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क्या हिंदुत्व साम्प्रदायिकता है?

महंत दिग्विजयनाथ
आज के अधिकांश नागरिक और संसार के प्रमुख व्यक्ति, जो हिंदुत्व से अनभिज्ञ है हिंदुत्व का अर्थ साम्प्रदायिकता और हिंदू का अर्थ साम्प्रदायिक समझते हैं। यह आज का एक प्रचलित नारा हो गया है और यह भी दावे के साथ कहा जा सकता है कि इसके सदृश भ्रमपूर्ण और अनर्गल नारा दूसरा हो भी नही सकता। यदि आज के अनभिज्ञ भारतीय और विशेषत: हिंदू यह समझ सके कि हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता में उतना ही अंतर है, जितना आकाश और पाताल में, तो इसमें संदेह नही कि वे अपनी मानसिक दासता की एक श्रंखला और सबसे मजबूत श्रंखला को अवश्य तोड़ने में समर्थ हो जाएंगे। इस प्रश्न पर विचार करने के पूर्व कि वास्तव में हिंदुत्व साम्प्रदायिकता है या नही, यह उचित होगा कि हम इन दोनों महत्वपूर्ण शब्दों-हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता पर अलग अलग विचार करे। हिंदू की परिभाषा भिन्न भिन्न प्रकार से की गयी है, पर सबसे विशद, प्रमाणिक और सरल परिभाषा अखिल भारतवर्षीय हिंदू महासभा की ओर से निम्नलिखित प्रकार से हुई है।
आसिन्धो: सिंधुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका।
पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिंदुरिति स्मृत:।।
अर्थात जो इस सिंधु नद से लेकर सागर कन्याकुमारी पर्यन्त विस्मृत इस भारत भूमि को अपनी पितृ भूमि ओर पुण्य भूमि मानता है, उसे ही हिंदू कहा जा सकता है। वह हिंदू है।
कितनी असाम्प्रदायि परिभाषा है यह साम्प्रदायिकता की तो इसमें बू तक नही है। यदि किसी भी सम्प्रदाय विशेष या धर्म विशेष की ओर इंगित करती प्रतीत नही होती, न तो इसके अनुसार केवल शिविलिंग की पूजा करने वाला हिंदू है और न गायत्री मंत्र जपने वाला ही। पर हिंदू वह है, जो इस समग्र भारतभूमि को अपनी पितृ भूमि और पुण्य भूमि मानता है। कितनी राष्ट्रीयता है इसमें, और कितनी देशभक्ति जो मनुष्य इस भूमि को अपनी पितृ भूमि और पुण्य भूमि मानेगा, वह कभी धोखा नही दे सकता। हिंदू हिंदुस्तान के लिए जी सकता है, मर सकता है और कर सकता है अपना सर्वस्व समर्पण पर एक हिंदू के लिए इस भूमि को अपनी पितृभूमि मानना ही पर्याप्त नही है, उसके इसे अपनी पुण्य भूमि भी मानना पड़ेगा और तभी वह हिंदू कहला सकता है।
पुण्य भूमि का अर्थ है-उसके तीर्थ और महापुरूष इस भारत भूमि में ही उत्पन्न हुए हों। उसके हृदय में भाव हों-फिर जन्मे हम इसी भूमि में यही भाव उर धरे मरें, न कि मेरे मौला मदीने बुला ले मुझे। एक हिंदू के तीर्थ काशी और मथुरा होंगे न कि मक्का और फिलस्तीन। हिंदू वास्तव में शुद्घ राष्ट्रीय होगा। पितृ भूमि और पुण्य भूमि मानने के पश्चात फिर वह अपने देश के साथ किसी भी प्रकार का विश्वासघात नही कर सकता। एक मुसलमान या अंग्रेज यह मानना है कि भारत भूमि उसकी पितृभूमि है, पर वह हिंदू तक नही कहला सकता जब तक वह उसे पुण्य भूमि भी न माने अर्थात यहां के तीर्थों को अपना तीर्थ न माने, यहां के महापुरूषों को अपना महापुरूष न माने। उसे फिलस्तीन और मक्का की याद छोड़नी ही पड़ेगी और शुद्घ भारतीय बनना ही पड़ेगा। अतएव केवल पितृ भूमि मानकर ही कोई राष्ट्रीय नही हो सकता पुण्य भूमि भी उसके लिए स्वीकार करना आवश्यक है।
प्रत्येक मस्तिष्क में दो प्रकार की मनोवृत्तियां सुरक्षित रहती हैं-एक, जो पुण्य भूमि की ओर मनुष्य को आकर्षित करती है और दूसरी, जो पितृभूमि की ओर। अब कल्पना की कीजिए कि मक्का से और भारत से युद्घ प्रारंभ हो जाता है। जिनकी पुण्य भूमि की ओर आकर्षित करने वाली मनोवृत्ति अधिक बलवती रही, वे निश्चय ही मक्का का पक्ष ले लेंगे। पर एक मनुष्य जो भारत का शुद्घ राष्ट्रीय व्यक्ति के सिद्घ होना चाहता है, उसके लिए यह आवश्यक है कि वह इसे अपनी पितृ भूमि भी माने और पुण्य भूमि भी और चूंकि भारत का एकमात्र राष्ट्रीय हिंदू है, अत: उसके लिए भी इन दो बातों का होना आवश्यक है। यह तो हुई हिंदू की परिभाषा। अब लीजिए सम्प्रदाय की परिभाषा को और इस परिभाषा की कसौटी पर हिंदू को कसकर देखना है कि क्या वह वास्तव में साम्प्रदायिक है। एक शब्द में चिरकाल से चल आने वाली अविच्छिन्न परंपरा को सम्प्रदायिक कहते हैं। अर्थात सनातन धर्म एक संप्रदाय हो सकता है या बौद्घधर्म को हम एक संप्रदाय कह सकते हैं। क्योंकि चिरकाल से चली आ रही इनकी एक अविच्छिन्न परंपरा है, बौद्घधर्म या सनातन धर्म जिस प्रकार आज माना जाता है अर्थात इनके पालन करने के जो नियम आज हैं आज के सहस्रो वर्ष पूर्व जब इन संप्रदायों का प्रारंभ हुआ था तब भी इनके पालन करने के नियम वे ही थे। दूसरे शब्दों में चिरकाल से चली आ रही इनकी एक अविच्छिन्न परंपरा है परंतु फिर चिरकाल से चले आने पर भ्ज्ञी एक ही परंपरा एक ही रूढि एक ही यिम में आबद्घ नहीं। वेदविरोधी चार्वाक भी हिंदू थे, भगवान व्यास भी हिंदू थे, जिन्होंने वेद की सत्ता को सर्वोपरि माना। शाक्त भी हिंदू हैं, जो हिंसा में दोष नही मानते एवं बौद्घ और जैन भी हिंदू है, जो अहिंसा परमो धर्म के उपासक हैं।
ये सब भिन्न भिन्न संप्रदाय है, पर एक व्यापक रूप में सभी केवल हिंदू हैं। एकत्रित होने पर इनकी सत्ता एक राष्ट्रीय को देती है-जिसे हिंदुत्व कहते हैं। न तो ब्राह्मण अधिक हिंदू है और न शुद्र कम, दोनों ही हिंदू है और उपर्युक्त संप्रदाय की भाषा पर हिंदू शब्द को कसने से यह स्पष्ट का अर्थ साम्प्रदायिक है और न हिंदुत्व का अर्थ साम्प्रदायिक है। हिंदुत्व एक सागर है, जिसमें भिन्न भिन्न सम्प्रदाय रूपी नदियां आकर विलीन हो जाती है। वे विभिन्न तरंगों के रूप में लहराती हुई एकमात्र समुद्र की ही शोभा बढ़ाती और उसकी महत्ता की घोषणा करती है। ये सब मिलकर सागर ही ही प्रतिनिधित्व करने लगती है। अतएव हिंदू एक महान राष्ट्र का नाम है, न कि किसी फिरके का।
तब हिंदुत्व है क्या? हिंदुत्व एक आदर्श भारतीय राष्ट्रीय समाजवाद (An Ideal Indian national sociallism) है, जिसने भारतीय समाज को एक सूत्र में आबद्घ कर लिया है बौद्घधर्म के नाम के वल बौद्घ धर्मानुयायी आगे बढ़ेंगे, सनातन धर्म के नाम पर केवल सनातनी आगे आएंगे। पर  हिन्दुत्व के नाम पर सब एक साथ आएंगे और सम्मिलित रूप से आएंगे और उनमें सनातनी, आर्यसमाजी, सिक्ख, बौद्घ, जैनी सभी रहेंगे। अतएव हिंदुत्व साम्प्रदायिकता नही राष्ट्रीयता है ऐसी राष्ट्रीयता, जिसका भारत के अतिरिक्त कोई अस्तित्व ही नही। स्मरण रखिए-कितने सम्प्रदाय नष्ट हो चुके हैं, नष्ट होंगे और हो रहे हैं पर हिंदुत्व इन सबके ऊपर है और अमर है। वह न कभी नष्ट हुआ है न होने वाला है और नही हो रहा है। यदि किसी दिन भारत की इस राष्ट्रीयता हिंदुत्व के समाप्त होने की बात सोची जा सकती है तो उसी के साथ यह भी सोच लेना चाहिए कि उस दिन भारत ही समाप्त हो जाएगा।

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