कथित मानवाधिकार कर्मियों, लेखकों व पत्रकारों को पहचानना है बेहद आवश्यक

कमलेश पांडे

जब से हिन्दू धर्म के विकल्प के रूप में इस्लाम धर्म और ईसाई मत को शासन-सत्ता के औजार के रूप में होने लगा और परस्पर एक दूसरे को नीचा दिखाने की रणनीति बनने लगी, सामाजिक जीवन अशांत हुआ और सुख-शांति-समृद्धि की सर्वपात्रीय अवधारणा का लोप हुआ।

यदि आप भारतीय हैं तो आपको भारत के एजेंडे का स्पष्ट बोध होना चाहिए, ताकि पूरी दुनिया में आप उसका अघोषित ब्रांड एम्बेसडर बनकर भारतीयता का परचम लहरा सकें। आप मानें या न मानें, लेकिन जब तक हम लोगों में हिंदुस्तानियत का गौरव नहीं जगेगा, अपनी उदार और सद्भावी मानव सभ्यता-संस्कृति के प्रति दृढ़ निष्ठा और समर्पण का भाव प्रगाढ़ नहीं होगा, तब तक भारतीयता की पैरोकारी हम लोग कब तक और कहां तक कर पाएंगे, समझना मुश्किल नहीं है।

सच कहूं तो आसेतु हिमालय में जिस सनातन धर्म-संस्कृति का उद्भव हुआ, काल प्रवाह वश देश-देशांतर में उसका विकास हुआ, वह अनायास नहीं बल्कि अपनी उदात्त परंपरा, पुरुष-प्रकृति शक्ति निष्ठ विचारधारा, वसुधैव कुटुम्बकम और सर्वे भवन्तु सुखिनः जैसे सर्वहितकारी आह्वान के चलते ही संभव हो पाया। कालांतर में यही जीवन-जगत चिंतन हिंदुत्व के रूप पूरी दुनिया में प्रतिस्थापित हुआ।

जैसा कि हर कोई जानता है कि विकल्पहीन नहीं है दुनिया, इसलिए जैसे जैसे हिंदुत्व सरीखे जन-जीवन धर्म पर शैव और वैष्णव मतावलम्बी परस्पर हावी होने की कुचेष्टा करने लगे, सनातन धर्म में विखंडनवाद की प्रक्रिया शुरू हो गई। इस क्रम में सामान्य जन-जीवन संचालन के लिए जिन व्यवस्थाओं की स्थापना की गई, बाद में उनके आपसी विरोधाभास भी प्रकट होने लगे, जो स्वाभाविक प्रक्रिया है। कालांतर में भगवान बुद्ध और भगवान महावीर के दर्शन से सनातन संस्कृति कितनी अनुप्राणित हुई और कितनी विखंडित, समाज विज्ञानियों के लिए यह शोध का विषय है।

हम तो कहना सिर्फ यह चाह रहे हैं कि हिन्दू परंपरा में शैव-वैष्णव विवाद, बौद्ध-जैन मतमतांतर, सिक्ख पंथ का आविर्भाव आदि कुछ ऐसी घटनाएं हैं, जिनका उपयोग-दुरूपयोग तत्कालीन-समकालीन सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा होता आया है। लेकिन जब से हिन्दू धर्म के विकल्प के रूप में इस्लाम धर्म और ईसाई मत को शासन-सत्ता के औजार के रूप में होने लगा और परस्पर एक दूसरे को नीचा दिखाने की रणनीति बनने लगी, सामाजिक जीवन अशांत हुआ और सुख-शांति-समृद्धि की सर्वपात्रीय अवधारणा का लोप हुआ।

प्राचीन युग में कबिलाई प्रवृत्ति, सामंतवाद और राजतंत्र को स्थायी बनाने के लिए सक्षम लोगों ने धर्म-संस्कार का सदुपयोग-दुरूपयोग किया, तो मध्ययुगीन राजाओं या तानाशाहों और आधुनिक युग के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने भी कमोबेश वही किया, जिससे उनका निजी हित सधा और उनकी नजरों में उन्हें क्षणिक स्थायित्व का बोध हुआ। ऐसा करने के क्रम में प्रशासनिक मूल्यों, कारोबारी चरित्रों, सामाजिक जन-सरोकारों और आदर्श सियासी मूल्यों की कद्र की गई होती या फिर करवाई गई होती तो मानव जीवन उतना अशांत नहीं दिखता, जितना कि आज हो चुका है।

आधुनिक बहुमत साधक चुनाव और चुनाव दर चुनाव बहुमत प्राप्ति के लिए राजनैतिक दलों या निर्दलीय नेताओं के द्वारा किए जा रहे तरह तरह के यत्नों-प्रयोगों के जो सामाजिक रिएक्शन सामने आ रहे हैं, उससे जो प्रशासनिक चाल-चरित्र-चेहरा प्रभावित हो रहा है और उस पर आधारित जो कारोबारी बेढंगापन प्रतीत हो रहा है, वह किसी नैतिक महामारी से कम नहीं है। वास्तव में, लोकतंत्र और बहुमत के नाम पर जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, लिंग भेद, वर्गवाद और व्यक्तिगत सम्पर्कवाद का जो खुला खेल चल रहा है, उससे भारतीयता, हिंदुस्तानियत और मानवता सभी खतरे में है।

सच कहा जाए तो स्वतंत्रता, समानता और विश्व बन्धुत्व जैसे उदात्त लोकतांत्रिक मूल्यों की वाहक सनातन संस्कृति और उस पर आधारित हिंदुत्व खतरे में है, क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला ईसाई धर्म सरकार संरक्षित अपनी मिशनरियों के सहारे और संसार की दूसरी बड़ी आबादी वाला इस्लाम धर्म सरकार संरक्षित अपने जमातियों-जेहादियों के सहारे न केवल भौगोलिक विस्तार पा रहा है, बल्कि दुनिया की तीसरी बड़ी आबादी वाले हिन्दू धर्म से आच्छादित भारतीय उपमहाद्वीप खासकर भारत पर कब्जे को लेकर संघर्षरत है। इसी फितरत वश जिस धार्मिक प्रतिद्वंद्विता को अंतर्राष्ट्रीय शह व संरक्षण देने की नापाक कोशिशें पिछली कई सदियों से चल रही हैं, उसके सियासी, कारोबारी, सांस्कृतिक और यौद्धिक….कई चेहरे सामने आये हैं, जिसे नियंत्रित करने में भारत सरकार क्यों विफल रही, यह जनसामान्य के लिए शोध का विषय है और होना भी चाहिए।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि धर्मनिरपेक्षता या पंथनिरपेक्षता एक मौलिक प्रशासनिक अवधारणा है, लेकिन भारतीय शासक वर्ग ने जिस तरह से इसे मनमाफिक तुष्टीकरण की नीति का औजार बना लिया है, उससे हिन्दू धर्म के सम्मुख विभिन्न तरह की चुनौतियां समुपस्थित हुई हैं। सत्ता प्रतिष्ठान के दोहरे मानदंड से हिन्दू समाज का व्यापक हित प्रभावित हुआ है और भारतीय सभ्यता-संस्कृति को लेकर एक अजीब प्रकार का भ्रम भी फैला है, जिसे दूर करना हम भारतीयों का पहला कर्तव्य है।

बहरहाल आलम यह है कि कहीं प्रबुद्ध ब्राह्मण संस्कृति पर लक्षित हमले हो रहे हैं तो कहीं उदार बनियावादी प्रवृत्ति पर। आम तौर पर दलितवाद, पिछड़ावाद, अल्पसंख्यकवाद, नारीवादी, क्षेत्रवाद व धर्मनिरपेक्षता आदि की दुहाई देकर कतिपय षड्यंत्रकारी सवर्ण, दलित, पिछड़े व अल्पसंख्यक लेखकों द्वारा प्रगतिशील सवर्णों व अन्य जनों पर जो लक्षित बौद्धिक हमले सार्वजनिक तौर पर, लेखन के माध्यम से, दृश्यांकन-फिल्मांकन के माध्यम से किये जा रहे हैं, उससे भारतीय सवर्ण-अवर्ण दोनों प्रतिभाएं हतोत्साहित हुई हैं।

कहना न होगा कि कथित वामपंथी, प्रगतिशील वामपंथी व हिंसक वामपंथी समूहों से गहरे से गुटबद्ध बुद्धिजीवियों द्वारा, जिन्हें आमतौर पर अर्बन नक्सली करार दिया जा रहा है, जो यदा कदा चयनित प्रतिक्रियाएं दी जा रही हैं, उनके तार किसी न किसी रूप में विदेशों या उनसे अनुदान प्राप्त करने वाली संस्थाओं या फिर उनके मुखौटा संगठनों से जुड़ने का अंदेशा गलत नहीं है। यदि यह समाज का हितकारी प्रबुद्ध संगठन होता तो सभी समाजद्रोही घटनाओं पर एक समान राय रखता। लेकिन, जब ऐसे तत्वों द्वारा ऐसा नहीं किया जा रहा है तो किसी का भी सशंकित होना स्वाभाविक है।

फिलवक्त कड़वा सच तो यह है कि कथित मानवाधिकारकर्मियों, लेखकों, पत्रकारों आदि के वक्त वक्त पर बेनकाब हुए बदसूरत वैचारिक चेहरों की प्रतिक्रिया में होने वाली सत्तागत गिरफ्तारियों, या फिर उनके उत्पीड़न का सवाल उठाने वाले जन संस्कृति मंच, दलित लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव, प्रतिरोध का सिनेमा, संगवारी और जनवादी लेखक संघ आदि की जनोपयोगी भूमिका की जांच भारतीय खुफिया एजेंसी यदि निष्पक्ष रूप से करती और गुण-दोष के आधार पर उन्हें प्रतिबंधित करती तो आज स्थिति इतनी भयावह कभी नहीं होती। क्योंकि इसी देश में सबसे बड़े सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदि पर कई दफे लक्षित प्रतिबंध लगाए जा चुके हैं। ऐसे में ऐसा कर चुकी भारत सरकार ऐसे बौद्धिक विषधरों की पहचान क्यों नहीं करती है, उनपर सख्त कार्रवाई क्यों नहीं करती है, जिससे भारतीय सभ्यता-संस्कृति में कड़वाहट उत्पन्न होने का अंदेशा हो।

कहना न होगा कि हाल ही में उपर्युक्त संगठनों ने असहमति के दमन के लिए मानवाधिकार-कर्मियों, लेखकों व पत्रकारों की गिरफ्तारियों का सिलसिला बंद करने की जो मांग की है, उसके अंतर्निहित इरादों को आम अवाम को समझने और समझाने की जरूरत है। वास्तव में, इनके द्वारा महामारी से मुक्ति के लिए जिस जन-एकजुटता का निर्माण करने की अपील की गई है, उसके मकसद को जानने की जिज्ञासा भी जरूरी है। मसलन, महामारी व तालाबंदी के इस दौर में जब समूचे देश का ध्यान एकजुट होकर बीमारी का मुक़ाबला करने पर केन्द्रित है, तब देश के कथित बुद्धिजीवियों, स्वतंत्र पत्रकारों, हाल ही के सीएए-विरोधी आन्दोलन में सक्रिय रहे राजनीतिक कार्यकर्ताओं और अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं की ताबड़तोड़ गिरफ़्तारियों के जो आरोप सामने आए हैं, वह सम्भवतया मोदी सरकार के तगड़े होमवर्क की ओर इशारा कर रहे हैं, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। इससे नागरिक समाज की चिंताएं बढ़ने की बात गलत है, बल्कि इस प्रक्रिया के तेज होने से लक्षित विरोधाभासी बातें थमेंगी और आम जनमानस की सुख-शांति-समृद्धि लौटेगी।

सवाल है कि यदि कथित बुद्धिजीवियों और राजनैतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारियां मोदी सरकार के मातहत प्रशासन द्वारा हो रही हैं तो यह इनकी गैर जिम्मेदाराना कार्यपृष्ठभूमि के मद्देनजर उचित है। चाहे सरकारी काम में बाधा डालने या धरने पर बैठने जैसे गोलमोल आरोप ही क्यों नहीं हों, लेकिन ऐसा करते रहने और अधिकतर मामलों को ‘यूएपीए क़ानून’ के तहत दर्ज करने से इनके मन में डर तो समाएगा। इन्हें पता तो होना चाहिए कि यूएपीए कानून आतंकवाद से निपटने के लिए ही लाया गया था। क्योंकि यह विशेष क़ानून ‘विशेष परिस्थिति में’ संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों को परिसीमित करता है। इसलिए मोदी सरकार इन अर्थों में बधाई की पात्र है।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि इस क़ानून का इस्तेमाल केवल उन्हीं मामलों में किया जाना चाहिए, जिनका सम्बन्ध आतंकवाद की किसी वास्तविक परिस्थिति से हो। इसलिए ऐसे तत्वों को यह समझ लेना चाहिए कि मोदी सरकार अब उन जैसों के खिलाफ आर-पार के मूड में आ गई है। अब अर्बन नक्सली लाख कहें कि दूसरी तरह के मामलों में इसे लागू करना संविधान के साथ छल करना है, तो यह मानकर चलें कि छलिया के साथ छलपूर्ण व्यवहार ही सार्थक होता आया है। इन कथित बुद्धिजीवियों का आरोप है कि कोई भी संविधान, लोकतंत्र में राज्य की सत्ता के समक्ष नागरिक के जिस अधिकार की गारंटी करता है, मौजूदा सरकार उसे समाप्त कर लोकतंत्र को सर्वसत्तावाद में बदल देना चाहती है। लेकिन ऐसे तत्वों को यह पता होना चाहिए कि लोहा ही लोहे को काटता है, इसलिये अब रणनीतिक रूप से उनकी उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है।

उपर्युक्त संगठनों के आरोपों के मुताबिक, लक्षित गिरफ्तारियों के लगातार जारी सिलसिले में सबसे ताज़ा नाम जेएनयू की दो शोध छात्राओं, देवांगना कलिता और नताशा नरवाल के हैं, जो प्रतिष्ठित नारीवादी आन्दोलन ‘पिंजरा तोड़’ की संस्थापक सदस्य भी हैं। इन्हें पहले ज़ाफ़राबाद धरने में अहम भूमिका अदा करने के नाम पर गत 23 मई को गिरफ्तार किया गया। फिर अगले ही दिन अदालत से जमानत मिल जाने पर तुरंत अपराध शाखा की स्पेशल ब्रांच द्वारा क़त्ल और दंगे जैसे आरोपों के तहत गिरफ़्तार कर लिया गया, ताकि अदालत उन्हें पूछ-ताछ के लिए पुलिस कस्टडी में भेज दे। आख़िरकार उन्हें दो दिन की पुलिस कस्टडी में भेज दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि सरकार के पास इनके बारे में पर्याप्त फीडबैक है, जिसके मातहत प्रशासन अब इनसे आर-पार के मूड में आ गया है।

इन संगठनों का आरोप है कि कुछ ही समय पहले जेएनयू के एक महिला छात्रावास में सशस्त्र हमला करने वाले कथित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के जाने पहचाने लोगों में से किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया गया है। जबकि, कुछ ही समय पहले जामिया मिलिया इस्लामिया के पूर्व-छात्रों के संगठन के अध्यक्ष शिफ़ा-उर रहमान को ‘दंगे भड़काने’ के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था। बहरहाल, गुलफ़िशा, ख़ालिद सैफी, इशरत जहां, सफूरा ज़रगर और मीरान हैदर को पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान गिरफ़्तार किया गया है। क्योंकि ये सभी सीएए-विरोधी आन्दोलन के सक्रिय कर्मकर्ता रहे हैं।

सीधा सवाल है कि अब ये भले ही सीएए की संवैधानिकता और मानवीय वैधता पर सवालिया निशान लगाएं और सुप्रीम कोर्ट के पास इस मामले के विचाराधीन होने की दुहाई दें। फिर भी यदि गुलफ़िशा, सफूरा और मीरान को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया है तो इसका एक कारण यह भी है कि सफूरा और मीरान जामिया को-ओर्डिनेशन कमेटी के सदस्य हैं। यही नहीं, बीते चौदह अप्रैल को आनंद तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के समाज-चिंतकों को भी गिरफ़्तार किया गया। लेकिन, यूएपीए के प्रावधानों के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया था।

वहीं, हाल ही में कश्मीर के चार पत्रकारों के ख़िलाफ़ प्रथम सूचना रिपोर्ट दाख़िल की गयी है, जिनमें से दो, मसरत ज़हरा और गौरव गिलानी, को यूएपीए के तहत आरोपित किया गया है। इसके अलावा, उत्तर पूर्वी दिल्ली में संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक हिंसा से जुड़े एक मामले में दिल्ली पुलिस ने जामिया के छात्रों मीरान हैदर और जेएनयू के छात्र नेता उमर ख़ालिद के ख़िलाफ़ भी यूएपीए कानून के तहत मामला दर्ज किया है। क्योंकि इन पर दंगे की कथित ‘पूर्व-नियोजित साजिश’ को रचने और अंजाम देने के आरोप हैं।

उधर, मणिपुर सरकार ने जेएनयू के ही एक और छात्र मुहम्मद चंगेज़ खान को राज्य सरकार की आलोचना करने के कारण गिरफ़्तार किया है। वहीं, गुजरात पुलिस ने मानवाधिकारवादी वकील प्रशांत भूषण के खिलाफ़ उनके एक ट्वीट के लिए रपट लिखी है। इसी तरह गुजरात पुलिस ने जनवादी सरोकारों के लिए चर्चित पूर्व-अधिकारी कन्नन गोपीनाथन और समाचार सम्पादक ऐशलिन मैथ्यू के ख़िलाफ़ भी प्राथमिकी दर्ज की है। गत तीन अप्रैल को दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को दिल्ली की दंगा-प्रभावित गलियों से हर दिन दर्जनों नौजवानों के गिरफ्तार किये जाने का संज्ञान लेते हुए नोटिस जारी किया है। इससे स्पष्ट है कि सरकार इनकी नस-नस पहचान चुकी है और इनकी सही इलाज ढूंढ़ रही है। जो इलाज उन्हें मिल रहा है, उसे वो कर रहे हैं।

इसी के साथ ‘द वायर’ के सम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन के घर यूपी पुलिस द्वारा दी गयी दस्तक को भी जोड़ लेना चाहिए। कोयम्बटूर में ‘सिम्पल सिटी’ समाचार पोर्टल के संस्थापक सदस्य एंड्रयू सैम राजा पांडियान को कोविड-19 से निपटने के सरकारी तौर-तरीकों की आलोचना करने के लिए गिरफ़्तार किया गया है। वहीं, उत्तर प्रदेश में पत्रकार प्रशांत कनौजिया के ख़िलाफ़ भी मुक़दमा दर्ज हुआ है, हालांकि हाईकोर्ट ने इनकी गिरफ्तारी पर फिलहाल रोक लगा रखी है। इसी तरह दिल्ली में आइसा की डीयू अध्यक्ष कंवलप्रीत कौर समेत डीयू और जेएनयू अनेक छात्र-नेताओं के मोबाइल फोन बिना उचित कानूनी प्रक्रिया अपनाए पुलिस द्वारा जब्त कर लिए गए हैं। क्योंकि ये नेतागण छात्र-छात्राओं की आवाज़ उठाते रहे हैं।

अमूमन आरोप है कि यह मोदी सरकार पुलिसिया ताक़त का बेजा इस्तेमाल करते हुए राजनीतिक असंतोष का दमन करने के लिए उनकी निजता में सेंध लगाने की ऐसी नाजायज कोशिश है, जिसकी किसी लोकतंत्र में कल्पना भी नहीं की जा सकती। उल्लेखनीय बात यह भी है कि ज़िला अदालत ने तालाबंदी के दौरान किए गए इस पुलिसिया अनाचार के खिलाफ़ पीड़ितों को भी किसी भी तरह की राहत मुहैया करने से यह कह कर इनकार कर दिया है कि तालाबंदी के दौरान अदालत पुलिस कार्रवाई की मोनीटरिंग नहीं कर सकती। मतलब साफ है कि जब तालाबंदी के दुरुपयोग के ख़िलाफ़ राहत माँगी जा रही हो, तब उसी तालाबंदी को क़ानून-सम्मत राहत न देने का आधार बनाया जा रहा है।

इन बातों से जाहिर हो रहा है कि केंद्र व राज्य सरकारें पूरी तन्मयतापूर्वक संदिग्ध गतिविधियों को चलाने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई कर रही हैं और अर्बन नक्सलियों व उनके शुभचिंतक बुद्धिजीवियों के बच निकलने के हर वैध रास्ते को कानूनन बन्द कर उचित पहरेदारी भी कर रही हैं। वहीं, इनके शुभचिंतक नागरिक-समाज की चिंता यह है कि ये गिरफ्तारियां निहायत इकतरफा ढंग से की जा रही हैं, जबकि भीमा कोरेगांव हिंसा से लेकर दिल्ली दंगों तक के मामलों में हिन्दू कट्टरतावादी विचारधारा से जुड़े कुख्यात आरोपी खुले घूम रहे हैं। वहीं, मोदी योगी सरकार के आलोचक बुद्धिजीवियों का कहना है कि सरकार के विरोधियों को यूएपीए जैसे कठोर कानूनों के तहत पुलिसिया कार्रवाई का निशाना बनाया जा रहा है, जिनका मकसद बिना किसी आरोप या सबूत के भी आरोपित को लम्बे समय तक जेल में पुलिस-कस्टडी में रखने के सिवाय कुछ और नहीं है। इनकी दलील है कि भीमा कोरेगांव मामले में उत्तेजक भाषणों के जरिये हिंसा भड़काने के आरोप मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े जैसे झूठे हिंदूवादी नेताओं पर लगे थे और शुरुआती एफआइआर में इनके नाम भी दर्ज हैं, लेकिन ये लोग आज तक छुट्टा घूम रहे हैं। इनकी बातों का आशय यह भी है कि इस सारे मामले को ‘अरबन नक्सल’ का एक कोण देकर मोदी सरकार व उसका मातहत प्रशासन उन्हें निशाना बना रहा है। इसी मामले में तेलुगू कवि वरवरा राव, मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण फरेरा और वरनन गोंसाल्विस, मज़दूर संघ कार्यकर्ता और अधिवक्ता सुधा भारद्वाज, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा और अंबेडकरवादी लेखक आनंद तेलतुम्बड़े को सलाखों के पीछे डाल दिया गया है। वहीं, नवलखा और आनंद को ठीक महामारी के बीच 14 अप्रैल को गिरफ्तार किया गया।

दरअसल, इन कथित बुद्धिजीवियों द्वारा इस तरीके से आलोचकों समेत आम जन तक यह संदेश पहुंचाया जाता है कि सरकार निष्पक्ष नहीं है और उसके आलोचकों को अपनी आज़ादी और जान-माल की सुरक्षा के लिए सरकार से उम्मीद नहीं करनी चाहिए। वे न केवल सरकारी तन्त्र के सामने बल्कि नॉन-स्टेट एक्टरों के सामने भी असहाय हैं। ऐसे में इन मामलों का संज्ञान लेने और उनके सुनवाई करने में न्यायालय की तत्परता का महत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। हालांकि यूएपीए जैसे कानून न्यायालय के हस्तक्षेप की सम्भावना को भी अत्यंत असरदार तरीके से सीमित कर देते हैं। लिहाजा, इस तरह एक के बाद एक मामले बनाकर गिरफ्तारियां करते हुए किसी को ताउम्र जेल में रखा जा सकता है।

Comment: