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राजा के शास्त्रोचित दिव्य गुणों से विभूषित थे गुर्जर सम्राट मिहिर भोज

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज की जयंती के अवसर पर विशेष

अग्नि अर्थात प्रकाश के उपासक भारतवर्ष का सबसे पहला राजवंश वैवस्वत मनु के द्वारा सूर्यवंश के रूप में स्थापित किया गया । इस सूर्यवंश को ही इक्ष्वाकुवंश , अर्कवंश और रघुवंश के नाम से भी जाना जाता है । भारतवर्ष के ही नहीं अपितु समस्त भूमण्डल के सबसे पहले राजवंश के रूप में स्थापित किए गए इसी सूर्यवंश में अनेकों प्रतापी , जनसेवी , प्रजाहितचिंतक और ईशभक्त सम्राट उत्पन्न हुए। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी महाराज का जन्म भी इसी वंश में हुआ ।
भारत के राजाओं की यह एक विशेषता रही है कि वह अपनी प्रजाओं की सुख – सुविधाओं और ऐश्वर्यों की वृद्धि के लिए सदा सचेष्ट रहते थे । महर्षि मनु ने ही राजा के बारे में व्यवस्था दी है कि यह सभेश अर्थात राजा जो कि परम विद्वान और न्यायकारी है , इन्द्रअर्थात विद्युत के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्त्ता , वायु के समान सबको प्राणवत प्रिय और हृदय की बात जानने हारा , यम अर्थात पक्षपात रहित न्यायाधीश के समान वर्तने वाला , सूर्य के समान न्याय , धर्म , विद्या का प्रकाशक , अंधकार अर्थात अविद्या अन्याय का निरोधक , अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करने वाला , वरुण अर्थात बांधने वाले के समान दुष्टों को अनेक प्रकार से बांधने वाला , चन्द्र के तुल्य श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्ददाता , धनाध्यक्ष के समान कोषों का पूर्ण करने वाला सभापति होवे । ( सत्यार्थ प्रकाश , पृष्ठ 140 )

जो राजा प्रजा की सुख सुविधा
का ध्यान हमेशा रखता है ।
प्रजा के ऐश्वर्यों की वृद्धि को
सदा धर्म अपना समझता है ।।
शीघ्र न्यायकारी ऐश्वर्यकर्त्ता ,
वह राजा इंद्र कहाता है ।
वायु के सम्मान सबको प्रिय ,
वह हृदय – रहस्य समझता है ।।
न्यायाधीश समान वर्त्ते सबसे
इसलिए उसे हैं यम कहते ।
सूर्य के समान विद्या प्रकाशक
अंधकार विनाशक उसको कहते ।।
अग्नि के समान दुष्टों को बांधे
चंद्र तुल्य आनंद करता ।
कोषों को पूर्ण करने वाला
कहलाता जन -जन का भर्त्ता ।।

महर्षि मनु के द्वारा इस श्लोक में चार बार न्याय शब्द प्रयोग हुआ है । लगभग हर पंक्ति में उनके द्वारा न्याय पर विशेष बल दिया गया है । महर्षि मनु के द्वारा अपने आदि संविधान मनुस्मृति में इस प्रकार की व्यवस्था करने का उद्देश्य केवल यही है कि राजा हर स्थिति परिस्थिति में अपनी प्रजा के मध्य न्याय करने के लिए कटिबद्ध हो । किसी भी प्रकार के अन्याय का प्रतिकार करना राजा का परम दायित्व है । केवल कर वसूल करना और जनता का खून चूसकर जनसंहार आदि के लिए अपनी सेनाओं का दुरुपयोग करना — यह हमारे देश में राजा की राजनीति में कभी भी सम्मिलित नहीं रहा है। भारत इसी प्रकार की राज्य व्यवस्था का उपासक राष्ट्र रहा है । जिन लोगों ने दूसरों की स्वाधीनता को हड़पकर दूसरी संस्कृतियों को मिटाने के लिए अपनी सेनाएं सजाईं , भारत ने उनका प्रतिकार किया । भारत की इसी क्षत्रिय परम्परा का निर्वाह करते हुए गुर्जर सम्राट मिहिर भोज उन आक्रमणकारियों के लिए सीना तान कर खड़े हो गए , जो किसी भी प्रकार से उस समय अन्याय और अत्याचार का प्रतीक बन चुके थे ।

राजा के लिए आवश्यक हैं यह 8 गुण

महर्षि मनु ने भारतवर्ष में राज्य व्यवस्था का शुभारम्भ किया और उन्होंने राजा के ये ऊपरिलिखित आठ गुण बताए । इस प्रकार भारतीय राज्यपरम्परा में प्रत्येक जनहितकारी कार्य करने वाले राजा के लिए इन आठों गुणों को अपनाना आवश्यक है । हमारे देश में सम्राट की उपाधि उसी राजा को मिलती रही है जो इन गुणों से अपने आप को सुभूषित कर लेता है । सम्राट राज्य विस्तार से नहीं , चरित्र विस्तार से बना जाता है और इसे सीखने के लिए भारतीय राजनीति के इस मौलिक चिंतन को सीखना , समझना और स्वीकार करना पड़ेगा।
यदि मिहिर भोज के नाम के साथ सम्राट की उपाधि लगती है तो हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि इस महान शासक के भीतर राजा के ये सभी आठ गुण समाविष्ट थे । उसकी देशभक्ति अप्रतिम थी । वह स्वतन्त्रता का परम उपासक इसलिए माना जाता है कि उसने भारत पर आक्रमण करने वाले इस्लामिक आक्रान्ताओं को मार भगाने का इतिहास प्रसिद्ध कार्य किया। कुछ इतिहासकारों ने सम्राट मिहिर भोज के बारे में ऐसा लिखा है कि वह मनुस्मृति की व्यवस्था से शासन न चलाकर देवल स्मृति की व्यवस्था के अनुसार शासन चलाते थे , जबकि ऐसा नहीं था ।
परन्तु यदि ऐसा मान भी लिया जाए तो भी हमारा तर्क है कि देवल आचार्य के द्वारा भी ‘देवल स्मृति’ में जो कुछ भी लिखा गया वह भी मनु महाराज की व्यवस्था के अनुरूप ही लिखा गया । उसमें देश, काल, परिस्थिति के अनुसार या लेखक ने अपने विवेक के अनुसार यथावश्यक कुछ आगे पीछे जोड़ दिया हो , यह एक अलग बात है , परन्तु मूल विचार ‘देवल स्मृति’ में भी महर्षि मनु का ही मिलता है।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस सूर्यवंश के प्रतिहार शासक के रूप में सम्राट मिहिर भोज शासन कर रहे थे उस सूर्यवंश के शासन का आधार मनुस्मृति ही रही थी , इसलिए उससे अलग जाकर किसी अन्य शास्त्र के अनुसार शासन चलाना सम्राट मिहिर भोज के लिए सम्भव नहीं था । यदि यह मान भी लिया जाए कि देवल स्मृति के अनुसार उन्होंने शासन चलाया तो देवल स्मृति में भी कुछ चुने हुए उन्हीं सूत्रों को लिया गया था जो मनु प्रतिपादित व्यवस्था के एक भाग थे ।
जैसे आचार्य मेधातिथि का कथन है कि दंड विधान या न्याय विधान राजा से ऊंचा है तथा छोटे व बड़े सब पर समान रूप से लागू होता है । किसी भी प्रकार की गलती करने पर महामंत्री भी दंडित किया जा सकता है और स्मृति के विधान अनुसार प्रजा की मान्यताओं के अनुसार देश व धर्म की रक्षा व शासन न करने वाले राजा को भी हटाया जा सकता है।

मनु की व्यवस्था का प्रभाव

यह कथन चाहे मेधातिथि का रहा हो चाहे देवल स्मृति का रहा हो , परन्तु मूल रूप में यह मनुस्मृति के प्रावधान में कुछ सुधार करके बनाया गया है । यद्यपि मनुस्मृति में शूद्र की अपेक्षा ब्राह्मण को अधिक दण्ड देने का विधान किया गया है । मेधातिथि के इस कथन में तो छोटे व बड़े सब पर विधान को समान रूप से लागू करने की बात कही गई है , जबकि मनु बौद्धिक स्तर के अनुसार दण्ड देने के समर्थक हैं । शूद्र क्योंकि बौद्धिक स्तर पर कमजोर होता है , इसलिए वह किए गए अपराध के परिणाम से ब्राह्मण की अपेक्षा कम परिचित होता है । अतः मनु के विधान के अनुसार ब्राह्मण और राजा या राजा के कर्मचारी शूद्र की अपेक्षा दण्ड के अधिक पात्र हैं । मनु शूद्र के अधिकारों के समर्थक रहे हैं । साथ ही शूद्र के लिए उन्होंने यह व्यवस्था भी दी है कि वह शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ब्राह्मण बन सकता है । इन व्यवस्थाओं में कुछ लोगों ने स्वार्थवश कहीं परिवर्तन किए हैं । यह सम्भव है कि गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के समय तक यह परिवर्तन कर दिए गए हों , इसलिए उन्होंने इन परिवर्तनों को हटाने या उनके स्थान पर समय के अनुसार नए प्रावधानों को अंगीकृत करने की बात यदि स्वीकार कर ली हो तो इसका अभिप्राय यह नहीं है कि मनुस्मृति को उन्होंने कूड़ेदान में फेंक दिया था। कुल मिलाकर के मूल रूप में मनुस्मृति के राजधर्म सम्बन्धी विधान ही सम्राट मिहिर भोज के लिए प्रमाणिक था। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि चीन की महान दीवार के निर्माण के समय तक चीन जैसा देश भी मनुस्मृति के संविधान से ही शासित होता रहा था । जो कि सम्राट मिहिर भोज के शासनकाल के सदियों बाद की घटना है। ऐसे में भारत के शासक मनुस्मृति से प्रभावित ना रहे हों , ऐसा नहीं हो सकता।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि मनु की राज्य व्यवस्था से सम्बन्धित श्लोकों का यदि अध्ययन किया जाए तो संसार के वर्तमान सभी संविधानों के अनेकों प्रावधानों पर भी मनुस्मृति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है । तब देवल स्मृति में मनुस्मृति से अलग सारी व्यवस्था कर दी गई हो – यह भला कैसे सम्भव हो सकता है ? यही कारण है कि हम अपने इस महानायक , जन हितैषी , महापराक्रमी और महान देशभक्त सम्राट के महान कार्यों का अवलोकन मनुस्मृति में मनु महाराज द्वारा बताए गए राजा के आठ गुणों के आधार पर ही करना चाहेंगे।
सम्राट मिहिर भोज की मंत्रिपरिषद व उसके प्रशासन के अधिकारियों का अधिक विवरण अभी उपलब्ध नहीं हो पाया है । इसका कारण यह है कि इस महान सम्राट के इतिहास को पूर्णतया मिटाने का कार्य विदेशी मुस्लिम लेखकों और शासकों के द्वारा किया गया। इसके उपरान्त भी जितनी जानकारी हमको उपलब्ध होती है उसके आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह शासक महानतम विजेताओं और साम्राज्य निर्माताओं में से एक था। जैसा कि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी कहते हैं कि :– “भोज की महानता की यादगारों को बर्बरता ने मिटा दिया गया है। अब से थोड़े से वर्ष पूर्व तक वह भारतीय इतिहास की खोज करने वालों को ज्ञात नहीं था , प्रण जैसा कि अब तक की खोजों से संकेत मिलता है, अब से आगे की खोजों से अवश्य ही यह पूर्णत: सिद्ध हो जाएगा कि मिहिर भोज किसी भी काल के महानतम विजेताओं तथा साम्राज्य निर्माताओं में से एक था।”
इस सम्राट के सब प्रांतों के सब दण्डनायक और राज्यपालों , तंत्रपालों आदि का विवरण उपलब्ध नहीं है । गुर्जर सम्राट की मंत्री परिषद के सदस्यों का विवरण भी उपलब्ध नहीं है ।तत्कालीन राजकवि राजशेखर के कथन से पता चलता है कि उसका पिता सम्राट का महामंत्री था । इसी प्रकार महाकवि राजशेखर व प्रसिद्ध कवयित्री सीता तथा बालादित्य के अतिरिक्त अन्य साहित्यकारों और विद्वानों का विवरण भी उपलब्ध नहीं है । जो कि महान गुर्जर सम्राटों के दरबारों के कभी गौरव हुआ करते थे।

विद्वानों का आश्रयदाता
सम्राट मिहिर भोज रहा ।
उसके शासनकाल में बंधु
होता निरन्तर शोध रहा ।।

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज परम विद्वान और न्यायकारी इसलिए था कि उसने अपने भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के गौरव को स्थापित करने वाले अनेकों विद्वानों को अपने यहाँ पर आश्रय दिया । इतना ही नहीं अपनी प्रजा के मध्य जाति या संप्रदाय के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया । न्याय करते समय उसने विधि के समक्ष सबको समानता का अधिकार प्रदान किया। जिस बात पर यूरोपियन देश आज अपनी पीठ थपथपाते हैं कि विधि के समक्ष समानता की बात करने वाले सबसे पहले हम लोग हैं , उसे हमारे भारत के सम्राटों ने प्राचीन काल से अपनाया हुआ था और उसी परम्परा को सम्राट मिहिर भोज ने भी अपने शासन में अपनाया।
धर्मात्मा, साहित्यकार व विद्वान उनकी सभा में सम्मान पाते थे। उनके दरबार में राजशेखर कवि ने कई प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की। कश्मीर के राजकवि कल्हण ने अपनी पुस्तक ‘राज तरंगिणी’ में गुर्जराधिराज मिहिर भोज का उल्लेख किया है। उनका विशाल साम्राज्य बहुत से राज्य मण्डलों आदि में विभक्त था। उन पर अंकुश रखने के लिए दण्डनायक स्वयं सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते थे। योग्य सामंतों के सुशासन के कारण समस्त साम्राज्य में पूर्ण शान्ति व्याप्त थी। सामंतों पर सम्राट का दंडनायकों द्वारा पूर्ण नियन्त्रण था। राजाज्ञा का उल्लंघन करने का साहस उस समय किसी को नहीं होता था।
सम्राट मिहिर भोज ने अपने शासनकाल में हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अनेकों मन्दिरों का निर्माण करवाया। इसके अलावा कितनी ही बावड़ी भी उसके द्वारा बनवाई गईं । उसके बनाए हुए कई मन्दिर , बावड़ी और अन्य ऐतिहासिक स्थल आज भी देखे जा सकते हैं। जयपुर से 95 किलोमीटर दूर जयपुर आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग पर आभानेरी गांव में हर्षत माता का प्रसिद्ध मन्दिर भी सम्राट मिहिर भोज ने ही बनवाया था। आभानेरी गांव में चांद बावडी भी सम्राट भोज द्वारा ही बनवाई गई थी। ये बावड़ी भारत में सबसे प्राचीन व प्रथम बावड़ी है। इस प्रकार बनवाई गई बावड़ी में वर्षा जल को संचित कर उसे पीने योग्य बनाया जाता था । इससे सम्राट की इस रुचि का पता चलता है कि वह एक दूरदर्शी शासक थे जिन्हें अपनी सेना अपने कर्मचारियों और अपनी प्रजा का बहुत अधिक ध्यान रहता था। गवालियर के विल्लभट्ट स्वामी मन्दिर के निर्माण का श्रेय भी गुर्जर सम्राट मिहिर भोज महान को जाता है। कलिंजर से प्राप्त हुए 836 ईस्वीं के ताम्रपत्र में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज द्वारा अग्रहारा के लिए दी हुई भूमि का वर्णन है। अग्र्रहारा की भूमि को सम्राट शिवालय को दान दे देता था , जिससे उस भूमि से किसी प्रकार का कर वसूल नहीं किया जाता था और उससे होने वाली आय उस शिव मंदिर पर ही खर्च होती थी।
ऐसा भी माना जाता है कि उत्तर प्रदेश स्थित आगरा शहर का नाम अग्रहारा के नाम पर ही रखा गया है। यहाँ के शिवालय का नाम अग्रसर महादेव के नाम से प्रसिद्ध था। यह मंदिर गुर्जर सम्राट मिहिर भोज द्वारा बनवाया गया था और यहाँ पर उनका बनवाया हुआ एक विशाल उपवन भी था। यद्यपि यह अभी शोध का विषय है।

अरब इतिहासकारों ने की है प्रशंसा

अरब इतिहासकारों ने गुर्जर सम्राट मिहिर भोज को अपना परम शत्रु बताकर भी उसकी प्रशंसा की है। अरब इतिहासकार सम्राट भोज की न्यायपालिका से बहुत प्रभावित थे इसलिए उन्होंने स्थान स्थान पर सम्राट मिहिर भोज की न्याय प्रियता की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है । अरब लेखकों का कहना है कि यदि सम्राट मिहिर भोज के शासन में किसी व्यक्ति का सोना भी कहीं गिर जाए तो भी उसे दूसरा व्यक्ति उठाता नहीं था । इसका अभिप्राय यही है कि राजा के कठोर कानून थे और लोगों का नैतिक आचरण बहुत पवित्र था। इन लेखकों का कहना है कि मिहिर भोज का साम्राज्य बहुत बड़ा है। अरब के व्यापारी उसके पास जाते हैं और वे उन व्यापारियों से उनका सामान खरीदकर उन पर उपकार करता है। उसके साम्राज्य में लेन देन सोने के सिक्के से होता है। उस सिक्कों को टारटरी कहते हैं। जब अरब के व्यापारी अपना सामान सम्राट को बेचने के पश्चात उनसे अंगरक्षक उपलब्ध कराने के लिए कहते हैं तो गुर्जर सम्राट कहते हैं कि मेरे साम्राज्य में चारों ओर डाकुओं का कोई भय नहीं है। तुम्हारे धन आदि का हरण हो जाए या चोरी हो जाए या किसी भी प्रकार की कोई अप्रिय घटना तुम्हारे साथ हो जाए तो तुम सीधे मेरे पास आना। मैं तुम्हारे धन की क्षतिपूर्ति करूंगा। सम्राट मिहिर भोज के इस प्रकार के धर्माचरण से पता चलता है कि वह न्यायप्रियता में किसी के साथ पक्षपात नहीं करता था।

शत्रु इतिहासकारों ने माना
वह न्यायशील धर्मप्रेमी था।
शत्रु सन्तापक होकर भी
भोज लोकप्रिय देशप्रेमी था।।

वह इन्द्र के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्त्ता इसलिए था कि उसने अपने देशवासियों की सुरक्षा को अपने जीवन का सबसे प्रमुख कर्तव्य घोषित किया । देशवासियों के सुख – ऐश्वर्य की कामना में रत रहने वाले इस सम्राट ने 36 लाख की विशाल सेना तैयार की। जिससे देशवासियों को किसी प्रकार से भी विदेशी आक्रान्ताओं की ओर से किसी प्रकार का खतरा न रहे।
सम्राट सम्राट मिहिर भोज वायु के समान सबको प्राण प्रिय था । क्योंकि उसने सभी देशवासियों के लिए पक्षपातशून्य होकर जनहित के कार्य किए और जनहित को ही अपना धर्म घोषित किया। वह अपने प्रजाजनों के मन की बात को जानने वाला सम्राट था ।
वह सूर्य के समान न्याय , धर्म और विद्या का प्रकाशक था । अपने राज्य में उसने नागरिकों को उच्च मानवीय गुणों से सुभूषित करने के लिए शिक्षा आदि की समुचित व्यवस्था की । नागरिक सुसंस्कृत और सुशिक्षित बनें , इसके लिए उसने प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली पर विशेष ध्यान दिया । उसने मानव निर्माण से राष्ट्र निर्माण की ओर बढ़ने के लिए अपनी व्यवस्था को पूर्णरूपेण समर्पित कर दिया।
अरब यात्री सुलेमान ने भारत भ्रमण करके (851 ई0) में लिखा है कि -”गुर्जर सम्राट के पास बहुत बड़ी सेना है तथा भारत अर्थात हिंद में किसी अन्य शासक के पास इतनी बड़ी घुड़सवार सेना नहीं है । उसके पास घोड़े व ऊंटों के बेशुमार रिसाले हैं । वह यह भी जानता है कि अरब के शासक बहुत बड़े बादशाह हैं , फिर भी वह अरबी शासकों का कट्टर विरोधी है और भारत में उससे अधिक इस्लाम का शत्रु कोई नहीं है। वह बहुत धनवान है । घोड़े ऊंटों की उसके पास बहुतायत है । उसके राज्य में चोर ,डाकुओं का कोई भय नहीं है और भारत में अन्य कोई राज्य डाकुओं के भय से इतना सुरक्षित नहीं है ।”
वह अविद्या अंधकार का निरोधक था। अविद्या और अंधकार में भटकने वाली प्रजा कभी भी मानव निर्माण से राष्ट्र निर्माण की ओर अग्रसर नहीं हो सकती । सम्राट मिहिर भोज इस बात को भली प्रकार जानते थे । यही कारण था कि उन्होंने साहित्यिक , धार्मिक वैज्ञानिक आदि सभी क्षेत्रों में ऐसी राज्य व्यवस्था देने का प्रयास किया जो नागरिकों को अविद्या व अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश में ले जाए। अरबी यात्री सुलेमान से ही हमें पता चलता है कि सम्राट मिहिर भोज बारामणों अर्थात ब्राह्मणों को अर्थात विद्वानों को पूजनीय मानता है और दरबार में भी उनके चरण छूता है , जबकि वे बड़े घमंडी होते हैं और दुनिया में किसी को अपने बराबर विद्वान तथा अपने राजा से अन्य किसी को श्रेष्ठ नहीं मानते।”
इससे सम्राट मिहिर भोज के विनम्र भाव का तो पता चलता ही है , साथ ही उसके बारे में यह भी पता चलता है कि वह विद्वानों का सम्मान करना वैसे ही राजोचित व्यवहार के अनुकूल मानता था जैसे हमारे यहाँ पर प्राचीन काल में सम्राट माना करते थे।
सम्राट मिहिर भोज अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करने वाले थे । इस बात का प्रमाण उन्होंने अपनी सैनिक नीति और विदेशी आक्रान्ताओं के प्रति अपने कड़े तेवर दिखाकर प्रकट की। अग्नि के समान शत्रुओं को भस्म करने की उनकी नीति का ही परिणाम था कि उनके कारण 300 वर्ष तक विदेशी शत्रुओं को भारत पर आक्रमण करने का साहस नहीं हो पाया। समकालीन इतिहास की यह बहुत महत्वपूर्ण घटना है । जिसे शत्रु इतिहासकारों ने इतिहास में स्थान नहीं दिया है। सुलेमान के विवरण से ही हमें पता चलता है कि सम्राट मिहिर भोज के पास 70 – 80 लाख के करीब की सेना थी । यद्यपि यह कुछ अतिशयोक्ति लगती है , परन्तु इसके उपरान्त भी यह विदेशी इतिहासकार हमें यह भी बताता है कि उसकी सारी सेना को नकद वेतन मिलता है । सेना में अधिकतर घोड़े व ऊंटों के रिसाले हैं , सेना के कपड़े धोने वाले धोबियों की संख्या 35 हजार है।
निश्चय ही इतनी बड़ी सेना सम्राट मिहिर भोज ने केवल इसीलिए रखी थी कि शत्रुओं को भस्म करने में कुछ भी देर न लग सके । यही कारण रहा कि वह अपने शासनकाल में विदेशी आक्रमणकारियों को भारत से दूर रखने में पूर्णतया सफल हुए।

कर लगाने की न्याय पूर्ण व्यवस्था

सम्राट मिहिर भोज के भीतर वरुण के भी गुण थे। उन्होंने शत्रुओं को बांधने का सफल प्रयास किया । शत्रु अपनी चतुराई भूल गया और वह मारे भय के हथियार फेंककर भारत के बाहर भाग गया। जो शत्रु भारतवर्ष की सीमाओं के बाहर थे – वह हाथ बांधकर बाहर ही खड़े रह गए । उनका साहस भारत की सीमा में प्रवेश करने का नहीं हुआ । शत्रु की इस स्थिति को देखकर सम्राट मिहिर भोज को वरुण की उपाधि से भी सहज ही सम्मानित किया जा सकता है।
सम्राट मिहिर भोज श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्द प्रदान करने वाले थे । प्रत्येक श्रेष्ठ राजा या सम्राट की यह विशेषता होती है कि शत्रु प्रकृति के लोग तो उससे भय खाएं और सज्जन प्रकृति के लोग अर्थात ऐसे लोग जो देश की मुख्यधारा में सम्मिलित होकर चलने में विश्वास रखते हैं और देश की सेवा के कार्य में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करते हैं , उन लोगों को सम्राट की उपस्थिति से आनन्द की प्राप्ति होती हो ।
सम्राट मिहिर भोज से भी उनके परिजन इसी प्रकार प्रसन्न रहते थे । इसलिए सम्राट मिहिर भोज चन्द्र के समान आनन्द प्रदान करने वाले शासक थे।
सम्राट मिहिर भोज ऐसे धनाध्यक्ष थे जिन्होंने खजाने को भरने का काम किया । उन्होंने बड़े सन्तुलित ढंग से अपने प्रजाजनों पर कर लगाए और जिस प्रकार चावल के छिलके को हटा कर उसमें से साबुत दाना निकाल लिया जाता है , उसी प्रकार बड़ी सावधानी से उन्होंने लोगों से कर लिया था । ऐसा कर जिससे जनता को किसी प्रकार का कष्ट ना हो , इस कर से उन्होंने जनहित के कार्यों का संपादन किया।

कर के आरोपण में सदा दया करे जो भूप ।
प्रजा आदर उसका करे मान पिता समरूप ।।

‘बोहरा’ शब्द का रहस्य

भारतवर्ष में विशेष रूप से गुर्जर समाज में किसी ऐसे व्यक्ति को ‘बोहरा’ कहने की आज भी परम्परा है। लोग ‘बोहरा’ उसे कहते हैं जो अकाल आदि के आपत्ति काल में लोगों को आर्थिक सहायता दे सके , उनके कष्टों का निवारण कर सके और उनके प्रत्येक प्रकार के कार्य को संभाल सके । विशेष रुप से अकाल आदि के समय जो लोग अपनी खत्तियां खोल कर लोगों को अनाज आदि की पूर्ति करते थे और उन्हें किसी भी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होने देते थे उन लोगों को गुर्जर समाज में ‘बोहरा’ कहने की परम्परा है । वास्तव में यह शब्द वराह ,आदिवराह , बर्राह का ही बिगड़ा हुआ शब्द है ।
यह शब्द हमारे यहां पर आदि वराह की उपाधि से सम्मानित किए गए सम्राट मिहिर भोज के काल से प्रचलन में आया । जिसे गुर्जर समाज के लोग आज तक भी अपनाए हुए हैं । इसका अभिप्राय है कि जैसे देश व धर्म की रक्षा करके उस समय सम्राट मिहिर भोज ने हम सबको बचाया और संवारा था , वैसे ही आज के किसी तथाकथित ‘बोहरे’ को वह अपने लिए ऐसा ही धनाध्यक्ष मानकर उसे सम्मान देते हुए यह शब्द उसके प्रति उच्चारते हैं। इसका अभिप्राय है कि आज भी भारतवर्ष के लोग ऐसे धनाध्यक्ष या बोहरे को ही सम्मान देते हैं , जिसका धन आपत्तिकाल में दूसरों के कल्याण में खर्च हो सकता हो ।
अलमसूदी ने हमको यह भी सूचना दी है कि कन्नौज के शासकों की सामान्य उपाधि बोहरा , वर्राह या आदिवराह है। स्पष्ट है कि यह शब्द ‘बोहरा’ यहीं से चला है। अल मसूदी जैसे विदेशी लेखक से उच्चारण दोष होना स्वाभाविक है । उन्होंने जो संदेश और संकेत किया है वह आदिवराह शब्द के बर्राह , बराह , बउरा-बोहरा की ओर है।
इस प्रकार गुर्जर सम्राट मिहिर भोज राजा के लिए या किसी सम्राट के लिए बताए गए 8 गुणों से विभूषित दिव्य व्यक्तित्व के स्वामी शासक थे ।
गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का साम्राज्य विद्वानों की दृष्टि में धन-धान्य से भरपूर , सुसंगठित , सुव्यवस्थित, प्रगतिशील साम्राज्य था । उसमें अनेकों स्थानों पर अनगिनत भवन स्तूप , विहार , मठों , मंदिरों , कला केंद्रों तथा धार्मिक व सामाजिक शिक्षा केंद्रों आदि का निर्माण सम्राट मिहिर भोज द्वारा कराया गया था । इससे स्पष्ट होता है कि सम्राट शिक्षा के माध्यम से सुसंस्कृत समाज के निर्माण के प्रति कृतसंकल्प था। मन्दिरों में भगवान शिव , विष्णु , भगवती तथा अन्य सभी प्राचीन व नवीन देवताओं के अतिरिक्त जैन , बौद्ध आदि सभी धर्मों के मंदिर , मठ सम्मिलित थे।
इससे स्पष्ट होता है कि उस समय देश व समाज में अनेकों संप्रदाय खड़े हो गए थे । सम्राट ने उन सभी का सम्मान रखते हुए राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के दृष्टिकोण से ऐसी शासकीय नीतियां बनाईं , जिनमें सभी को अपने साम्प्रदायिक हित साधने में किसी प्रकार का कष्ट अनुभव ना हो और सभी को समान संरक्षण मिलता रहे । कहीं आपस में कोई भेदभाव नहीं था यहाँ तक कि अनेक विष्णु मन्दिरों के मुख्य पुजारी शैव थे । हिन्दू शिक्षा केंद्रों में वेदों , शास्त्रों के अनुसार पुराणों , स्मृतियों , ज्योतिष , आयुर्वेद आदि का पठन-पाठन होता था ।
इस प्रकार की शिक्षा से संस्कारवान युवाओं का निर्माण होता था । जिससे राष्ट्र के प्रति समर्पित ब्रह्मचारीगण जब समाज में आते थे तो वे समाजोत्थान व देशोत्थान के कार्यों में शासन प्रशासन का सहयोग करते थे। इससे समाज में सामाजिक समरसता का भाव प्रगाढ़ होता था । भीनमाल तथा वल्लभनगर के महान शिक्षा केन्द्रों को नष्ट किए जाने के बाद उनका स्थान उज्जैन ने ले लिया था । जो उस समय कन्नौज की भान्ति महोदया अर्थात महानगरी कहलाती थी । गुर्जर प्रतिहार सम्राटों की राजधानी कन्नौज वैभवशाली भवनों , मंदिरों , मठों शिक्षा केंद्रों व कला केन्द्रों से सुसज्जित सात दुर्गों से सुरक्षित वैभव तथा सुंदरता में प्राचीन काल के पाटलिपुत्र और पेशावर , मथुरा से कम नहीं थी । काठियावाड़ के देव पट्टन नामक स्थान पर मिहिर भोज द्वारा प्रभास पट्टन बसाए जाने से वहाँ का शिव मन्दिर सोमनाथ नाम से विख्यात हो गया था । बाद में यह मंदिर भारत की अस्मिता और सम्मान से जुड़ गया था।
सम्राट मिहिर भोज ने हिन्दू समाज की प्राचीन वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था पर विशेष रूप से बल दिया । इसका अर्थ है कि वह समाज को जातिविहीन दृष्टिकोण से देखते थे और भारत के प्राचीन राजधर्म को अपनाकर उसी के आधार पर शासन करने को प्राथमिकता देते थे। जिसमें शासन का और शासक का मुख्य उद्देश्य मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर सभी प्रजाजनों के मध्य न्यायपूर्ण व्यवहार करना होता था।
सम्राट ने भारत की संस्कृति के केन्द्र के रूप में विख्यात रही काशी की उन्नति पर विशेष ध्यान दिया था । जिसे वह अपनी ‘लाडली काशी’ के नाम से पुकारा करते थे।
डॉ विशुद्धानंद पाठक अपनी पुस्तक ‘उत्तर भारत का राजनीतिक इतिहास’ में लिखते हैं :- ”अपने सर्वाधिक उत्कर्ष और विस्तार के समय केवल मौर्यों का साम्राज्य प्रतिहारों से बड़ा था । लेकिन उसका जीवन प्रतिहार साम्राज्य के 150 वर्षों के मुकाबले एक सौ वर्षों से भी कम (321 से 232 ईसा पूर्व ) का था। लगभग इतना ही जीवन (350 से 467 ईसवी ) गुप्त साम्राज्य का भी था , परन्तु वह अपने अन्यतम विस्तार के समय भी भोज महेंद्रपाल के साम्राज्य विस्तार से छोटा ही था । हर्ष का साम्राज्य प्रतिहारों जैसा न तो विस्तृत था, न दीर्घकालीन और न प्रशासन में ही उतना सुसंगठित था। दीर्घ जीवन में भारतवर्ष का यदि कोई अन्य साम्राज्य प्रतिहार साम्राज्य का सामना कर सका तो वह मुगल साम्राज्य था ।”
इतने विस्तृत व सुसंगठित साम्राज्य के निर्माता गुर्जर प्रतिहार वंश के प्रतापी शासकों को इतिहास में सम्मानपूर्ण स्थान मिलना समय की आवश्यकता है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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