भारतीय क्षात्र धर्म और अहिंसा ( है बलिदानी इतिहास हमारा ) अध्याय – 9 , वीरभोग्या वसुंधरा की सार्थक अनुगूंज है मां भारती

 

वीरभोग्या वसुंधरा की सार्थक अनुगूंज है मां भारती

मोहम्मद गोरी के हाथों से पृथ्वीराज चौहान की पराजय का उल्लेख करते हुए डॉ. आशीर्वादीलाल कहते हैं :- “सभी विजित स्थानों में हिन्दुओं के मंदिरों को विनष्ट कर दिया गया और उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण किया गया । इस्लाम की परंपरा के अनुसार सभी स्थानों में इस्लाम को राजधर्म बना दिया गया और चौहान शासक विग्रहराज द्वारा स्थापित किए गए सुप्रसिद्ध संस्कृत कॉलेज का विध्वंस करके उसके स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण कराया गया ।”
इस उद्धरण को हमने यहाँ पर जानबूझकर प्रस्तुत किया है । इससे पता चलता है कि इस्लाम का आक्रमण भारत पर राजनीतिक कारणों से न होकर सांस्कृतिक कारणों से ही था ।जिसने यहाँ आते ही भारत के मन्दिरों को उजाड़ना आरम्भ कर दिया । मुस्लिम शासकों या आक्रमणकारियों की इस ‘मन्दिर उजाड़ो नीति’ ने भारत के लोगों को एकताबद्ध करना आरम्भ कर दिया । उनके भीतर अपने धर्म स्थलों के प्रति असीम श्रद्धा थी , श्रद्धा के उन केन्द्रों को उजड़ते देखकर वह इस्लाम के प्रति अत्यधिक सशंकित होते चले गए । अतः यह नहीं मानना चाहिए कि इस्लाम की ‘मन्दिर उजाड़ो नीति’ ने हम को बर्बाद कर दिया , इसके स्थान पर यह सोचना चाहिए कि मुस्लिमों के इस प्रकार के अत्याचारों ने हमको एकताबद्ध किया। हमें यह भी सोचना चाहिए कि मोहम्मद बिन कासिम का आक्रमण 712 ई0 में हुआ , उसके लगभग 500 वर्ष पश्चात 1206 ई0 में जाकर मुस्लिम शासकों को भारत में पांव टेकने का स्थान उपलब्ध हो पाया । 500 वर्ष तक हमारे पौरूष और शौर्य ने मुस्लिमों को भारत में कहीं प्रवेश नहीं करने दिया। इतिहास के इस गौरवपूर्ण तथ्य पर विचार कर अपने उन महान पूर्वजों को हमें अवश्य ही श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए जिनके बलिदानी स्वभाव के कारण ऐसा सम्भव हो पाया।
ऐसा भी नहीं था कि गोरी के द्वारा पृथ्वीराज चौहान की पराजय के तुरन्त पश्चात भारतवर्ष के योद्धा चुपचाप घरों में घुस गए थे । इतिहास बताता है कि बुलंदशहर का वीर हिन्दू शासक चन्द्रसेन मुस्लिम कुतुबुद्दीन ऐबक के विरुद्ध युद्ध के लिए आ खड़ा हुआ था । मेरठ की वीर विद्रोही भूमि से ही कुतुबुद्दीन ऐबक के विरुद्ध विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी । इसी प्रकार दिल्ली भी कुतुबुद्दीन ऐबक के विरुद्ध विद्रोह में निमग्न रही ।1193 में कुतुबुद्दीन से दिल्ली के गुर्जर तँवरों का युद्ध हुआ था । यह युद्ध केवल इसलिए हुआ था कि ये गुर्जर वीर नहीं चाहते थे कि दिल्ली पर कोई विदेशी शासक शासन करे । इसके अतिरिक्त वे अपने वीर योद्धा पृथ्वीराज चौहान के बलिदान का बदला भी लेना चाहते थे ।

कुतुबुद्दीन ऐबक के विरुद्ध बना संघ

यदि अजमेर की ओर चलें तो वहां भी पृथ्वीराज चौहान के उत्तराधिकारी गोविंद राज और उनके अन्य साथी ‘फिदायीन’ के रूप में काम करते रहे । 1195 ई0 में तुर्कों के विरुद्ध उन्होंने युद्ध की घोषणा की और कुतुबुद्दीन के विरुद्ध विद्रोह किया । राजपूताना में भी इसी प्रकार 1197 ई0 में विदेशी शासक के विरुद्ध वहाँ के सामन्तों ने एक संघ का निर्माण किया और विद्रोह कर दिया । अजमेर के निकट कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना से संघ की राष्ट्रीय सेना का सामना हुआ । संघ ने बड़ी बहादुरी से युद्ध किया और कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना के ढेर सारे सैनिकों को दोजख की आग में फेंक दिया।
हमें आल्हा और उदल की वीरता को भी नमन करना चाहिए । विशेष रूप से आल्हा के प्रति हमें विशेष रूप से कृतज्ञ होना चाहिए । जिसने जयचन्द और पृथ्वीराज चौहान सहित कई देशी राजाओं से उस समय यह आग्रह किया था कि जब विदेशी शत्रु युद्ध के लिए सीमाओं पर बार-बार चुनौती दे रहा हो तब परस्पर के सभी मतभेदों को त्यागकर विदेशी शत्रु के विरुद्ध एक होकर अपने राष्ट्र धर्म को पहचानो । यदि अब चूक गये तो फिर कभी नहीं सम्भल पाओगे। पर दुर्भाग्यवश उस देशभक्त के सत्परामर्श को किसी ने भी नहीं माना । जब उसने मोहबा के युद्ध में चारों को बिखरे शवों को देखा तो उसके मानस में यह प्रश्न कौंध गया कि इतने वीरों का नाश किस लिए किया गया ? वह तत्कालीन राजाओं की मूर्खतापूर्ण वीरता पर आंसू बहा रहा था, और इसके पश्चात वह चुपचाप बिना बताए निकल गया । इसके बाद वह कहाँ गया ?- किसी को आज तक नहीं पता।

आसाम का राजा वीर राय

पूर्वोत्तर में यदि आसाम की ओर चलें तो वहाँ पर हिन्दू राजा वीर राय का ऐसा स्वर्णिम इतिहास है जो आसाम की धरती को धन्य कर देता है। मोहम्मद बिन बख्तियार खिलजी नाम के विदेशी आक्रमणकारी राक्षस को माँ भारती के वीर पुत्र ने मजा चखाया था । मोहम्मद बिन बख्तियार खिलजी वह राक्षस था जिसने हमारे प्राचीन नालन्दा विश्वविद्यालय को उजाड़ने का घृणित कृत्य किया था । जब उसके इस घृणित कार्य की जानकारी हिन्दू राजा वीर राय को हुई तो उसने आसाम की धरती पर इस विदेशी राक्षस की विशाल सेना का अन्त किया था।
‘तबकात ए नासिरी’ से हमें ज्ञात होता है :- “आश्चर्य है कि शत्रुओं अर्थात हिन्दुओं के पास बांस के भाले थे, और उनकी ढाल ,कवच तथा शिरस्त्राण कच्चे रेशम के ही बने थे ,जो आपस में एक दूसरे से बंधे हुए और सिले हुए थे ।सभी के पास लम्बे – लम्बे धनुष और बाण थे।”
पी.एन.ओक लिखते हैं :- “हिंदुस्तान के वीरों की कतार में आसामी राय को रखना ही पड़ेगा , क्योंकि उसने जागरण, चेतना , दूरदर्शिता का परिचय दिया , क्योंकि उसने अपने कर्तव्य का पालन किया।”

वीर संयम राय की देशभक्ति

पृथ्वीराज चौहान के साथ ऐसे अनेकों वीर योद्धा रहे जिन्होंने अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान देकर माँ भारती की अस्मिता की रक्षा की । इनमें से एक योद्धा संयम राय थे। जिसने अपने स्वामी पृथ्वीराज चौहान के घायल होकर युद्ध के मैदान में गिर जाने पर अपनी स्वामीभक्ति और देशभक्ति का परिचय रोमांचकारी ढंग से प्रस्तुत किया था । युद्ध के मैदान में दोनों ही घायल पड़े हुए थे। दोनों के शरीरों पर गिद्ध झपटने लगे थे । तभी संयमराय की मूर्च्छा खुल गई । उसने देखा कि उसके स्वामी पृथ्वीराज चौहान पर कुछ गिद्ध झपट रहे हैं । जिन्हें वह उठकर उड़ा नहीं सकता था ।
तब उस शौर्यपुत्र ने अपने शरीर के मांस के टुकड़े काट – काट कर उन गिद्धों की ओर फेंकना आरम्भ कर दिया । जिससे कि पृथ्वीराज चौहान के प्राणों की रक्षा की जा सके। पृथ्वीराज चौहान के प्राणों की रक्षा तो हो गई पर माँ भारती का यह शूरवीर सदा के लिए शान्त हो गया । पर जाने से पहले अपनी वीरता , देशभक्ति और स्वामीभक्ति का जो उदाहरण प्रस्तुत करके गया , वह भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखे जाने योग्य है।

कानपुर का किसोरा राज्य

कुतुबुद्दीन ऐबक के समय का ही उदाहरण है। जब उसने कानपुर के किसोरा राज्य का घेरा डाल दिया था । तब वहाँ की आत्मबलिदानी राजकुमारी राजकुँवरी ने अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान देकर यह सिद्ध किया था कि देश की रक्षा के लिए वीरांगनाएं भी पीछे नहीं हैं । इस युद्ध में राजकुमारी अपने भाई लक्ष्मण सिंह के साथ युद्ध के मैदान में जाकर खड़ी हो गई थी और शत्रुओं को गाजर मूली की भांति काटने लगी थी । दोनों की वीरता को देखकर कुतुबुद्दीन घबरा गया था । इन दोनों के जाने से पहले इनके पिता राजा सज्जन सिंह ने देश के लिए अपना बलिदान दिया । दोनों भाई बहनों को जब शत्रुओं ने घेर लिया तो बहन ने भाई से स्वयं यह कहकर अपने ऊपर उसकी तलवार चलवा ली थी कि ‘भैया ! युद्ध के मैदान में अपना कर्तव्य पूर्ण करो , अपने आर्य धर्म की रक्षा करो । किसी भी मुस्लिम के हाथ तुम्हारी बहन के दामन तक बढ़ें उससे पहले ही बहन की अस्मिता की रक्षा करो।’ तब भाई ने भारी दिल से बहन का सिर अपनी तलवार से धड़ से अलग कर दिया।

वीरांगना कल्याणी और बेला का बलिदान

इसी समय कन्नौज नरेश जयचंद की पुत्री कल्याणी और पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला का आत्म बलिदान भी बहुत रोमांचकारी है , जब उन्हें मोहम्मद गौरी यहाँ से ‘लूट के माल’ के रूप में ले गया था और जाकर उन्हें अपने काजी को भेंट कर दिया था । माँ भारती की सेविका उन दोनों महान बेटियों ने तब अपने बौद्धिक चातुर्य से न केवल काजी बल्कि उसके दरबार के अन्य लोगों को भी मार गिराया था और अपना स्वयं का बलिदान देकर अपने व माँ भारती के सम्मान की रक्षा की थी। निश्चय ही उन बलिदानों को इतिहास में स्थान मिलना समय की आवश्यकता है।

रानी संयोगिता का बलिदान

इतना ही नहीं इतिहास के लिए आज यह भी कौतूहल का विषय है कि महारानी संयोगिता ने अपना प्राण दान देकर किस प्रकार अपने व माँ भारती के सम्मान की रक्षा की थी ? राक्षस कुतुबुद्दीन से बचने के लिए महारानी संयोगिता ने भी दिल्ली के लालकिले / लालकोट में जौहर किया था । जब शत्रु कुतुबुद्दीन भीतर गया तो वहाँ पर कुछ भी नहीं था । महारानी संयोगिता, रानी पृथा और हजारों हिंदू वीरांगना अपने-अपने पतियों के पास स्वर्ग में जाकर शत्रु से अपने बचने की कथाएं बता रही थीं और शत्रु उनकी चिताओं पर खड़ा हाथ मल रहा था ।
यह है हमारी हिंदू शौर्य गाथा के स्वर्णिम पृष्ठ । इन पृष्ठों को जितना ही अधिक रगड़ा जाएगा , पढ़ा जाएगा , मन मस्तिष्क में बैठाने के लिए घोटा जाएगा उतना ही यह हमारे लिए उपयोगी होते चले जाएंगे।
पता है हम विदेशी राक्षस आक्रमणकारियों के विरुद्ध इतने अधिक आक्रामक होकर युद्ध क्यों करते रहे ? क्यों अपना बलिदान देते रहे ? क्यों हमारी बहनों व माताओं ने जौहर किया और क्यों हमने केसरिया बांधकर ‘अन्तिम युद्ध’ के लिए घर से निकल कर अपना प्राण – उत्सर्ग किया ? इसका कारण केवल एक ही है जो हमें अथर्ववेद ( 1 -16 – 4 ) में इस प्रकार बताया गया है – ” ओ आततायी ! तू मुझे निस्तेज बुझा हुआ मत समझना , मत समझना कि तू आकर मुझे सता देगा और मैं चुपचाप तेरी यातनाओं को सह लूंगा । देख यदि तू मेरी गाय को मारेगा , घोड़े को मारेगा , मेरे सगे संबंधी पुरुषों को (मेरी प्रजा को) मारेगा , तो यह ध्यान रखना कि मैं तुझे शीशे की गोली से वेध दूंगा।”
वेद की इस प्रकार की अनेकों आज्ञाएं हैं , जिन्होंने हमें विदेशी आक्रमणकारियों के समक्ष झुकने न देने के लिए प्रेरित किया । हम लड़ते रहे और तब तक लड़ते रहे जब तक विदेशियों को अपने देश से भगा नहीं दिया । यह क्रम अगले अध्यायों में भी निरन्तर जारी रहेगा ।

प्रतिदिन हमने कोई नई कहानी लिखी

हमारा प्रचलित इतिहास हमें अपने इन गौरवपूर्ण तथ्यों की कोई जानकारी नहीं देता । इतिहास लेखन का कार्य इस प्रकार सम्पादित किया गया है, जिससे हमारे भीतर हीनता के भाव उत्पन्न हों , हम अपने अतीत पर इतराएं नहीं बल्कि उस पर पश्चाताप के आंसू बहाने के लिए विवश हो जाएं । इसके अतिरिक्त एक और भी घातक बीमारी इस इतिहास लेखन के माध्यम से हमारे मन मस्तिष्क में परोसी जाती है – जब इस्लाम को बहुत उदार करके दिखाया जाता है । उसके विषय में कुछ ऐसी प्रस्तुति दी जाती है कि जैसे इस्लाम और उसके पश्चात अन्य विदेशी जातियों ने यहाँ आकर हम पर भारी उपकार किया । उससे पहले तो हम केवल जंगली रूप में रहने वाले लोग थे । हमारे भीतर राष्ट्रवाद की कोई भावना नहीं थी और जैसे ही इस्लाम के पहले आक्रमणकारी मोहम्मद बिन कासिम ने आकर हमको एक चांटा मारा वैसे ही सारा देश उसके कदमों में लेट गया । जबकि इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों को यदि खोल – खोल कर पढ़ा जाए , समझा जाए तो पता चलता है कि हमारे पूर्वजों ने अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए और अपने राष्ट्रवाद को बलशाली बनाने के लिए प्रत्येक दिन संघर्ष किया, प्रत्येक दिन बलिदान दिया और प्रत्येक दिन शौर्य और साहस का परिचय देते हुए कोई न कोई नई कहानी लिखी।

 

 

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष  : भारतीय इतिहास पुनर लेखन समिति

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