हैदराबाद सत्याग्रह के समय आर्य समाज ने उभारा था एक प्रखर राष्ट्रवादी आंदोलन

- (लेखक: स्व. वसंत ब. पोतदार)

महर्षि दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की. उनकी मातृभाषा
गुजराती थी, पर उन्होंने हिंदी भाषा का बहुत अध्ययन किया और आर्य समाज का भारत भर में
विस्तार किया. हिंदू समाज की दुर्बलताओं को देखकर महर्षि दयानंद सरस्वती बहुत परेशान रहते
थे. हिंदुओं की दीनहीन अवस्था देखकर वे बेचैन हो उठते थे. उन्होंने इस श्रद्धा के साथ अपना
काम शुरू किया कि सत्य का प्रभावी प्रकाश देने वाले वैदिक दर्शन के कार्यान्वयन के बिना देश
जीवित नहीं रह सकता है। आर्य समाज के कई अनुयायियों और कार्यकर्ताओं को तैयार किया।
वैदिक धर्म के प्रचार के लिए, हिंदुओं के मृतप्राय मन को पुनर्जीवित करने के लिए, पूरे भारत में
बुद्धिमान, विचारशील और प्रभावी वक्ताओं का एक बहुत बड़ा समूह तैयार किया जो जो सब
कुछ बलिदान करने और असीमित कष्ट झेलने के लिए तैयार था. आगे चलकर, इन्ही तेजस्वी
अनुयायियों ने गुरुकुल की स्थापना की। इस संस्था के स्कूलों से, एक आदर्श युवा पीढ़ी का

गठन किया गया था। गुरुकुल में शिक्षित एक छात्र पाँच से दस हजार लोगों में अलग और
तेजस्वी नजर आता था। उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि वे अपने मजबूत गठीला शरीर, तेजस्वी
चेहरा, वाणी में तेज और सामर्थ्य, और देश और वैदिक धर्म के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव के
साथ वे समाज को आसानी से प्रभावित कर पाते थे। गुरुकुल शिक्षा में असामान्य ओजस्वी
वक्तृत्व को प्राप्त करना एक बहुत बड़ी विशेषता थी।
आर्य समाज के प्रचार के लिए, गुरुकुल में ज्ञान प्राप्त करने के बाद बाहर निकलने वाले वक्ता
अपनी तेजस्वी वाणी से हजारों लोगों को मंत्रमुग्ध करने लगे। इसी कारण से, वैदिक धर्म पूरे
भारत में तेजी से फैलने लगा।

हैदराबाद राज्य में सन 1920 में आर्य समाज की स्थापना हुई । अगले दो-तीन सालों में
ही व्यवस्थित ढंग से काम करने वाली लगभग दो सौ शाखाएँ खुल गईं। निज़ामी राज्य में
हैदराबाद के बै. विनायकराव कोरटकर आर्य समाज के अध्यक्ष थे । बंसीलालजी मुख्यमंत्री थे।
उन्होंने उदगीर में अपना मुख्य कार्यालय खोला । उन्होंने “वैदिक संदेश” नामक वृत्तपत्र सोलापुर
से प्रकाशित करना शुरू किया ।
“वैदिक संदेश” को निज़ाम स्टेट में सभी दूर पहुँचाने की व्यवस्था की । यह अत्यंत
अनुशासनप्रिय और ध्येयवादी संगठन था । मातृभूमि के प्रति निश्चल प्रेम और अपने धर्म पर

प्रगाढ़ निष्ठा, इन दो मानबिंदुओं के लिए हर आर्य समाजी अपनी जान की भी बाजी लगाने को
तैयार रहता था ।
हैदराबाद राज्य के बहुसंख्यक समाज का कोई रखवाला नहीं था । उलटे हिंदुओं को
समाप्त करने के लिए खाकसार पार्टी, निज़ाम सेना, इत्तेहादुल संगठन, दीनदार सिद्दीक़ के
धर्मप्रचारक अनुयायी, सबने कोहराम मचा रखा था । सब समझ चुके थे कि इन सबका प्रतिकार
करने वाला, हिंदुओ का एकमात्र संगठन आर्य समाज ही है । उत्तर भारत से सैंकड़ों आर्य समाजी
कार्यकर्ता अपनी जान की परवाह किये बिना, निजाम राज्य में चले आये । विशेषकर मराठवाडा
में कई आर्य समाजी नेता और कार्यकर्ता निजाम के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार हो गए ।
2/9/1929 को “दीनदार सिद्दीक़ पार्टी” नामक इस्लाम धर्म प्रसारक संस्था की स्थापना
हैदराबाद राज्य में हुई । दीनदार सिद्दीक़ स्वयं को चन्न बसवेश्वर का अवतार बताते थे, और
कहते थे कि भगवान् बसवेश्वर के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए ही इस्लाम धर्म है । इस
प्रकार गुमराह करके दीनदार सिद्दीक़ और उनके अनुयायियों ने हिंदुओं को इस्लाम धर्म में
परिवर्तित करना शुरू किया । अपने प्रचार-प्रसार में वे राम और कृष्ण जैसे हिंदुओं के भगवानों
का अपमान करते और इस्लाम को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्म बताते । 1929 में आर्य समाजी
आंदोलन में भी तेज़ी आयी । 1930 में हैदराबाद राज्य के प्रत्येक जिले में आर्य समाज का
संगठन खड़ा होने लगा । उद्गीर के भाई बंसीलाल और श्यामलाल, इन दोनों बंधुओं ने राज्य में
भरपूर कार्य किया । हिंदु समाज में फैली कमजोरी और हीनभावना को नष्ट कर, उसे पूरे
स्वाभिमान और गर्व से जीना आर्य समाज के कार्यकर्ताओं, बै. विनायकरावजी विद्यालंकार, पं.
नरेंद्र जी आर्य आदि ने सिखाया । अपने राज्य में आर्य समाज के बढ़ते प्रभाव को देख कर
निजाम की वक्रदृष्टि आर्य समाज पर पड़ी । 1935 में निलंगा में सरकार ने अपने गुंडों के
माध्यम से एक हवनकुंड और एक आर्य समाज मंदिर ध्वस्त कर दिया । किसी के हाथ में
“सत्यार्थ प्रकाश” पुस्तक देखते ही निजामी पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती । निलंगा की घटना
से शेषरावजी वाघमारे (पिताजी – आनंद मुनिजी) और उनके सहयोगी कार्यकर्ताओं के क्रोध की
सीमा न रही । शेषरावजी निर्भीक, साहसी, संगठन-कुशल और बुद्धिमान नेता थे । उन्होंने इस
अत्याचार का बदला लेने के लिए हजारों लोगों को गाँव-गाँव में, शस्त्रों से सुसज्जित आर्य समाज
का संगठन स्थापित करने के लिए प्रेरित किया । भाई बंसीलाल जी, श्याम लाल जी, शेषराव
जी, दत्तात्रेय प्रसाद, गोपाल देव शास्त्री आदि आर्य समाजी कार्यकर्ताओं ने गांव-गांव घूम कर
हिंदुओं को वैदिक धर्म के ध्वज तले हथियारों समेत एकत्रित किया। अनगिनत गांवों में आर्य
समाज मंदिर स्थापित हुए। इत्तेहादुल पार्टी या रजाकार की ओर से आक्रमण होने का कोई भी
अंदेशा होता, तो आर्य समाज मंदिर की घंटियां बजने लगती । घंटियों की आवाज सुन घर-घर से
पुरुष और 18-20 साल के लड़के लाठियां, कुल्हाड़ी, भाले, बरछियाँ, तलवारें, बंदूके आदि लेकर
आर्य समाज मंदिर की ओर दौड़ पड़ते । 5-10 मिनट में ही सभी, पूरे अनुशासित तरीके से

मुकाबले के लिए तैयार हो जाते। खाकसार पार्टी, दीनदार सिद्दीक़ पार्टी, इत्तेहादुल संगठन और
रज़ाकार के पीछे सरकार थी । इसलिए वे सभी हिंदुओं के खिलाफ बेरोकटोक हिंसा कर रहे थे ।
हिंदू व्यक्ति यदि किसी रोहिले या पठान को गलती से भी कुछ कह दे तो वे तुरंत पिस्तौल
निकाल लेते और जान से मार डालने की धमकी देते ।

हिंदुओं के जबरन धर्मांतरण का काम पूरे ज़ोरों से चल रहा था । इस काम को
सरकार का पूरा प्रोत्साहन और सहायता थी । सरकार की ओर से इसी काम के लिए तीन सौ से
ज्यादा मौलवी वेतन पर रखे गए थे । इस मुहीम को “तबलीत” या “तंज़ीम” कहा जाता था ।
निजाम ने वेतनभोगी मौलवियों को नियुक्त किया था और हिंदू-मुसलमानों में शांति बनाये रखने
के लिए “अमन कमिटियाँ” बनाई थी । ये मौलवी उन कमिटियों में काम करते थे । ये अमन
कमिटियाँ सिर्फ दिखावे के लिए थी । ये वेतनभोगी मौलवी अस्पृश्यों की बस्तियों में घूम-घूम
कर उन्हें हिंदुओं के खिलाफ बगावत करने के लिए भड़काते थे । ये मौलवी मुस्लिम गुंडों को भी
भड़काते । ये गुंडे खुराफात कर के दंगे भड़काते और सरकारी नौकर उनको बचाते ।

उदाहरण के लिए, तालुका कलंब में अंदुर गाँव में एक खटीक, गाय को काटकर
उसका माँस बेचने के लिए बाजार में सड़क पर ही बैठ गया । हिंदुओं ने इस पर आपत्ति ली ।
उससे कहा – “चाहो तो अपने घर में तुम गोमाँस बेचो, लेकिन यहाँ बीच सड़क पर मत बैठो ।”
पुलिस हवलदार ने ही फौजदार से उसकी तकरार की । लेकिन फौजदार साहब ने तो हद ही कर
दी !! वे खुद उस गाँव में पहुँचे और उस खटीक को सड़क से उठाकर हनुमान मंदिर की चौपाल
पर बैठा दिया । हिंदू और क्रोधित हो गए और दंगा भड़कने के आसार नज़र आने लगे । तब
फौजदार साहब ने उसे चौपाल से उठाकर मंदिर के सामने बैठा दिया । ऐसे थे वहाँ के सरकारी
अधिकारी !!
ऐसी घटनाओं से आर्य समाज के लोग और संगठित होते गए । साथ ही इत्तेहादुल पार्टी और
मुस्लिम गुंडे और भी भड़क उठे । 1938 में गुंजोटी में वेदप्रकाश का खून हो गया । वेदप्रकाश
की हत्या का समाचार पाते ही भाई बंसीलाल और वीरभद्र जी आर्य तुरंत गुंजोटी पहुँचे । पुलिस
ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया ।
वेदप्रकाश का खून हैदराबाद मुक्ति संग्राम का पहला बलिदान था । उसके बाद भाई
श्यामलाल जी को ख़राब खाना और पानी देकर प्रताड़ित किया गया । बीमार होने के बाद भी
दवाखाने में नहीं ले जाया गया । अंततः जेल में ही उन्हें जहर देकर मार दिया गया ।
हैदराबाद राज्य में 1938-39, इन दो सालों में शहर में हजारों की संख्या में आर्य समाजी
लोगों ने सत्याग्रह किया । सोलापुर में माधवराव अणे की अध्यक्षता में एक परिषद् आयोजित
की गई ताकी इस सत्याग्रह को हिंदुस्तान की जनता का भी समर्थन मिल सके । इस परिषद् में

“हैदराबाद विरोध दिवस” मनाने का प्रस्ताव पारित किया गया । सारे हिंदुस्थान भर में “हैदराबाद
विरोध दिवस” का माहौल बनने लगा । भारत भर से कई आर्य समाजी सत्याग्रह में भाग लेने के
लिए हैदराबाद स्टेट पहुँचने लगे । सोलापुर, राजस्थान, दिल्ली, नागपुर, उत्तर प्रदेश, रावलपिंडी से
हजारों कार्यकर्ता हैदराबाद में दाखिल हुए । अनगिनत सत्याग्रहियों को जेलों में ठूंस दिया गया ।
कईयों को पीटा गया । ख़राब खाना और पानी देने के कारण कई सत्याग्रही बीमार पड़ गए ।
उसमें भी हद तो तब हो गई, जब इत्तेहादुल संगठन के गुंडे जेलों में घुस कर पुलिस के सामने,
सत्याग्रहियों को बेरहमी से मारने-पीटने लगे । इस अत्याचार में एक कार्यकर्ता सदाशिव
विश्वनाथ पाठक की 12-08-1939 को हैदराबाद जेल में मृत्यु हो गई । राजस्थान के स्वामी
ब्रह्मानंद जी का भी चंचलगुडा जेल में निधन हो गया । दिल्ली के शांति प्रकाश जी की भी
हैदराबाद जेल में 27-07-1939 को मृत्यु हो गई । नागपुर के पुरुषोत्तम प्रभाकर की 16-12-
1938 को हैदराबाद जेल में, उत्तर प्रदेश के माखन सिंह की 01-07-1939 को हैदराबाद जेल में,
रावलपिंडी के पंडित परमानंद जी की 05-04-1939 को हैदराबाद जेल में, उत्तर प्रदेश के स्वामी
कल्याणानंद जी की 08-07-1939 को गुलबर्गा जेल में, बैंगलोर के स्वामी सत्यानंद जी की
को चंचलगुडा जेल में, विष्णु भगवंत अंदुरकर की 02-05-1939 को चंचलगुडा जेल में, व्यंकटराव
कंधारकर की 09-04-1939 को निजामाबाद जेल में मृत्यु हुई । कुल 23 लोगों ने इस आंदोलन
के दौरान जेल में अपने प्राणों की आहुति दी ।
उमरी, जिला नांदेड में गणपतराव, गंगाराम और दत्तात्रेय इन तीन आर्य समाजी प्रचारकों
को पठानों ने पत्थरों से पीट-पीट कर मार डाला ।
1942 में उद्गीर में बै. विनायकराव जी विद्यालंकार की अध्यक्षता में एक परिषद् हुई ।
इस परिषद् में निजामी पुलिस, रज़ाकारों और अमानवीय अत्याचार करने वाले सभी घटकों को
चेतावनी दी गई । तब पुलिस और मुस्लिम संगठनों की ओर से हिंदुओं के घरों और दुकानों पर
ज़ोरदार हमले किये गए । हुमनाबाद में एक जुलुस पर पुलिस ने गोलियाँ चलाई जिससे 5 लोग
मारे गए ।

1943 में निज़ामाबाद में फिर एक बार आर्य समाज की परिषद हुई । आर्य
समाज के लिए काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति की देश, धर्म और ध्येय पर निष्ठा और व्यवहार
पूरी तरह से अनुशासनपूर्ण था । इस परिषद् में पच्चीस हज़ार सैनिकों का एक दल स्थापित
करने का निर्णय हुआ । साथ ही, यह भी निर्णय हुआ कि कई स्थानों पर पाठशालाएँ खोलकर
देश से प्रेम करने वाले, निष्ठावान, ऊर्जावान और अनुशासनपूर्ण युवाओं का निर्माण किया जाये ।
निज़ाम सरकार ने आर्य समाज की दीक्षा ले चुके सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों को
निकाल देने का फरमान जारी किया । इतना ही नहीं, यहां तक कि अगर कोई सरकारी कर्मचारी
किसी आर्य समाजी से बात करता हुआ दिख जाए, तब भी उसे नौकरी से निकाल देने के आदेश

जारी कर दिए गए थे । कुल मिलाकर निजाम सरकार का आर्य समाज के लोगों के बारे में
अत्यंत सख्त रवैया हो चुका था ।
लातूर के एक नवविवाहित जोड़े को बार-बार पुलिस थाने में बुलाया जाता था । यह युगल
पूरी तरह से त्रस्त हो चुका था । पुलिस के की परेशानी से मुक्ति के लिए कोई उनकी मदद
करने की स्थिति में नहीं था । ऐसे में किसी ने उन्हें “आर्य समाजी” हो जाने की सलाह दी । इ वे
आर्य समाजी बन गए । आश्चर्य की बात यह कि, सचमुच ही उस दिन के बाद से किसी भी
पुलिस वाले ने उन्हें कभी परेशान नहीं किया । उन्हें बुलाने कोई पुलिस का जवान उसके बाद
कभी नहीं आया ।
1924 में उस्मानाबाद जिले में आर्य समाज की स्थापना की गई । केशवराव कोरटकर,
अघोरनाथ चट्टोपाध्याय, श्रीपादराव सातवलेकर आदि के नेतृत्व में उस्मानाबाद जिले में कई
स्थानों पर आर्य समाज का संगठन खड़ा होने लगा । कई स्थानों पर आर्य समाज मंदिर खोले
गए । बापूराव मास्टर, रामभाऊ मैंदरकर, तुलजाराम सुरवसे ने मिलकर उस्मानाबाद जिले में आर्य
समाज के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक कामों में अच्छी तेजी लायी । इनके साथ सन्मित्र
समाज के दत्तोपंत जिंतूरकर, बलभीमराव हिंगे, ज्ञानराव सालुंके, डांगे, देवीदास मुरूमकर,
पुरुषोत्तमराव माशालकर आदि कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्रता संग्राम की तैयारी की दृष्टि से एक
व्यायामशाला प्रारंभ कर बल की उपासना की शुरु की । महाराष्ट्र समाज के कार्यकर्ता द. या.
गणेश, न.प. मालखरे, शंकर नायगांवकर, चंदूलाल गांधी, सुपेकर, जिंतुरकर, आदियों ने गांव-गांव
जाकर जनजागृति का कार्य किया और स्वयं सत्याग्रह में भाग लिया । उन्हें सजा भी हुई।
इसी दौरान सोलापुर में दयानंद कॉलेज की स्थापना हुई । मराठवाड़ा के लोगों के
लिए सोलापुर, हैदराबाद की तुलना में शिक्षा और आर्थिक दृष्टि से ज्यादा सुलभ था । इसलिए
दयानंद कॉलेज में छात्रों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी। अंग्रेजों और निजामशाही के खिलाफ शुरू
किए गए स्वतंत्रता संग्राम के लिए युवकों को प्रेरणा देने का कार्य इसी कॉलेज ने किया । यह
बात एक खुल्ला सत्य है। कॉलेज के विद्यार्थी आर्य समाज के विचारों से प्रभावित होकर निजाम
के विरुद्ध सत्याग्रह और वंदे मातरम सत्याग्रह में पूरे जोर-शोर से भाग लेने लगे । दयानंद
कॉलेज में मराठवाड़ा से आए हुए विद्यार्थियों ने हैदराबाद स्टूडेंट यूनियन की स्थापना की। इस
यूनियन के तत्वावधान में कॉलेज प्रांगण में विनायकराव जी विद्यालंकार, पंडित नरेंद्र जी, भाई
बंसीलाल जी जैसे आर्य समाज के नेताओं के भाषण होने लगे । गांधी जी के कहने पर “कॉलेज
छोड़ो आंदोलन” को उग्र रूप प्राप्त हुआ और विद्यार्थी तेज़ी से कॉलेज छोड़कर जाने लगे ।
उस्मानाबाद जिले की सीमा पर लगे हर शिविर में दयानंद कॉलेज के विद्यार्थी हर काम में आगे
थे । “पहले स्वराज फिर शिक्षा” के अपने ध्येय को हैदराबाद राज्य में फैलाने और हैदराबाद शहर
तक पहुंचाने के लिए, दयानंद कॉलेज के विद्यार्थी पहुंचे । कॉलेज के तत्कालीन प्राचार्य श्रीराम
शर्मा जी, जो एक विख्यात इतिहासकार थे, ने विद्यार्थियों को देशप्रेम और धर्मप्रेम की शिक्षा तो

दी ही, साथ ही अन्याय के विरुद्ध लड़ने की शक्ति भी दी । विद्यार्थियों को निर्भय बनाया।
दयानंद कॉलेज क्रांति के लिए शस्त्र और प्रेरणा प्रदान वाला एक असीमित भंडार बन गया था ।
हर छोटे-बड़े गांव में आर्य समाज की स्थापना हो चुकी थी और उसका काम बढ़
रहा था। इसके कारण दीनदार सिद्दिक संगठन का प्रभाव कम होने लगा । मुरूम (तालुका
उमरगा) में आर्य समाज की स्थापना हुई, तब निजाम ने वहां 200 फौजी जवानों की एक टुकड़ी
भेजी तैनात की । फ़ौज की मदद से दीनदार सिद्दीक पार्टी और खाकसार पार्टी अपना कार्य
करने लगी। आष्टा (कासार) में सिद्दीकी के भाषण से लोग भड़क उठे, क्योंकि भाषण के पहले
सिद्दीक पार्टी के लोग मस्जिद में एक गाय लेकर आये थे । श्याम लाल जी को यह समाचार
मिलते ही वे आष्टा (कासार) में पहुंचे । उन्होंने आष्टा (कासार), मुरूम आदि गांव में भाषण देकर
हिंदुओं को आर्य समाज की दीक्षा दी और उन्हें यज्ञोपवित पहनाया । आर्य समाज का आंदोलन
हैदराबाद स्टेट की सीमा तक पहुंचा हुआ देखकर निजाम ने फौज का खर्चा भी हिंदुओं पर लाद
दिया। इससे असंतोष और भी बढ़ने लगा । सर अकबर हैदरी उस समय निजाम के प्रधान थे ।
अनंतराव काका (आष्टा कासार), राम पांढरे, और करबसप्पा ब्याले, यह सभी लोग हैदराबाद
जाकर हैदरी साहब से मिले। सभी ने मिलकर हैदरी साहब को अनुरोध किया कि यह सारा खर्च
हिंदु प्रजा पर लादना अन्यायपूर्ण है और उसे हटा दिया जाए। तब हैदरी साहब ने यह खर्च हिंदुओं
और मुसलमानों पर एक समान कर दिया । लेकिन प्रजा के द्वारा फ़ौज का खर्च उठाना
अन्यायपूर्ण ही था और यह चलता रहा । सोलापुर से प्रकाशित होने वाले “वैदिक संदेश” और
“सुदर्शन”, इन दो आर्य समाजी मुखपत्रों के माध्यम से, संग्राम की सारी जानकारी, आगामी
कार्यक्रम और सूचनाएं लोगों तक पहुंचने लगे । “वैदिक संदेश” ने तो “निजाम सरकार के काले
कानून” नामक पुस्तक भी प्रकाशित की ।
हैदराबाद स्टेट में उस्मानाबाद जिले के कुल 13 लोगों पर भाषण और लेख लिखने पर प्रतिबंध
लगाया गया था । इन 13 लोगों के नाम पूरे राज्य में जारी किए गए थे । इस सूची में राम
पांढरे (मुरुम) का भी नाम था । इन 13 व्यक्तियों को “नागवार बागी” करार दे कर निज़ाम
सरकार ने नोटिस भेजी थी ।
हुतात्मा रामा मांग
तावशी, ता. लोहारा (पायगा) में रामा मांग नामक व्यक्ति ने आर्य समाज की दीक्षा ली थी।
1932 में तावशी में एक हिंदू मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने की कोशिश की जा रही थी । तब
क्रोधित आर्य समाजी लोगों ने मस्जिद के चबूतरे को तोड़ दिया । फिर तावशी के रज़ाकार,
आसपास के गांव में जाकर दो ट्रक भरकर सशस्त्र पठान और अरबी लोगों को बुलाकर लाये ।
ये सभी – “अब देखते हैं , किसमें हिम्मत है हमें रोकने की ?” और “अल्ला हू अकबर” चिल्लाते
हुए मंदिर को तोड़ने के लिए निकले । इतने सारे सशस्त्र पठानों और अरबों को देखकर सभी

हिंदू चुपचाप खड़े रहे । लेकिन तभी जोर से आवाज आयी – “मैं तैयार हूं…. तुम लोगों से
मुकाबला करने के लिए !! मंदिर की एक ईट को भी किसी ने हाथ लगाया, तो एक-एक के सर
काट दूंगा !!” यह आवाज़ थी , रामा मांग की !! वह अकेला ही था, लेकिन बहुत बलशाली था।
रामा को आगे आते हुए देखकर एक पठान ने उस पर गोली चलाई। गोली उसकी जांघ में घुस
गई । उसी अवस्था में रामा मांग अरबों और पठानों की भीड़ पर टूट पड़ा । पहले ही झटके में
उसने चार पठान और एक अरब को नरक पहुँचा दिया । एक पठान के हाथ से बंदूक छीन कर
उसने चार और पठानों और एक अरब के सर फोड़ दिए । एक पठान के हाथ का तमंचा उसने
छीन लिया । रामा मांग का वो आवेश देखकर, पठानों और अरबों ने वहाँ से भाग जाने में ही
अपनी भलाई समझी । लोग रामा मांग को तुलजापुर ले गए और फिर वहां से उसे उस्मानाबाद
ले जाया गया । जांघ में लगी गोली के कारण अत्यधिक रक्त बह गया था और वह बेहोश हो
गया था । अंततः उस्मानाबाद के अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गई ।

आर्य समाज की एक शाखा के अध्यक्ष माणिकराव पर गुंडों ने हमला कर उन्हें
जख्मी कर दिया । 27 अक्टूबर 1938 को अस्पताल में उनका निधन हो गया । पुलिस ने उनके
शव को उनके घरवालों को देने से इंकार कर दिया । तब आर्य समाजी युवकों ने इसके विरोध में
जुलूस निकाला । पुलिस ने पं. देवीलाल और अन्य 20 आर्य समाजी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार
कर लिया ।

इस प्रकार निजाम ने हर तरह से आर्य समाजी कार्यकर्ताओं पर अत्याचार किए।
आर्य समाज पर निजाम को अत्यंत क्रोध था । हिंदुओं का संगठन करने वाले आर्य समाज के
आंदोलन को कुचलने के लिए उसने हर संभव मार्ग अपनाया । लेकिन उसकी प्रतिक्रिया आर्य
समाज की शाखाएं दुगनी होने में नजर आने लगी । आर्य समाज ने न केवल हिंदुओं का संगठन
किया, बल्कि जन्मजात मुसलमानों को भी वैदिक पद्धति से दीक्षा देकर उनका शुद्धिकरण का
कार्य अत्यंत द्रुतगति से जारी रखा । अनेक अस्पृश्यों को आर्य समाज में स्थान देकर उनके मन
में हिंदूधर्म और हिंदूराष्ट्र के प्रति प्रेम और स्वाभिमान पैदा किया । आर्य समाज द्वारा हैदराबाद
स्टेट में किया गया यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण और बहुमूल्य है । आर्य समाज संगठन के
कारण ही हैदराबाद स्टेट कांग्रेस मजबूती से खड़ी हो सकी ।
(मराठी ग्रंथ – “हैदराबाद स्वातंत्र्य संग्राम” से साभार)

(हिंदी अनुवाद – अमोल दामले, पुणे)

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