इतिहास पर गांधीवाद की छाया : अध्याय — 11 गांधीजी, हरिजन और हजरत सल्लल

 

गांधीजी , हरिजन और हजरत सल्ल

फिरोज बख्त अहमद भारत के पहले शिक्षा मंत्री और कांग्रेस के बड़े नेताओं में सम्मिलित रहे मौलाना अबुल कलाम आजाद के पोते हैं । जिनका मुस्लिम शिक्षा जगत में सम्मानपूर्ण स्थान है । मैं उनका एक लेख पढ़ रहा था । जिसमें वह लिखते हैं कि एक बार सवेरे लगभग पौने पांच बजे मौलाना आजाद गांधीजी के निवास पर फज्र की नमाज के बाद गए तो देखा कि गांधीजी कुरान पढ़ रहे हैं। पहले तो मौलाना साहब को विश्वास ही नहीं हुआ मगर जब उनके मुख से शुद्ध अरबी उच्चारण में ‘सूरा-ए-इख्लास’ सुनी तो वे स्तब्ध रह गए।


मौलाना साहब की इस असमंजस वाली स्थिति को देखते हुए गांधीजी बोले, ‘मौलाना साहब, मैं रोज सवेरे कुरान शरीफ पढ़ता हूँ और तरजुमे से पढ़ता हूँ। इससे मुझे मन की अभूतपूर्व शान्ति प्राप्त होती है।’
मौलाना साहब को अब तक यह पता नहीं था कि गांधीजी को उर्दू, अरबी और फारसी का सटीक ज्ञान था और यह कि बचपन में मौलाना अब्दुल कादिर अहमदाबादी नक्शबंदी से उन्होंने यह ज्ञान गुजरात में ही प्राप्त किया था। उस दिन से मौलाना की नजरों में गांधीजी का कद और भी ऊंचा हो गया था।

गांधीजी और ‘कुरान वाले’

बख्त साहब इससे ऐसा दिखाना चाहते हैं कि गांधीजी कुरान इसलिए पढ़ते थे कि जैसे कुरान ही मानवतावाद का सबसे महत्वपूर्ण संदेश देती है और विश्व में शांति यदि स्थापित हो सकती है तो कुरान के द्वारा ही हो सकती है । मैं बख्त साहब से बड़े सम्मान के साथ पूछना चाहता हूँ कि इसी कुरान के कारण संसार में इस्लामिक आतंकवाद नाम की विचारधारा क्यों चली आ रही है ? क्या वे यह बताने का प्रयास करेंगे कि ईरान , अफगानिस्तान ,आज का पाकिस्तान बांग्लादेश , सारा अरब , यूरोप और संसार भर के वे सभी 56 देश जो आज इस्लामिक राष्ट्र कहे जाते हैं , उन सबको इस्लामिक राष्ट्र बनाने में और वहाँ के मूल समाज को मारने – काटने में इस्लाम ने कितने करोड़ या अरब लोगों की बलि ली है ? क्या उस सारे खून खराबे को मानवता का खून नहीं माना जाता ? गांधीजी कुरान पढ़ते रहे , पर ‘कुरान वालों’ से कभी यह नहीं पूछ पाए कि मेरी अहिंसा का उपहास तुम तलवारों से क्यों उड़ाते हो ? उन्होंने बंगाल में ‘सीधी कार्यवाही दिवस’ का आयोजन कर हजारों हिन्दुओं का कत्ल कराने वाले सुहरावर्दी को अपना ‘भाई’ कहा , पास बैठाया , अच्छी बात थी। लेकिन गांधी ने कभी उससे यह नहीं पूछा कि ‘कुरान वाले’ सुहरावर्दी ! तूने बंगाल में हजारों हिन्दुओं को क्यों कत्ल किया ?
आज भी देखिए , कुरान के नाम पर इस्लामिक आतंकवाद फैला कर संसार में ‘जेहाद’ चलाया जा रहा है , क्यों ? निरपराध और निर्दोष लोगों का वध किया जा रहा है ,क्यों ?
अपने उपरोक्त लेख में फिरोज साहब इस बात पर दु:ख व्यक्त करते हैं कि हम गांधी के आदर्शों को अपना नहीं सके । जब कोई भी मुसलमान इस प्रकार की बात करता है तो वह ऐसा कहकर एक शिकायत करता है कि जैसे हिन्दू ही इस देश में गांधी के आदर्शों पर नहीं चलता ? मुसलमान तो गांधी का पूरा भक्त है।
जबकि सच यह है कि पाकिस्तान में 14 अगस्त 1947 से ही गांधीजी से घृणा करने वाले लोगों की बड़ी संख्या रही है। विभाजन का दोषी जिन्नाह और उसके बाद उसका पाकिस्तान उन्हें हिन्दू नेता के रूप में देखता चला आया है। इतना ही नहीं कई ऐसे अपशब्दों का प्रयोग भी वहाँ इतिहास की पुस्तकों में गांधीजी के लिए किया गया है , जिन्हें लिखा जाना भी उचित नहीं है।
यदि मुसलमान गांधी का पूरा भक्त है तो हम फिर उन्हीं से पूछते हैं कि ‘तबलीगी जमात’ उस समय क्या कर रही है जिस समय सारा देश ‘कोरोना’ जैसी महामारी से लड़ रहा है ? हम उनसे यह भी पूछना चाहेंगे कि गांधी के सिद्धांतों की हत्या कश्मीर में कश्मीरी पंडितों को भगाकर किसने की ?
पाकिस्तान में 3 करोड़ हिंदुओं को खत्म कर उनका नामोनिशान मिटाने का अपराध किसने किया ? भारतवर्ष में हिंसा और खून खराबे की बातें करने वाले लोग कौन हैं ? क्या वह इन प्रश्नों का ईमानदारी से जवाब दे पाएंगे ?

जब एक मुस्लिम ने गला दबा दिया था गांधी का

फिरोज साहब अपने लेख में आगे लिखते हैं कि आजादी से थोड़ा पहले ही सम्पूर्ण बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम दंगे प्रारम्भ हो गए थे। गांधीजी के वे दिन अवसादपूर्ण व निराशा से भरे थे। जब वे नोआखाली के बाबू बाजार में शांति यात्रा पर घर-घर जा रहे थे तो एक बंगाली मुसलमान भीड़ में से आया और उनका गला दबाते हुए उन्हें जमीन पर गिरा दिया और बोला- ‘काफिर ! तेरी हिम्मत कैसे हुई यहाँ कदम रखने की ?’
गांधीजी तो पहले ही उपवास रख कर जीर्ण-शीर्ण हो चुके थे, इस वार को न सह सके और गिरते-गिरते उन्होंने ‘सूरा-ए-फातिहा’ पढ़ी।
यह देख वह बंगाली मुसलमान, जिसकी बड़ी चमकदार दाढ़ी थी, भौंचक्का रह गया और यह सोचकर शर्म से पानी-पानी हो गया कि ऐसे ‘सदगुणी प्रवृत्ति वाले महात्मा’ पर उसने हाथ उठाया। उसने गांधीजी के पांव पकड़ लिए और क्षमा याचना की।
गांधीजी ने अल्लाहदाद मोंडल से कहा था- “देखो खुदा के निकट मैं तुमसे अच्छा मुसलमान हूँ।”
अब सच्चा और अच्छा मुसलमान कौन है ? इसके लिए कुरान का मजहब कुरान वालों को क्या सिखाता है और आज उसके व्याख्याकार अपने लोगों को किस प्रकार हिन्दुओं के खिलाफ भड़काते हैं ?
उस पर भी विचार करना आवश्यक है ।
मैंने कई मुस्लिम विद्वानों को सुना है । एक जनाब कह रहे थे कि सूरा 9 आयत 28 में हमसे कहा गया है कि काफिरों से ताल्लुक जरूरी है तो बस इतना ही है जैसे लैट्रिन के अंदर जाना मजबूरी है । दूसरे जनाब कह रहे थे कि सूरा 4 आयत 101 में लिखा है कि अहले इमान दोस्त ना बनाएं कभी भी काफिरों को । तीसरे जनाब कह रहे थे कि सूरत 4 आयत 101 में यह भी है कि निसंदेह गैर मुस्लिम तुम्हारे खुले दुश्मन हैं । एक अन्य मुस्लिम विद्वान सूरा 9 आयत 5 की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि मूर्ति पूजक को जहाँ भी पाओ उनका कत्ल करो । जबकि सूरा 9 आयत 23 के बारे में एक अन्य जनाब कहते हैं कि जो तुम दोस्त बनाते हो काफिरों को , उनको दोस्त मत बनाओ।
यदि गांधी जी अपने ही शब्दों में एक अच्छे और सच्चे मुसलमान थे तो अब पता चलता है कि वह काफ़िरों अर्थात मूर्तिपूजक हिन्दुओं से बेहतर मुसलमान को क्यों मानते थे और क्यों हिन्दुओं से दोहरा बर्ताव करते थे ?
फिरोज साहब आगे लिखते हैं विभाजन के तुरन्त बाद गांधीजी ने तनाव की खबरें आने पर फिर नोआखाली जाने का मन बनाया परन्तु परिस्थिति को देखते हुए वे कलकत्ता छोड़ नहीं पाए। अविभाजित बंगाल के प्रधानमंत्री एचएस सुहरावर्दी ने गांधीजी से अनुरोध किया था कि जब तक कलकत्ता में पूर्ण रूप से शान्ति न हो जाए, तब तक वे कलकत्ता में ही रहें। गांधीजी मान गए , पर उन्होंने शर्त रखी कि सुहरावर्दी भी उनके साथ ही एक ही छत के नीचे रहें।

गांधीजी और सुहरावर्दी

बंगाल के हिन्दू नवयुवक गांधीजी का भारी विरोध कर रहे थे । उनका कहना था कि एक वर्ष पूर्व जब मुसलमानों ने हिन्दुओं का कत्ल किया था तब गांधीजी कहां थे ? गांधीजी के लिए यह परिस्थिति कोई नई नहीं थी और वे भली- भांति इससे परिचित थे। मगर बावजूद इसके उन्होंने किसी भी सशस्त्र पुलिस की सहायता लेने से इंकार कर दिया था।
एक बार तो उत्सुक भीड़ उतावली हो उठी और लोगों ने ‘गांधी वापस जाओ’ के नारे लगाने शुरू कर दिए।
गांधीजी ने प्रदर्शनकारियों के पास अपना सन्देश भेजा कि वे उनकी जान लेना चाहते हैं तो इस शर्त पर लें कि उसके बाद वे सुहरावर्दी या उनके साथियों का बाल भी बांका नहीं करेंगे।
हमारा मानना है कि स्वामी श्रद्धानन्द जी के हत्यारे को लेकर गांधी जी ने कभी ऐसा दृष्टिकोण क्यों नहीं अपनाया ? इसी प्रकार जहाँ – जहाँ भी हिन्दुओं पर मुस्लिमों ने अत्याचार किये उन क्षेत्रों में किसी एक छोटे से हिन्दू की प्राणरक्षा के लिए भी गांधी जी इतने ही अधिक उतावले क्यों नहीं हुए , जितने वह सुहरावर्दी की प्राणरक्षा के लिए हो रहे थे ?
वास्तव में गांधी जी की इस प्रकार की राजनीतिक कार्यशैली को भारत का मौलिक संस्कार बनाने का वर्तमान इतिहास लेखकों ने प्रयास किया है। इसके माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि शत्रु को अपना कलेजा भी सौंप दो , जबकि भारत की संस्कृति रही है कि जो व्यक्ति देश ,धर्म व संस्कृति का विनाशक हो और देश के शांतिप्रिय लोगों का अहित करने वाला हो , उसका कलेजा निकाल लो । इसी से देश रक्षा संभव है।
गांधीजी एक साथ हजरत मुहम्मद, कृष्ण, गुरु नानक और ईसा मसीह से प्रभावित थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपने अनेक पत्रों में गांधीजी की इस्लाम के प्रति जिज्ञासा का वर्णन किया है।
‘अल-अहरार’ संस्था के मौलाना हबीब-उर-रहमान लुधियानवी को एक पत्र में उन्होंने लिखा कि हरिजनों से प्यार व छुआछूत से दूरी गांधीजी ने हजरत मुहम्मद सल्ल से सीखी, जिन्होंने सभी इंसानों को बराबर समझा।

हरिजनों के प्रति प्रेम की भावना रखने की सीख गांधी जी को किसने दी ?

कितने दुर्भाग्य की बात है कि गांधीजी को हरिजनों के प्रति छुआछूत मिटाने या बराबरी का व्यवहार करने की प्रेरणा भी एक मुस्लिम से मिली । इसका कारण यही है कि वे जीवन भर उस कुरान को पढ़ते रहे जो ऐसे भाईचारे की बात करती है कि जो काफिर उसके मानने वालों को अपना ‘भाई’ मानते उसी को कुरान वाले अपने ‘चारे’ के रूप में प्रयोग करते हैं। जिसके मानने वाले कभी भी संसार में बराबरी की बात नहीं सोचते। यदि गांधीजी कुरान की बराबर वेदों पर ध्यान देते तो निश्चय ही वेद का यह ‘संगठन सूक्त’ उन्हें सभी के साथ समानता का व्यवहार करने और छुआछूत मिटाने के लिए प्रेरित करता :-
ॐ सं गच्छध्वं सं वदध्वं, सं वो मनांसि जानताम्
देवा भागं यथा पूर्वे , संजानाना उपासते ।।
समानो मंत्र: , समिति: समानि ।
समानं मनः,सह चित्तमेषाम् ।
समानंमंत्रमभिमंत्रयेव: , समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
समानी व आकूतिः, समाना हृदयानिव: ।
समानमस्तु वो मनो, यथा व: सु सहासति ।।
ॐ शांति शांति शांति।
ऋग्वेद १०/१९१/२-४
वेद के इन मंत्रों में कहा गया है कि हमारे पूर्वज देवताओं की तरह ही हम साथ रहें , आचार,विचार,उच्चार की समानता रहे । हमारे मन मस्तिष्क के सुख-दुःख समान हों , हमारी सबकी चुनौतियां समान हों, हमारी प्रार्थनाओं,आकांक्षाओं,उद्देश्यों,भावनाओं में समानता रहे । हमारे अंतर में समर्पण भाव समान हो , जिससे कि हम सुदृढ़ संगठन गढ़ सके । वैयक्तिक उत्थान , स्वतंत्रता यह लक्ष्य न हो,एकांगी विचार या क्रिया भी अपेक्षित नहीं हैं । संगठित विचार , सामूहिक उद्घोष, सामूहिक प्रयास, सामूहिक संकल्प ही हमारी कार्यप्रणाली हो । लोक संग्रह का हमारा लक्ष्य तभी पूर्ण होगा जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति स्वाभिमानी,स्वावलम्बी होगा । ईर्ष्या द्वेष,वैर ,वैमनस्य का समाज में कोई स्थान न होगा । समाज में समरसता और सुख शान्ति होगी ।
मैं जानता हूँ कि कई तथाकथित अहिंसावादी गांधीवादियों को मेरे इस लेख से क्रोध आएगा और उनकी प्रतिक्रिया नकारात्मक आएगी । मैं उनसे पहले ही विनम्रता से यह कहना चाहता हूँ कि वह गांधी के कुरानवादी दृष्टिकोण से बनने वाले वर्त्तमान भारतवर्ष पर दृष्टिपात करें और फिर यह विचार करें कि यदि गांधीवाद के इस दर्शन को लागू न करके वेद का उपरोक्त संगठन सूक्त देश में सामाजिक समरसता को विकसित करने के लिए लागू किया जाता तो आज देश की स्थिति कैसी होती ? निश्चय ही गांधीजी ‘सच्चे और अच्छे मुसलमान’ थे, तभी तो देश में सर्वत्र आतंकवाद ही आतंकवाद है और तभी ‘तबलीगी जमात’ के लोग लॉकडाउन के दौरान अपना ‘शानदार करतब’ दिखा रहे हैं। सचमुच यह स्थिति देश के लिए कष्टप्रद है कि अहिंसा की बात करने वाले गांधी और उनके सपनों के भारत में सर्वत्र वही लोग हिंसा का तांडव कर रहे हैं जिन्हें वह ‘भाई’ कहकर बुलाते थे।
पता नहीं यह कौन सा भाईचारा है ? इसके उपरान्त भी उन हिंसा फैलाने वाले ‘भाइयों’ को इतिहास प्रेम की दृष्टि से देखता है, और कई इतिहासकार अनेकों प्रमाणों से यह सिद्ध करने का अनुचित प्रयास करते हैं कि इन का मजहब भाईचारे का मजहब है।

तब इतिहास कुछ और होता….

यदि गांधीजी वेद भक्त होते और डंके की चोट कहते कि मेरे वेद का ‘संगठन सूक्त’ इस देश में सामाजिक समरसता लाने के लिए मुझे प्रेरणा देने वाला है और इसी को देश के संविधान में यथावत रखकर देश की भावी दिशा निर्धारित की जानी चाहिए तो आज का भारत कुछ दूसरा ही भारत होता। सचमुच ‘वेद भक्ति’ गांधी जी की मुस्लिम तुष्टिकरण की भेंट चढ़ गया। यही कारण रहा कि वेद का उपरोक्त आदर्श इस देश में लागू नहीं हो सका । इसी बात को पकड़कर गांधीवादी इतिहासकारों ने ‘वेद भक्ति’ और ‘देशभक्ति’ दोनों को ही इतिहास से निकालकर नीरस इतिहास परोसने का कुचक्र चलना आरम्भ किया। हमें यह स्थापित करना चाहिए था कि देशभक्त वही है जो ‘वेद भक्त’ हैं। हम उधारी कल्पनाओं , उधारी मनीषा और उधारी विचारधाराओं से ‘अपना देश’ चलाने लगे । सचमुच हमें अपने तत्कालीन नेतृत्व के बौद्धिक चिन्तन और उसकी बौद्धिक क्षमताओं पर तरस आता है ।अपना बहुत कुछ उत्तम होते हुए भी उन्होंने सब कुछ उधार लेकर देश चलाने का प्रयास किया , इससे बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है ?

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक उगता भारत

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