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इतिहास के पन्नों से

सम्राट ललितादित्य और कश्मीर

जवाहरलाल कौल

भारत और विशेषकर जम्मू कश्मीर के इतिहास में ललितादित्य का नाम उनकी शानदार विजय-यात्राओं के कारण प्रसिद्ध रहा है। कुछ लोग मार्तंड मंदिर के कारण भी उन्हें स्मरण करते हैं। लेकिन विकासमान भारत के संदर्भ में अगर वे किसी बात के लिए प्रासंगिक हैं तो उनकी विदेश नीति और अपनी समरनैतिक सूझबूझ के कारण ही हैं। यह हमारा दुर्भाग्य रहा है कि हम यह प्राय: भूलते रहे हैं कि इस विश्व में केवल हम ही नहीं रहते, और अनेक जातियां और उनके देश भी हैं जिनकी अपनी ही प्राथमिताएं होतीं हैं और जो हमारे प्रति उतने ही मित्रवत नहीं होंगे जितने हम उनके प्रति हैं। दूसरों की सम्पति, उनका धन, उनकी भूमि छीनने का मानव स्वभाव उसे पशु अवस्था से प्राप्त हुआ है। सभ्यता के विकास की लंबी यात्रा में कुछ ही देश सभ्यता के ऊंचे स्तर तक पहुंच जाते हैं, अधिसंख्य देश तो पाशविक संस्कारों से ही लिप्त रहते हैं और उनके लिए दूसरों की उपलब्धियों को नष्ट करना ही उपलब्धि होती है। हम किसी को नष्ट नहीं करेंगे, लेकिन इस से यह आश्वासन नही मिलता कि वे भी हमारे प्रति वैसा ही व्यवहार करेंगे। अपने आसपास के बारे में जानकारी रखने, उन का आकलन करने में अरुचि ने हमारे राजाओं में अपने आंगन से बाहर न झांकने का स्वभाव बनाया है और वह आजतक भी जारी है। इसका परिणाम यह निकला कि शत्रु को कम संख्या और कम शक्ति के बावजूद हमें परास्त करने और आहत करने का अवसर मिलता रहा है।

आधुनिक युग में केवल एक ही राजा ने समरनैतिक समझ का परिचय दिया और पंजाब और देश को बर्बर आक्रमणकारियों से एक शताब्दी तक सुरक्षित रखा। लेकिन देश की स्वतंत्रता के साथ ही हमने फिर वही राह पकड़ ली जिसमें नींद तब खुलती है, जब दुश्मन दरवाजा खटखटाने लगे। महाराजा रणजीत सिंह को पता था कि देश पर शत्रु कहां से आता है और क्यों आता है। उन्होंने तभी कदम उठाया जब जिरगे जुटने लगे। उन्हें ज्ञात था कि जिरगों के जुटने का क्या अर्थ होता है। समय की मांग थी कि पहल की जाए, हरिसिंह नलवा को आदेश हुआ कि जिरगों को तितर बितर कर दो। जिरगे बिखर गए और हिंदुस्तान पर हमला करने के मन्सूबे भी बिखर गए। वे तब तक बिखरे ही रहे जब तक स्वतंत्र भारत की कमजोर रग को उन्होंने पहचान न लिया और 1947 में कश्मीर पर चढाई का मौका न मिल गया। 19वीं सदी के राजा रणजीत सिंह से हजार साल पहले भारत के उत्तरी राज्य कश्मीर के राजा ललितादित्य मुक्तापीड ने समरनीति का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया था। यदि उसका अनुपालन किया गया होता तो भारत का इतिहास ही कुछ भिन्न होता। ललितादित्य आठवीं शती के आरंभ में कश्मीर के राजा थे। तब का कश्मीर आज के जम्मू-कश्मीर से काफी बड़ा था। राजा ललितादित्य की दृष्टि बहुत व्यापक थी। वे मानते थे कि भारतवर्ष की सुरक्षा उसमें रहने वाले राज्यों की सुरक्षा का आश्वासन है। इसलिए कश्मीर को विदेशी आक्रांताओं से बचाने के लिए भारत की सीमाओं का बचाव आवश्यक है। वे जानते थे कि इन सीमाओं को नहीं बचाया गया तो कोई भी राज्य नहीं बच सकता है, भले ही उसके पास कितनी ही बड़ी सेना क्यों न हो। उस काल में चीन में तान वंश का राज्य था। तब चीन में देश विदेश की घटनाओं के बारे में वृतांत लिखने की प्रथा थी। उन में ललितादित्य के बारे में लिखा मिलता है कि कश्मीर के राजा के राजदूत का कहना है कि उन्होंने आक्रमणकारियों के सभी द्वार बद कर दिए हैं। ये सारे दरवाजे देश की सीमाओं पर ही स्थित थे।

उन्हें चार दिशाओं से देश को विदेशी और विजातीय आक्रमणों का खतरा दिखाई देता था। उत्तर पश्चिम में आज के अफगानिस्तान के मार्ग से अरब, तुर्क, मध्य एशियाई जातियां लगातार भारत में प्रवेश करने का प्रयास कर रहीं थीं। यह दौर इस्लाम के फैलाव का दौर था। गांधार के आसपास तब हिंदू शाही राज्यवंशों का ही शासन था। लेकिन ये सभी राज्य ललितादित्य के अधीन थे। ललितादित्य इस बात से अनभिज्ञ नहीं थे कि धार्मिक उन्माद से प्रेरित आक्रमणकारी लगातार शक्ति अर्जित कर रहे हैं और कमजोर शाही वंशों पर कभी भी हावी हो सकते हैं। अरबों का दबाव दक्षिण और पश्चिम में अरब सागर से भी बढ़ रहा था। गांधार में हिंदू शाही राज्यों को सुरक्षित रखने के लिए राजा ललितादित्य ने हर चार-पांच वर्ष में गांधार में सेना सहित शक्ति प्रदर्शन करने का नियम बना लिया था ताकि शत्रु को इस बात का आभास हो जाए कि शाही वंशों को ललितादिलत्य का समर्थन प्राप्त है। अरब में उठने वाला तूफान ललितादित्य के शासनकाल में पश्चिमी सीमांत को कई बार प्रयास करने पर भी लांघ नहीं पाया। अरब सागर के रास्ते अरब सिंध पर अधिकार जमाना चाहते थे। बगदाद के खलीफा को राजा दाहिर के रूप में एक लक्ष्य मिल गया था। राजा दाहिर को यह अनुमान ही नहीं था कि वे केवल किसी लड़ाकू सरदार का ही नहीं, इस्लामी आंदोलन के मुखिया का सामना कर रहे थे। मोहम्मद बिन कासिम तो केवल उस का एक सेनापति भर था। बिना तैयारी के ही राजा दाहिर जंग में कूद पड़े। सिंध के अरबी में लिखे इतिहास के अनुसार यह भूल तो दाहिर के जंग में हारने के पश्चात हुई कि उसे राजा ललितादित्य को समय रहते सूचित करना चाहिए था। लेकिन दाहिर की इस आत्ममुग्ध होने की भूल से ललितादित्य सचेत हो गए। उसके पश्चात ललितादित्य ने पंजाब में अपनी सुरक्षा बढ़ा दी। कासिम के पश्चात सिंध के अरब गवर्नर जुनैद ने अपने राज्य को पंजाब की ओर बढ़ाने की कोशिश अवश्य की लेकिन उसे ललितादित्य की सेनाओं का सामना करना पड़ा। ललितादित्य के रहते अरब अपना अधिकार क्षेत्र सिंध के आगे नहीं ले जा सके।

कश्मीर की एक पुरानी समस्या रही है – उसका उत्तरी सीमांत जिसमें कई जनजातियां समय समय पर उपद्रव पर उतर आती रही हैं। इनमें खस, काम्बोज, दरद आदि जातियां महत्वपूर्ण रही हैं। इनको कभी तिब्बत उकसाता रहा है तो कभी चीन। कश्मीर के लिए दरदों का सांस्कृतिक महत्व सबसे अधिक रहा है। ललितादित्य ने बार-बार सेना लेकर पहाड़ों में युद्ध लडऩे के बदले सारे क्षेत्र को एक व्यापक संधि में बांधना उचित समझा। इतिहास में पहली बार किसी भारतीय राज्य और चीन के बीच एक समरनैतिक समझौता हुआ। यह समझौता दोनों पक्षों के परस्पर हितों के आधार पर किया गया था। चीन का तान वंश कमजोर पड़ गया था। लेकिन तिब्बत हावी हो रहा था। तिब्बत ने चीन के कई क्षेत्रों को कब्जा कर लिया था। ललितादित्य ने चीन के साथ समझौता कर लिया क्योंकि तिब्बत दरदों को कश्मीर के विरुद्ध उकसा रहा था। ललितादित्य ने स्वयं तो तिब्बत के क्षेत्र पर चढ़ाई कर ली लेकिन दरद क्षेत्र में चीनी सेना को तैनात किया गया। उन दिनों दरद क्षेत्र कश्मीर घाटी में वुल्लर झील के किनारे से आरम्भ होता था। चीनी सैनिक शिवर वुल्लर के किनारे पर ही लगा था। इस प्रकार सम्राट ललितादित्य ने तीन के साथ मिल कर देश तथा अपने राज्य के सीमाओं की रक्षा की।

ललितादित्य की एक असाधारण विशेषता थी कि वे मानते थे हर विजित क्षेत्र के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान किया जाना चाहिए।चाहे दरद देश हो या. केरल प्रदेश उन्होंने कश्मीरी विद्वानों को वहां स्थापित किया या वहां के विद्वानों को अपने राज्य में लाए। उन के प्रशासन में कई देशों के अधिकरी थे। उनकी अखिल भारतीय सोच ही उन्हें असाधारण व्यक्तित्व प्रदान करती है।

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