्तम रूप अत्यंत उग्र होते हैं। अहिंसक, सौम्य, ममतामयी, शाकाहारी शताक्षी या शाकम्भरी जैसे रूपों में ही देवी हों ऐसा आवश्यक नहीं। सरस्वती के बदले महासरस्वती रूप में देवी के हाथ में वीणा-पुस्तक नहीं होंगे। उनकी आठ भुजाएं होंगी, शस्त्र धारण करती हैं और उनके साथ रूद्र और विनायक जैसी शक्तियां होती हैं। देवी की उपासना के काल में केवल विद्यारम्भ नहीं होता शस्त्र पूजन भी होता है।

बाकी साम्य देखना हो तो जैसे शिवाजी की “भवानी” तलवार नहीं मिलती, वैसे ही अहिंसक और शांतिप्रिय हिन्दुओं के पास कोई तलवार नहीं मिलती। शस्त्र-पूजन करेंगे कैसे?

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