भारतीय क्षत्रिय धर्म और अहिंसा ( है बलिदान इतिहास हमारा ) अध्याय — 19 ( ख ) श्रद्धानंद , वीर सावरकर और महात्मा गांधी

श्रद्धानन्द जी की हत्या और गांधीजी

23 दिसम्बर 1926 को स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज को एक धर्मांध मुसलमान ने गोली मार दी थी । तब गांधी जी ने स्वामी श्रद्धानंद जी के हत्यारे के प्रति भी भाई जैसे सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग किया था। गांधीजी ने अपनी मुस्लिम तुष्टीकरण की मानसिकता का परिचय देते हुए 29 दिसंबर 1924 को ‘प्रताप’ में लिखा था:- “यद्यपि मैं एक कट्टर सनातनी हूँ , किन्तु फिर भी एक मुसलमान को गाय – भक्षण की खुली छूट दूँगा । कुरान यदि ऐसी शिक्षा किसी मुसलमान को देती है तो उसे रोकने वाला मैं कौन हूँ ?”
गांधी जी की इस प्रकार की हिन्दू विरोधी सोच और कार्यशैली को देखकर क्रान्तिकारियों का उनकी नीतियों में कभी विश्वास नहीं रहा । यही कारण रहा कि हमारे क्रान्तिकारी नेता गांधी जी से चार कदम की नहीं बल्कि 4 किलोमीटर की दूरी बनाकर अपने काम में लगे रहे । यद्यपि ऐसे भी अनेकों क्रान्तिकारी रहे जिन्होंने गांधीजी का खुलकर कभी विरोध नहीं किया। ऐसा न करने का उनका कारण केवल एक ही था कि वह अंग्रेजों को किसी प्रकार की ‘आपसी फूट’ का लाभ उठाने से रोक देना चाहते थे।

क्रान्तिकारी गतिविधियां रहीं निरन्तर जारी

उस समय ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ जैसे क्रान्तिकारी संगठन की गतिविधियां चरम पर थीं। जिसके सर्वोच्च कमांडर चन्द्रशेखर आजाद थे। इनके क्रान्तिकारी साथियों रामप्रसाद बिस्मिल ,अशफाक उल्ला खान , राजेन्द्र लाहिड़ी , सचिन्द्र सान्याल, मुकुन्दी लाल , कुन्दन लाल और बनवारी लाल जैसे लोग थे। इन्होंने 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के पास काकोरी नामक स्थान पर सरकारी खजाना लूटा था । इस घटना को इतिहास में ‘काकोरी काण्ड’ के नाम से जाना जाता है । इस छोटी सी परन्तु महत्वपूर्ण घटना ने अंग्रेजों को भीतर तक हिलाकर रख दिया था। इस घटना के पश्चात रामप्रसाद बिस्मिल , रोशनसिंह और राजेन्द्र लाहिड़ी को फांसी की सजा दी गई थी । अंग्रेजों ने सोचा था कि शायद फांसी देकर क्रान्तिबीज समाप्त हो जाएगा ,पर यह भारत के प्रतापी शौर्य का ही परिणाम था कि यहाँ पर जितने क्रान्तिकारियों को फांसी लगती थी उतनी ही अधिक संख्या में क्रान्तिकारियों की नई फसल तैयार होती जाती थी।
हमारे क्रान्तिकारियों का उद्देश्य कुछ इस प्रकार का हो गया था :-

‘सर देके राहे कौम में ऐसा मजा मिला,
हसरत यही रही कि कोई और सर न था।’

इस घटना के पश्चात 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तो उसका विरोध करने वाले भी भारत के क्रान्तिकारी लोग ही थे । लाला लाजपत राय के नेतृत्व में अनेकों क्रान्तिकारियों ने इस कमीशन का विरोध किया था । कांग्रेस उस समय भी भटकाव का शिकार थी। अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों को आगे बढ़ाते हुए सरदार भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त व अन्य भी देश की स्वाधीनता के लिए बड़ा काम कर रहे थे। 8 अप्रैल 1929 की घटना है । उस समय केन्द्रीय असेम्बली में ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ विचार हेतु प्रस्तुत किया गया था । सभापति इस बिल पर अपने विचार प्रस्तुत करने जा रहे थे । सब लोग अपने सभापति को सुनना चाहते थे । तभी अचानक दर्शक दीर्घा में एक भयानक बम गिरा । बम गिरते ही चारों और आतंक का धुँआ छा गया। इस बम काण्ड में भगत सिंह के साथ उनका साथी बटुकेश्वर दत्त भी सम्मिलित था । इस अपराध में भगतसिंह और दत्त को आजीवन काले पानी की सजा दी गई थी।
1929 में 10 जुलाई के दिन ‘लाहौर षड़यंत्र केस’ का मुकदमा भी प्रारम्भ हो गया । जिसमें भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त, यतीन्द्र नाथ दास ,अजय कुमार घोष, कमलनाथ त्रिवेदी, किशोरीलाल , सुरेंद्र नाथ पांडे ,शिव वर्मा , महावीर सिंह ,आज्ञाराम आदि कई क्रान्तिकारियों के नाम सम्मिलित थे। इस केस में लाला लाजपत राय जी के हत्यारे पुलिस कप्तान सांडर्स को 17 दिसम्बर 1928 को मारा गया था। इस केस में सरदार भगतसिंह और उनके साथियों को 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी । उन्हें फांसी की सजा से गांधीजी ने जानबूझकर नहीं बचाया था।

सावरकर जी की वीरता

स्वाधीनता के लिए अनेकों यातनाएं और काला पानी की कठोर सजा भुगतने वाले वीर सावरकर जी पहले दिन से ही कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के विरोधी थे । उन्होंने 1938 में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद संभाला । उन्होंने 1937 में हिन्दू महासभा में प्रवेश पाते ही स्पष्ट किया कि -“जब तक मेरे देह में रक्त की एक बूंद भी शेष है, मैं अपने को हिन्दू कहूंगा और हिन्दुत्व के लिए सदा लड़ता रहूंगा।”
उस समय भी सावरकर जी कांग्रेस की जिन्ना की आरती उतारते रहने की प्रवृत्ति की कठोर शब्दों में आलोचना करते रहे। अंग्रेज मुस्लिम लीग के नेता जिन्नाह को बढ़ावा देते जा रहे थे और कांग्रेस जिन्ना के पीछे भागती हुई उसे ‘कायदे आजम’ बोलती जा रही थी। जिन्नाह जो कभी अपने आपको राष्ट्रवादी बताता था ,अब खुले शब्दों में कहने लगा था कि पाकिस्तान का जन्म तो उसी दिन हो गया था, जिस दिन सदियों पहले इस देश में किसी एक व्यक्ति ने पहली बार इस्लाम ग्रहण किया था।
कहने का अभिप्राय है कि 1940 के आते-आते देश की जो परिस्थितियां बन चुकी थीं, उनमें एक वर्ग वह था जो महात्मा बुद्ध की उस अहिंसा का समर्थक था जो राष्ट्रीय दृष्टिकोण से हमको नपुंसक बना रहा था , निश्चित रूप से इस विचार का नेतृत्व गांधी जी और उनकी कांग्रेस कर रहे थे । जब कि एक दूसरा वर्ग ऐसा था जो ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ – के आधार पर ‘है बलिदानी इतिहास हमारा’ – इस सोच के वशीभूत होकर देश को बलिदानों की परम्परा से ही आजाद कर लेना चाहता था ,जिस विचारधारा को हमारे क्रान्तिकारी आगे बढ़ा रहे थे। इस विचार को आगे लेकर चलने वाले उस समय वीर सावरकर जी और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जैसे क्रांतिकारी थे।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनरलेखन समिति

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