लम्हों ने खता की थी और सदियों ने सजा पाई

विजय कुमार

उर्दू कवि मुजफ्फर रजमी की निम्न पंक्तियां बहुत प्रसिद्ध हैं, जिन्हें लोग बातचीत में प्राय: उद्धृत करते हैं –

ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने

लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई।

जब-जब जम्मू-कश्मीर की वर्तमान दुर्दशा की चर्चा होगी, तब-तब इन पंक्तियों की सार्थकता दिखाई देगी। लोग इन गलतियों की चर्चा करते समय मुख्यत: 1947 के बाद जवाहर लाल नेहरू का नाम लेते हैं। नि:संदेह उनकी भूल का खामियाजा देश अब तक भुगत रहा है और न जाने कब तक भुगतेगा; लेकिन इतिहास पर दृष्टि डालें, तो 1947 से पहले की भूल और गलतियों के प्रसंग भी कम नहीं हैं। 724 से 761 ई. तक कश्मीर में राज्य करने वाले प्रतापी सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ ने अपने मंत्रिमंडल में एक तुर्क को भी रखा था। पता नहीं उस विदेशी में उन्हें क्या विशेषता दिखाई दी थी ? उनकी मृत्यु के बाद कश्मीर में अनेक शासक हुए, इनमें रानी दिद्दा का नाम उल्लेखनीय है। वह कुशल, चालाक और क्रूर भी थी। उसने अपने पौत्र भीमगुप्त को भी जेल में डाल दिया था, जहां उसकी मृत्यु हो गयी। दिद्दा के बाद उसका भानजा संग्रामराज तथा फिर संग्रामराज का पुत्र हर्ष राजा बना। कविताप्रेमी हर्ष कविता लिखने और सुनने में ही व्यस्त रहता था। ऐसे में राजकाज भला कैसे होता ? उसने अपनी सेना में हर सौ सैनिकों के ऊपर एक मुसलमान अधिकारी नियुक्त किया था। कश्मीर में अपना प्रभाव बढ़ाने को आतुर मुसलमानों ने इसका भरपूर लाभ उठाया। अफगानिस्तान की ओर से मुसलमानों के दल कश्मीर में आने लगे और धर्मान्तरण का क्रम चालू हो गया। हर्ष के बाद अगले 150 वर्ष तक उसके सभी उत्तराधिकारी नाममात्र के राजा थे। वस्तुत: उन्हें मुसलमान सेनाधिकारियों से दब कर ही रहना पड़ता था। 1301 ई. में सहदेव नामक राजा ने प्रशासन के प्रमुख पदों पर भी विदेशियों को नियुक्त कर दिया। इस दौरान तातार सरदार डुलचू ने कश्मीर पर आक्रमण किया। युद्ध करने की बजाय कायर सहदेव भाग खड़ा हुआ। इससे सेना और जनता हतोत्साहित हो गयी। इसका लाभ उठाकर डुलचू ने कश्मीर में भयानक नरसंहार किया। सहदेव की सेना में तिब्बत से आया एक बौद्ध सेनानी रिंचेन भी था। राजा को भागता देख पहले तो वह भी भाग गया; पर डुलचू के लौट जाने पर वह वापस आकर कश्मीर का शासक बन गया।

कश्मीर के इतिहास में एक कूटनीतिज्ञ महिला कोटारानी की भी चर्चा होती है। राजा बनने के बाद रिंचेन ने कोटारानी से विवाह कर लिया। यद्यपि रिंचेन ने ही कोटारानी के पिता की हत्या की थी; पर कश्मीर के हित में कोटारानी उसकी पत्नी बन गयी। उसके आग्रह पर रिंचेन सनातन हिन्दू धर्म स्वीकार करने को तैयार हो गया; पर कुछ मूर्ख कश्मीरी पंडित इसमें बाधक बन गये। यदि वे यह बात मान लेते, तो कश्मीर का इतिहास कुछ और ही होता। उनकी जिद से नाराज होकर रिंचेन मुसलमान बन गया और उसने अपना नाम मलिक सदरुद्दीन रख लिया। इस प्रकार वह मलिक सदरुद्दीन कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक हुआ।

1323 ई. में सदरुद्दीन की मृत्यु के समय उसका बेटा हैदर बहुत छोटा था। अत: दरबारियों ने सहदेव के छोटे भाई उद्यानदेव को राजा बना दिया। वह भी अपने भाई जैसा ही कायर और आलसी था। उसने राजा बनकर कोटारानी से विवाह कर लिया। उसकी निष्क्रियता के कारण शासन के सारे सूत्र कोटारानी और शाहमीर नामक एक प्रमुख अधिकारी ने अपने हाथ में ले लिये।

1338 ई. में उद्यानदेव की मृत्यु के बाद सत्ता पूरी तरह शाहमीर ने ही हथिया ली। कोटारानी को अपने पक्ष में रखने के लिए उसने उससे निकाह करना चाहा। कोटारानी ने अपने वस्त्रों में एक कटार छिपाई और शृंगार कर उसके पास गयी; पर जैसे ही शाहमीर ने उसे आलिंगन में लेना चाहा, कोटारानी ने अपने पेट में कटार भोंककर आत्मघात कर लिया।

इसके बाद तो शाहमीर सर्वेसर्वा हो गया। उसने खुरासान, तुर्किस्तान आदि से तबलीगियों के दल बुलाकर कश्मीर का भारी इस्लामीकरण किया। इनमें से एक सैयद ताजुद्दीन ने गरीब ब्राह्मणों को आर्थिक सहायता दी तथा अपने विद्यालयों में अध्यापक बनाकर ‘मुस्लिम ब्राह्मण’ नामक एक नया वर्ग पैदा कर दिया। काश ! ललितादित्य, हर्ष और सहदेव आदि ने अपनी सेना तथा प्रशासन में विदेशी मुसलमानों को न रखा होता। काश ! रिंचेन को हिन्दू धर्म स्वीकार करने की अनुमति मिल गयी होती। काश ! कोटारानी ने अपनी बजाय शाहमीर के पेट में कटार घुसेड़ दी होती। काश ! वे ब्राह्मण लालच में न आये होते; पर इतिहास ऐसे निर्मम प्रश्नों के उत्तर नहीं देता। कुछ मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं को भी शासन में महत्वपूर्ण पद दिये; पर उनकी स्थिति सदा दूसरे दर्जे की ही रहती थी। शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न से त्रस्त होकर राज्य के एक प्रमुख अधिकारी पंडित वीरबल धर और उनके पुत्र राजा काक जम्मू में जाकर राजा गुलाबसिंह से और फिर पंजाब में राजा रणजीत सिंह से मिले। उनकी व्यथा सुनकर राजा रणजीत सिंह ने अपने 30,000 सैनिक वीर हरि सिंह नलवा के साथ भेज दिये। इन्होंने जम्मू के तत्कालीन प्रशासक राजा गुलाबसिंह के नेतृत्व में युद्ध कर तत्कालीन शासक आजम खां को भागने पर मजबूर कर दिया। इस प्रकार 20 जून, 1819 को कश्मीर पर राजा गुलाब सिंह का अधिकार हो गया। हिन्दू सैनिकों को मुसलमानों द्वारा किये गये अत्याचारों का पता था। अत: वे भी क्रोध में आकर मुसलमानों को लूटने लगे। जब वे कश्मीर में इस्लामीकरण के पुरोधा शाह हमदान की कब्र तोड़ने लगे, तो उन्हीं वीरबल धर ने उन्हें रोक दिया, जिनके सैकड़ों पुरखे और रिश्तेदार मारे और धर्मान्तरित किये गये थे। वीर सावरकर ने ऐसे ही प्रसंगों के लिए ‘सद्गुण विकृति’ शब्द प्रयोग किया है।

राजा रणजीत सिंह के देहांत के बाद सिख सरदारों के आपसी संघर्ष के कारण पंजाब पर सिखों की पकड़ ढीली पड़ गयी। इधर अंग्रेजों का प्रभाव लगातार बढ़ रहा था। ऐसे में जम्मू के राजा गुलाब सिंह ने 75 लाख रुपये अंग्रेजों को देकर पूरा जम्मू, कश्मीर तथा लद्दाख अपने अधीन कर लिया। गुलाब सिंह के पुत्र राजा रणवीर सिंह का कार्यकाल 1857 से 1885 ई. तक रहा। उनके समय का एक प्रसंग यहां उल्लेखनीय है। राजा गुलाब सिंह के समय में हिन्दू मंदिरों एवं तीर्थों का पुनरुद्धार हुआ। हिन्दुओं का मान-सम्मान फिर से बढ़ने लगा। रणवीर सिंह ने इसकी गति बढ़ाते हुए संस्कृत के पठन-पाठन को प्रोत्साहन दिया तथा अनेक नये ग्रंथालयों का निर्माण किया। यह देखकर पुंछ, राजौरी और श्रीनगर क्षेत्र के अनेक प्रमुख मुसलमानों ने उनके पास आकर निवेदन किया कि उन्हें फिर से हिन्दू बनने की अनुमति दी जाए।

उन्होंने बताया कि उनके पुरखे अपनी जान तथा बहू-बेटियों की लाज बचाने के लिए मजबूरी में मुसलमान बने थे; पर अन्तर्मन से वे हिन्दू ही रहे। उनके घरों में अनेक ताम्रपत्र सुरक्षित थे, जिन पर उनके पूर्वजों ने यह व्यथा-कथा लिखते हुए अपने वंशजों को निर्देश दिया था कि इस अत्याचारी मुस्लिम राज्य की समाप्ति और हिन्दू राज्य की स्थापना के बाद वे फिर से हिन्दू बन जाएं। ऐसे अनेक ताम्रपत्र लेकर वे राजा रणवीर सिंह के पास आये थे।

राजा को इससे बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने राज्य के पंडितों से बात की; पर हिन्दुओं और देश के दुर्भाग्य ने यहां भी पीछा नहीं छोड़ा। सरकारी सुख-सुविधाओं की मलाई खा रहे उन पंडितों ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। उन्होंने कहा, ”महाराज, जैसे दही को फिर से दूध नहीं बनाया जा सकता, ऐसे ही एक बार मुसलमान बन चुका व्यक्ति फिर हिन्दू नहीं हो सकता।”

पर भविष्यदृष्टा राजा रणवीर सिंह परावर्तन के इच्छुक थे। उन्होंने कठोर होकर कहा कि यदि तुम परावर्तन नहीं कराओगे, तो मैं काशी से विद्वानों को बुलाकर यह काम कराऊंगा। इस पर उन पंडितों ने राजा को धमकी देते हुए कहा कि यदि आपने ऐसा किया, तो हम सब डल झील में कूदकर प्राण त्याग देंगे और इस ब्रह्महत्या का पाप आपको तथा आपकी भावी पीढ़ियों को लगेगा।

राजा रणवीर सिंह धर्मप्रेमी तो थे; पर धर्मभीरू भी थे। भयभीत होकर उन्होंने हिन्दू बनने के इच्छुक उन मुसलमानों को बैरंग वापस लौटा दिया। काश ! राजा उन मूर्ख पंडितों के हाथ-पैर बांधकर स्वयं ही डल झील में फेंक देता, तो आज कश्मीर की दुर्दशा न होती। आज कश्मीरी हिन्दू जिस दुरावस्था में देश के अनेक भागों में शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं, वह उनके पूर्वजों के पापों का ही कुफल है।

राजा रणवीर सिंह के पुत्र हुए प्रताप सिंह और उनके पुत्र राजा हरिसिंह। राजा हरिसिंह के प्रधान सचिव थे रामचंद्र काक, जो उस समय प्रधानमंत्री कहलाते थे। उनके संबंध जिन्ना से भी बहुत अच्छे थे। उन्होंने राजा को कई गलत परामर्श दिये, जिससे बात बिगड़ती गयी। उनकी विदेशी पत्नी की मित्रता लार्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना से और एडविना की घनिष्ठता नेहरू से थी। इन सबके कारण राजा हरिसिंह दुष्चक्र में फंसते चले गये।

राजा हरिसिंह के पुत्र हैं कांग्रेस के वर्तमान राज्यसभा सांसद डा. कर्णसिंह। कैसा आश्चर्य है कि जिस जवाहरलाल नेहरू ने देशभक्त राजा हरिसिंह को मजबूर किया कि वे देशद्रोही शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंपकर जम्मू-कश्मीर से सदा के लिए निर्वासित हो जाएं, उस नेहरू परिवार के पैरों में टोपी रखकर डा. कर्णसिंह 1947 के बाद से सत्तासुख भोग रहे हैं; पर उन्हें अपने पूर्वजों के राज्य और वहां के हिन्दू विस्थापितों की कोई सुध नहीं है।

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद की ऐतिहासिक भूल और गलतियां भी अनेक हैं। इनमें 1948 में प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा माउंटबेटन की सलाह पर विजयी भारतीय सेना के बढ़ते कदमों को रोककर कश्मीर विषय को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना; 1965, 1971 और फिर 1999 के युद्ध में पाकिस्तानी सांप के सिर को पूरी तरह न कुचलना, 1953 में नेहरू द्वारा शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर 1964 में मुक्त करना तथा इंदिरा गांधी द्वारा 1971 में राज्य से निष्कासित कर फिर उससे समझौता करना आदि महत्वपूर्ण हैं।

यह भी नेहरू की हीन मानसिकता ही थी कि स्वाधीनता के बाद पाकिस्तान में जिन्ना ने गवर्नर जनरल का पदभार ग्रहण किया, जबकि नेहरू ने लार्ड माउंटबेटन को ही भारत का गवर्नर जनरल बनाये रखा। वे तो सेनाध्यक्ष भी किसी विदेशी को ही बनाना चाहते थे; पर जनरल नाथूसिंह के प्रखर विरोध के कारण उन्हें जनरल करिअप्पा को सेनाध्यक्ष बनाना पड़ा।

जब रक्षामंत्री की बोलती बंद हुई

नेहरू जी कुछ समय के लिए किसी विदेशी को सेनाध्यक्ष बनाना चाहते थे। उनके निर्देश पर रक्षामंत्री सरदार बल्देव सिंह ने सेना के जनरलों की बैठक बुलाई। उसमें डूंगरपुर (राजस्थान) निवासी जनरल नाथूसिंह भी थे। वे बहुत स्पष्टवादी व्यक्ति थे। उन्होंने रक्षामंत्री से पूछा – आप किसी विदेशी को सेनाध्यक्ष बनाना क्यों चाहते हैं ?

– हमारे किसी जनरल को इतनी बड़ी सेना की कमान संभालने का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है।

– फिर तो प्रधानमंत्री भी किसी विदेशी को ही बनाना चाहिए, क्योंकि हमारे किसी नेता को इतने बड़े देश का शासन चलाने का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है।

सरदार बल्देव सिंह की बोलती बंद हो गयी। कुछ देर बाद उन्होंने पूछा, ”क्या आप सेना की बागडोर संभाल सकते हैं ?” जनरल नाथूसिंह ने कहा, ”जनरल करियप्पा हम सबमें वरिष्ठ और योग्य व्यक्ति हैं। उन्हें ही यह जिम्मेदारी देनी चाहिए।” वहां उपस्थित अन्य जनरल भी इसी मत के थे। अत: नेहरू को मजबूर होकर जनरल करियप्पा को सेनाध्यक्ष बनाना पड़ा।

अवकाश प्राप्ति के बाद जनरल नाथूसिंह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनेक कार्यक्रमों में आये। उदयपुर के संघ शिक्षा वर्ग में सरसंघचालक श्री गुरुजी के आगमन पर हुई प्रबुद्ध नागरिकों की एक गोष्ठी में उन्होंने यह प्रसंग सुनाया। उन्होंने यह भी बताया कि 1948 में जब नेहरू युद्धविराम कर कश्मीर की बात संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गये, तो उनकी इच्छा हुई कि वे उसे गोली मार दें; पर सेना के अनुशासन और नव स्वाधीन देश की बात सोचकर चुप रह गये।

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