हमारी शिक्षा और : व्यवस्था पाकिस्तान चाहे जो मर्जी हो पढ़ाए, पर हम क्या कम हैं ?

पाकिस्तान में क्या और क्यों पढाया जा रहा है इस विषय में मेरी अभिरुचि नहीं है। यह विमर्श इस लिये प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे हम उदाहरण सहित समझ सकें कि पूरी निर्पेक्षता से बच्चो को पढाया जाना क्यों आवश्यक है। झंडे और नारे के नीचे तैयार किये गये पाठ्यक्रम केवल नस्ल ही नहीं बल्कि किसी देश का सम्पूर्ण नाश कर सकते हैं इसे पाकिस्तान के वर्तमान हालात और उसके स्कूलों के अध्ययन-अध्यापन से भी समझा जा सकता है। पाकिस्तानी लेखक तथा इतिहासकर के. के. अज़ीज़ की पुस्तक है – “इतिहास का कत्ल” जिसका हिंदी में अनुवाद शिल्पायन प्रकाशन से सामने आया है। श्री अज़ीज़ अपनी पुस्तक में बहुत बारीकी से विवेचित करते हैं कि प्राथमिक शिक्षा से ले कर उच्च शिक्षा तक किस तरह वास्तविक इतिहास को पाकिस्तान में तोडा मरोडा गया है। किस तरह ख़ास किस्म की भाषा के माध्यम से भारत को दुश्मन मुल्क बना देने की मानसिकता बचपन से ही धार्मिक चाशनी में लपेट कर पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से खिलायी गयी है। पाकिस्तान में कक्षा एक से चौदह तक पढाई जाने वाली सडसठ पुस्तकों की विवेचना करने के पश्चात इसके लेखक श्री के के अजीज भूमिका में लिखते हैं कि “यह पुस्तक मैने क्यों लिखी, इसका जवाब है कि – मैने इसे भावी पीढियों के लिये लिखा। कभी कभी मुझे महसूस होता है कि मैने अपनी सभी पुस्तकें उन पीढियों के लिये लिखी हैं जिन्हें मैं कभी नहीं देख पाउंगा। सौ वर्षों बाद जब भविष्य का इतिहासकार बीते युग के साथ पाकिस्तान पर चिंतन करने बैठेगा और उन कारणों को खोजेगा जिन्होंने इसे नीचे गिराया, शायद उसे मेरे इस पुस्तक में एक मोमबत्ती मिले जिसकी कांपती लौ उसका मार्गदर्शन करेगी”।

भारत भी कहीं पीछे नहीं है। लगभग इसी धारा में, भारतीय विद्वान अरुण शौरी ने अपनी पुस्तक “जाने माने इतिहासकार और उनके छल” में परते उधेडी हैं कि भारत के इतिहास और शिक्षा का कैसे वामपंथीकरण किया गया। किस तरह चुन चुन कर भारतीय ज्ञान, संस्कृति तथा इतिहास के अनेक संदर्भ हटाये अथवा विकृत किये गये। पश्चिम बंगाल के पाठ्यपुस्तकों में वाम-शासन के दौरान निर्मम छेड-छाड हुई इसका उदाहरण देते हुए लेखक ने बताया है कि कैसे रूस, चीन, क्यूबा और वियतनाम जैसे देशों की क्रांतियों और उसके कारणों को छोटे बच्चों के पाठ्यक्रम में जबरन घुसाया गया है। प्रश्न है कि क्या विश्व में लोकतांत्रिक सरकारों के लिये संघर्ष नहीं हुए? तो फिर एक लोकतांत्रिक प्रणाली वाले राष्ट्र के बच्चे अप्रासंगिक उदाहरणों को प्रासंगिक से अधिक जोर-जोर से क्यों पढते पाये जाते हैं? पाकिस्तान ने तो जो किया खुलेआम किया परंतु इतिहास के जो कातिल भारत में समुपस्थित हैं उन्होंने लाल रुमाल से अपना चेहरा ढक रखा है। श्री शौरी छलिया इतिहासकारों और पाठ्यपुस्तक के लेखकों पर निशाना साधते हुए अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में लिखते हैं – “….उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की है कि भारत की धरती शून्य में पडी थी और उसकी शून्यता को भरा एक के बाद एक आने वाले हमलावरों ने। उन्होंने आज के भारत और उससे भी ज्यादा हिंदू धर्म को एक चिडियाघर के रूप में पेश किया है।….उनका यह कहना है कि भारत जैसी कोई चीज नहीं थी, यह तो मात्र भौगोलिक अभिव्यक्ति थी। इसका निर्माण तो आ कर अंग्रेजो ने किया है”। सत्यता है कि आप मैक्समूलर से ले कर इरफान हबीब तक को पढेंगे तो आपको उनके कथनाशय और तेवर में कोई अंतर नहीं दिखाई पडेगा।

हाल-ए-पडोसी मुल्क की बात करते हैं, कुछ उदाहरण देखें, पाकिस्तान में कक्षा एक की पुस्तक (मु’आशराती उलम, प्रकाशक – शकील ब्रदर्स कराची) यह तो बताती है कि लियाकत अलीखान की मजार कराची में है लेकिन पुस्तक का मोहनजोदाडो पाठ नहीं बताता कि यह कहाँ स्थित है। कक्षा तीन की पुस्तक (मु’आशराती उलम, प्रकाशक – पाठ्यपुस्तक परिषद, लाहौर) बताती है कि “राजा जयपाल ने महमूद गजनवी के देश में घुसने की कोशिश की। इस पर महमूद गजनवी ने राजा जयपाल को हरा दिया, लाहौर को हथिया लिया और इस्लामी हुकूमत की स्थापना की”; अजीज साहब ने यह प्रश्न भी छोडा है कि क्या महमूद गजनवी के आक्रमण की यह व्याख्या हिन्दुस्तान पर उसके बार बाद मारे गये छापों और अकारण हिन्दू पूजाग्रहों की लूटमार को भी न्याय संगत ठहराती है? अपने ही इतिहास को झुठलाते पाकिस्तान के प्रयासों की कलई खोलते हुए अज़ीज़ लिखते हैं कि कक्षा चार की 92 पृष्ठों वाली पुस्तक में केवल दो पृष्ठ इतिहास पर हैं जबकि अंतिम नौ पाठ इस्लाम के पैगम्बरों पर हैं, चार धर्मात्माओं, खईफाओं, सैयाद अहमद बरेलवी, हजरत पीर बाबा, मलिक खुदाबख्श और जिन्ना पर। कक्षा चौथी की ही पुस्तक (मु’आशराती उलम, प्रकाशक – पंजाब पाठ्यपुस्तक परिषद, लाहौर, पाठ-12) हिन्दू धर्म/मान्यताओं पर हमला करती है तथा इसमें मुसलमान आक्रमण को एक यात्रा की तरह बताया जाता है। 1965 के युद्ध पर इस पुस्तक में उल्लेखित है कि “आखिरकार भारत ने पाकिस्तान की जनता और फौज से डर कर शांतिप्रस्ताव पेश किया”।

पाकिस्तान में कक्षा पाँच की पुस्तक (मु’आशराती उलम, प्रकाशक – एनडब्लूएफपी, पेशावर) बांगलादेश बनने के विषय में बच्चों को बताती है कि “भारत ने अपने गुर्गों द्वारा पूर्वी पाकिस्तान में दंगे करवाये और फिर चारो और से उस पर हमले किये। इस प्रकार पाकिस्तान भारत से एक और युद्ध लडने के लिये बाध्य हुआ। यह युद्ध दो सप्ताह चला। उसके बाद पूर्वी पाकिस्तान अलग हो गया और बांग्लादेश बन गया। कक्षा छठवी की पुस्तक (मु’आशराती उलम, प्रकाशक – पंजाब पाठ्यपुस्तक परिषद, लाहौर) में उल्लेखित है कि “हिन्दुओं ने अपना अलग राजनैतिक दल बनाया दि इंडियन नेशनल कॉग्रेस”। इसी पुस्तक का पृ 110 बटवारे का उल्लेख करते हुए लिखता है “हिन्दू और सिक्खों ने निहत्थे मुसलमानों का कत्लेआम किया….” अज़ीज़ लिखते हैं कि यह इस तरह लिखा गया है मानो मुसलमान आत्मरक्षा में भी नहीं लडे। कक्षा सात की पुस्तक (मु’आशराती उलम, प्रकाशक – पश्चिमी पाकिस्तान पाठ्यपुस्तक परिषद, लाहौर) में 1857 की लड़ाई का जिक्र करते हुए लिखा गया है कि “अंग्रेज सरकार के खिलाफ मुसलमानों द्वारा छेडा गया जिहाद था जिसमें औरों ने भी भाग लिया। कक्षा आठ की एक पुस्तक में तो इस लड़ाई को पाकिस्तान निर्माण की अवधारणा से भी जोड दिया गया है।

पाकिस्तान ने अपने पाठ्यक्रम किस तरह तैयार किये और छोटे छोटे बच्चों को क्या पढाया यह स्पष्ट है परंतु इसके उन्हें लाभ क्या हुए और हानि क्या? पाकिस्तान कटोरा लिये विश्व के सभी उन्नत देशों और कर्जा देने वाले राष्ट्रों के आगे इसीलिये भटकता रहता है चूंकि पाठ्यपुस्तक से बच्चे-बच्चे के दिल-दिमाग में फैलाया गया जहर उन्हें पेट में पत्थर बांध कर भी कश्मीर के लिये कथित जेहाद करने पर बाध्य करता है। जो पढाया गया उससे वे लगभग अनपढ ही रहे इसीलिये उनके यहाँ सूई से ले कर मिसाईल तक सब इम्पोर्टेड है। हालात का फायदा उठा कर चाईना-पाकिस्तान इकॉनॉमिक कॉरिडोर बनाने वाले चीन ने पाकिस्तान को अपनी अघोषित कॉलोनी बना लिया है। एक स्वतंत्र राष्ट्र सचेत हो अथवा उपनिवेश बन कर रहे, यह उनकी समस्या है। पाकिस्तान के हालात से हमारे लिये सबक क्या हैं? क्या प्राचीन ज्ञान और विज्ञान को सिरे से खारिज कर हमने भारतीय शोध की स्थापित दिशा को बाधित नहीं कर दिया है? क्या विचारधारा परक साहित्य पढते हुए बच्चे अब कविता-कहानी जैसी रोचक और बुनियादी साहित्यिक विधा से भी कन्नी नहीं काटने लगे हैं? हमारे कतिपय श्रेष्ठ कहे जाने वाले विश्वविद्यालययों में अनार्की अथवा अराजकता के पीछे खास विचारधारा तो है ही वे पाठ्यपुस्तकें भी हैं जिनमें सोचे-समझे क्षेपक घुसाये गये हैं। भारत विखण्डकों का सपना पाठ्यपुस्तकों से हो कर ही पूरा हो सकता है इसीलिये सुनियोजित ढंग से गढे गये पाठ्यक्रमों में जरा सा भी परिवर्तन उन्हें असहनीय हो जाता है। [अगली कड़ी में जारी……..]

भारत विखण्डन के बीज और इतिहास की पाठ्यपुस्तक
[हमारी शिक्षा और व्यवस्था, आलेख – 30]
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मैं इतिहास की वर्तमान पाठ्यपुस्तकों को थोथा थोथा गहि रहे और सार सार उडाय के दृष्टिगत देखता हूँ। एनसीईआरटी की कक्षा बारह की इतिहास पुस्तक से विमर्श को आरम्भ करते हैं। बारहवीं अर्थात स्कूली शिक्षा का आखिरी वर्ष, कला विषय ले कर पढ रहे छात्रों के लिये उनकी उच्चतम कक्षा। प्राचीन भारत के इतिहास में क्या छोडा-क्या पढाया यह विषय गौण है क्योंकि जो पढाया जा रहा है उसमें भी बुनियादी जानकारियाँ छोड दी गयीं हैं। नीलाद्रि भट्टाचार्य द्वारा लिखी गयी कक्षा-12 इतिहास पाठ्य पुस्तक की भूमिका कहती है – “कक्षा छ: से आठ तक हमने आपको इतिहास के प्रारम्भिक युग से ले कर आधुनिक समय तक की जानकारी प्रदान की।….यह किताब हडप्पा संस्कृति से आरम्भ होती है तथा भारतीय संविधान के निर्माण पर समाप्त होती है। इसमें पाँच हजार वर्षों का सामान्य सर्वेक्षण नहीं बल्कि कुछ विषेश विषयों का गहन अध्ययन किया गया है”। इस प्रस्तावना से ही स्पष्ट है कि क्या पढाना है और क्या छोड दिया जाना इसके पीछे बहुत माथापच्ची हुई है। उदाहरण के लिये मोहनजोदाडो पढा जायेगा लेकिन पूर्व वैदिक और उत्तर वैदिक समय विलोपित कर दिया जायेगा फिर हम सीधे मौर्यों के युग में प्रवेश कर जायेंगे। ठीक है आपने चतुराई से पाठ्यपुस्तक का नामकरण ही “भारतीय इतिहास के कुछ विषय” रखा है अत: मन-मर्जी आपकी। तथापि जब आप चयनित विषय ही पढा रहे हैं तो उसमे भी समग्रता क्यों नहीं?

संदर्भित पाठ्य पुस्तक हडप्पा के बाद सीधे सोलह महाजनपदों से आरम्भ करती है। तो क्यों हैं ये सोलह महाजनपद? क्या सभी एकतंत्र ही थे? आप गर्जना करते हैं कि हम संविधान की निर्मिति तक बारहवीं कक्षा के बच्चों को पढाने जा रहे हैं। ठीक है, हम आज लोकतंत्र हैं अत: हमारा संविधान कैसे बना पढाया ही जाना चाहिये। क्या हम पहली बार लोकतंत्र बने थे? हम कब से लोकतंत्र थे इसकी जानकारी से पूर्व यह उल्लेखित करना चाहूंगा कि एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं की पुस्तक “विश्व इतिहास के कुछ विषय” आपको यूरोप की पहली युनिवर्सिटी कौन सी थी, इस्लामी और यूरोपीय राष्ट्रों में क्या आरम्भिक शासन पद्यतियाँ थीं, कब क्या वैज्ञानिक प्रगति हुई इसकी भी जानकारी प्रदान करेगा लेकिन यह सब इसी श्रंखला की बारहवी की पुस्तक के भारतीय संदर्भों में विलोपित मिलेगा, क्यों? आपने वैदिक युग को चयनित विषयों में नहीं लिया फिर महाभारत को महाकाव्य मान कर उसके आधार पर सामाजिक विभेदों पर विमर्श सामने रखने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? आप बच्चों को वर्ण व्यवस्था पढा रहे हो तो स्पष्ट तौर पर सामने रखा जाना चाहिये कि कैसे कर्म आधारित व्यवस्था जन्म आधारित बनी। बीच से ऐसे चुनिंदा संदर्भ को उठा कर पढाया जाना बदलते हुए समाज और क्रमिकता से समाप्त होती जातिव्यवस्था के बीच जहरीले प्रसंग हैं और दुर्भाग्य से पाठ्यपुस्तक लिखने वालों का ध्यान नयीं गया अथवा विचारधाराओं के वशीभूत ऐसा जानबूझ कर किया गया पता नहीं? पाठ्यपुस्तक को तक्षशिला क्यों नजर नहीं आयी, चाणक्य का अर्थशास्त्र क्यों नहीं दिखा या कि इस दौर के चरक-सुश्रुत जैसे विद्वान कैसे अपने शोध से बडे बदलाव ला रहे थे आदि महत्वपूर्ण नहीं लगे लेकिन यह पढाना आवश्यक लगा कि द्रोणाचार्य ने अर्जुन का अंगूठा क्यों और कैसे काटा अथवा चाण्डालों के कर्तव्यों की सूची क्या है? यदि वैदिक युग पढाया नहीं जाना था तो फिर यज्ञ और विवाद जैसे विषय क्यों लिये गये? क्या ऐसा करने से इतिहास के विद्यार्थी आधी अधूरी जानकारी ले कर पूर्वाग्रहग्रसित नहीं हो जायेंगे? क्या ऐसा आरोप नहीं लगाया जाना चाहिये कि कतिपय विषय जान बूझ कर उठाये गये हैं और कुछ को सोच-समझ कर छोडा गया है? सोचिये तो कि क्या भारत विखण्डन के जो वर्तमान परिदृश्य हैं उसके जनक हमारी पाठ्यपुस्तके ही हैं?

तो प्रश्न उठता है कि क्या अवश्य पढाया जाना चाहिये था? कक्षा बारहवी की इतिहास पुस्तक भारतीय लोकतंत्र के निर्माण तक की व्याख्या करने के लिये बनायी गयी है तब क्यों छात्रों को यह न बताया जाये कि विश्व को लोकतंत्र हमने ही दिया है? पाठ्यपुस्तक में उल्लेख है कि – “अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन था लेकिन गण और संघ के नाम से प्रसिद्ध राज्यों में कई लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। भागवान महावीर और भगवान बुद्ध इन्हीं गणों से सम्बंधित थे”। जी हाँ द्रोणाचार्य और द्रोपदी पर कई पन्ने जानकारी जुटाने वाली हमारी पाठ्यपुस्तक भारतीय प्राचीन लोकतंत्र को इतनी ही अहमियत देती है। इन पंक्तियों को पढ कर कोई समझ जाये कि किसी लोक आधारित शासन व्यवस्था की बात हो रही है तो विद्यार्थी अति-मेधावी ही होगा। क्या प्राचीन भारतीय गणताज्यों को संक्षेप में ही सही पढाया नहीं जाना चाहिये था जबकि हम आगे के पाठ में आधुनिक संविधान की व्याख्या भी करना चाहते हैं? क्या जिन जनपदों का नामोल्लेख पाठ्यपुस्तक में है वे राजाधीन और गणाधीन दोनो ही प्रकार की शासन व्यवस्थाओं वाले नहीं थे? राजा के आधीन शासन अर्थात एकतंत्रात्मक शासन प्रणालियों की तो एनसीआरटी की पाठ्यपुस्तक में सविस्तार व्याख्या है अत: केवल गणराज्यों की बात करते हैं जिसकी कल्पना के लिये आधुनिक लोकतंत्र को सामने रख कर समझा जा सकता है। उन समयों के गणतंत्र में हर कुल से एक व्यक्ति प्रतिनिधि के रूप में चुना जाता था और वह राजा कहलाता था। महाभारत के सभापर्व में ‘गृहे गृहे ही राजान:” का उल्लेख है। बाद के समयों में वैशाली के गणतंत्र को बौद्ध और जैन साहित्यों में उल्लेख के कारण अत्यधिक ख्याति प्राप्त हुई? बहुसंख्यक का शासन संदर्भित शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्ववेद में नौ बार और ब्राह्माण ग्रंथों में तो अनेको बार किया गया है। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। पाठ्यपुस्तक कें जब महाभारत पढा ही रहे थे तो यही बता देते कि वृष्टि, भोज, अंधक, कुक्कुर, शूर आदि में बंटे यादव संघों और गणराज्यों को एकीकृत करने में कृष्ण को सफलता हासिल हुई। कृष्ण गणप्रमुख चयनित हुए थे?

प्राचीन गणतंत्र व्यवस्था में गणाध्यक्ष पद के लिये निर्वाचन होता था। गणाध्यक्ष को केंद्रीय परिषद की मदद से राज्य कार्य का संचालन करना होता था। इस परिषद को संथागार कहा जाता था। गणाध्यक्ष संथागार की सहमति के बिना कोई कार्य करने या निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र नहीं था। संथागार में किसी बैठक के लिये सदस्यों की एक निश्चित संख्या से अधिक की उपस्थिति अनिवार्य थी। जिसे हम आज की भाषा में कोरम का पूरा होना कह सकते हैं। गणपूरक अधिकारी यह निर्धारित करता था कि संथागार में होने वाली किसी बहस के संचालन के लिये समुचित सदस्य उपस्थित हैं अथवा नहीं। जैसे आजा हमारी लोकसभा में सीट का महत्व है तब आसन का हुआ करता था। सभा भवन में सदस्यों के बैठने की जगह को आसन कहा जाता था, इसपर बैठने वाले सदस्य को आसनपन्नापक कहा जाता था। संथागार में एक निश्चित विषय पर हर एक सदस्य को बोलना होता था। किसी प्रस्ताव के पढे जाने को ‘ज्ञाप्ती का अनुसावन’ कहा जाता था। कभी-कभी प्रस्ताव पाठ कई बार होता था और जो सदस्यगण प्रस्ताव के पक्षधर होते थे वह मौन रहते थे, केवल विपक्ष में मत रखने वाले सदस्य ही अपने अपने तर्क प्रस्तुत करते थे। विवादग्रस्त सवाल पर भिन्न-भिन्न रंगों की श्लाकाओं द्वारा मतविभाजन होता था जिसे ‘छंद’ कहते थे। श्लाकाओं को एकत्र करने वाला अधिकारी ‘श्लाकाग्राहक’ कहलाता था। किसी प्रस्ताव पर मतदान के तीन तरीके प्रचलित थे पहला, जिसमें मतदाता का नाम गोपनीय रखा जा सकता था। दूसरा, सभाध्यक्ष से एकांत में कह दिया जाता था। तीसरा, रंगीन श्लाकाओं के माध्यम से मतदान किया जाता और उसकी गिनती कर फैसला किया जाता था। संथागार की पूरी कार्रवाई लिपिक द्वारा लिपिबद्ध की जाती थी। एक और बात, गणाध्यक्ष को त्वरित लिये जाने वाले आवश्यक निर्णयों में सलाह देने के लिये संथागार की व्यवस्था साथ साथ अलग मंत्रिमंडल होता था जिनकी नियुक्ति संथागार सदस्यों की सहमति द्वारा की जाती थी।

यह विवेचना भी आवश्यक है कि क्या उस समय के गणराज्य सफल व्यवस्था थे? कृष्ण द्वैपायन ने महाभारत के शांति पर्व में प्राचीन गणतंत्र की कुछ त्रुटियों को लिखा है। उनके अनुसार गणतंत्र मंष प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी बात कहता है और उसी को सत्य मानता है। इससे पारस्परिक विवाद बढता है। अनेक बार किसी निर्णय पर पहुँचने से पूर्व घोर असहमतियाँ बड़े संघर्ष का रूप ले लेती हैं। छठी शताब्दी ईसापूर्व के इन गणराज्यों में एक सुनियोजित शासन व्यवस्था देखने को मिलती है लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि संथागार के सदस्यों की पारस्परिक द्वेष भावना, गुटबंदी, उच्च पदों पर वंशानुगत अधिकारियों की नियुक्ति आदि ने समय के साथ प्राचीन गणराज्यों को कमजोर किया”। संभवत: यही कारण रहा होगा कि गणराज्य फिर साम्राज्यों का हिस्सा बनते चले गये। जनपदों को महाजनपद का आकार लेते, राज्यों को साम्राज्य बनते और उन्हें बिखरते हुए भी इसी दृष्टिकोण से समझा जा सकता है। इस विवेचना को पढने के पश्चात आधुनिक कडियाँ जोडिये कि आज हमारा लोकतंत्र भी तो इसी समस्या से दो-चार हो रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि हम अपने बच्चों को स्वतंत्र विमर्श के नाम पर चुनिंदा शीर्षक तो नहीं पढा रहे जिन्हें किसी खास विचारधारा की मथनी से मथ कर फिर परोसा गया है? विचार कीजिये और सवाल उठाईये कि जो शीर्षक पढाये जा रहे हैं वे एकपक्षीय क्यों और जो छोड दिये क्या वे महत्वपूर्ण नहीं थे? सोचना आरम्भ कीजिये, कहीं देर न हो जाये?
[अगली कड़ी में जारी……..]
– ✍🏻राजीव रंजन प्रसाद,
सम्पादक, साहित्य शिल्पी ई पत्रिका

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