17 हिन्दू राजाओं ने लड़ा था बहराइच की भूमि पर राष्ट्रीय युद्घ

‘लीग ऑफ नेशन्स’ और भारत
प्रथम विश्वयुद्घ 1914ई. से 1919 ई. तक चला। तब भारतवर्ष की राजनीतिक सत्ता अंग्रेजों के आधीन थी। विश्वयुद्घ की समाप्ति पर ‘लीग ऑफ नेशन्स’ की स्थापना की गयी। तब पराधीन भारत इस नये वैश्विक संगठन का सदस्य अपने बल पर नही बन सकता था, क्योंकि वह तब ‘राष्ट्र’ नही था। ऐसी परिस्थितियों में भारत को इस वैश्विक संगठन का सदस्य अंग्रेजों की ‘उदारता पूर्ण कृपा’ से बनाया गया। बात स्पष्ट है कि ‘आसन’ तो मिला पर काम दिया गया अपने स्वामी के जूते उठाने का।
इसके पश्चात 1945 ई. में द्वितीय विश्वयुद्घ की समाप्ति पर पुन: विश्व के बड़े नेताओं ने और बड़े देशों ने ‘लीग ऑफ नेशन्स’ की असफलता पर अप्रसन्न होकर नये वैश्विक संगठन ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ की स्थापना की। तब तक भी भारत स्वतंत्र राष्ट्र नही था। इसलिए इस नये वैश्विक संगठन में भी विश्व के बड़े और सबल देशों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया और भारत फिर उन देशों की श्रेणी का देश रह गया जो केवल ‘दया के पात्र’ मानकर सदस्य बना लिये जाते हैं। इन दोनों संस्थाओं के जन्म का उल्लेख हमने यहां विशेष प्रयोजन से किया है। प्रयोजन ये है कि इन दोनों संगठनों के जन्म के समय भारत के एक राष्ट्र होने या न होने का प्रश्न बड़ी गंभीरता से उठा। तब पहली बार में तो इसे एक राष्ट्र कतई नही माना गया, जबकि दूसरी बार में वैश्विक मंचों पर ब्रिटेन की बात को कम गंभीरता से सुना जाना आरंभ हुआ तो ‘भिखमंगों के देश’ भारत को पहले से कुछ अधिक बड़ा भिखमंगा देश मानकर भीतर बैठने की अनुमति दे दी गयी।
भारत राष्ट्र कभी नही रहा?
तब 1947 आ गया। भारत स्वतंत्र हो गया। तब तक इसके विषय में यह मिथ्या तथ्य अंग्रेजों ने पूर्णत: स्थापित कर दिया कि यह देश ‘राष्ट्र कभी नही रहा’।
भारत के छद्म इतिहास लेखकों ने भी इस मिथ्या तथ्य को आधार बनाकर ही लिखना आरंभ किया कि भारत कभी भी एक राष्ट्र नही रहा। इसलिए भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में चाहे जो स्थान अब तक प्राप्त किया हो, परंतु उसमें अब तक स्थायी सदस्य के रूप में भारत को सम्मिलित न किया जाना, इसी तथ्य को स्पष्ट करता है कि हममें कहीं न कहीं न्यूनता रही है। हम अपनी न्यूनता का निवारण पश्चिमी देशों से चाहते हैं, जिसे वह कभी नही करेंगे। हमने दृढ़ता के साथ यदि पहले दिन से वैश्विक मंचों पर यह कहा होता कि हम एक राष्ट्र थे, एक राष्ट्र हंै और एक राष्ट्र ही रहेंगे, तो हमारा वैश्विक मंचों पर जिस प्रकार निरंतर निरादर होता आ रहा है, वह न हुआ होता।
दो स्वतंत्र राष्ट्रों का उदय?
अंग्रेजों ने बड़ी सावधानी और चालाकी से 14-15 अगस्त 1947 को दो स्वतंत्र राष्ट्रों की जन्मतिथि घोषित कर दिया। तब से लेकर आज तक हम 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों के कहे के अनुसार अपने राष्ट्र की ‘जन्मतिथि’ के रूप में मनाते आ रहे हैं। इस नयी जयंती ने हमें अतीत से काट दिया और हमारे भीतर अपने विषय में ही ये धारणा बड़ी गहराई से बैठ गयी कि भारत कभी भी एक राष्ट्र नही रहा। इसे ही आत्मप्रवंचना कहा जाता है। गांधी जी को इस नये राष्ट्र का ‘पिता’ तथा नेहरू को ‘चाचा’ कह दिया गया। भारत उस समय जन्मा एक ऐसा बालक था जिसकी मां नही थी, ताऊ नही था, हां पिता और चाचा अवश्य थे।
अब हम इन ‘पिता’ और ‘चाचा’ के मानस पुत्रों के उन अपराधों की ओर चलते हैं, जिनके चलते हमें अपने राष्ट्रीय वैभव से काटा गया और हमारे 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संघर्ष को श्रीहीन कर हमें कायर और नपुंसक बताने का सफल प्रयास किया गया।
भारत के वैभव की खोज करने वाले मेरे मित्रो! आइए, इतिहास के उसी काल खण्ड में चलें, जिसकी चर्चा हम इस लेखमाला में कर रहे हैं, अर्थात 712ई. से 1206 ई. तक।
बहराइच की वह पावन भूमि
आज की हमारी चर्चा का विषय होगा वीर गौरवगाथा लिखने वाली बहराइच की वह पावन भूमि जो उन 17 हिंदू राजाओं के अनुकरणीय बलिदान की रक्त साक्षी दे रही है, जिन्होंने एक विदेशी आक्रांता को यहां धूल चटाई थी और विदेशी ग्यारह लाख सेना को गाजर मूली की भांति काटकर अपनी राष्ट्रीय एकता की धाक जमाई थी। उनका वह रोमांचकारी इतिहास और बलिदान हमें बताता है कि बहराइच की भूमि ने हिंदुत्व की रक्षार्थ जो संघर्ष किया वह हर ‘पिता’ और ‘चाचा’ के बलिदान से बहुत छोटा है। उनका बलिदान निश्चय ही भारत के स्वातंत्रय समर का एक ऐसा राष्ट्रीय स्मारक है, जिसकी कीत्र्ति का बखान युग-युगों तक किया जाना चाहिए। उन्होंने शत्रु को चांटे ही नही मारे अपितु शत्रु को ही मिटा डाला, उनका वह पुरूषार्थ उस गांधीवादी परंपरा से बहुत बड़ा है और निस्संदेह बहुत बड़ा है, जिन्होंने शत्रु से चांटा एक गाल पर खाया तो दूसरा गाल भी चांटा खाने के लिए आगे कर दिया और अंत में चांटा मारने वालों की मानसिक दासता को उसकी स्मृतियों के रूप में यहां बचाकर रख लिया। हमने कृतज्ञता को महिमामंडित करना था, पर हम लग गये कृतघ्नता को महिमामंडित करने। इसे क्या कहा जाए—-
-आत्म प्रवंचना?
-आत्म विस्मृति?
-राष्ट्र की हत्या?
-या राष्ट्रीय लज्जा?
विदेशी आक्रांता सालार मसूद
विनोद कुमार मिश्र (प्रयाग) ने अपनी पुस्तक- ‘विदेशी आक्रमणकारी का सर्वनाश: भारतीय इतिहास का एक गुप्त अध्याय’ में हमें बताते हंै-‘1030 ई. में महमूद गजनवी की मृत्यु से उसका राज्य बिखरने लगा। उसके उत्तराधिकारी मसूद, मुहम्मद, मकदूर तथा बहरामशाह के काल में 1051 ई. में उसका राज्य बिल्कुल नष्ट हो गया। महमूद गजनवी की अपार लूट व धन संपत्ति ने गजनवी के मुस्लिम शासकों को आश्चर्य चकित कर दिया। महमूद गजनवी के भानजे (महमूद की बहन मौला का पुत्र) सालार मसूद ने 11 लाख की असंख्य सेना लेकर भारत पर आक्रमण किया। यह आक्रमण 1031 ई. में हुआ। उसकी मदद के लिए उसका पिता सालार साहू (ईरान का बादशाह) सेना के साथ आया। इतनी बड़ी सेना का यह भारत के भूभाग पर पहला आक्रमण था। (संदर्भ मुस्लिम शासक तथा भारतीय जनसमाज, लेखक सतीश चंद मित्तल)
11 लाख की सेना सेना नही होती है, अपितु एक ऐसा भयंकर तूफान होता है जिसके सामने किसी का भी रूकना असंभव होता है। मैदानों की सीधी लड़ाई लड़कर इतनी बड़ी सेना को परास्त करना रणबांकुरों का और युद्घनीति के ज्ञाताओं का ही काम हो सकता है। युद्घनीति और युद्घकौशल में भारत सदा अग्रणी रहा है। व्यूह रचना के विभिन्न प्रकार और फिर उन्हें तोडऩे की युद्घकला विश्व में भारत के अतिरिक्त भला और किसके पास रहे हैं? इसलिए 11 लाख सेना के इस भयंकर तूफान को रोकने के लिए भारत के क्षत्रिय वर्ग की भुजाएं फड़कने लगीं।
सालार मसूद ने भारत के विषय में सुन रखा था कि इसकी युद्घ नीति ने पूर्व में किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं को धूल चटाई थी? इसलिए वह विशाल सेना के साथ भारत की ओर बढ़ा। यह बात नितांत सत्य है कि भारत के अतिरिक्त यदि किसी अन्य देश की ओर इतनी बड़ी सेना कूच करती तो कई स्थानों पर तो बिना युद्घ के ही सालारसूद की विजय हो जानी निश्चित थी। भारत के पौरूष ने 11 लाख की विशाल सेना की चुनौती स्वीकार की। हमारा मानना है कि इस चुनौती को स्वीकार करना ही भारत की पहली जीत थी और सालारमसूद की पहली हार थी, क्योंकि सालारमसूद ने इतनी बड़ी सेना का गठन ही इसलिए किया था कि भारत इतने बड़े सैन्य दल को देखकर भयभीत हो जाएगा और उसे भारत की राजसत्ता यूं ही थाली में रखी मिल जाएगी, उसने सेना का गठन यौद्घिक स्वरूप से नही किया था, और ना ही उसका सैन्य दल बौद्घिक रूप से संचालित था। वह आकस्मिक उद्देश्य के लिए गठित किया गया संगठन था, जो समय आने पर बिखर ही जाना था।
सत्रह राजाओं का मोर्चा
हमश्री मित्तल जी के ऋणी हैं, जिन्होंने हमें अपनी उक्त पुस्तक के पृष्ठ 33 पर बताया है कि मौहम्मद बिन कासिम की भांति 17-18 वर्ष की आयु में मसूद ने भारत में इस्लाम का प्रसार तथा जीतने की भावना से सिंध नदी पार की, सिंध पार करते हुए राय अर्जुन की मुल्तान की छोटी सी टुकड़ी के साथ टकराव हुआ। दिल्ली में महिपाल से संघर्ष हुआ तथा उसका किशोर पुत्र गोपाल मारा गया। उसने रास्ता बदला वह उज्जैन होते हुए अयोध्या तक पहुंच गया, जो सदा हिंदुओं का धार्मिक केन्द्र रहा। हिंदू शासकों ने बहराइच में मसूद की विशाल सेना को घेरने की कोशिश की। इस युद्घ का वैशिष्टय इस तथ्य में था कि पहली बार हिंदू शासकों ने शत्रु का सामना संयुक्त रूप से करने का (इस क्षेत्र में) सफल प्रयास किया। 17 राजा राय रईब, राय सूईब, राय अर्जुन, राय भीरवन, राय कनक, राय कल्याण, राय मकरू, राय सबरू, राय करन, राय प्रभु, राय बीरबल, राय जयप्रपाल, राय हरपाल, राय स्कंद, राय श्रीपाल, रायदेवनारायण, और राय नरसिंह अपने घुडसवारों तथा पैदल सैनिकों के साथ आए। हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों के राजा सहारदेव और वलूना से राय हरदेव भी अपनी सेना लेकर कसाला नदी के किनारे आ गये।
हमने इन राजाओं के साथ अन्याय किया
सन 1033 में बहराइच की भूमि उक्त ऐतिहासिक युद्घ की साक्षी बनी। बताया जाता है कि कई दिनों तक घमासान युद्घ होता रहा। स्पष्ट है कि महाभारत के युद्घ की भांति प्रतिदिन लाखों लोग युद्घ के काम आये होंगे। हमने कभी अपने 17 महान देशभक्त राजाओं की सफल कूटनीति, युद्घनीति और देशभक्ति की पराकाष्ठा का उचित पुरस्कार उन्हें नही दिया। विदेशियों ने 1033 ई. के इस महाभारत को और इसके भारतीय महान योद्घाओं को इतिहास में कहीं स्थान नही दिया। जबकि मीराते मसूदी के अनुसार सालार मसूद की सेना में शीघ्र ही भगदड़ मच गयी और इस भगदड़ को देखकर सालार मसूद को असीम दुख हुआ था। 14 जून 1033 को रविवार के दिन मुस्लिम आक्रांता सेना का पराभव हुआ। बताया जाता है कि 11 लाख की सेना में से एक भी व्यक्ति ऐसा नही बचा था, जो मसूद और उसकी सेना की मृत्यु का समाचार भी अपने देश में जाकर बता देता।
कितना गौरवपूर्ण अतीत है अपना? निश्चित रूप से ऐसा कि जैसा किसी का नही। ऐसे निर्णायक युद्घों के कारण ही मुस्लिमों का भारत पर आक्रमण करने का साहस आने वाले पौने दो सौ वर्ष तक के लिए समाप्त हो गया।
मीरात-ए-मसूदी के अनुसार सालारमसूद की मृत्यु के पश्चात अजमेर में मुजफ्फरखान भी मर गया। उसके उत्तराधिकारियों को हिंदुओं ने मार भगाया जो मूर्तियां मुस्लिम आक्रांताओं ने तोड़ी थीं, वे सब पुन: स्थापित हो गयीं और हिंदुस्तान की जमीन पर मंदिरों पर घंटियां बजने लगीं। दो सौ वर्ष तक वही स्थिति रही। अत: मुस्लिम लेखक ही कह रहा है कि 1033 के पश्चात दो सौ वर्ष तक भारत की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रही। इस साक्षी को देखकर हमारे शत्रु इतिहास लेखकों को लज्जा आनी चाहिए जो हमारे विषय में ही ऐसा मत रखते हैं कि ये देश 712 ई. से ही पराधीन हो गया था।
सत्रह बनाम सत्रह
महमूद गजनवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किये और गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को 17 बार युद्घ में परास्त किया-ये तथ्य तो हमें बताये, पढ़ाये और समझाए जाते हैं, परंतु सत्रह राजाओं ने ग्यारह लाख विदेशी सेना को गाजर मूली की भांति काटकर राष्ट्र की स्वतंत्रता की रक्षा की-ये नही बताया जाता। हमारे द्वारा देश की स्वतंत्रता की रक्षार्थ किये गये पराक्रमपूर्ण ऐसे कार्यों के विषय में सर हेनरी इलियट जैसे विदेशी लेखक का कथन है-‘वास्तव में इन्हें इतिहास का कहना मिथ्या है। इन्हें अधिक से अधिक आप वार्षिक वृत्तांत कह सकते हैं।’ (इलियट एण्ड डाउसन, भाग-1)
राष्ट्र के प्रति इन सत्रह राजाओं के पराक्रम की उपेक्षा के पीछे एक षडयंत्र काम करता रहा है, जिसके अंतर्गत बार-बार के पराजित मुस्लिम आक्रांताओं ने यदि एक बार (16 बार हारकर सत्रहवीं बार) विजय प्राप्त कर ली तो वह नायक बना दिया जाता रहा है, और पराजित को खलनायक बना दिया जाता रहा है। इसलिए हम आज तक भी अपने इतिहास में विदेशी नायक और देशी खलनायकों का चरित्र पढऩे के लिए अभिशप्त हैं।
विदेशी नायकों का गुणगान करने वाले इतिहास लेखक तनिक हैवेल के इस कथन को भी पढ़ें-जिसमें वह कहता है-‘यह भारत था न कि यूनान जिसने इस्लाम को अपनी युवावस्था के प्रभावशाली वर्षों में बहुत कुछ सिखाया इसके दर्शन को तथा धार्मिक आदर्शों को एक स्वरूप दिया तथा बहुमुखी साहित्य कला तथा स्थापत्यों में भावों की प्रेरणा दी।’
साम्प्रदायिक मान्यताएं होती हैं घातक
इतिहास के तथ्यों के साथ गंभीर छेड़छाड़ कराने के लिए साम्प्रदायिक मान्यताएं और साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह सबसे अधिक उत्तरदायी होते हैं। साम्प्रदायिक आधार पर जो आक्रांता किसी पराजित जाति या राष्ट्र पर अमानवीय और क्रूर अत्याचर करते हैं, प्रचलित इतिहास लेखकों की शैली ऐसी हैं कि उन अमानवीय और क्रूर अत्याचारों का भी वह महिमामंडन करती है। यदि इतिहास लेखन के समय लेखक उन अमानवीय क्रूर अत्याचारों को करने वाले व्यक्ति की साम्प्रदायिक मान्यताओं या पूर्वाग्रहों को कहीं न कहीं उचित मानता है, या उनसे सहमति व्यक्त करता है, तब तो ऐसी संभावनाएं और भी बलवती हो जाती हैं।
हां, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं कि जो अपने साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर ‘सच’ कहने का साहस दिखाते हैं। अलबेरूनी ने कई स्थानों पर सच को सच के रूप में ही लिखा। वह लिखता है-‘अपने समय के मुसलमानों में महमूद गजनवी था जो काफिर प्रदेशों में अधार्मिकता मिटाने में संलग्न रहता था। हिंदुओं के लिए वह भीषण हूण था जिसने उनके पवित्र मंदिरों को नष्ट कर दिया था। उनकी आत्मा को अत्यधिक कष्ट दिया और इनकी धार्मिक मान्यताओं और भावनाओं को कुचल दिया था।’
इस साक्षी के उपरांत भी रोमिला थापर जैसी कम्युनिस्ट इतिहास कार की मान्यता है कि महमूद किसी मंदिर को तोडऩे नही आया था, वह तो अरब की किसी पुरानी देवी की मूर्ति ढूंढऩे आया था जिसे स्वयं पैगंबर साहब ने तोडऩे को आज्ञा दी थी। (दैनिक जागरण 1 जून 2004, एस. शंकर-‘रोमिला का महमूद’)।
स्वयं महमूद ने गजनी के अमीरों को मथुरा के मंदिरों के विध्वंस की सूचना देते हुए जो पत्र लिखा था उससे भी यही तथ्य स्थापित होता है कि वह भारत में ‘संस्कृति नाशक’ के रूप में आया था। मुल्ला मौहम्मद कासिम, हिंदूशाह फरिश्ता तारीखे फरिश्ता से हमें उस पत्र की जानकारी होती है। वह लिखता है-‘इस शहर में एक हजार अत्यंत ऊंची ऊंची इमारतें हैँ जिनमें से अधिकांश पत्थरों की बनी है, मंदिर तो इतनी अधिक संख्या में हैं कि मैं उन्हें तोड़ते-तोड़ते थक गया हूं लेकिन उनकी कोई गिनती ही नही कर सका। यदि कोई इस प्रकार का भवन बनवाना चाहे तो संभव है कि एक लाख अशर्फियां खर्च करने के बाद दो सौ वर्ष में भी बहुत ही कुशल और मर्मज्ञ कलाकार ही उन्हें बना पायें।’
रोमिला थापर जैसे इतिहास कार तथ्यों की उपेक्षा कर रहे हैं और अपनी अपनी मान्यताओं को स्थापित करते जा रहे हैं। मान्यताएं भी ऐसी कि जिनका कोई आधार नही जिनके पीछे कोई तर्क नही और जिनका कोई औचित्य नही।
सच को सच मानने वाले मुस्लिम भी बहुत हैं। उनका प्रतिनिधित्व करती है सिंध के विभाजन पूर्व के शिक्षामंत्री रहे जी.एम. सैय्यद की यह टिप्पणी-‘मैं 43 वर्षों से पाकिस्तानी हूं तथा 900 वर्षों से मुसलमान हूं, लेकिन सिंधी तो मैं पिछले पांच हजार वर्षों से हूं। दाहिर सेन मेरे पूर्वज थे, तथा मुहम्मद बिन कासिम एक लुटेरा था।’
इस धारणा को बलवती करने की आवश्यकता भारत में है।
हमारा अशोक और उनका ‘शोक’
महाभारत के युद्घ के पश्चात लाखों लोगों की मृत्यु से खिन्न युधिष्ठर ने उन सबकी मृत्यु का कारण स्वयं की राज्यलिप्सा मानी तो राज्यकामना से उपराम होकर वनों में जाकर तपस्या करने का मन बना लिया। तब स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया। भीष्म पितामह, एवं धृतराष्ट्र सहित माता गांधारी ने भी समझाया कि प्रायश्चित के लिए वनों की ओर पलायन करना उचित नही है। प्रायश्चित के लिए यज्ञ करो। तब युधिष्ठर को अश्वमेध यज्ञ करने का परामर्श दिया गया और उन्होंने स्वयं को शोकसागर से बाहर निकाला।
कलिंग युद्घ के पश्चात अशोक भी विजयोत्सव मना रहा था। तब बौद्घ भिक्षु उपगुप्त वहां पहुंचे। उत्सव का कारण कलिंग विजय बतायी गयी। करूणा से भरे उपगुप्त ने सम्राट से कहा कि महाराज यह तुम्हारी विजय नही पराजय है। अशोक ने आश्चर्य से कहा-‘पराजय’? तब उपगुप्त सम्राट को युद्घ के उस मैदान में ले गया जहां लाखों लोग अभी भी जीवन मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे, चारों ओर करूण चीत्कारें निकल रही थीं, मनुष्यों की जिंदा लाशों को जंगली पशु नोंच नोंचकर खा रहे थे। पिता पुत्र तक एक ही स्थान पर पड़े कराह रहे थे।
ऐसे वीभत्व दृश्य को देखकर अशोक ‘शोक’ से भर उठा, उसके हृदय में करूणा उमड़ आयी। तब युधिष्ठर की भांति पाप का निवारण उसने भी पूछा। पर अब सामने कृष्ण नही उपगुप्त था। जिसने राष्ट्रधर्म की उपेक्षा करते हुए उस समय केवल मानव धर्म के अहिंसावादी स्वरूप की व्याख्या की और सम्राट को बौद्घ भिक्षु बनाकर धर्म प्रचार में लगा लिया। अशोक के इस कृत्य से हमें क्या हानि हुई,? यह उल्लेख करना यहंा प्रासंगिक नही है यहां तो इतना बताना ही पर्याप्त है कि कलिंग हो या महाभारत का युद्घ हो, हमारे तो सम्राटों को भी ‘पापबोध’ हुआ। पर 712 ई. के पश्चात जो यहां ‘महाभारत और कलिंग’ सजाये गये और उनमें लाखों लोग मृत्यु के ग्रास बने, या बनाये गये उनके शवों को देखकर मृत्यु का तांडव मचाने वालों को ‘पापबोध’ क्यों नही हुआ? अशोक का विजयोत्सव तो युद्घ के मैदान से दूर मनाया जा रहा था, पर गजनवी और अन्य मुस्लिम आक्रांताओं ने तो लाशों का मंच बनाकर और उन पर कालीन बिछाकर विजयोत्सव मनाये। लाशों पर हो रहे इन विजयोत्सवों के विषय में तब किसी ने आकर नही कहा कि पाप के लिए प्रायश्चित करो।
सचमुच, यह मानवता की हार थी, मानवता के पतन को दर्शाने वाला निश्चायक प्रमाण है, साम्प्रदायिक मान्यताएं व्यक्ति के लिए कितनी घातक होती हैं-इसे स्पष्ट करने वाला तथ्य है। हमारे सम्राट हमें ‘अ’शोक बनाते थे और ये विदेशी आक्रांता हमें शोक में डुबाते थे। राजा का धर्म जनता को शोक में डुबाना नही होता है, अपितु शोक से उबारना होता है। जो शोक में डुबाये वह लुटेरा होता है, डाकू होता है, तानाशाह होता है, हिंसक होता है।
इतिहास को ‘न्याय’ करने दिया जाता तो मानवता के हत्यारे लोगों को वह लुटेरा डाकू और हिंसक ही सिद्घ करता। तब लुटेरे डाकू और हिंसक आततायियों के क्रूर शिकंजे से मुक्त होने के लिए विश्व के विभिन्न देशों के लोगों को अपने अपने देशों में जितनी रक्तिम जनक्रांतिया करनी पड़ीं और लाखों लोगों का रक्त बहाया गया, वह भी ना हुआ होता। क्योंकि प्रायश्चित आगत की आफत को रोकता है और पापबोध हमें पवित्र बनाता है। जब राजनीति लाशों पर विजयोत्सव मनाये और उस विजयोत्सव को इतिहास लेखक उचित ठहराये तो राज्य में मरण और भय व्याप्त जाते हैं। इतिहास मरण और भय की ओर बढ़ते विश्व को प्रायश्चित बोध और पाप बोध की भट्टी में डालकर सोने से कुंदन बनाने वाली परीक्षा स्थली है इसलिए उसे सहज रूप में अपना काम करने देना चाहिए। भारत के लिए अपेक्षित है कि वह वास्तविक ‘इतिहास बोध’ को अपनाये और अपने स्मारकों के प्रति श्रद्घा उत्पन्न करे। बहराइच सचमुच हमारे लिए एक इतिहास स्मारक है।

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