जम्मू कश्मीर में 35 ए , शेख अब्दुल्ला और पंडित नेहरू की कहानी

डाँ. मनमोहन वैद्य

भारत सरकार का अनुच्छेद 370 में संशोधन, 35 ए समाप्त करने और जम्मू-कश्मीर राज्य को सभी संवैधानिक प्रावधानों का लाभ देने का फैसला भारत के नागरिकों से किए वादे को पूरा करने की दिशा में उठाया गया कदम है

अनुच्छेद 370 में संशोधन, 35ए को हटाने और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने का भारत सरकार का फैसला कई लोगों को हैरान और अवाक् कर गया। संसद में इस पर बहस के दौरान विपक्षी दलों ने दलील दी कि यह कदम ‘असंवैधानिक और जम्मू-कश्मीर के निवासियों के खिलाफ’ है।
संवैधानिक स्थिति
15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र अस्तित्व के तौर पर स्थापित हो रहे भारत में 560 से अधिक रियासतें शामिल थीं। उन्हें सिर्फ दो विकल्प दिए गए थे-भारत या पाकिस्तान। भारत छोड़कर जा रही ब्रिटिश सरकार ने किसी राज्य को स्वतंत्र रहने की स्वीकृति नहीं दी थी। अत:, 26 अक्तूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह द्वारा जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के कानूनी दस्तावेज पर हस्ताक्षर करना अन्य रियासतों के भारत का हिस्सा बनने जैसा ही एक औपचारिक कदम था।
लेेकिन दस्तावेज पर हस्ताक्षर की औपचारिकता पूरी होने से पहले ही पाकिस्तानी सेना ने मुस्लिम बहुल कश्मीर क्षेत्र पर जबरदस्ती कब्जा करने के लिए कबाइलियों के वेष में हमला कर दिया। हालांकि भारतीय बलों ने सही समय पर हस्तक्षेप करके जम्मू और कश्मीर राज्य को बचाने की भरपूर कोशिश की, फिर भी कुछ हिस्से पर पाकिस्तान ने अवैध कब्जा कर लिया, जिसे आज पाक अधिक्रांत जम्मू और कश्मीर यानी ‘पीओजेके’ कहते हैं। विलय की प्रक्रिया पूरी तरह से तैयार थी, लेकिन मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में लंबित होने और कुछ क्षेत्र पाकिस्तान के अवैध कब्जे में होने के कारण भारत सरकार नवगठित जम्मू और कश्मीर राज्य में भारतीय संविधान को पूर्णत: लागू करने का माहौल बनाने के लिए कुछ समय चाहती थी। लिहाजा स्थिति सामान्य होने तक की अवधि के लिए इस निर्देश के साथ अनुच्छेद 370 लागू किया गया कि ‘यह अस्थायी व्यवस्था है’। रक्षा, न्यायपालिका और विदेश मामले केंद्र सरकार के अधीन रखे गए और अन्य सभी मामलों में निर्णय का अधिकार जम्मू-कश्मीर राज्य विधानसभा को सौंपा गया।
दिलचस्प बात यह है कि शेख अब्दुल्ला के साथ नेहरू की दोस्ती और उनकी सांप्रदायिक राजनीति की पृष्ठभूमि में धारा 35ए को गढ़ा गया था और इसे 1954 में संसद की मंजूरी के बगैर राष्ट्रपति के आदेश से चुपचाप लागू कर दिया गया। यही राज्य में उभरने वाली सभी जटिलताओं का कारण बना, क्योंकि इसके जरिए जम्मू-कश्मीर राज्य को वहां के स्थायी निवासी तय करने का हक मिल गया था। हैरानी की बात है कि धारा 35ए का खाका अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के प्रति भेदभाव और अन्यायपूर्ण था।
जम्मू-कश्मीर राज्य सिर्फ कश्मीर घाटी के लोगों से नहीं बना था, बल्कि इसमें जम्मू और लद्दाख क्षेत्र के निवासी भी शामिल थे। अनुच्छेद 370 के कारण होने वाले लाभ या हानि की समीक्षा सिर्फ घाटी के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं, बल्कि समग्र रूप से होनी चाहिए। इस अनुच्छेद की आड़ में पाक प्रायोजित आतंकवाद और अलगाववादी ताकतों ने मजहब और राजनीति के नाम पर राज्य को अस्थिर रखा और भारतीय सुरक्षा बलों के खिलाफ एक अंतहीन लड़ाई जारी रखी, जो दरअसल वहां के निवासियों की रक्षा के लिए तैनात किए गए थे।
भारत सरकार का अनुच्छेद 370 में संशोधन करना, 35ए समाप्त करना और जम्मू-कश्मीर राज्य को सभी संवैधानिक प्रावधानों का लाभ देने का फैसला दरअसल भारत के नागरिकों से किए वादे को पूरा करने की दिशा में उठाया गया कदम है। 1957 में बने जम्मू-कश्मीर के संविधान के खंड 2 की धारा 3 में उल्लेख है-राज्य का भारतीय संघ के साथ संबंध यह है कि-जम्मू और कश्मीर राज्य भारतीय संघ का अभिन्न अंग है। अनुच्छेद 370, जम्मू-कश्मीर संबंधी अस्थायी प्रावधान-खंड 3 में उल्लेख है कि इस धारा के पूर्ववर्ती प्रावधानों के बावजूद, राष्ट्रपति सार्वजनिक अधिसूचना के जरिए किसी निर्दिष्ट तारीख तक अनुच्छेद के समाप्त होने, या कुछ अपवादों और संशोधनों के साथ अमल में रहने की घोषणा कर सकते हैं।
1964 में सांसद श्री प्रकाशवीर शास्त्री ने अनुच्छेद 370 को संशोधित करने से संबंधित एक निजी विधेयक संसद में पेश किया था जिसे विभिन्न दलों के सभी सदस्यों ने सर्वसम्मति से समर्थन दिया था। अनुच्छेद 370 समाप्त करने के लिए पेश विधेयक को राममनोहर लोहिया, मधु लिमये, हरि विष्णु कामथ जैसे समाजवादी नेताओं, एन.सी. चटर्जी, सरजू पांडे जैसे कम्युनिस्ट नेताओं और भागवत झा आजाद, एस.एम. बनर्जी, के हनुमंतैया जैसे कांग्रेसी सांसदों और जम्मू-कश्मीर के चार सांसदों का मजबूत समर्थन मिला था। ये सभी सांसद इस बात पर सहमत थे कि अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर के विकास की राह में रोड़ा है। जम्मू-कश्मीर के सांसदों ने तो जोर देकर यहां तक कहा कि यह राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए खतरा है।
जम्मू-कश्मीर के सांसद गोपाल दत्त मेंगी ने अफसोस के साथ कहा कि अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर के लिए एक अभिशाप है। उन्होंने कहा कि ‘अनुच्छेद 370 हमें कोई विशेष दर्जा नहीं देता, बल्कि इसने हमें हमारे ही देश में द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना दिया है। यह भारत और जम्मू-कश्मीर के बीच दीवार बन गया है’। जम्मू-कश्मीर के एक अन्य सांसद अब्दुल गनी गोनी, जो शेख अब्दुल्ला के करीबी सहयोगी भी थे, ने सदन का ध्यान खींचते हुए कहा कि ‘अनुच्छेद 370 लागू होने के कारण राज्य के सर्वांगीण विकास में बाधा आई है’। उन्होंने साफ कहा कि ‘तत्कालीन जम्मू और कश्मीर के प्रधानमंत्री, बख्शी गुलाम मोहम्मद ने अनुच्छेद 370 को रद्द करने का प्रस्ताव भी रखा था, लेेकिन उस समय केंद्र सरकार इसके लिए सहमत नहीं हुई। मुझे नहीं पता कि केंद्र सरकार पश्चिम के प्रभाव में है या पाकिस्तान के प्रति तुष्टीकरण की नीति रखना चाहती है.़.़.वे हमारे पड़ोसियों को हमारी कीमत पर खुश रखना चाहते हैं’। अफसोस और असंतोष की इन अभिव्यक्तियों में जम्मू-कश्मीर के एक और सांसद सैयद नासिर हुसैन समानी की आवाज भी शमिल थी, जिन्होंने सदन से पूछा कि अनुच्छेद 370 को क्यों रद्द नहीं किया जा रहा? उन्होंने पूछा कि ‘अनुच्छेद 370 को लागू रखकर जम्मू-कश्मीर के लोगों को किस बात की सजा दी जा रही है? हम कश्मीरियों ने कभी अपने लिए कोई खास दर्जे की मांग नहीं की। हमें अनुच्छेद 370 नहीं चाहिए। मैं अपने जीवनकाल में अपनी सुरक्षा के लिए, अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए, अपनी आने वाली पीढि़यों के लिए इस अभिशाप को समाप्त करना चाहता हूं’। इतने मजबूत समर्थन के बावजूद विधेयक पारित नहीं हुआ, क्योंकि यह एक निजी सदस्य विधेयक था। कुछ तकनीकी बिन्दुओं का हवाला देते हुए कांग्रेस ने अनुच्छेद 370 को रद्द करने के लिए एक बेहतर तरीका खोजने की बात की।
1994 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली पी़ वी़ नरसिम्हा राव सरकार ने भारत की संसद में सर्वसम्मति से ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किया कि जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है और सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा पाकिस्तान के कब्जे से पीओजेके को मुक्त कराना है। यह दर्शाता है कि अस्थायी अनुच्छेद 370 और 35ए को समाप्त करने पर राष्ट्रीय सहमति थी। शायद इसीलिए प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की ओर से सरकार के इस कदम का आधिकारिक विरोध जताने के बावजूद उनके अपने ही सदस्यों की राय अलग-अलग थी।

इन सभी तथ्यों से संवैधानिक तौर पर यह स्पष्ट होता है कि अनुच्छेद 370 हमेशा से अस्थायी था और इसे खत्म तो होना ही था। यह निर्णय जम्मू-कश्मीर के सभी निवासियों को विकास, समृद्धि और उन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था का अहम हिस्सा बनने में मदद करेगा। विशेष दर्जे की आड़ में, जो अस्थायी होने के बाद भी 70 वर्र्ष तक कायम रहा, शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के लाभ से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को वंचित कर दिया गया। जमीन खरीदने पर प्रतिबंध के कारण कोई भी निवेशक जम्मू-कश्मीर में शिक्षण संस्थानों, आधुनिक सुविधा संपन्न अस्पतालों और उद्योगों की स्थापना के लिए निवेश करने के लिए तैयार नहीं हुआ, जिससे कश्मीरियों को न तो अच्छे स्तर की शिक्षा मिल सकी, न ही स्वास्थ्य सेवाएं और न ही युवाओं को रोजगार के अवसर ही मिले।
जम्मू-कश्मीर:लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना
अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था और संविधान निर्माता इसे भलीभंाति जानते थेे। फिर भी, विशेष दर्जे की आड़ में राजनीति की चौसर जारी रही। अनुच्छेद 370 के दुरुपयोग ने 35 ए की रचना की जिसे राष्ट्रपति के आदेश के बगैर संसदीय अनुमोदन से लागू कर दिया गया। इस प्रावधान ने कई संवैधानिक विसंगतियों को जन्म दिया और जम्मू-कश्मीर लोकतंत्र की प्रखर किरणों से वंचित ही रहा।
अनुच्छेद 370 और 35ए, वंशवादी राजनीति, भाई-भतीजावाद और सांप्रदायिकता का यह घातक व्यूह जम्मू-कश्मीर राज्य के विकास के लिए केंद्र सरकार की ओर से आवंटित धन को निगलता रहा। आवंटित कोष में से एक बड़ी राशि नियमित रूप से चोरी-छिपे कुछ परिवारों के खजानों में भरी गई और कुछ आतंकवादी गतिविधियों में शामिल अलगाववादी समूहों की जरूरत पूरी करने में इस्तेमाल हुई। भारत के अन्य राज्यों में सरकारी धन के उपयोग पर नजर और भ्रष्टाचार पर अंकुश रखने के लिए बतौर न्यायिक अधिकारी एक लोकायुक्त की नियुक्ति का संवैधानिक प्रावधान है। पर, जम्मू-कश्मीर राज्य के विशेष दर्जे के कारण वहां लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो सकती, लिहाजा वहां जमकर राजनीतिक भ्रष्टाचार और निधि का दुरुपयोग होता रहा।
आरटीआई अधिनियम भी भारत में भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग को रोकने में सहायक है। अब जम्मू-कश्मीर में इस अधिनियम को लागू किया जा सकेगा और लोकायुक्त नियुक्त करके स्वच्छ और सुचारु प्रशासन बहाल होगा, भ्रष्ट गतिविधियों पर लगाम लगेगी।
इस निर्णय से अब राज्य की सभी महिलाओं को अपना जीवन साथी चुनने के संबंध में पुरुषों के बराबर हक मिलेगा, क्योंकि विशेष दर्जे की आड़ में जम्मू-कश्मीर में महिलाओं के साथ अन्याय होता रहा है। जम्मू-कश्मीर का पुरुष राज्य से बाहर की किसी महिला से शादी करने पर अपनी पैतृक संपत्ति से वंचित नहीं होता था, पर अगर कश्मीरी महिलाएं ऐसा करती थीं तो पैतृक संपत्ति पर उनका हक खत्म हो जाता था।
इस फैसले ने राज्य में रहने वालेे 25,000 गोरखाओं के साथ हुए अन्याय पर मलहम लगाने का काम किया है। 19वीं सदी में गोरखाओं ने जम्मू-कश्मीर में कदम रखा और वहंी बस गए। उनमें से अधिकांश पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह की सेना के सैनिक थे, जिन्होंने 1846 तक जम्मू-कश्मीर पर शासन किया था। इससे यह साबित होता है कि गोरखा जम्मू-कश्मीर में 1846 से भी पहले से बसे थे और लोगों की सेवा कर रहे थे। अनुच्छेद 35 ए की आड़ में उन्हें स्थायी निवास प्रमाण पत्र नहीं दिया गया और पीआरसी के अधिकारों से वंचित रखा गया।
इस ऐतिहासिक निर्णय से पश्चिमी पाकिस्तान के 22,000 शरणार्थी परिवारों को भारत के आजाद नागरिक के रूप में गरिमापूर्ण जीवन जीने का मौका मिलेगा। करीब 70 वर्ष से ये शरणार्थी का दुर्भाग्यपूर्ण जीवन जी रहे हैं। इन्हें कभी राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होने का मौका नहीं दिया गया।
1957 में वाल्मीकियों, अनुसूचित जातियों को सफाई के काम के लिए पंजाब से जम्मू-कश्मीर लाया गया था। आज भी वाल्मिकियों को सफाई के अलावा कोई और काम या नौकरी करने का अधिकार नहीं, चाहे उन्होंने कितनी ही ऊं ची शिक्षा क्यों न हासिल की हो। अब, अनुच्छेद 35 ए के जरिए अलोकतांत्रिक तरीके से किए जा रहे इस अमानवीय अन्याय का अंत होगा।
इस महत्वपूर्ण निर्णय ने कश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में शरणार्थियों का जीवन जीने की व्यथा से मुक्त करके उन्हें अपने पुश्तैनी निवास स्थान में पुन: लौटने का विकल्प और संभावनाएं और उम्मीद थमाई है। वह भारत और मानवता के इतिहास का सबसे काला दिन था, जब कश्मीर घाटी में शांतिपूर्वक रह रहे और राज्य की अर्थव्यवस्था में महती योगदान करने वाले कश्मीरी हिन्दुओं के साथ बर्बर व्यवहार करके उन्हें अपनी ही जमीन से निष्कासित कर दिया गया था। तब किसी ने भी मानवाधिकारों के उल्लंघन का मुद्दा नहीं उठाया, क्योंकि वे हिंदू थे।
लद्दाख के लोग, जिनमें ज्यादातर बौद्ध और शिया मुस्लिम हैं, अपने खास पर्यावरण और अत्यंत मुश्किल जलवायु के कारण जम्मू-कश्मीर क्षेत्र से थोड़ा अलग हैं। इस क्षेत्र को वहां की सरकारों की उपेक्षा और सौतेला व्यवहार मिला है। लंबे समय से वे अपने लिए अलग केन्द्र शासित राज्य के दर्जे की मांग करते आए हैं। नए निर्णय से वे बहुत खुश हैं।
संसद में चर्चा के दौरान कुछ नेताओं ने फैसले वालेे दिन को ‘कश्मीर के लिए काला दिन’ करार दिया। जबकि देखा जाए तो जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए काला दिन वह था जब 1954 में अनुच्छेद 35 ए लागू किया गया था। जम्मू-कश्मीर के इतिहास का वह कालखंड भी स्याह था जब 1989 में शांत प्रकृति वाले, अर्थव्यवस्था को समृद्ध करने वाले कश्मीरी हिन्दुओं को सिर्फ हिंदू होने के कारण बंदूक की नोंक पर आतंकित कर घाटी से जबरदस्ती बाहर निकाल दिया गया। अनुच्छेद 35 ए की समाप्ति और 370 पर इसका परिणामकारी प्रभाव सिर्फ उन लोगों के लिए काला होगा जो इस्लाम के नाम पर वंशवाद की राजनीति, गैरकानूनी गतिविधियों को संरक्षण देने और व्यवसायीकरण में लिप्त हैं।
भाजपा की अगुआई वाली मौजूदा केन्द्र सरकार को इस संवैधानिक विसंगति को दूर करने के लिए कदम उठाना ही था, क्योंकि लंबे समय से इसकी प्रतीक्षा थी और सरकार जम्मू-कश्मीर राज्य के इस अस्थायी प्रावधान के बारे में हमेशा अपनी दलील रखती आई थी। भारतीय जनसंघ, जो बाद में भाजपा बनी, के संस्थापक डॉ़ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर के पूर्ण एकीकरण के लिए एक आंदोलन चलाया था जिसके लिए उन्हें जेल जाना पड़ा और जहां संदिग्ध हालात में उनकी मृत्यु हो गई। भाजपा ने चुनावी प्रचार में अपने मतदाताओं से वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह अनुच्छेद 370 खत्म कर देगी। भारत की जनता ने भाजपा को दिल खोल कर वोट दिया और सरकार ने उनके मजबूत जनादेश का पूरा मान करते हुए अपना वादा पूरा किया।
संघ का सतत प्रयास
1953 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक प्रस्ताव पारित किया था और जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद के नेतृत्व में जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ पूर्ण एकीकरण के लिए किए गए आंदोलन का समर्थन किया था। तभी से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कई बार प्रस्ताव पेश किए और अनुच्छेद 370 की विसंगतियों और उसके एक अस्थाई प्रावधान होने के संबंध में लोगों को जागरूक करने के लिए लगातार मुहिम चलाई। 2010 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अंतिम बार प्रस्ताव पेश किया जिसमें कहा गया था, ‘अनुच्छेद 370 हमारे संविधान में एक अस्थायी और अल्प अवधि वाले प्रावधान’ के रूप में शामिल किया गया था, पर लंबा समय बीत जाने के बाद भी वह खत्म नहीं हुआ, बल्कि अलगाववादियों की विषाक्त मंशा को तुष्ट करने का साधन बन गया है’।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर सांप्रदायिक एजेंडे का आरोप लगाकर उस पर हमेशा आलोचनाओं के तीर बरसाए गए हैं। लेकिन, भारतीय मुसलमानों के बारे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार क्या हैं, यह संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी के एक साक्षात्कार में स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुआ है, जो उन्होंने 1972 में वरिष्ठ पत्रकार सैफुद्दीन जिलानी को दिया था। पाठकों को उसकी जानकारी देने के लिए मैं यहां एक अंश प्रस्तुत करता हूं:-
”डॉ़ जिलानी: भारतीयकरण के बारे में बहुत कुछ कहा गया है और इस पर बहुत भ्रम पैदा हुआ है। क्या आप मुझे बता सकते हैं कि भ्रम को कैसे दूर किया जाए?
श्री गुरुजी: भारतीयकरण निश्चित रूप से जनसंघ का दिया नारा था। इसमें भ्रम कैसा? भारतीयकरण का अर्थ यह कतई नहीं है कि सभी लोगों को सनातन धर्म में मतांतरित किया जाए। हममें यह भाव जागना चाहिए कि हम सभी इस मिट्टी की संतान हैं। हमें इस देश के प्रति अपनी निष्ठा रखनी चाहिए। हम एक ही समाज के हैं और हमारे पूर्वज एक हैं। हमारी आकांक्षाएं भी एक समान हैं। इस बात को समझना ही सही मायने में भारतीयकरण है।
भारतीयकरण का मतलब यह नहीं है कि किसी को अपना पंथ छोड़ने के लिए कहा जाए। हमने न तो ऐसा कहा है, न ही कभी ऐसा कहेंगे। बल्कि हमारा यह मानना है कि संपूर्ण मानव समाज के लिए एक ही धर्म का पालन करना संभव नहीं’।
हाल ही में आयोजित एक व्याख्यान के दौरान सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने कहा, ‘संघ भाईचारे की भावना के लिए काम करता है और इस भाईचारे का एकमात्र आधार विविधता में एकता है। दुनिया इसे सनातन विचारधारा को हिंदुत्व कहती है। इसीलिए जब हम कहते हैं कि हमारा राष्ट्र एक हिंदू राष्ट्र है तो इसमें किसी भी तरह से यह संदेश नहीं जाता कि हमें मुसलमानों की जरूरत नहीं है। जिस दिन कोई यह कह दे कि यहां मुसलमानों के लिए जगह नहीं, उस दिन यह हिंदुत्व नहीं रहेगा’।
इस ऐतिहासिक निर्णय के दो सप्ताह के बाद मुझे अपनी नियमित यात्रा योजना के तहत जम्मू, श्रीनगर, कारगिल और लेह जाने और कुछ स्थानीय लोगों के साथ बातचीत करने का मौका मिला था। कारगिल और लेेह के लोग केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा पाकर बहुत खुश थे, कि उनकी लंबे समय से चली आ रही मांग पूरी हो गई। मैं जांस्कर घाटी के एक मुस्लिम वकील से मिला जो पहले पीडीपी पार्टी के साथ थे, जिन्हें लद्दाख के लिए केंद्र शासित प्रदेश की मांग का समर्थन करने के कारण निष्कासित कर दिया गया था। जम्मू और श्रीनगर में स्थानीय लोगों ने मुझसे एक सामान्य प्रश्न पूछा था कि जम्मू-कश्मीर को एक केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने के बजाय उसे जम्मू और कश्मीर दो अलग-अलग संघों में क्यों नहीं बांटा गया। मैंने उत्तर दिया कि यह भारत के मूल दर्शन के विरुद्ध और पाकिस्तानी विचारधारा के पक्ष में होता जो सोचता है कि हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते। भारत की मूल धारणा है सहोदर-सद्भाव, जो अक्षुण्ण और कालजयी है।

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