इस बार भारतीय कूटनीति के लिए कुछ ज्यादा ही चुनौतियाँ खड़ी हो गयी हैं

ललित गर्ग

चीन की चिन्ता तो है ही, उसके अलावा कई अन्य चिन्ताएं भी भारत के लिए परेशानियां खड़ी कर रही हैं, बड़ी चुनौती बन रही हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ भारत विरोधी गतिविधियों को बल मिल रहा है, जो कभी-कभी चिन्ता का कारण बन जाती है।

भारत इस समय न केवल कोरोना महासंकट से जूझ रहा है, बल्कि सीमाओं पर बढ़ रही युद्ध की आशंकाओं, बढ़ती बेरोजगारी, अस्त-व्यस्त व्यापार, आसमान छूती महंगाई आदि चौतरफा समस्याओं से संघर्षरत है। इन्हीं समस्याओं का पूर्वानुमान लगाते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत की योजना प्रस्तुत की है, यही एक रास्ता है जो हमें इन और ऐसी तमाम समस्याओं से बचा सकता है। भारत जितना आर्थिक दृष्टि से ताकतवर बनेगा, उतना ही चीन, पाकिस्तान, नेपाल आदि आंख दिखाने एवं दादागिरी करने वाले राष्ट्रों को माकूल जवाब मिलेगा, वे निस्तेज होंगे और भारत की ओर आंख उठाने का दुस्साहस नहीं कर पायेंगे। बड़ी सच्चाई है कि भारत मजबूत है, संकटों से लड़ने की ताकत उसमें है।

पाकिस्तान की नासमझी को छोड़ दें तो कोरोना महामारी से कराह रही मानवता को चीन एवं भारत से इस समय सर्वश्रेष्ठ अक्लमंदी की उम्मीद है। दोनों देश इस अपेक्षा को महसूस भी कर रहे हैं। यही कारण है कि मौजूदा संदर्भों में सीमा पर हुई ताजा दुर्भाग्यपूर्ण झड़प के बाद भी दोनों देशों में संवाद जारी है। अलग-अलग स्तरों पर बातचीत लगातार चल रही है। जाहिर है, चीन ने अपने रवैये से भारत को आहत किया है। इस बात का अहसास उसे जल्द से जल्द कराना भारत की कूटनीतिक कामयाबी की कसौटी है। भारतीय कूटनीति के शानदार अतीत को देखते हुए इस मामले में उसकी सफलता को लेकर संदेह करने का कोई कारण नहीं बनता। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि मौजूदा दौर भारतीय कूटनीति की कुछ ज्यादा ही कड़ी परीक्षा ले रहा है। इन अंधेरों के बीच मंगलवार को भारत, रूस और चीन के विदेश मंत्रियों की पहले से तय वर्चुअल बैठक का होना, अभी के माहौल में यह अकारण एक सनसनीखेज घटना बन गई, लेकिन इस बैठक से भी समाधान की रोशनी की ही उम्मीद है। वैसे भी दो बड़े और ताकतवर देशों में कोई मतभेद या विवाद होता है तो उसे सुलझाने का सबसे अच्छा तरीका आपसी बातचीत का ही है।

चीन की चिन्ता तो है ही, उसके अलावा कई अन्य चिन्ताएं भी भारत के लिए परेशानियां खड़ी कर रही हैं, बड़ी चुनौती बन रही हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ भारत विरोधी गतिविधियों को बल मिल रहा है, जो कभी-कभी चिन्ता का कारण बन जाती है। ओआईसी यानी ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन का झुकाव कश्मीर के मसले पर भारत की तुलना में पाकिस्तान की तरफ थोड़ा ज्यादा रहा है, लेकिन कई मुस्लिम देशों के साथ अपनी सघन मैत्री के जरिये भारत यह सुनिश्चित करता रहा है कि इस मंच का इस्तेमाल उसके हितों के खिलाफ न किया जा सके। यह सिलसिला इधर अचानक टूट गया है। हाल में ओआईसी की एक समिति ने पाकिस्तान के कहने पर न केवल आपात बैठक बुलाई बल्कि उसमें अनुच्छेद 370 पर भारत सरकार के रुख के खिलाफ बहुत कड़ा प्रस्ताव पारित कर दिया। दूसरी तरफ हमारे सबसे करीबी पड़ोसी देश नेपाल की सरकार ने भारत-नेपाल सीमा क्षेत्र से जुड़े एक विवाद पर भारत से बातचीत किए बगैर अपनी संसद में संविधान संशोधन के जरिये विवादित नक्शा पास करवा लिया। तीसरी ओर, हर मंच पर भारत को अपना दोस्त बताने वाले अमेरिका ने पिछले कुछ दिनों में ऐसे कई कदम उठाए हैं जिनसे भारतीय हित प्रभावित होते हैं। ताजा फैसले में उसने एच-वन बी वीजा पर एक साल के लिए रोक लगा दी है, जिससे भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियों को काफी नुकसान होगा। निश्चित रूप से इन सभी मामलों की अलग-अलग पृष्ठभूमि है और इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जहां हालात सुधरने की राह बंद हो गई हो। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि भारत के वर्तमान सर्वोच्च सत्ता के लिए आगे का रास्ता कांटों भरा एवं जटिल है। चीन का कूटनीतिक मोर्चा भी हमारे हाथ तभी आएगा, जब बाकी मोर्चों पर हमारी स्थिति मजबूत रहे। विशेषतः आर्थिक मोर्चें पर आत्म निर्भरता का बिगुल बजे। चीन का बहिष्कार या चीनी उत्पादों का बायकाट समस्या का समाधान नहीं है, उसे कूटनीति से परास्त करना ही सूझबूझ भरा कदम होगा।

जो कार्य पहले प्रारम्भ कर देते हैं और योजना पीछे बनाते हैं, वे परत-दर-परत समस्याओं व कठिनाइयों से घिरे रहते हैं। उनकी मेहनत सार्थक नहीं होती। उनके संसाधन नाकाफी रहते हैं। कमजोर शरीर में जैसे बीमारियां घुस जाती हैं, वैसे ही कमजोर नियोजन और कमजोर व्यवस्था से कई-कई असाध्य रोग लग जाते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व, दूरदर्शी सोच एवं कठोर निर्णय लेने की क्षमता की ही निष्पत्ति है आत्म निर्भर भारत बनाने पर जोर देना। ‘लोकल के लिये वोकल’ यानी स्वदेशी का शंखनाद ही वास्तविक रूप में हमारी तमाम जटिल से जटिलतर होती समस्याओं का समाधान है। लोक शुद्ध एवं सशक्त होगा, तभी तंत्र भी सशक्त होगा। महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई लड़ते हुए स्वदेशी अपनाने की बात मौखिक रूप से ही नहीं कहीं बल्कि उन्होंने चरखे को स्वावलंबन का प्रतीक बना लिया था। आज हमारा व्यापार, उद्योग, तकनीक, उत्पाद सभी कुछ विदेशों और विशेषतः चीन पर निर्भर है, इस निर्भरता को खत्म करके ही हम आत्मनिर्भर बन सकेंगे, इसलिये मोदी ने भारत में ही सभी तरह के उत्पादों का उत्पादन करने, आयात की मात्रा नगण्य करने एवं निर्यात बढ़ाने पर बल दिया है। स्वदेशी सामान की मांग होगी, तो इसको बनाने वालों की आत्मनिर्भरता बढ़ेगी, महिलाओं-गरीबों की स्थिति सुधरेगी, रोजगार के अवसर पैदा होंगे, अर्थ की गति तीव्र होगी, स्वदेशी उद्योग एवं व्यापार की चमक लौटेगी।

आत्म निर्भर भारत एक उजाला है, इस उजाले को पहचानने के लिये हमारे विभिन्न राजनीतिक दलों के कर्णधारों को अपने पद की श्रेष्ठता और दायित्व की ईमानदारी को व्यक्तिगत अहम् से ऊपर समझने की प्रवृत्ति को विकसित कर मर्यादित व्यवहार करना सीखना होगा अन्यथा शतरंज की इस बिसात में यदि प्यादा वज़ीर को पीट ले तो आश्चर्य नहीं। छोटे से छोटे राजनीतिक दलों व व्यवस्थाओं में लॉबी का रोग लग गया है। जो शक्ति राष्ट्र के हित में लगनी चाहिए, वह गलत दिशा में लग जाती है तो समस्याएं सघन हो जाती हैं, खतरे बढ़ जाते हैं और देश को कमजोर करने वाली ताकतों के हौसले बुलन्द हो जाते हैं। राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता को सशक्त करने का हथियार मुद्दे या लॉबी नहीं, पद या शोभा नहीं, ईमानदारी है। और यह सब प्राप्त करने के लिए ईमानदारी के साथ सौदा नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि यह भी एक सच्चाई है कि राष्ट्र, सरकार, समाज, राजनीतिक दल व संविधान ईमानदारी से चलते हैं, न कि झूठे दिखावे, आश्वासन एवं वायदों से। हमें राष्ट्र के विश्वास का उपभोक्ता नहीं अपितु संरक्षक बनना चाहिए।

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