उज्जैन और परमार वंश के बारे में कुछ जानकारी

महान सामाजिक कार्यकर्त्ता व धार्मिक प्रवृत्ति के धनी श्रद्धेय पिता श्री महाशय राजेंद्र सिंह आर्य का स्वर्गारोहण दिनांक 13 सितंबर में १९९१ को हुआ तो हम उनके अस्थि विसर्जन करने के लिए अपने गांव महावड़ से पूरी एक बस लेकर के हरिद्वार गए थे । जिसमें हमारे सभी परिजन , मित्र -संबंधी, गांव की कुछ महिलाएं व पुरुष थे।

‘हर की पौड़ी’ का सत्य

मैंने वहां हरिद्वार में ‘हर की पौड़ी’ नाम सुना। जिसके विषय में पिताजी कहानी में बताया करते थे कि उज्जैन के राजा भर्तृहरि ने गंगा जी के किनारे पहाड़ की सुरम्य वादियों में बैठकर तपस्या की थी। राजा परम तपस्वी थे । गंगा स्नान के समय उतरने और चढ़ने में उनको कोई परेशानी न हो ,इसको ध्यान रखते हुए छोटे भाई वीर विक्रमादित्य ने कुछ सीढ़ियों का निर्माण गंगा जी में कराया । जिनको तत्समय ‘भर्तृहरि की पौड़ी’ कहा जाता था। आज अपभ्रंश होकर ‘हर की पौड़ी’ कही जाती है।

उज्जैन के विषय में

पूज्य पिताजी द्वारा उज्जैन का बार-बार उल्लेख करने से मन में स्वयं ही एक इच्छा उत्पन्न हुई कि उज्जैन को भी देखा जाए। अतः आज मैं उज्जैन की ही बात करना चाहूंगा।
उज्जैन की बात करने से पूर्व मैं यहां यह भी उल्लेख करना चाहूंगा कि गुर्जरों के प्रतिहार वंश पर अनेक शोध और ऐतिहासिक ग्रंथ उपलब्ध हैं । जो अब से पूर्व में लिखे गए हैं और भविष्य में लिखे जाएंगे। लेकिन परमार वंश पर अभी तक किसी की दृष्टि उस दृष्टिकोण से नहीं गई है जैसी दृष्टि की किसी एक अच्छे इतिहासकार या लेखक से अपेक्षा की जा सकती है। मेरा लिखने का उद्देश्य भी यही स्पष्ट करना है कि परमार वंश भी उसी प्रकार से है ,जैसे प्रतिहार था।

संदीपनी आश्रम में

8 जुलाई 2017 को धारा नगरी के दर्शन प्राप्त करने के पश्चात मैं 9 जुलाई 2017 को सपत्नीक उज्जैन पहुंचा। सर्वप्रथम मैंने संदीपनी ऋषि के आश्रम को देखा जहां श्री कृष्ण जी व सुदामा ने शिक्षा दीक्षा प्राप्त की थी। संदीपनी मुनि की संगमरमर की मूर्ति व गोमती कुंड भी आश्रम के अंदर है ।महर्षि संदीपनी एक महान तपस्वी प्रसिद्ध योगी और ऋषि थे । इनके आश्रम में राजा व रंक दूर-दूर से आकर विद्याध्ययन करते थे । उस समय यह भारत का प्रमुख गुरुकुल था। महाभारत और समकालीन अन्य ऐतिहासिक ग्रंथों की साक्षी से पता चलता है कि कंस वध एवं अपने यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात श्री कृष्ण एवं बलराम यहीं विद्याध्ययन के लिए संदीपनी ऋषि के आश्रम गुरुकुल में रहे थे। यहीं पर श्री कृष्ण के साथ सुदामा भी पढ़े थे। उस तपोवन को नमन करने के पश्चात क्षिप्रा नदी के किनारे भर्तृहरि महाराज व राजा गोपीचंद की गुप्त गुफाओं के साक्षात दर्शन हेतु पहुंचे।
दोनों गुफाएं नदी के ऊंचे किनारे पर बनी हुई हैं जो तीन मंजिल नीचे की तरफ पृथ्वी के गर्भ में बनी हुई हैं। केवल एक ही व्यक्ति जीना उतरकर नीचे जा सकता है और एक ही व्यक्ति ऊपर आ सकता है। लेकिन बिल्कुल नीचे जाने के पश्चात ऑक्सीजन की कुछ कमी मुझे अनुभव होने लगी थी ।
दोनों गुफाएं एक साथ बनी हुई हैं । दोनों के दरवाजे ऐसे ही संकुचित हैं ।नीचे दोनों गुफाओं के बीच में दीवार लगी हुई है। जिनमें से एक राजा भर्तृहरि की व दूसरी राजा गोपीचंद द्वारा निर्मित है।

राजा ने कैसे लिया सन्यास

राजा भर्तृहरि की एक बहन थी मैनावती। मैनावती की शादी धार के राजा पदम सेन के साथ हुई थी। पदम सेन और मैनावती के संयोग से एक पुत्र गोपीचंद, एक पुत्री चंद्रावल पैदा हुई थी। गोपीचंद की पहली शादी से कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई । दूसरी शादी की ,तीसरी की, इस तरीके से 16 शादी हो चुकी थी, जिनसे 12 कन्या पैदा हो चुकी थीं , लेकिन लड़का एक भी पैदा नहीं हुआ था। इसलिए मां मैनावती बहुत परेशान रहती थी ।
उन्होंने अपने साधु हो चुके भाई भर्तृहरि से इस समस्या का समाधान बताने के लिए कहा। महाराज भर्तृहरि नाथ संप्रदाय के गुरु गोरखनाथ के शिष्य थे। गुरु गोरखनाथ के समक्ष यह समस्या उठाई गई। उन्होंने गोपीचंद को 12 वर्ष जंगल में तपस्या करने के लिए सुझाव दिया। पहले तो रानी मैनावती इस पर सहमत नहीं हुई परंतु बाद में पौत्र प्राप्ति के लालच में पुत्र को सन्यास दिला दिया। इस प्रकार दोनों अर्थात मामा व भांजा ने एक साथ क्षिप्रा नदी के किनारे पर 12 वर्ष तपस्या की थी। नदी के किनारे पर आज भी नाथ संप्रदाय के डेरे देखे । मत्स्य नाथ आदि के डेरे वहां बने हुए हैं।
यह स्थान तत्कालीन मालवा प्रांत में आता था। जहां के महाराजा भर्तृहरि परमार वंश के थे। उज्जैन को उस समय उज्जयिनी कहते थे जो भारतवर्ष की राजधानी रही थी। भर्तृहरि और उनके छोटे भाई विक्रमादित्य दोनों ही अपनी न्याय प्रियता तथा प्रजावत्सलता के कारण सारे भारतवर्ष में विख्यात थे। भर्तृहरि बड़े होने के कारण राज्य करते थे ,और विक्रमादित्य प्रधानमंत्री था।

रानी पिंगला और महाराजा भर्तृहरि

महाराजा भर्तृहरि की एक तीसरी पत्नी थी जिसका नाम पिंगला था। पिंगला में महाराजा भर्तृहरि की अत्यधिक आसक्ति थी। रानी पिंगला ने विक्रमादित्य के समक्ष प्रणय प्रस्ताव रखा जो उसके द्वारा सविनय ठुकरा दिया गया , लेकिन रानी पिंगला ने महाराज भर्तृहरि के कान उल्टे भर दिए। जिससे राजा ने नाराज होकर अपने भाई को देश निकाला दे दिया।
कुछ समय पश्चात राजा के दरबार में गुरु गोरखनाथ आ गए । जिन्होंने राजा के विषय में प्रशंसा सुन रखी थी उन्होंने आकर के राजा को एक फल दिया । इसको खाइए ,जिससे आप सदैव जवान व सुंदर दिखाई पड़ते रहेंगे। राजा ने वह फल पत्नी प्रेम में रानी पिंगला को दे दिया । राजा ने सोचा कि यदि यह खाएगी और सुंदर और जवान दिखेगी तो अच्छा लगेगा। लेकिन रानी के अवैध संबंध शहर कोतवाल से थे और रानी ने वह फल शहर कोतवाल को दे दिया । उस शहर कोतवाल के भी संबंध एक वेश्या से थे । अतः शहर कोतवाल ने वह फल वेश्या को दे दिया ।
वेश्या ने जब यह देखा कि यदि तू सुंदर और जवान लगती रही तो हमेशा पाप ही कमाती रहेगी। हमारा राजा बहुत धर्मात्मा है । यह फल उसको दे देना चाहिए ,तो वह इस उद्देश्य से उसी फल को राजा के दरबार में राजा को दे देती है। राजा उसको देखकर आश्चर्यचकित हुए । रानी से पूछा । रानी ने दबाव में शहर कोतवाल को देना बताया। शहर कोतवाल से पूछा तो उसने वेश्या को देना स्वीकार किया। इस तरीके से राजा पूरी कहानी को समझ गए , और उन्हें सारी कहानी को सुनकर बहुत आत्मग्लानि हुई । समस्त राज्यविक्रमादित्य छोटे भाई को बुला कर सौंप दिया ।अपने आप तपस्या करने के लिए नदी के किनारे पर चले गए जहां पर उनकी घोर तपस्या इन्हीं गुफाओं के मध्य हुई थी। यहीं पर राजा ने 3 ग्रंथ लिखे । जिनके नाम वैराग्य शतक ,नीति शतक और से श्रंगार शतक हैं। जो आज भी उपलब्ध हैं ।पढ़े जाने योग्य हैं ।उनके पढ़ने में सरल भाषा और प्रवाह पाठक को बांधे रखता है।

कुछ और रोचक तथ्य

महाराजा भर्तृहरि की तपोभूमि तिजारा नगरी अलवर के पास राजस्थान में अरावली की पर्वतमालाओं में अलवर जिला से 53 किलोमीटर दूर उत्तर में स्थित रही है। इसका पूर्व नाम त्रिगत नगर राज्य था ।जिसकी राजधानी सरहटा थी। एक किवदंती के अनुसार तिजारा की स्थापना ईसा की 11 वीं सदी में तोमर वंश के राजा अनंगपाल द्वितीय के पुत्र तेजपाल ने की थी । अनेक बार बसना व उजड़ना होने से तीसरी बार बसने के कारण इसे तिजारा कहा जाता है। तिजारा के दक्षिण में विशाल भर्तृहरि गुंबद है। उत्तर भारत की बड़ी गुंबदों में इसकी गिनती है।
यह निर्माण गुर्जर राजा तेजपाल तंवर ने अपने पूर्वज महाराजा भर्तृहरि की स्मृति में करवाया था ।
दूसरे मत के अनुसार इस गुंबद को इब्राहिम लोदी ने सन 1500 में बनवाया था। क्योंकि यहां पर पूजा अर्चना करने के बाद उसकी एक मुराद पूरी हुई थी और खुश होकर के महाराज भर्तृहरि का दीवाना हो गया था । परंतु यह मत हमको असत्य प्रतीत होता है। यह मेरा निजी विचार है , क्योंकि कोई भी मुसलमान हिंदुओं की गुंबद अथवा यादगार नहीं बना सकता। सन 1030 में मुस्लिम सेनाएं तिजारा पर चढ़ आयी थीं। तत्कालीन शासक तेजपाल को बंदी बना लिया गया। उसी समय मेवात के इस इलाके में इस्लाम धर्म का पदार्पण हुआ।
तत्कालीन दिल्ली शासक फिरोजशाह तुगलक ने अलाउद्दीन को तिजारा का शासक बना दिया। फिरोज के बाद खिज्र खां दिल्ली का शासक बना । जिसने 1411 से 1413 ई0 में तिजारा व सरेहटा पर आक्रमण किया। 1451ई0 में लोदी वंश के संस्थापक बहलोल लोदी ने तिजारा व मेवात पर आक्रमण करके छीन लिया ।बहलोल के बाद 1485 में सिकंदर लोदी दिल्ली की गद्दी पर बैठा ।उसने यह इलाका आलम खां उर्फ अलाउद्दीन लोधी अपने छोटे भाई को दिया ।जिसने अलावलपुर गांव बसाया ।
यह गुंबद का स्मारक अपनी विशालता और सुंदरता के लिए विख्यात है। गुंबद की ऊंचाई 240 फीट है जो कई बीघे में फैला हुआ है। 1761 ई0 में मराठों ने यहीं पर शिवलिंग की स्थापना की थी। क्योंकि मराठा जहां भी जाते थे , वहां शिवलिंग की स्थापना शिव मंदिर अवश्य बनाते थे , क्योंकि मराठी शिव के उपासक थे।
गुंबद के भग्नावशेष आज भी तिजारा के उत्तर पूर्व संघ में मिलते हैं। तिजारा में पहाड़ पर बना किला, लाल मस्जिद ,सूरजमुखी, बाद शाह की मजार, जैन मंदिर व भर्तृहरि का गुंबद प्रमुख हैं।
भर्तृहरि जब यहां आए थे तो अपने साथ गोपीचंद को भी लेकर के आए थे । तिजारा के पूर्व में स्थित सूरजमुखी को उन्होंने अपनी तपस्थली बनाया था।
कहावत बनी कि :-

यह नगर है तिजारा ।
इसके लोग हैं नाकारा ।
गोपीचंद भरथरी तपे
यहां साल बारा।

महाराज भर्तृहरि को स्थानीय भाषा में भरथरी कहते हैं। यह गुंबद आज राजकीय संग्रहालय राजस्थान राज्य के अधीनस्थ है। परमार वंश के वीर विक्रमादित्य की कहानी आपने अनेक रूप में सुनी है। परमार को पंवार, ,पोयार, प्रमार, पोमार से देश भर में पुकारा जाता है । इसी वंश से मंडार व बोकन गोत्र हैं। जयपुर के संग्रहालय में परमार ,भाटी ,जाडेचा, चौहान , प्रतिहार , कछवाहा , सिसोदिया सबको राजपूत राजा लिखा गया।
जून 1995 में मैं जब आबू पर्वत के भ्रमण पर था तो उस समय मैंने आबू पर्वत पर यह शिलालेख पढा कि यहां से अग्निकुंड के समक्ष प्रतिज्ञा दिलाकर 4 क्षत्रिय पैदा किए गए थे । जिसमें चालुक्य(सोलंकी)चौहान, प्रतिहार, तंवर (तोमर)थे। यह घटना 720 ईसवी की है। चारों ही गोत्र गुर्जरों में आज भी विद्यमान है। लेकिन अभी बहुत शोध का विषय है।
इसी परमार वंश में 9 वीं पीढ़ी में राजा भोज पैदा हुए और उस परमार वंश ने आठवीं शताब्दी से लेकर के चौदहवीं शताब्दी तक राज्य किया । इसके अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं ।

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत

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