अब्दुल्ला परिवार का कश्मीर

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
(वरिष्ठ स्तंभकार)

अलबत्ता फारूक अब्दुल्ला ने अपनी पारिवारिक परंपरा को निभाते हुए एक ध्यान रखा है। वह बात सदा अपने कुनबे के हित की करते हैं लेकिन नाम आम कश्मीरियों का लेते हैं। यदि ऐसा न होता तो नेशनल कान्फ्रेंस के पास जब सत्ता आती है तो सदा परिवार में ही क्यों बंट जाती है? फारूक अब्दुल्ला ने अब फिर वही चाल चली है। चीन के साथ वह खुद बैठना चाहते हैं और नाम कश्मीरियों का ले रहे हैं। पंजाबी में कहावत है ‘रौंदी यारां नूए लै लै नां भरावां दे’। आम कश्मीरी एसटीएम और शेख परिवार की मिलीभगत को समझ चुका है। इसलिए वे चैनलों पर मगरमच्छ के आंसू तो बहा सकते हैं, लेकिन इन आम कश्मीरियों को धोखा नहीं दे सकते क्योंकि एसटीएम और शेख परिवार की हिफाजत करने वाले अनुच्छेद 370 का कवच पहले ही टूट चुका है…

शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के बेटे डा. फारूक अब्दुल्ला ने पीछे एक अंग्रेजी के चैनल में बातचीत करते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं। उनका कहना था कि आज कश्मीरी अपने को भारतीय मानने के लिए तैयार नहीं हैं। भारतीय की बजाय वह यह तक चाहता है कि चीन कश्मीर पर कब्जा कर ले और कश्मीरी चीनी होने को तैयार हैं। वैसे जो सज्जन इस महत्त्वपूर्ण विषय पर अब्दुल्ला परिवार के प्रतिनिधि से बात कर रहे थे, उन्होंने मुंह बिगाड़ कर, भौंहें तान कर, आंखें सिकोड़ कर पूछा भी कि आप का मजहब तो इस्लाम है और चीन ने जिस पूर्वी तुर्किस्तान पर कब्जा किया हुआ है, वहां के मुसलमानों को वह प्रताडि़त कर रहा है। फिर भी आप चीन के साथ जाने को तैयार हैं? अब्दुल्ला परिवार का उत्तर था कि यहां तो उससे भी ज्यादा घुटन हो रही है। फारूक अब्दुल्ला को कुछ भी कहने का हक है।

यह हक उन्हें भारत का संविधान देता है। वह भारत की लोकसभा के सदस्य भी हैं, वहां भी वह कहने को तो कश्मीरियों का, लेकिन असलियत में अब्दुल्ला खानदान के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस पृष्ठभूमि में यह जान लेना जरूरी है कि वह आखिर किसकी ओर से बोलते हैं? शेख परिवार शताब्दियों पहले अपनी परंपरा छोड़ कर इस्लाम मजहब में चला गया था। ऐसा नहीं कि वह पहला परिवार था, जो इस्लाम में चला गया हो। हजारों लाखों और अन्य कश्मीरी भी इस्लाम की शरण में चले गए थे। लेकिन अन्य कश्मीरियों और अब्दुल्ला परिवार के मुसलमान बन जाने में एक बहुत बड़ा अंतर था जिसकी ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। अब्दुल्ला परिवार अपने आप को आम कश्मीरियों से बहुत ऊंचा मानता था। आम कश्मीरी की औकात नहीं थी कि वह अब्दुल्ला परिवार के बराबर बैठ या खड़ा हो सके। ऐसा नहीं कि अब्दुल्ला परिवार में कोई ऐसा विशेष गुण था जो अन्य कश्मीरियों में नहीं था। लेकिन अब्दुल्ला परिवार जिस जाति से ताल्लुक रखते थे, वह अपने आप को बाकी कश्मीरियों से बहुत ऊंचा मानती थी। लेकिन अब परिवार के लिए एक संकट खड़ा हो गया। जिस नए मजहब में वह जा रहे थे, उसमें दूसरे आम कश्मीरी भी जा रहे थे।

फिर इस बात का पता कैसे चलेगा कि अब्दुल्ला परिवार आम कश्मीरियों से बहुत ऊंचा और अलग है? तब परिवार ने पता किया होगा कि इस्लाम के जिस नए निजाम में हम जा रहे हैं, वहां सबसे ऊंचा कौन है? पता चला कि उस निजाम में सैयद सबसे ऊंचे पायदान पर बैठे हैं क्योंकि वे हजरत अली के खानदान से हैं। लेकिन दुर्भाग्य से वह नए निजाम में सैयद तो बन नहीं सकते थे, क्योंकि उनका खानदान तो स्थानीय था। लेकिन वह नए निजाम में किसी आम कश्मीरी के साथ भी नहीं बैठ सकते थे। इसलिए वह शेख हो गए। यदि उधर सैयद हैं तो ये शेख हैं। आम कश्मीरी से दस गज ऊंचे। इस प्रकार नए निजाम में कश्मीरी में तीन वर्ग हुए, पहला एसटीएम यानी सैयद तुर्क और मुगल मंगोल, दूसरा शेखों व अब्दुल्लाओं का और तीसरा आम कश्मीरियों का। अंग्रेजों के चले जाने के बाद जम्मू-कश्मीर रियासत में भी सत्ता की लोकतांत्रिक पद्धति लागू हो गई। तब सचमुच खतरा पैदा हो गया कि सत्ता अब सचमुच आम कश्मीरियों के हाथ चली जाएगी। इसे कैसे रोका जाए?

यह स्थिति न तो शेखों को अनुकूल लगती थी और न ही एसटीएम को अनुकूल लगती थी। इसलिए दोनों आपस में मिल गए और कश्मीर घाटी की अनुच्छेद 370 से घेराबंदी कर ली गई ताकि आम कश्मीरियों के रोने की आवाज बाहर न जा सके। एसटीएम और शेख अब्दुल्ला का परिवार मिल कर जम्मू-कश्मीर पर राज करते रहे। कभी शेख का परिवार, कभी सैयद। सैयद गुलाम मोहम्मद सादिक, सैयद मीर कासिम, सैयद मुफ्ती मोहम्मद, सैयद महबूबा मुफ्ती, पूरी लाइन भरी पड़ी है। कसक एक ही है। न तो एसटीएम आम कश्मीरी के साथ बैठेगा और न ही शेख परिवार। लेकिन अब एक बार फिर दोनों के ही सामने संकट खड़ा हो गया लगता है। अनुच्छेद 370 की घेराबंदी टूट गई है। एक बार फिर खतरा पैदा हो गया है कि सत्ता आम कश्मीरियों के पास आ जाएगी। इसलिए हड़कंप मच गया है।

एसटीएम भी बदहवास हो रहा है। कभी अरबों की ओर भागता है और कभी तुर्की की ओर। लेकिन शेख अब्दुल्ला परिवार क्या करे? अरब और तुर्क तो उन्हें पास नहीं फटकने देंगे, चाहे कुरान शरीफ की लाख आयतें मुंह जबानी सुना दें। वे इन्हें अब भी हिंदुओं की औलादें ही कहते हैं। अरबों ने इस्लाम के बावजूद तुर्कों को घास नहीं डाली। शेख परिवार की तो औकात ही क्या है? फिर शेख परिवार क्या करे? क्या आम कश्मीरियों के साथ बैठ जाए। क्या श्रीनगर में उनके साथ खड़ा हो जाए जिनके नाम के पीछे शेख लगा हुआ है? नाम के पीछे वाले शेख तो बेचारे आम दलित कश्मीरी हैं। क्या हाजियों के साथ मिल जाए? शेख परिवार तो अपने आप को शेरे कश्मीर कहता है। अब वह आम कश्मीरी के साथ तो नहीं मिल सकता। उसने भी अपने लिए विकल्प चुन लिया है। वह कश्मीरियों के साथ नहीं बैठेगा, वह चीनियों के साथ चला जाएगा।

अलबत्ता फारूक अब्दुल्ला ने अपनी पारिवारिक परंपरा को निभाते हुए एक ध्यान रखा है। वह बात सदा अपने कुनबे के हित की करते हैं लेकिन नाम आम कश्मीरियों का लेते हैं। यदि ऐसा न होता तो नेशनल कान्फ्रेंस के पास जब सत्ता आती है तो सदा परिवार में ही क्यों बंट जाती है? फारूक अब्दुल्ला ने अब फिर वही चाल चली है। चीन के साथ वह खुद बैठना चाहते हैं और नाम कश्मीरियों का ले रहे हैं। पंजाबी में कहावत है ‘रौंदी यारां नूए लै लै नां भरावां दे’। आम कश्मीरी एसटीएम और शेख परिवार की मिलीभगत को समझ चुका है। इसलिए वे चैनलों पर मगरमच्छ के आंसू तो बहा सकते हैं, लेकिन इन आम कश्मीरियों को धोखा नहीं दे सकते क्योंकि एसटीएम और शेख परिवार की हिफाजत करने वाले अनुच्छेद 370 का कवच पहले ही टूट चुका है। अनुच्छेद 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर में आम कश्मीरी मजबूत हो रहा है। अब्दुल्ला परिवार को यह बात भी अपने अनुकूल नहीं लगती है। इसलिए वह ऐसी बातें कर रहा है।

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