कश्मीर की देशभक्ति ने दो बार धूल चटाई थी महमूद गजनवी को

राजाओं की गौरवपूर्ण श्रंखला से कश्मीर का इतिहास भरा पड़ा है। जब हम कश्मीर के इa-45तिहास के स्वर्णिम पृष्ठों का अवलोकन करते हैं तो ज्ञात होता है कि भारतीय संस्कृति को अपनी गौरव-गरिमा से लाभान्वित करने में कश्मीर के राजाओं ने महत्वपूर्ण योगदान किया। चूंकि यह योगदान अब से 1000 वर्ष पूर्व या उससे भी पूर्व किया जा रहा था तो इस योगदान को कश्मीर के राजाओं का भारतीय स्वातंत्रय समर में योगदान भी माना जाना चाहिए। कारण ये है कि जिस काल को भारतीय इतिहास का अंधकार युग कहा जाता है उसमें गौरवकृत्यों का उपलब्ध होना निश्चय ही इतिहास का गौरवपूर्ण पक्ष है। सचमुच एक ऐसा पक्ष कि जिसकी उपेक्षा करने का अर्थ है-आत्महत्या। ….और यह भी सत्य है कि भारत जैसा जीवन्त राष्ट्र कभी भी आत्महत्या के पथ पर नही जा सकता। जहां तक इतिहास के साथ छल करने वालों का प्रश्न है तो ऐसे तो ना जाने कितने छलों को इस जीवन्त राष्ट्र ने हंस हंसकर सहन किया है। आइए, अब हम राजा अवन्तिवर्मन से आगे बढ़ें।

पराक्रमी देशभक्त शंकरवर्मन

राजा अवन्तिवर्मन की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र शंकरवर्मन कश्मीर का राजा बना। यह राजा बहुत ही पराक्रमी था। उसने कश्मीर तक सीमित न रहकर बाहर निकलना ही श्रेयस्कर समझा। अत: अथर्ववेद (12-3-1) के इस आदेश को अंगीकार कर वह राज्य विस्तार के लिए निकल पड़ा कि ‘तुम शक्तिशाली होकर अन्यों पर राज्य करो।’ देशभक्तों को ऋग्वेद (1-80-3) ने भी यह कहकर प्रोत्साहित किया है कि ‘देशभक्त स्वराज्य की उपासना करते हैं।’

जिस देश की संस्कृति राजा को और देशभक्तों को ऐसी प्रेरणा करती हो तो उस देश का शंकरवर्मन अपने कश्मीर के किले में स्वयं को कैसे कैद रख सकता था? किला एक सुरक्षित स्थान अवश्य है, परंतु चाहे वह कितना ही सुरक्षित और स्वैर्गिक आनंद देने वाला क्यों ना हो, दिग्दिगन्त की विजय की कामना करने वाले राजा के लिए तो वह कारागार के समान ही हो जाता है। इसलिए स्वराज्य के साधक राजा के लिए उससे बाहर निकलना ही उचित होता है। अत: शंकरवर्मन कश्मीर से बाहर निकला और उसने ललितादित्य के समय में विजित प्रदेशों को पुन: अपने राज्य में सम्मिलित करने का संकल्प व्यक्त किया। फलस्वरूप उसकी सेनाओं ने काबुल तक अपनी विजय पताका फहराई। काबुल का शासक उस समय लल्लैय्या नाम का हिंदू शासक था। लल्लैय्या शंकरवर्मन का सामना नही कर सका और वह युद्घ में पराजित हो गया। कहा जाता है कि उसकी प्रजा भी उसके साथ नही थी। शंकरवर्मन की विजय पताका बड़े गौरव के साथ काबुल में फहरा उठी। इतिहास लेखकों का मानना है कि सम्राट ललितादित्य के समय में कश्मीर सैन्य दृष्टि से शक्तिशाली था, और अवन्तिवर्मन के समय में आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली था, जबकि शंकरवर्मन के समय में दोनों रूपों में ही शक्तिशाली हो गया था।

नरेन्द्र सहगल लिखते हैं-‘इतिहास जानता है कि काबुल (गान्धार) के बहादुर हिंदू राजाओं और वहां की शूरवीर हिंदू प्रजा ने चार सौ वर्षों तक निरंतर अरबों और अन्य मुस्लिम आक्रमण कारियों का साहस के साथ सामना किया। परंतु एक दिन भी पराधीनता स्वीकार नही की। भारत इस कालखण्ड (663 से 1021 ई. तक) में अपनी उत्तर पश्चिमी सीमाओं को सुरक्षित रख सका।’

शंकरवर्मन के पश्चात उसका व्यवहार कुशल पुत्र गोपालवर्मन कश्मीर के राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। गोपालवर्मन ने अपने सैन्याधिकारी प्रभाकर देव को काबुल भेजकर शांति व्यवस्था पर अपना नियंत्रण रखा। प्रभाकर देव ने राजा लल्लैय्या से वार्तालाप की और वार्तालाप के उपरांत वहां का शासन लल्लैय्या के पुत्र कामलुक को सौंप दिया।

पराजित राजा को सत्ताच्युत कर वहां का शासन प्रबंध उसी के किसी परिजन को या प्रजा में लोकप्रिय किसी व्यक्ति केा सौंप देना भारत की प्राचीन परंपरा है। रामायण काल में भगवान राम ने रावण को पराजित किया तो वहां का शासन विभीषण को सौंप दिया गया था और महाभारत में कृष्णजी ने कंस को मारा तो अपने  नाना को ही पुन: राज्य गद्दी सौंप दी। यह परंपरा नैतिक भी है और कूटिनीतिक भी है। हां, विदेशियों में ऐसी प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव मिलता है। भारतीय शासकों ने अपनी इस परंपरा का तब उल्लंघन करना आरंभ किया था जब उन पर विदेशियों का प्रभाव पड़ने लगा था।

महमूद गजनवी और पराक्रमी राजा संग्रामराज

जो तेगों के साये में पले बढ़े होने का दम्भ भरते रहे हैं और इसी दम्भ  से पनपी क्रूरता के कारण जिन्होंने विश्व में लाखों करोड़ों लोगों का वध किया, उनमें से एक महमूद गजनवी भी था। बड़ी क्रूरता से ईरान और तुर्किस्थान में इस क्रूर आक्रांता ने अमानवीयता का प्रदर्शन किया था। भारत के कुछ क्षेत्रों में भी इसने रक्तिम् होली खेली थी। परंतु कश्मीर की भूमि वह पावन भूमि रही है, जिसने इस क्रूर आक्रांता को एक बार नही अपितु दो-दो बार पराजित कर भगाया। पराजय भी इतनी भयानक थी कि तीसरी बार कश्मीर जाने का सपना ही नही देख सका था-महमूद गजनवी।

गजनवी के समय (1003 से 1028 ई.) कश्मीर पर वीर प्रतापी शासक महाराजा संग्रामराज का शासन था। संग्रामराज ने कश्मीरी सीमाओं को पूर्णत: सुरक्षित रखने तथा विदेशी आक्रांता से कश्मीर की प्रजा की रक्षा करने हेतु सीमाओं पर विशेष सुरक्षा व्यवस्था की थी, अलबरूनी हमें बताता है-‘कश्मीर के लोग अपने देश की वास्तविक शक्ति के विषय में विशेष रूप से उत्कंठित रहते हैं। इसलिए वे कश्मीर के प्रवेश द्वार और उसकी ओर खुलने वाली सड़कों की ओर सदा मजबूत निगाह रखते हैं। फलस्वरूप उनके साथ कोई वाणिज्य व्यापार कर पाना बहुत कठिन है।….इस समय तो वे किसी अनजाने हिंदू को भी प्रवेश नही करने देते हैं। दूसरे लोगों की तो बात ही छोड़िए।’ सन 1015 में महमूद गजनवी कश्मीर पर पहला आक्रमण करता है। उसकी सेनाएं तौसी नामक मैदान में आ डटीं। महाराजा संग्राम राज की सुरक्षा व्यवस्था उच्चतम मानकों की थी। अत: महाराजा को तुरंत उक्त आक्रमण की सूचना मिल गयी। इसलिए राजा ने सफल कूटिनीति और युद्घ नीति का अनुकरण करते हुए अपने बौद्घिक विवेक और यौद्घिक संचालन का परिचय दिया। राजा ने काबुल के राजा त्रिलोचनपाल को युद्घ में सहायता के लिए आमंत्रित किया। राजा त्रिलोचन पाल ने योजना के अंतर्गत तौसी की ओर बढ़न आरंभ किया। युद्घ के मैदान में आगे की ओर से संग्रामराज की सेना आयी तो गजनवी की सेना के पृष्ठ भाग पर त्रिलोचनपाल की सेना ने पूर्व नियोजित योजना के अनुसार धावा बोल दिया।

महमूद की सेना पहाड़ों के बीच दोनों ओर से भारतीय स्वतंत्रता प्रेमी सैनिकों से घिर चुकी थी। जितने भर भी छल, छदम षडयंत्र और घात प्रतिघातों को महमूद अब से पूर्व युद्घों में अपनाता रहा था, वो सब धरे के धरे रह गये। भागने के लिए घिरे हुए आक्रांता को रास्ता खोजने पर भी नही मिल रहा था। कश्मीर व काबुल का ऐसा समीकरण बैठा कि शत्रु को दिन में तारे दिखा दिये गये। कश्मीर का तौसी युद्घ क्षेत्र स्वतंत्रता संघर्ष और स्वाभिमान की रक्षा का साक्षी बना और हमारे सैनिकों ने हजारों शत्रुओं का वध कर युद्घक्षेत्र में शवों का ढेर लगा दिया। लोहकोट के दुर्ग पर महमूद का कब्जा था। संग्राम राज की सेना ने किले को व्यूह रचना को तोड़कर दुर्ग में प्रवेश किया। महमूद भारतीय सैनिकों को दुर्ग में प्रवेश करते देखकर अत्यंत भयभीत हो गया था। अत: वह एक सुरक्षित स्थान पर छिप गया। किसी प्रकार महमूद गजनवी अपनी प्राणरक्षा कर भागने में सफल हो सका। ‘कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’ में इस युद्घ का बड़ा रोचक वर्णन किया गया है-

‘भारत में महमूद की यह पहली और बड़ी पराजय थी। उसकी सेना अपरिचित पहाड़ी मार्गों पर रास्ता भूल गयी और उसका पीछे मुड़ने का मार्ग बाढ़ के पानी ने रोक लिया। परंतु अत्यधिक प्राणहानि के पश्चात यह सेना मैदानी क्षेत्रों में भागी और अस्त व्यस्त स्थिति में गजनी तक पहुंच सकी।’

कश्मीर में मिली इस पराजय से महमूद को पता चल गया कि भारत अपने स्वाभिमान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कितना समर्पित है और किसी क्षेत्र विशेष पर नियंत्रण कर लेने मात्र से हिंदुस्तान की स्वाधीनता को नष्ट नही किया जा सकता। भारतवर्ष पर शासन करने के लिए एक नही अनेकों शक्तियों से टक्कर लेनी होगी।….और यह भी पता नही कि इन शक्तियों में से कौन सी शक्ति कितनी शक्तिमान हो? महमूद ने पहली बार भारत के विषय में गंभीरता से सोचा। वह अपमान और प्रतिशोध सम्मिश्रित भावों से व्याकुल था। इसलिए उसने एक बार पुन: भाग्य आजमाने का निर्णय लिया। उसने प्रतिवर्ष भारत पर आक्रमण करने के अपने संकल्प को विस्मृत कर दिया और पूरे छह वर्ष पश्चात अर्थात 1021 में उसने कश्मीर पर  पुन: आक्रमण किया। प्रतिवर्ष आक्रमण करने वाले आक्रांता का कश्मीर पर आक्रमण करने का साहस छह वर्ष में लौटा। स्पष्ट है कि उसे तौसी का युद्घ क्षेत्र देर तक स्मरण रहा। 1021 ई. में भी महमूद ने लोहकोट पर ही पड़ाव डाला। त्रिलोचनपाल को जैसे ही महमूद के आक्रमण की भनक लगी, उसने उसे पुन: खदेड़ने का अभियान तुरंत आरंभ कर दिया। त्रिलोचनपाल की सहायतार्थ महाराजा संग्रामराज ने भी अपनी सेना भेज दी। महमूद को अपनी पिछली पराजय का स्मरण था। वह पिछले घावों को सहलाते सहलाते  भारत की कश्मीर में अपने पांवों को रख ही रहा था कि पुन: अप्रत्याशित मार पड़नी आरंभ हो गयी। उसे पिछला अनुभव भीतर तक सिहराने लगा। स्थिति इस बार भी वही बन गयी थी, पृष्ठ भाग और सामने दोनों ओर से उसे त्रिलोचनापाल और महाराजा संग्रामराज की स्वतंत्रता प्रेमी सेना ने घेर लिया था। वह जिस दीपक को बुझाने आया था भारत की स्वतंत्रता का यह दीपक और भी प्रचण्ड होता जा रहा था और ऐसा लग रहा था कि यह दीपक अब महमूद के लिए ही भस्मासुर बनने वाला था। महमूद गजनवी को फिर  प्राण रक्षा के लिए कश्मीर से गजनी की ओर भगाना पड़ा और इस बार वह ऐसा भागा कि फिर कभी जीवन में कश्मीर की ओर पैर करके भी नही सोया। धन्य है त्रिलोचनपाल, धन्य हैं महाराजा संग्राम राज और धन्य है उनकी सेना के वीर सैनानी जिन्होंने अपनी स्वतंत्रता के प्रति अगाध निष्ठा का ऐसा परिचय विदेशी आक्रांता को दिया। भारत के इतिहास में इन सभी स्वतंत्रता सैनानियों का नाम सदा सम्मान से ही लिया जाएगा।

मुस्लिम इतिहासकार नजीम ने अपनी पुस्तक ‘महमूद ऑफ गजनवी’ में लिखा है:-महमूद गजनवी ने अपनी पिछली पराजय का प्रतिशोध लेने और अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त करने हेतु 1021 ई. में कश्मीर पर पुराने मार्ग से ही पुन: आक्रमण किया। परंतु फिर लोह कोट के किले ने उसका रास्ता रोक लिया। एक मास की असफल किलेबंदी के पश्चात विनाश की संभावना से भयभीत होकर महमूद ने दुम-दबाकर भाग जाने में ही कुशलता समझी। इस पराजय से उसे कश्मीर राज्य की अजेय शक्ति का आभास हो गया और कश्मीर को हस्तगत करने का अपना उद्देश्य उसने सदा सर्वदा के लिए त्याग दिया।

तौसी:स्वतंत्रता का एक स्मारक

स्वतंत्रता के 1235 वर्षीय संघर्ष का स्मारक सचमुच तौसी का युद्घ क्षेत्र भी है। जिसे नमन किये बिना हजारों बलिदानियों का बलिदान व्यर्थ चला जाएगा। राजा त्रिलोचनपाल के साथ इतिहास ने अन्यास किया है। महमूद गजनवी के एक चाटुकार इतिहासकार पीर हसन ने राजा त्रिलोचन पाल की शौर्य-गाथा को अपनी ‘पराधीन लेखनी’ से कलंकित करने का प्रयास किया और हमें वही कलंकित लेखनी की कलंकित गाथा पढ़ाई गयी। पीर हसन लिखता है:-

‘संग्रामराज ने अपने भीतर मुकाबले की ताव न देखकर बहुत से तोहफे तहलीफ के साथ खुद को सुल्तान की मुलाजिमत में पहुंचाया। सुल्तान ने फरमाया तूने खुद को क्यों आजिज और जलील किया। राजा ने जवाब में कहा कि शरीफ  लोग मेहमान की खातिर तवाजह अपने लिए फकर और तरक्की का सबब समझते हैं। सुल्तान महमूद ने उसकी हुस्नबयानी से महफूल होकर उम्दा उम्दा पोशाकों से सरफराज  किया और खिराजशाही मुकर्रर करके कश्मीर की हुकूमत उसी के हवाले कर दी।’

महाराजा त्रिलोचनपाल के लिए पीर हसन का यह कथन कितना भ्रामक व मिथ्या हो सकता है, इसका पता हमें डा. रघुनाथ सिंह के इस कथन से चल जाता है-‘पीर हसन का वर्णन एकांगी तथा महमूद गजनवी की महत्ता और कश्मीरियों की हीनता दिखाने का प्रयास मात्र है। किसी इतिहास में उक्त घटना का समर्थन नही मिलता। महमूद गजनवी ने कभी कश्मीर उपत्यका में प्रवेश नही किया। पीर हसन की बातें असत्य हैं। संग्रामराज को विश्व की दृष्टि में गिराने तथा गजनवी की महत्ता प्रमाणित करने केे लिए यह कथा घड़ दी गयी है कि महमूद कश्मीर में आया और संग्रामराज ने अपनी पताका झुका दी।’

बस, हर विदेशी शत्रु इतिहास लेखक का भारत के विषय में यही प्रयास रहा है कि इसके लोगों को और इसके महान सेनापतियों, राजा महाराजाओं को जितना हो सके उतना  पतित रूप में दिखाओ। जिससे कि इस देश के लोगों को अपने अतीत से घृणा हो जाए और वो ये मानने लगें कि भारत का इतिहास तो निरंतर अपमान और तिरस्कार की एक ऐसी गाथा है जिसने हमें हर क्षण और हर पग पर अपमानित और तिरस्कृत किया है। जबकि कल्हण हमारे मत का समर्थन करते हुए लिखता है कि -इस अवसर पर त्रिलोचनपाल ने मुस्लिम आक्रामकों से अंतिम बार पंजाब में सामना किया था। ज्ञात होता है कि महमूद झेलम से कश्मीर जाने वाली किसी उपत्यका में त्रिलोचनपाल से संघर्ष कर पीछे हट गया। कश्मीर के कुछ सीमांत राजाओं ने गजनवी की अधीनता स्वीकार की होगी। परंतु कश्मीर ने महमूद से लोहा लिया।  संग्रामराज ने महमूद के सम्मुख मस्तक नही झुकाया था।

वो अनूठे बलिदानी देशभक्त

सोमनाथ का मंदिर लूटा जा चुका था। देश के लोगों में इस मंदिर के लूटे जाने के पश्चात वेदना बार बार देशभक्त हृदयों में ज्वार भरने का कार्य कर रही थी। लोग किसी भी मूल्य पर महमूद से प्रतिशोध चाहते थे। क्योंकि उस क्रूर शासक ने हमारे धर्म और राष्ट्र दोनों को ही अपवित्र कर दिया था। इसलिए जब वह देश से निकलकर जा रहा था, तो हमारे कुछ लोगों ने योजना बनाई कि उसके सैन्य दल को कच्छ के रेगिस्तान में भ्रमित कर दिया जाए। हमारे  लोगों को अपने इस वीरता से भरे कृत्य के परिणाम का भली प्रकार ज्ञान था कि इस कृत्य से मृत्यु उनका गले का हार बनकर आएगी। परंतु देशभक्ति के ज्वार के समक्ष मृत्यु को तो बहुत छोटी सी बात माना जाता है। मानो, जीवन ने अर्द्घविराम लिया और नया जीवन पाकर फिर चल पड़ा। प्राचीन काल से ही भारत के हर देशभक्त ने युद्घ में इसी भावना से आत्मोत्सर्ग किया है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को बस ये ही तो समझाया है कि जिसे तू इन सबका काल मान रहा है वह काल नही है, अपितु जीवन के लिए मात्र अर्द्घविराम है। अत: इसी भावना से उस समय (1026 ई.) हमारे देशभक्त नागरिक भी भर गये थे। मुस्लिम लेखक मिन्हाज ने लिखा है-‘रास्ता बताने वालों की मांग पर एक हिंदू सामने आया और  उसने रास्ता बताने का वचन दिया। जब कुछ देर तक इस्लामी सेना उसके पीछे चली और थमने का समय आया तो लोग पानी की तलाश में निकल पड़े। परंतु पानी का दूर दूर तक भी नामोनिशान नही था। सुल्तान ने रास्ता दिखाने वाले को अपने सामने हाजिर करने का हुक्म दिया और पूछा कि पानी कहां मिल सकता है? उसने जवाब दिया-‘मैंने सारी उम्र अपने देवता सोमनाथ की सेवा में गुजारने का प्रण लिया है, और मैं तुझे तथा तेरी सेना को इस जलहीन रेगिस्तान में इसीलिए लाया हूं कि तुम सब एक घूंट पानी के लिए तरस- तरस कर मर जाओ।

सुल्तान ने (काफिर के मुंह से शब्द सुनकर) हुक्म दिया उस रास्ता बताने वाले का कत्ल कर दिया जाए।’

अगले ही क्षण कच्छ की भूमि की गोद में एक देशभक्त और धर्मभक्त भारतीय नागरिक का सिर मां भारती की सेवा के लिए हवा में तैरता हुआ धड़ाम से आ पड़ा। मां धन्य हो गयी, ऐसा लाल जनकार और एक मां प्रसन्न हो गयी ऐसे  लाल का सर अपनी गोद में पाकर। उस अनाम देशभक्त का नाम-धाम अभी ज्ञात नही है पर वह अनाम शूरवीर  भारतीय स्वातंत्रय समर का एक स्मारक अवश्य है।

….और वह ही क्यों? जब वह मां भारती की गोद में जा लेटा, तब रास्ता बताने के लिए दो अन्य आत्मघाती बने हिंदू सामने आए। मुहम्मद उफी की ‘जमी-उल-हिकायत’ से हमें ज्ञात होता है-‘दो हिंदू सामने आये और उन्होंने रास्ता बताने के लिए अपनी सेवाएं प्रस्तावित कीं। वे तीन दिन तक रास्ता बताते रहे और उसे (महमूद गजनवी को) रेगिस्तान में ले गये। जहां पानी तो क्या घास तक भी नही थी।

सुल्तान ने पूछा कि यह कैसा रास्ता था जिस पर वह चल रहे थे और क्या आसमान में कोई बस्ती या बाशिंदे भी थे या नहीं? उन्हेांने तब उत्तर दिया कि वे मुखिया राज मुखिया राजा (जिस व्यक्ति ने शत्रु सेना को भ्रमित कर अपरिमित कष्ट पहुंचाने के लिए ऐसी योजना बनायी और उन आत्मघाती देशभक्तों को इस पवित्र कार्य के लिए नियुक्त किया था) के बताये रास्ते पर चल रहे हैं और वे निर्भीक होकर उसको भटकाने का काम कर रहे हैं। अब (महमूद) समुंदर तुम्हारे सामने है और हिंद की सेना तुम्हारे पीछे। हमने अपना काम पूर्ण किया। अब तुम जो चाहो सो करो। तुम्हारी फौज का कोई भी आदमी अब बच नही पाएगा।’

ऐसे वीर प्रतापी शासक ऐसी अनूठी सेनाएं और ऐसे अदभुत देशभक्त नागरिकों के रहते भी यदि भारत को और हिंदू समाज को कायरों का समाज कहा जाता है तो ये केवल अपने गौरवपूर्ण अतीत को भली प्रकार न समझने का परिणाम है। वास्तव में ये वीर प्रतापी शासक, ये अनूठी सेनाएं और अदभुत देशभक्त नागरिक ही तो वो कारण थे जिनसे ‘हमारी हस्ती नही मिटी’ और हम अपनी स्वतंत्रता के लिए सदियों तक लड़ते रहे।

संभवत: यजुर्वेद (9-23) में यह व्यवस्था ऐसे राष्ट्र प्रेमी लोगों के लिए ही की गयी है-

वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता: स्वाहा।

अर्थात हम अग्रसर होकर अपने राष्ट्र में जागृत रहें ऐसा, हम मानते हैं।

क्या यह स्वाभाविक प्रश्न नही है कि जिस देश का आदि धर्मग्रंथ राष्ट्र के प्रति ऐसी  उदात्त राष्ट्रीय भावनाओं और कामनाओं से ओतप्रोत  हो उस देश के नागरिक इस प्रकार की उदात्त राष्ट्रीय भावनाओं से क्यों कर अछूते रह  सकते हैं?

हमारी मातृभूमि मां है और मां के मर्मस्थल को आहत करना कोई भी मातृभक्त नही चाहता। उसी प्रकार का प्यारा और पवित्र संबंध हमने अपनी मातृभूमि के प्रति प्राचीन काल से ही स्थापित किया है। अत: मां के मर्म स्थल को और हृदय को चोट न पहुंचाने के लिए हमें वेद ने यों आदेशित किया है-

मा तो मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमार्पियम्।  (अथर्व 12-1-35) अर्थात हे मातृभूमि हम तेरे हृदय और मर्मस्थल को चोट न पहुंचावें।

राष्ट्रप्रेम की ऐसी उत्तुंग भावना और माता पुत्र का ऐसा पवित्र संबंध विश्व में केवल और केवल भारतीय  संस्कृति में ही है, अर्थात वैदिक संस्कृति में। यदि अन्यत्र कहीं ये संबंध है भी तो वह इतनी आत्मीयता का नही है क्योंकि वह भारतीय संस्कृति की अनुकृति मात्र है। परछाई है, वास्तविकता नही है। अनुकृति और परछाई में भ्रांति हो सकती है, परंतु वास्तविकता में नही हो सकती। इसलिए अपने विषय में हम इस आत्मघाती सोच से बाहर निकलें कि इस देश में राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता का या देश और देशभक्ति का सर्वथा अभाव रहा हो।हम जीवन्तता के उपासक रहे हैं, हम जिज्ञासु रहे हैं, हम जिजीविषा के भक्त रहे हैं, और ये तीनों बातें वहीं मिलती हैं-जहां  लक्ष्य के प्रति समर्पण होता है, जहां समूह के प्रति, राष्ट्र और समाज के प्रति व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों को समझता है, और उन्हीं के लिए जीवन को जीता है। भारत ने इन्हीं के लिए जीवन जीना सिखाया है, इसलिए भारत की हर मान्यता और उसकी संस्कृति का हर मूल्य अविस्मरणीय है, पूज्यनीय है और वंदनीय है।

क्रमश:

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