संपूर्ण विश्व ऋणी है भारत के ज्ञान विज्ञान का

हमारे पूर्वजों की महानता और बौद्धिक क्षमताओं का विश्व में कोई सानी नहीं है । संसार में आज जितना भी ज्ञान विज्ञान फूलता – फलता दिखाई दे रहा है , उस सबके मूल में हमारे ऋषि पूर्वजों का तप ,त्याग, तपस्या और उनकी ऊँची साधना बोल रही है । उन्हीं की जूठन को उठा – उठाकर लोगों ने नए परन्तु झूठे इतिहास रचे व बनाए हैं और अपनी झूठी महिमा का लोहा लोगों से मनवाने का प्रयास किया है ।
इस विषय में यदि विचार करें तो हम देखते हैं कि जिसे आजकल हम पाइथागोरस की प्रमेय कहते हैं वह वास्तव में हमारे महान पूर्वज बुधायन द्वारा खोजी गई थी । इस भारतीय गणितज्ञ ने छठी शताब्दी में पाई का मूल्य ज्ञात कर इस प्रमेय की संकल्पना को साकार किया था । मूल में तपस्या तो हमारी है पर अज्ञानतावश गीत हम गा रहे हैं – पाइथागोरस के।
इसी प्रकार चिकित्सा के क्षेत्र में हमारे यहाँ पर प्राचीन काल से ही अनुपम और अद्वितीय खोजें की गईं। यहां के अनेकों ‘चरक’ , ‘सुश्रुत’ और ‘सुषेण’ जैसे वैद्य संपूर्ण भूमंडल में प्रसिद्ध रहे । इन जैसे वैद्यों ने मानव स्वास्थ्य को लेकर चिकित्सा के क्षेत्र में ऐसे अच्छे अनुसंधान किए थे कि उनकी बराबरी आज तक कोई नहीं कर सका । लक्ष्मण को यदि शक्ति लग गई थी तो उसे भी कुछ ही मिनटों में ठीक कर दिया था ।
हमारे यहां महाभारत जैसे विनाशकारी युद्ध में 18 अक्षौहिणी सेना अर्थात लगभग 5000000 लोग मारे गए थे । यह युद्ध 18 दिन चला था। कुल मिलाकर प्रतिदिन लगभग पौने तीन लाख लोग या तो मारे जाते थे या घायल होते थे । तनिक सोचिए कि उन घायल लोगों का प्रतिदिन उपचार करने के लिए उस समय कितने वैद्य रहे होंगे ?आज तो कोरोनावायरस से सारा देश लॉक डाउन में है। उस समय तो 50 हजार से एक लाख गंभीर रूप से घायल लोगों का रातों-रात उपचार होता था । उनके लिए कितनी बड़ी व्यवस्था की गई होगी ? सचमुच विचारणीय बात है। उस समय युद्ध विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान का ऐसा सुन्दर समन्वय था कि गंभीर रूप से घायल सैनिकों को भी रात ही रात में स्वस्थ किया जाता था । जिससे वह सुबह युद्ध में जाकर सम्मिलित हो सके। सुश्रुत हमारे यहाँ पर शल्य चिकित्सा के जनक माने जाते हैं जो कि धड़ से अलग हुई गर्दन को भी जोड़ने में प्रवीण थे। इसी को कहते हैं योग: कर्मसु कौशलम्।

भारतीय संविधान के अनुसार सिक्ख , बौद्ध और जैन भारतीय धर्म की मूल शाखा में से निकले होने के कारण हिंदू ही माने जाते हैं । यदि कुछ देर के लिए इनको अलग-अलग ही मान लें तो संसार भर में वेद धर्म से निकले इन सभी धर्मों के अनुयायियों की कुल संख्या इस्लाम और ईसाइयत से अधिक हो जाती है। यह सारे धर्म भारत की प्राचीन चिकित्सा प्रणाली में विश्वास रखते हैं । विश्व के अन्य कई देश भी भारतीय चिकित्सा प्रणाली को ही एलोपैथी की अपेक्षा अच्छा मानते हैं । इन सबकी कुल संख्या यदि जोड़ी जाए तो आज भी संसार की चिकित्सा प्रणाली दीखने के लिए तो एलोपैथी से संचालित है , पर वास्तव में भारत की चिकित्सा प्रणाली को अर्थात आयुर्वेद को ही लोग अधिक मान रहे हैं। इसका प्रमाण यह है कि स्वामी रामदेव जी जैसे ही भारत की प्राचीन चिकित्सा प्रणाली को लेकर उठे तो संसार भर के लोगों ने उनका स्वागत किया।
विद्वानों का यह भी निष्कर्ष है कि बीज गणित, त्रिकोण मिति और कलन का उद्भव भी भारत में हुआ था। चतुष्‍पद समीकरण का उपयोग 11वीं शताब्‍दी में श्री धराचार्य द्वारा किया गया था। ग्रीक तथा रोमनों द्वारा उपयोग की गई की सबसे बड़ी संख्‍या 106 थी जबकि हिन्‍दुओं ने 10*53 जितने बड़े अंकों का उपयोग (अर्थात 10 की घात 53), के साथ विशिष्‍ट नाम 5000 बीसी के दौरान किया। आज भी उपयोग की जाने वाली सबसे बड़ी संख्‍या टेरा: 10*12 (10 की घात12) है। वर्ष 1986 तक भारत विश्‍व में हीरे का एक मात्र स्रोत था (स्रोत: जेमोलॉजिकल इंस्‍टी‍ट्यूट ऑफ अमेरिका) बेलीपुल विश्‍व‍ में सबसे ऊंचा पुल है। यह हिमाचल पवर्त में द्रास और सुरु नदियों के बीच लद्दाख घाटी में स्थित है। इसका निर्माण अगस्‍त 1982 में भारतीय सेना द्वारा किया गया था।
क्या भारत से अलग किसी अन्य देश ने विश्वकर्मा की पूजा की है ? या ऐसी कल्पना की है कि जो व्यक्ति सुंदर से सुन्दर भवन निर्माण कर सके या नगर निर्माण की योजना बना सके उसको विश्वकर्मा कहा जाएगा ? जी , बिल्कुल नहीं ।
ठीक है कि हमने विश्वकर्मा के नाम पर ईश्वर का एक काल्पनिक चित्र बनाकर उसको अपनी अज्ञानतावश कोई देवता मान लिया , परंतु वास्तव में हमारे यहां विश्वकर्मा उसको कहते थे जो नगर निर्माण की योजना को यथाशीघ्र पूर्ण कर देता था । जी हाँ , महाभारत में द्वारिका का निर्माण करने वाला विश्वकर्मा एक इंजीनियर था , जिसने इतनी बेहतरीन कला का प्रदर्शन किया कि द्वारिका उस समय देखने योग्य शहर था । इतना ही नहीं उसके अवशेष आज तक समंदर में देखे जा सकते हैं। समुंदर पर सौ योजन पुल बांधने वाले नल और नील पर भी हमारा ही कॉपीराइट है, जिन्होंने आश्चर्य में डालने वाला संसार का यह कार्य चार-पांच दिन में ही कर दिया था। इसी प्रकार खांडव वन में इंद्रप्रस्थ का निर्माण भी रातों-रात सम्पन्न कराया गया था । और तो और अब से लगभग 450 वर्ष पूर्व उदयसिंह ने अपने शासन के मात्र 5 वर्ष में उदयपुर जैसा शहर बसाया था , जो किसी चमत्कार से कम नहीं था। इन सबसे पता चलता है कि हमारे यहाँ का स्थापत्य कला बेजोड़ रही है। इसके उपरान्त भी हमें यह सिखाया जाता है कि लाल किला और ताजमहल बनाने वाले आप नहीं कोई और थे ?
तनिक इन तथ्यों पर भी विचार करें कि विश्‍व में सबसे बड़ा धार्मिक भवन अंगकोरवाट, हिन्‍दू मंदिर है जो कम्‍बोडिया में 11वीं शताब्‍दी के दौरान बनाया गया था। तिरुपति शहर में बना विष्‍णु मंदिर 10वीं शताब्‍दी के दौरान बनाया गया था, यह विश्‍व का सबसे बड़ा धार्मिक गंतव्‍य है। रोम या मक्‍का धामिल स्‍थलों से भी बड़े इस स्‍थान पर प्रतिदिन औसतन 30 हजार श्रद्धालु आते हैं और लगभग 6 मिलियन अमेरिकी डॉलर प्रति दिन चढ़ावा आता है।
भारत के अतीत के वैभवपूर्ण कालखंड को देखकर मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियां अनायास ही सार्थक हो उठती हैं :–“संसार में किसका समय है एक सा रहता सदा,
हैं निशि दिवा सी घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा।
जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही;
जो आज उत्सव मग्र है, कल शोक से रोता वही॥चर्चा हमारी भी कभी संसार में सर्वत्र थी,
वह सद्गुणों की कीर्ति मानो एक और कलत्र थी ।
इस दुर्दशा का स्वप्न में भी क्या हमें कुछ ध्यान था?
क्या इस पतन ही को हमारा वह अतुल उत्थान था?॥उन्नत रहा होगा कभी जो हो रहा अवनत अभी,
जो हो रहा उन्नत अभी, अवनत रहा होगा कभी ।
हँसते प्रथम जो पद्म हैं, तम-पंक में फँसते वही,
मुरझे पड़े रहते कुमुद जो अन्त में हँसते वही ॥”सचमुच मेरा भारत महान है।डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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