आर्य – गुर्जरों का मूल तत्व आर्यावर्त में है ना कि ईरान या कथित हिंदुस्तान में — डॉ राकेश कुमार आर्य आर्य

पिछले दिनों मेरे पास श्री खुर्शीद भाटी जी द्वारा भेजा गया एक लेख आया। इस लेख का शीर्षक उन्होंने ‘गुर्जरों का मूल तत्व हिंदुस्तान में है, न कि विदेशी लुटेरों हूण , कुषाणों में’ – ऐसा करके दिया। मैं श्री भाटी की विद्वता का सम्मान करते हुए भी उनके लेख से असहमत हूँ । इसके कई कारण हैं । सबसे प्रमुख कारण है कि मैं आज के भारत वर्ष को हिंदुस्तान में नहीं बल्कि आर्यावर्त में खोजता हूँ। मैं उन विद्वानों का मानसपुत्र होने में स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ जिन्होंने संपूर्ण भूमण्डल को आर्यों की थाती , विरासत या धरोहर के रूप में स्थापित करने में दिन-रात परिश्रम किया है। श्री भाटी जी की विचारधारा के लोग भारत में कभी राष्ट्र के दर्शन नहीं करते , जबकि आर्यों की परम्परा इस बात के स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करती है कि भारत में राष्ट्र और राष्ट्र में भारत इस प्रकार गुँथे हुए रहे हैं कि दोनों के अन्योन्याश्रित संबंध को अलग नहीं किया जा सकता।

श्री भाटी अपने लेख का आरंभ इन पंक्तियों से करते हैं :-
“अगर हिन्दू को अपना धर्म अपना ज्ञान प्यारा है
अगर मुस्लिम को अपनी जान से भी ईमान प्यारा है
लेकिन मेरा धर्म यह है मेरा ईमान भी यही है
मुझे दुनिया में सबसे पहले हिन्दुस्तान प्यारा है।”

दिखने में तो यह पंक्तियां बड़ी प्यारी लगती हैं , परंतु यहां भी एक घपला है और वह घपला यह है कि यह भारत कल परसों के किसी उर्दू शायर या कवि की कल्पनाओं से बनने वाला भारत नहीं है । इस भारत से प्यार करने के लिए इसकी संस्कृत से प्यार करना होगा । संस्कृत में इसकी आरती किस प्रकार उतारी गई है , यह ध्यान देने योग्य है।
अथर्ववेद के ‘ पृथ्वी सूक्त ‘ में पृथ्वी को माता कहकर संबोधित किया गया है । वहां पर धरती माता का गुणगान करते हुए कहा गया है कि — ” माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः ” अर्थात यह भूमि माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ। ” इस प्रकार इस वेद मंत्र में पृथ्वी को माता कहकर राष्ट्र के साथ हमारे ऋषियों ने अपना संबंध माता और पुत्र का स्थापित किया । संसार में इससे पवित्र अन्य कोई संबंध नहीं हो सकता । जब हम किसी व्यक्ति के बारे में यह कहते हैं कि वह ‘धरतीपुत्र ‘ है तो उसका अर्थ यही होता है कि वह भारत के इस मौलिक संस्कार से जुड़ा हुआ है कि वह अपनी मातृभूमि को माता मानता है और स्वयं को उसके पुत्र के रूप में समर्पित करता है । इसी प्रकार किसी व्यक्ति के बारे में जब यह कहा जाता है कि ‘वह जड़ों से जुड़ा हुआ व्यक्ति है ‘- तो उसका अर्थ भी यही होता है कि वह भारत के इस मौलिक संस्कार से जुड़ा हुआ है कि वह अपनी मातृभूमि को सर्वाधिक प्यार करता है और उसके लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए समर्पित रहता है । जड़ से जुड़े होने का अर्थ है जन-जन से जुड़ा होना और भारत के एकात्म मानववाद के आधार पर भारत को विश्वगुरु बनाने के संकल्प को हृदय में धारण करके चलने वाला व्यक्ति ।

अथर्ववेद के इस मंत्र से स्पष्ट होता है कि संपूर्ण भूमंडल ही हमारा राष्ट्र है । राष्ट्र अनेक नहीं हो सकते। इस संसार को बनाने वाला एक है , संसार का धर्म मानवता एक है, इस संसार में रहने वाले मानव की जाति एक है तो इसका राष्ट्र भी एक है , जिन लोगों ने राष्ट्रों का विखंडन करना आरंभ किया उनका ज्ञान अधूरा था । उनकी मूर्खताओं ने देशों को टुकड़ों में बांटना आरंभ कराया और आज यह संसार सैकड़ों देशों में बट गया है। यह मानवता की पराजय है विजय नहीं , विभाजन मनुष्यता की हार है विजय नहीं । इस विभाजन बाद को इस्लाम और ईसाइयत ने अधिक प्रोत्साहित किया है 1945 में जब यूएन की स्थापना हुई थी तो समय संसार में 70 से भी कम देश थे परंतु आज उनकी संख्या लगभग 220 है।
भारत के विषय में प्रत्येक इतिहासकार को यह समझ लेना चाहिए कि भारत का मूल यदि खोजना है तो आर्यों की विचारधारा को खोजना पड़ेगा और उसे स्वीकार भी करना पड़ेगा । हमें विदेशी इतिहासकारों , लेखकों या विद्वानों के फेर में न पड़कर अपने वेदों , आर्ष साहित्य , वैदिक विद्वानों व उनकी पुस्तकों को पढ़ना पड़ेगा और उन्हीं के आधार पर अपने बारे में सही निष्कर्ष निकालना होगा । जो लोग हमारी संस्कृति को , हमारी संस्कृत को , हमारे वेद को व हमारे साहित्य को समझ नहीं पाए या समझने की शक्ति सामर्थ नहीं रखते , वह हमारे इतिहास लेखन के कार्य में किसी भी प्रकार सहायक नहीं हो सकते ।
श्री भाटी अपने लेख में कहते हैं – “- — इसके लिए मैं कहता आया हूँ कि जब मैं हिन्दुस्तान के इतिहास की बात करता हूँ तो उसके मूल में मैं हूँ यानि हिन्दुस्तान के मूल तत्व में गुर्जर है।”
इसमें श्री भाटी को सुधार करना चाहिए कि हिंदुस्तान के मूल में आर्यावर्त है और आर्यावर्त के मूल में आर्य है , आर्य संस्कृति है , आर्य भाषा है और यह उस काल की बात है जब संसार में ना तो कोई भाषा थी , ना कोई मजहब था , ना कोई संप्रदाय था , ना ही कोई धर्म पुस्तक थी । सचमुच भारत को समझने के लिए उसी काल से आगे बढ़ना हमारे लिए अनिवार्य है जब आर्य , आर्यभाषा ,आर्यावर्त से अलग कुछ भी नहीं था । श्री भाटी जैसे लोगों को यह भी समझना चाहिए कि ‘आर्य ,आर्यभाषा ,आर्यावर्त’ से ही ‘भारत, भारती ,भारतीय और ‘हिंदी ,हिंदू, हिंदुस्तान’ बने हैं।
बात स्पष्ट है कि भारत का मूलनिवासी आर्य है, भारत की मूल भाषा आर्यभाषा अर्थात संस्कृत है और भारत का मूल राष्ट्र आर्यावर्त है। संसार के सभी देशों में ,क्षेत्रों में , अंचलों में इसी आर्य , आर्यभाषा और आर्यवर्त की शाखाएं फैली हुई थीं । उन्हीं के अवशेष यत्र – तत्र आज तक बिखरे पड़े हैं । भारत का इतिहास खोजने के लिए इसी समीकरण को समझना होगा और इसी समीकरण अर्थात ‘आर्य , आर्यभाषा, और आर्यावर्त के आधार पर संपूर्ण मंडल के इतिहास को समझकर भारत का इतिहास लिखना श्रेयस्कर होगा। हमें यह समझना पड़ेगा और मानना भी पड़ेगा कि संपूर्ण भूमंडल का इतिहास भारत का इतिहास है और भारत का इतिहास संपूर्ण भूमंडल का इतिहास है। हमें यह भी समझना चाहिए कि इस्लाम और ईसाइयत भारत के धर्म की विकृति मात्र हैं। जब भारत के मूल धर्म में कहीं विकार आया तो उसकी परिणति के रूप में संसार के विभिन्न क्षेत्रों में अनेकों संप्रदाय उत्पन्न हुए । उन संप्रदायों के आधार पर आज उन देशों , क्षेत्रों या संसार के उन अंचलों को उन धर्मों मजहबों की विरासत मान् लेना हमारी अज्ञानता है । जो लोग इस षड्यंत्र में लगे हुए हैं वे भारत के शत्रु हैं , क्योंकि वे भारत की जड़ों को ना तो स्वयं खोजना चाहते हैं और ना ही किसी को खोजने देना चाहते हैं।
श्री भाटी ने अपने लेख में यह भी लिखा है कि — “हिन्दुस्तान के मूलवासी होने के सम्बन्ध से गुर्जर ही मूलरूप से हिन्दू है। इस नाते उनका प्रतीक चिन्ह ओम है। ओम सूर्य का प्रतीक है और गुर्जरों का मूल धर्म सूर्य ही है।”
इस संबंध में भी हमारी पूर्णतया असहमति है क्योंकि भारतवर्ष के मूल निवासी आर्य लोग हैं और उनकी क्षत्रिय शाखा के प्रतिनिधि गुर्जर लोग रहे हैं। जिन्होंने ब्रह्म अर्थात ज्ञान संपन्न लोगों के साथ अपनी सहमति और सम्मति बनाकर देश रक्षा का महत्वपूर्ण कार्य किया है। हमारे क्षत्रियों की यह विशेषता होती थी कि वह स्वयं भी विद्वान होते थे । उनके ज्ञान का कोई सानी नहीं होता था । निश्चित रूप से हमारे गुर्जर पूर्वज भी ज्ञानवान थे , परंतु इस सब के उपरांत यह भी एक सत्य है कि भारत में राष्ट्र की रक्षा के लिए और राष्ट्र की पूर्ण समृद्धि के लिए ज्ञानवान और बाहुबली लोगों अर्थात शस्त्र और शास्त्र दोनों का समन्वय करके चलने की अनिवार्यता बताई गई है । इस तथ्य को समझना भारत को समझने के लिए बहुत आवश्यक है । इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि हमारे गुर्जर पूर्वज भारत की वैदिक संस्कृति के रक्षक थे ना कि कोई अलग संस्कृति बना कर चलने वाले लोग।
जहां तक श्री भाटी के द्वारा ओ३म का अर्थ सूर्य से करने का प्रश्न है तो यह भी उनकी केवल कपोल कल्पना है। पाणिनि के व्याकरण का सही ज्ञान ना होने के कारण ऐसी गलतियां विद्वान लोग अक्सर करते हैं । वैसे वास्तविक विद्वत्ता इसी में है कि शब्दों का सही अर्थ व्याकरण के आधार पर पहले समझ लिया जाए तब उस पर कोई अपनी टिप्पणी की जाए ।यजुर्वेद ४० / १७ में कहा गया है “ओ३म ख़म ब्रह्म ” – ओ३म ही सर्वत्र व्याप्त परम ब्रह्म है। गुरु नानक देव जी भी कहते हैं – एक ओम सतनाम , करता , पुरुख – ईश्वर एक है जिसका नाम ओ३म है ।
ओ३म का सही अर्थ क्या है और ओ३म किन अक्षरों से मिलकर बना है ? फिर उन अक्षरों के अलग-अलग अर्थ क्या है ? इसे समझने के लिए महर्षि दयानंद जी के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को पढ़ना आवश्यक है । इसके अतिरिक्त पाणिनि के व्याकरण को भी समझना आवश्यक है।
गुर्जरों का मूल धर्म सूर्य नहीं वैदिक धर्म है ।भ्रमित करने वाली व्याख्या करने से भारत के समाज में विखंडन पैदा होता है। हमें अपेक्षा करनी चाहिए कि श्री भाटी किसी प्रकार के विखंडन को पैदा ना करके साम्यता पैदा करने की प्रबल इच्छा रखते हैं।
श्री भाटी अपने लेख में आगे लिखते हैं :– “आगे चलकर द्रविड और आर्य उत्पन्न होते हैं।”
इस विषय में हमारे भ्रमित करने या संबंधित इतिहास का विकृतीकरण करने का कार्य मैकडानल ने विशेष रूप से किया। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘वैदिक रीडर’ में लिखा-”ऋग्वेद की ऋचाओं से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री से पता चलता है कि ‘इण्डो आर्यन’ लोग सिंधु पार करके भी आदिवासियों के साथ युद्घ में संलग्न रहे। ऋग्वेद में उनकी इन विजयों का वर्णन है। विजेता के रूप में वे आगे बढ़ रहे थे, यह इस बात से सूचित होता है कि उन्होंने अनेेकत्र नदियों का अपने मार्ग में बाधक रूप में उल्लेख किया। उन्हें उनकी जातिगत तथा धार्मिक एकता का पता था। वे अपनी तुलना में आदिवासियों को यज्ञविहीन, आस्थाहीन, काली चमड़ी वाले व दास रंग वाले और अपने आपको आर्य-गोरे रंग वाले कहते थे।” मैकडानल का यही झूठ आज तक हमारे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है। कुछ समय पश्चात इसी झूठ को आधार बनाकर यदि कोई व्यक्ति यह भी सिद्घ कर दे कि आर्य (गोरे रंग वाले) अंग्रेजों (क्योंकि रंग उनका भी गोरा ही है) के ही पूर्वज थे तो भी कोई अतिश्योक्ति नही होगी। यह भारत है और इसमें सब चलता है-भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर। यदि आप अपने आपको ही गाली दें, तो और भी अच्छा ही माना जाता है।
मैकडानल की उक्त मिथ्या अवधारणा के विषय में हमें स्मरण रखना चाहिए कि वेदों में इतिहास नही है। क्योंकि वेद अपौरूषेय हैं और वे सृष्टि प्रारंभ में ईश्वर की वाणी के रूप में मनुष्य को दिये गये। वेद वह शाश्वत ज्ञान है जो सृष्टि दर सृष्टि सदा विद्यमान रहता है और सृष्टि व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में मानव की सहायता करता है। इसमें अयोध्या आदि जैसे शब्दों को पकड़कर उनके अनुसार कुछ स्थानों के या नगरों के या जड़ पदार्थों के नाम रखे गये तो इसका अभिप्राय यह नही कि वेदों में इतिहास मान लिया जाए। हमारे वेदों में इतिहास होने की अवधारणा का प्रतिपादन करके वेदों का जिस प्रकार अर्थ का अनर्थ किया गया है, वह विश्व का सबसे बड़ा ‘बौद्घिक घोटाला’ है। स्वामी विद्यानंद सरस्वती जी लिखते हैं कि-”वैदिक धर्म को भ्रष्ट करने, अंग्रेजी राज्य की जड़ें मजबूत करने तथा अंत में भारतीयों को ईसाई बनाने के लिए इस प्रकार की भ्रांतियां फैलाई गयीं कि जिनके परिणाम स्वरूप इस देश को न जाने कितनी विपत्तियों का सामना करना पड़ा है। वास्तव में वेद में आये आर्य, दास या दस्यु आदि शब्द जाति वाचक न होकर गुणवाचक हैं।”
यद्यपि मैक्समूलर की भी मान्यता थी कि आर्य को किसी जाति विशेष के संदर्भ में नही लेना चाहिए (संदर्भ बायोग्राफीज ऑफ वर्डस एण्ड द होम आफ दी आर्यन्स) परंतु इसके उपरांत भी आर्यों को एक जाति के रूप में भारत में मान्यता भी अंग्रेजों ने ही दी और यही मान्यता आज तक चली आती है। इसी मान्यता के कारण धारणा फेेलाई गयी कि इन आर्यों ने उत्तर भारत में रहने वाले लोगों को दक्षिण भारत की ओर खदेड़ दिया और आर्यों द्वारा खदेड़े गये लोग ही आजकल द्रविड़ कहे जाते हैं। ”वैदिक इण्डेक्स” वालों ने ऋग्वेद (5-29-10) के एक मंत्र की अतार्किक व्याख्या करते हुए लिख दिया कि-ऋग्वेद (5-29-10) में दासों को अनास कहा गया है, जिससे पता चलता है कि वे वस्तुत: मनुष्य थे। इस व्याख्या से चपटी नाक वाले द्राविड़ आदिवासियों को लिया जा सकता है। इसी मंत्र में उन्हें ‘मृतध्रवाच’ भी कहा गया है। जिनका अर्थ है-द्वेषपूर्ण वाणी वाले। इसका दूसरा अर्थ लिया गया है-लड़ाई के बोल बोलने वाले।”
झूठों का क्रम यही नही रूका, यह और भी आगे बढ़ा। मैकडानल ने लिखा है कि वास्तव में कृष्णवर्ण के आदिवासियों का ही नाम दास-दस्यु आदि हैं। ग्रिफिक ने ऋग्वेद (1/10/1) का अंग्रेजी में अनुवाद करते हुए की टिप्पणी में लिखा है-कालेरंग के आदिवासी, जिन्हेांने आर्यों का विरोध किया। ‘वैदिक माइथौलौजी’ के अनुसार इसी प्रकार की मिथ्या बातों को और भी हवा दी गयी। वहां लिखा गया-”वज्रपाणि इंद्र को जो युद्घ में अंतरिक्षस्थ दानवों को छिन्न भिन्न करते हैं ।”
योद्घा लोग अनवरत आमंत्रित करते हैं। युद्घ के प्रमुख देवता होने के नाते उन्हें शत्रुओं के साथ युद्घ कने वाले आर्यों के सहायक के रूप में अन्य सभी देवताओं की अपेक्षा कहीं अधिक बार आमंत्रित किया गया है। वे आर्य वर्ण के रखने वाले और काले वर्ण के उपदस्ता हैं। उन्होंने पचास हजार कृष्णवर्णों का अपाकरण किया और उनके दुर्गों को नष्ट किया। उन्होंने दस्युओं को आर्यों के सम्मुख झुकाया तथा आर्यों को उन्होंने भूमि दी। सप्तसिन्धु में वे दस्युओं के शस्त्रों को आर्यों के सम्मुख पराभूत करते हैं।”
अंग्रेजों की इसी मूर्खता पूर्ण धारणा को आधार बनाकर कर रोमिला थापर ने अपनी पुस्तक ‘भारत का इतिहास’ में लिख मारा कि वर्ण व्यवस्था का मूल रंगभेद था। जाति के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द वर्ण का अर्थ ही रंग होता है।” जबकि पाणिनि महाराज ने आर्य शब्द की व्युत्पत्ति पर कहा है कि ये ‘ऋ गतौ’ धातु से बना है, जिसका अर्थ ज्ञान, गमन और प्राप्ति है। योगवासिष्ठ (126/4) में कहा गया है कि जो कत्र्तव्य कर्मों का सदा आचरण करता है और अकत्र्तव्य कर्मों का अर्थात पापों से सदा दूर रहता है, वह आर्य कहाता है। इसी प्रकर दस्यु के लिए निरूक्तकार की परिभाषा है कि दस्यु वह है जिसमें रस या उत्तम गुणों का सार कम होता है, जो शुभ कर्मों से क्षीण है या शुभ कर्मों में बाधा डालता है। (नि.7/23) ऋग्वेद ने दस्यु के विषय में कहा है कि दस्यु वह है जो अकर्मण्य है, या जो सोच विचार कर कार्य नही करता। जो हिंसा, असत्य, क्रूरता आदि का व्यवहार करता है।
भारत की इस वैज्ञानिक नामकरण परंपरा का अध्ययन करने के उपरांत मद्रास यूनिवर्सिटी के श्री बीआर रामचंद्र दीक्षितार ने 29-30 नवंबर 1940 को मद्रास यूनिवर्सिटी में दो महत्वपूर्ण व्याख्यान दिये थे, जो एडियार लाइब्रेरी से 1947 में प्रकाशित हुए। उन्होंने कहा-”सत्य तो ये है कि दस्यु आर्येत्तर नही थे। यह मत कि दस्यु और द्राविड़ लोग पंजाब और गंगा की घाटी में रहते थे और जब आर्यों ने आक्रमण किया तो वे आर्यों से पराजित होकर दक्षिण की ओर भाग गये और दक्षिण को ही अपना घर बना लिया-युक्ति युक्त नही है।” पिंसीपल पी.टी श्रीनिवास अयंगर ने भी अपनी पुस्तक ‘द्राविडियन स्टडीज’ में लिखा है कि आर्य और दस्युओं के भेद को जातीय न मानकर गुणकर्म स्वभाव पर आधारित मानना ही ठीक है। आर्य द्राविड़ की इस कपोल कल्पना को पहली बार काल्डवेल नाम के ईसाई पादरी ने जन्म दिया। परंतु जार्ज ग्रीयरसन जैसे विदेशी भाषा शास्त्री ने स्पष्ट किया कि यह द्राविड़ शब्द स्वयं संस्कृत शब्द द्रमिल (Damila) अथवा दमिल (Damila) का बिगड़ा रूप है और केवल तामिल के लिए प्रयुक्त होता है।सौभाग्य से जिस काल्डवेल नाम के पादरी ने द्राविड़ की कपोल कल्पना को जन्म दिया था उसी ने कालांतर में अपनी धारणा में परिवर्तन किया और लिखा कि द्राविड़ शब्द असल में तमिल है और केवल तमिल लोगों तक ही सीमित है।
इसी बात को (Ethnology of India) के लेखक सरजार्ज कैम्पबेल ने भी लिखा है-”द्राविड़ नाम भी कोई जाति नहीं है। निस्संदेह दक्षिण भारत के लोग शारीरिक गठन रीति रिवाज और प्रचार व्यवहार में केवल आर्य समाज है।”
ऐसे में श्री भाटी जैसे विद्वान व्यक्ति को इस भ्रांत धारणा से बाहर निकलना चाहिए कि आर्य और द्रविड़ बाद में पैदा हुए पहले मूल रूप में गुर्जर लोग थे। नई अवैज्ञानिक और अतार्किक बातों को जन्म देने से पहले तथ्यात्मक दृष्टिकोण से घटनाओं का विश्लेषण करना आवश्यक होता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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