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भारतीय संस्कृति

16 संस्कार और भारत की चेतना , भाग 2

कर्णवेध संस्कार

कर्णवेध संस्कार को आज की युवा पीढ़ी ने अपनाने से इंकार कर दिया है । स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से इस संस्कार को अंग्रेजीपरस्त लोगों ने हमारे लिए अनुपयोगी सिद्ध करने का प्रयास किया । प्रचलित शिक्षा प्रणाली में हमारे भीतर कुछ इस प्रकार के अवगुण भरने का प्रयास किया गया जिससे भारत के लोगों की अपने सांस्कृतिक मूल्यों और संस्कारों के प्रति उपेक्षावृत्ति स्पष्ट होने लगी । इस उपेक्षावृत्ति की सबसे खतरनाक गाज कर्णवेध जैसे पवित्र संस्कारों पर पड़ी । जिसका परिणाम यह हुआ कि आज यह संस्कार लगभग समाप्त हो गया है।

कर्णवेध संस्कार को पश्चिम के लोगों ने तो हमें अवैज्ञानिक और बुद्धि के विरुद्ध बताया , परंतु सच यह है कि कर्णवेध संस्कार पूर्णतया वैज्ञानिक परम्परा पर आधारित संस्कार है ।शारीरिक व्याधियों से बालक की रक्षा करना इस संस्कार का प्रमुख उद्देश्य है । कान वास्तव में ही हमारे शरीर में बहुत महत्वपूर्ण अंग हैं । इनसे हम बाहरी जगत की प्रत्येक बात को सुनते हैं । जैसा सुनते हैं वैसा ही देखने का प्रयास करते हैं और देखे व सुने को फिर हमारी बुद्धि किसी निर्णय – निश्चय तक पहुंचाने का काम करती है । इस प्रकार कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्णवेधन संस्कार के द्वारा बालक के कान छेदे जाते हैं जिससे व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इस संस्कार के माध्यम से हमारे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों का रक्त प्रवाह अच्छा बना रहता है । जिससे श्रवण शक्ति में बढ़ोतरी होती है । साथ ही कई प्रकार के रोगों को भी होने से रोका जा सकता है । कई लोग कानों के छिद्रों को बनाए रखने के लिए उनमें आभूषण भी पहन लिया करते हैं।

सुश्रुत में लिखा है- ”रक्षाभूषणनिमित्तं बालस्य कर्णौ विध्येते“ अर्थात् बालक के कान दो उदेश्य से बींधे जाते हैं। बालक की रक्षा तथा उसके कानों में आभूषण डाल देना। देश के जिन अंचलों या क्षेत्रों में इस संस्कार को कराए जाने की परंपरा सौभाग्यवश अभी बनी और बची हुई है , वहां पर इस संस्कार को कोई भी सुनार या कोई भी ऐसा व्यक्ति कर देता है जो छिद्र करने में कुशल हो। परन्तु सुश्रुत में लिखा है ”भिषक् वामहस्तेनाकृष्य कर्णं दैवकृते छिद्रे आदित्यकरावभास्विते शनैः शनैः ऋजु विद्धयेत्“- अर्थात् वैद्य अपने बाएं हाथ से कान को खींचकर देखे, जहां सूर्य की किरणें चमकें वहां-वहां दैवकृत छिद्र में धीरे-धीरे सीधे बींधे। इसका अभिप्राय है कि कर्ण छेदन संस्कार बहुत ही वैज्ञानिक रीति से संपन्न किया जाना चाहिए । इसका उद्देश्य केवल कान को छेदना मात्र नहीं है , अपितु इसका एक स्थान विशेष है , जहां से इसको छेदना चाहिए । क्योंकि उसी स्थान पर छेदने से इसके वैज्ञानिक लाभ मिलने संभावित हैं ।

यज्ञोपवीत संस्कार

यज्ञोपवीत संस्कार का भी भारत के समाज में विशेष महत्व है । इस संस्कार को हम आज भी अपनाए हुए हैं ।अधिकांश वैदिक परंपरा को मानने वाले परिवारों में इस संस्कार को अभी भी कराया जाता है । इस संस्कार का भी अन्य संस्कारों की भांति एक वैज्ञानिक महत्व है । यज्ञोपवीत के तीनों धागे हमें बहुत कुछ गहरा संदेश देते हैं । देवऋण , ऋषिऋण और पितृऋण इन तीनों से उऋण होने की हमारी संकल्प शक्ति में वृद्धि करते हैं । साथ ही हमें कई प्रकार के रोगों से भी बचाते हैं । यज्ञोपवीत संस्कार को उपनयन संस्कार भी कहा जाता है । यज्ञोपवीत सूत से बना वह पवित्र धागा है जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर और दाईं भुजा के नीचे पहनता है। उपनयन का अर्थ है पास ले जाना अर्थात जिस संस्कार के माध्यम से हम गुरु के पास जाते हैं , गुरु का सान्निध्य और सामीप्य पाकर अपने जीवन को उन्नत करने लगते हैं और हमारा गुरु हमारे समाजीकरण और देवत्वीकरण की प्रक्रिया को प्रारंभ कर हमें उन्नत करने लगता है उस संस्कार को हम उपनयन संस्कार के नाम से जानते हैं।

इस संस्कार के माध्यम से हम गुरु के तेज को प्राप्त कर परमपिता परमेश्वर के तेज को धारण करने की शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त करने लगते हैं। इससे हमारा आत्मिक , मानसिक और शारीरिक विकास होने लगता है । तेज को धारण करने का अभिप्राय है कि आत्मस्वरूप को जानकर परमात्मस्वरुप को समझने की ओर चल पड़ना।

विद्वानों का मानना है कि आचार्य तथा बच्चा सम-हृदय, सम-चित्त, एकाग्र-मन, सम-अर्थ-सेवी हो। लेकिन इस सब में आचार्य आचार्य हो तथा शिष्य शिष्य हो। आचार्य परिष्कृत बचपन द्वारा बालक के सहज बचपन का परिष्कार करे। यह महत्वपूर्ण शर्त है। आचार्य बच्चे के विकास के विषय में सोचते समय अपनी बचपनी अवस्था का ध्यान अवश्य ही रखे। इस संस्कार के द्वारा आचार्य तथा बालक शिक्षा देने-लेने हेतु एक दूसरे का सम-वरण करते हैं। यह बिल्कुल उसी प्रकार होता है जैसे मां गर्भ में अपने शिशु का और शिशु अपनी मां का वरण करता है।

वेदारम्भ संस्कार

बच्चे का वेदारम्भ संस्कार भी भारत में प्राचीन काल में समारोह पूर्वक संपन्न कराया जाता था । इसका उद्देश्य यही होता था कि बच्चे में सूक्ष्म रूप से ऐसे संस्कार उत्पन्न हों कि वह शिक्षा या विद्या को अपने लिए बोझ न समझे , अपितु उसे अपने जीवन का श्रंगार मानकर सहज रूप में धारण करने योग्य बन जाए । संस्कारों को उत्सव के माध्यम से मनाने की भारत की इस अद्भुत परम्परा को संसार समझ नहीं पाया । यद्यपि आज बहुत से लोग ऐसे हैं जो खेल – खेल में शिक्षा देने की बात करते हैं और इसे पश्चिम के किसी तथाकथित विद्वान या विदुषी के नाम दर्ज कर देते हैं , जबकि विद्या को खेल-खेल में नहीं अपितु उत्सव या समारोह के माध्यम से बच्चे के मन मस्तिष्क में संस्कार के रूप में अंकित करने की भारत की परम्परा खेल – खेल में शिक्षा की परम्परा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।

गुरुकुल में विद्याभ्यास करते समय शिष्य का गुरु के साथ और गुरु का शिष्य के साथ व्यवहार माता-पिता का अपनी सन्तान के साथ होता है, वैसा ही व्यवहार आचार्य या गुरु को अपने शिष्य के साथ करना चाहिये। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध पिता-पुत्र सदृश होता है। यदि आवश्यक हो तो गुरु शिष्य को दण्डित भी करे, पर विना दुर्भाव और पूर्वाग्रह के। महर्षि का यह निर्देश केवल आचार्य के लिये नहीं है, वे माता-पिता से भी ऐसा करने को कहते हैं। जो माता-पिता या आचार्य अपनी सन्तान या शिष्य से केवल लाड़ करते हैं, वे मानो विष पिलाकर उनके जीवन को नष्ट कर रहे हैं। और जो अपराध करने पर दण्डित करते हैं, वे मानों उन्हें गुणरूपी अमृत का पान करा रहे हैं। कभी-कभी ऐसे अवसर आते हैं, जब सन्तान या शिष्य को कुमार्ग से हटाने के लिये दण्ड का आश्रय लेना पड़ता है, परन्तु दण्ड, दण्ड के उद्देश्य से नहीं दिया जाना चाहिये। गुरुजन हितैषी होने के कारण विना क्रोध के शिष्य की भर्त्सना और विना असूया के निन्दा करते हैं।

अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य-सूक्त में यह प्रतिपादित किया गया है कि शिष्य को अपनाता हुआ गुरु उसे अपने गर्भ में स्थित कर लेता है। अपने गर्भ में स्थापित करने का तात्पर्य यह है कि गुरु शिष्य को अपने परिवार का अङ्ग मान लेता है और उससे भी बढ़कर हृदय में स्थान सुरक्षित कर देता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार माता-पिता का सम्बन्ध अविच्छेद्य है, उसी प्रकार गुरु का भी। पुत्र की तरह शिष्य की कोई भी चर्या गुरु के लिये फिर छिपी नहीं रहती। शिष्य की सभी समस्यायें उपनीत हो जाने पर गुरु की हो जाती हैं। इसलिये गुरु शिष्य सम्बन्ध की यह अपेक्षा है कि शिष्य गुरु से छल-कपट न करे और गुरु जितना भी और जो भी वह जानता है, विना किसी दुराव के शिष्य को सिखा दे। इसी तथ्य को ज्ञापित करने के लिये मन्त्र में आचार्य को शिष्य को अपने गर्भ में स्थित करने वाला बताया है और इसी कारण वैदिक शिक्षा-पद्धति शुल्करहित थी, क्योंकि पुत्र की तरह शिष्य का सम्पूर्ण दायित्व गुरु का होता था।

वेदारम्भ संस्कार में केवल बालक ही एक आवश्यक अंग नहीं है , अपितु माता-पिता और अध्यापक भी इस संस्कार के महत्वपूर्ण अंग हैं । क्योंकि उनके उचित मार्गदर्शन के बिना इस संस्कार का संपन्न होना असंभव है । यही कारण रहा कि प्राचीन काल में भारत में विद्यारम्भ संस्कार के लिए सुयोग्य , चरित्रवान , विद्वान , संयमी , तपस्वी अध्यापक या गुरु की खोज की जाती थी । क्योंकि जब गुरु अवगुणों से रहित होगा तभी वह गुणी शिष्यों का निर्माण कर सकेगा । एक अच्छे समारोह के माध्यम से गुरु को भी समाज के सामने अपने आपको उत्तम सिद्ध करने का अवसर मिलता था । वह समाज को यह विश्वास दिलाता था कि इस बच्चे को वह योग्य से योग्य बनाकर संसार को देगा ।

गुरु के इस संकल्प की पूर्ति तभी संभव हो पाती है जब माता-पिता भी अपने बच्चे को वैसी ही प्रेरणा और शिक्षा देने वाले हों , जैसी उसका गुरु उसे दे रहा है।

समावर्तन संस्कार

समावर्तन संस्कार विद्याध्ययन के उपरांत ब्रह्मचारी अथवा ब्रह्मचारिणी के गुरु के आश्रम से अपने माता – पिता के घर लौटने का संस्कार है । एक प्रकार से यह संस्कार नव सृजन की तैयारी के प्रतीक के रूप में लिया जाना चाहिए । क्योंकि इसके पश्चात ही नवयुवक और नवयुवती अथवा ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी विवाह संस्कार के लिए मानसिक रूप से तैयार होते हैं । इस प्रकार यह संस्कार एक नए सृजन के लिए या समाज की शुद्ध संरचना के लिए किया जाता है।

24 वर्ष के वसु ब्रह्मचारी अथवा 36 वर्ष के रुद्र ब्रह्मचारी या 48 वर्ष के आदित्य ब्रह्मचारी सांगोपांग वेदविद्या, उत्तम शिक्षा, और पदार्थ विज्ञान को पूर्ण रीति से प्राप्त होके विद्याध्ययन समाप्त करके घर लौटता था । इस अवसर पर गुरुकुल का आचार्य उसे उपदेश देता था कि जहां तू जा रहा है वहां जाकर अर्थात अपने माता-पिता के घर रहते हुए समाज में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाना और समाज को सही दिशा देने के कार्य में लगे रहना । आचार्य उसे उपदेश देता था कि तू सत्य को कभी न छोड़ना, धर्म का आचरण सदैव करते रहना, स्वाध्याय में प्रमाद कभी न करना इत्यादि।

यहाँ से ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी का दूसरा जन्म होता था । इसी समय उसे द्विज की उपाधि दी जाती थी । अब उसको माता-पिता के द्वारा मिले जन्म के क्षुद्र स्वार्थ सब समाप्त हो चुके हैं । अब वह दूसरा जन्म लेकर आचार्य के गुरुकुल से अर्थात गर्भ से बाहर आकर संसार के उपकार के लिए अपने आप को समर्पित करना चाहता है । किसी भी ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी के जीवन में यह बहुत महत्वपूर्ण घटना होती है , क्योंकि यहीं से उसका जीवन सार्थकता का परिचय देते हुए संसार के लिए उपयोगी सिद्ध होने को प्रस्तुत होता है।

इस महत्वपूर्ण घटना को भी चित्त पर बड़ी महत्ता के साथ स्थापित करने के लिए समारोह पूर्वक यह संस्कार आयोजित होता था।

समावर्तनी के भीतर सागर के समान गम्भीरता , ब्रह्म-सिद्ध, तप-सिद्ध, महा-तपस्वी, वेद पठन-सिद्ध, शुभ गुण-कर्म-स्वभाव से प्रकाशमान, नव्य-नव्य, परिवीत अर्थात् ज्ञान ओढ़ लिया है जिसने और सुमनस अर्थात सुंदर हो मन जिसका जैसे दिव्य गुणों का होना आवश्यक माना जाता था। निश्चय ही ऐसे दिव्य गुण युक्त पुरुष या नारी से किसी भी प्रकार के ऐसे किसी कार्य के करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती जिससे संसार का या प्राणियों का अहित होता है । ऐसे लोग हर क्षण मर्यादित और धर्मानुकूल आचरण का ही संपादन करते हैं । जिससे लोक व्यवस्था बनी रहे और किसी के भी अधिकारों का अतिक्रमण करने का किसी को साहस न हो । इन दिव्य गुणों से भारत अपने समाज का निर्माण करता था। यह दिव्य गुण चाहे आज कितनी ही संख्या में कम क्यों न हो गए हैं परंतु इन सबके उपरांत भी भारत का समाज अन्य देशों के समाजों से उत्कृष्ट ही है । यही वह गुण हैं जो हिंदुत्व के स्वर बनकर हमको बांधते हैं।

प्राचीनकाल में समावर्तन-संस्कार द्वारा गुरु अपने शिष्य को इंद्रियनिग्रह, दान, दया और मानवकल्याण की शिक्षा देकर उसे गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान करते थे। वे कहते थे कि – उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधयति ….। अर्थात उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक निरंतर संघर्ष करते रहो। जीवन एक छुरे की धार है जैसे छुरे की धार पर बहुत सावधानी के साथ आगे बढ़ा जाता है वैसे ही इस जीवन में निरंतर सावधानीपूर्वक उन्नति के पथ पर चलते रहो।

अथर्ववेद 11/7/26 में कहा गया है कि-ब्रह्मचारी समस्त धातुओं को धारण कर समुद्र के समान ज्ञान में गंभीर सलिल जीवनाधार प्रभु के आनंद रस में विभोर होकर तपस्वी होता है। वह स्नातक होकर नम्र, शाक्तिमान और पिंगल दीप्तिमान बनकर पृथ्वी पर सुशोभित होता है।

इस समावर्तन-संस्कार के संबध में कथा प्रचलित है- एक बार देवता, मनुष्य और असुर तीनों ही ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने लगे। कुछ काल बीत जाने पर उन्होंने ब्रह्माजी से उपदेश (समावर्तन) ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। सबसे पहले देवताओं ने कहा-प्रभो ! हमें उपदेश दीजिए। प्रजापति ने एक ही अक्षर कह दिया ‘ द ‘। इस पर देवताओं ने कहा- हम समझ गए। हमारे स्वर्गादि लोकों में भोगों की ही भरमार है। उनमें लिप्त होकर हम अंत में स्वर्ग आत्मिक आनन्द से गिर जाते हैं, अतएव आप हमें ‘द ‘ से दमन अर्थात इंद्रियसयंम का उपदेश कर रहे है। तब प्रजापति ब्रह्मा ने कहा- ठीक है, तुम समझ गए। फिर मनुष्यों को भी ‘द’ अक्षर दिया गया तो उन्होंने कहा-हमें ‘द’ से दान करने का उपदेश दिया है, क्योंकि हम लोग जीवन भर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते हैं। अतएव हमारा दान में ही कल्याण है। प्रजापति इस जवाब से संतुष्ट हुए।

असुरों को भी ब्रह्मा ने उपदेश में ‘ द’ अक्षर ही दिया। असुरों ने सोचा-हमारा स्वभाव हिंसक है और क्रोध व हिंसा हमारे दैनिक जीवन में व्याप्त है, तो निश्च्य ही हमारे कल्याण के लिए दया ही एकमात्र मार्ग होगा। दया से ही हम इन दुष्कर्मों को छोड़कर पाप से मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार हमें ‘द ‘ से दया अर्थात प्राणि-मात्र पर दया करने का उपदेश दिया है। ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए। निश्च्य ही दमन, दान और दया जैसे उपदेश को प्रत्येक मनुष्य को सीखकर अपनाना उन्नति का मार्ग होगा।

समावर्तन संस्कार अथवा दीक्षांत समारोह के इसी प्रकार के अन्य अनेकों उदाहरण हैं । जिनसे गुरु के द्वारा शिष्य को दीक्षांत समारोह के अवसर पर दिए गए उत्कृष्टतम ज्ञान का पता चलता है।

विवाह संस्कार

विवाह जैसे पवित्र संस्कार को देने वाला भारत सचमुच महान है । क्योंकि उसने जब विवाह संस्कार जैसा पवित्र संस्कार संसार को प्रदान किया तो उसने समाज से सारी अनैतिकता , पापाचार , व्यभिचार को समाप्त करने और मनुष्य को पशु बनने से रोकने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाया । उसकी ओर से दी गई यह व्यवस्था संसार में दिव्य संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए दी गई व्यवस्था थी । पश्चिमी जगत या इस्लाम ने इस पवित्र संस्कार को या तो अपनाया नहीं या अपनाकर भी उसके साथ अन्याय किया । उसी का परिणाम है कि संसार आज पापाचार , व्यभिचार और नारी जाति के साथ होने वाले अन्याय और अत्याचारों का शिकार बन रहा है। जिसके कारण सर्वत्र अशांति और कोलाहल फैल गया है।

विवाह संस्कार समान गुण , कर्म , स्वभाव वाले युवक-युवतियों के मध्य परस्पर बहुत ही स्वस्थ सहमति के आधार पर कराया जाता था । जिसमें माता-पिता की सहमति और अनुमति आवश्यक होती थी। जहां-जहां आज इस संस्कार की इस पवित्र भावना का उल्लंघन किया जा रहा है , वहीं वहीं संबंधों में तनाव है और परिवारों के टूटने के साथ-साथ दिलों के टूटने की घटनाएं भी दिनानुदिन अप्रत्याशित रूप से बढ़ती जा रही हैं।

गृहस्थाश्रम को हमारे देश में सबसे अधिक सम्माननीय आश्रम माना गया है । इसका कारण यह है कि यही आश्रम अन्य आश्रमवासियों को सहारा देता है । सारे संस्कार इसी आश्रम में रहकर संपन्न किए जा सकते हैं । इसके अतिरिक्त संपूर्ण भूमंडल पर सभी प्राणियों का हितचिंतन भी इसी गृहस्थ में रहकर व्यावहारिक रूप में क्रियान्वित किया जा सकता है । कोई वानप्रस्थी या संन्यासी या उससे पहले ब्रह्मचर्य आश्रम का ब्रह्मचारी सैद्धांतिक ज्ञान रख सकता है , परंतु व्यावहारिक ज्ञान गृहस्थी ही रखता है। इसी आश्रम में रहकर हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं । यही कारण रहा कि विद्वानों ने ग्रहस्थाश्रम को मोक्ष का आश्रम कहा है । इसे अविराम गति कहा गया है । प्रशिक्षित गति कहा गया है । एक ऐसी ज्योति कहा गया है जिससे आत्मज्योति को प्रकाशित करने का दुर्लभ अवसर उपलब्ध होता है, और जीव आनंद में विलीन होने के लिए सच्चे मन से कार्य कर सकता है। पश्चिमी जगत ने गृहस्थाश्रम को जिस प्रकार व्यभिचार का प्रमाणपत्र मानने का अपराध किया है उससे इस आश्रम की गरिमा को ठेस पहुंची है । साथ ही संसार में अराजकता का विस्तार हुआ है । भारत आज भी इसलिए शांत है कि उसकी मौलिक चेतना में गृहस्थाश्रम का सुंदर स्वरूप आज भी सारे ग्रामीण अंचल में बहुत सुंदरता के साथ समाविष्ट है और बड़ी उत्तमता से अपना कार्य धर्म अनुसार संपादित कर रहा है।

किसी विद्वान ने गृहस्थ आश्रम के बारे में बहुत सुंदर कहां है :– ” परिवार गृहस्थाश्रम व्यवस्था है जिसमें माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-भाई, बहन-बहन, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, भृत्य आदि सदस्य समनस्वता, सहृदयपूर्वक, एक स्नहिल बन्धन से युक्त हुए, समवेत श्रेष्ठता का सम्पादन करते, एक अग्रणी का अनुसरण करते, उदात्त संस्कृति का निर्माण करते हैं।

पति-पत्नी की वैदिक संकल्पनानुसार पति ज्ञानी, पत्नी ज्ञानी, पति सामवेद, पत्नी ऋग्वेद, पति द्युलोक, पत्नी धरालोक। पति-पत्नी दुग्ध-दुग्धवत मिलें। प्रज उत्पन्न करें। ”

आज विवाह वासना-प्रधान बनते चले जा रहे हैं। रंग, रूप एवं वेष-विन्यास के आकर्षण को पति-पत्नि के चुनाव में प्रधानता दी जाने लगी है, यह प्रवृत्ति बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। यदि लोग इसी तरह सोचते रहे, तो दाम्पत्य-जीवन शरीर प्रधान रहने से एक प्रकार के वैध-व्यभिचार का ही रूप धारण कर लेगा। पाश्चात्य जैसी स्थिति भारत में भी आ जायेगी। शारीरिक आकषर्ण की न्यूनाधिकता का अवसर सामने आने पर विवाह जल्दी-जल्दी टूटते-बनते रहेंगे। अभी पत्नी का चुनाव शारीरिक आकषर्ण का ध्यान में रखकर किये जाने की प्रथा चली है, थोड़े ही दिनों में इसकी प्रतिक्रिया पति के चुनाव में भी सामने आयेगी। तब असुन्दर पतियों को कोई पत्नी पसन्द न करेगी और उन्हें दाम्पत्य सुख से वंचित ही रहना पड़ेगा।

समय रहते इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोका जाना चाहिए और शारीरिक आकषर्ण की उपेक्षा कर सद्गुणों तथा सद्भावनाओं को ही विवाह का आधार पूवर्काल की तरह बने रहने देना चाहिए। शरीर का नहीं आत्मा का सौन्दयर् देखा जाए और साथी में जो कमी है, उसे प्रेम, सहिष्णुता, आत्मीयता एवं विश्वास की छाया में जितना सम्भव हो सके, सुधारना चाहिए, जो सुधार न हो सके, उसे बिना असन्तोष लाये सहन करना चाहिए। इस रीति-नीति पर दाम्पत्य जीवन की सफलता निर्भर है।

वानप्रस्थ संस्कार

बहुत अधिक सावधानी बरतने के उपरांत भी गृहस्थ आश्रम ऐसा है जिसमें कहीं ना कहीं आलस्य ,प्रमाद या किसी भी कारण से कोई न कोई त्रुटि हो जाती है । जिससे शक्ति , सामर्थ्य ऊर्जा आदि तो नष्ट होते ही हैं साथ ही व्यक्ति से कई बार अनैतिक आचरण का निष्पादन भी जाने – अनजाने में हो जाता है या उसकी संभावना बनी रहती है । इन सब त्रुटियों से उत्पन्न हुई शारीरिक , मानसिक या आत्मिक दुर्बलता को फिर से सुदृढ़ करने के लिए वानप्रस्थ आश्रम की व्यवस्था की गई है। जिसमें व्यक्ति अपनी शक्तियों का गुणात्मक परिवर्तन और परिवर्द्धन करता है। व्यक्ति अपनी इस प्रकार की शक्ति का संचय योगाभ्यास के माध्यम से करता है । जिसमें वह मानसिक पापों से भी अपने आप को बचाता है । जाने – अनजाने में अभी तक के जीवन में हुए दोषों या पापों का प्रायश्चित कर मन शुद्धि पर विशेष बल देता है।

वानप्रस्थी होने का सही समय विद्वानों ने पुत्र के भी पुत्र के आ जाने की अवस्था को माना है , अर्थात जब पुत्र का भी पुत्र आ जाए तो फिर व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम से वानप्रस्थी होने की तैयारी कर लेनी चाहिए।

यहां व्यक्ति को स्वाध्याय के माध्यम से अपनी आत्मिक व मानसिक शक्तियों को सुदृढ़ करना चाहिए। स्वाध्याय का अर्थ सदग्रंथों का अध्ययन मात्र ही नहीं है अपितु अपने आज तक के जीवन का अध्ययन करने से भी है कि मैंने कितने शुभ कार्य किए और कितने अशुभ कार्य किए ? शेष जीवन को मैं कैसे सुंदर और प्रेरणादायी बना सकता हूं ? – इत्यादि बातों को विचार कर आत्मचिंतन में डूबना और फिर जीवन को मोक्षदायी कार्यों में लगा देना ही इस आश्रम का उद्देश्य है।

वन के लिए प्रस्थान करना ही वानप्रस्थ है । इस अवस्था में जब व्यक्ति जाता है तो उस समय उसकी तीसरी पीढ़ी आ जाती है । तीसरी पीढ़ी के आने का आना ही इस बात का संकेत है कि अब वनों की ओर चलो । इस प्रकार भारतीय संस्कृति तीन पीढ़ियों को एक साथ न रखने की बात करती है । वह पिछली से पिछली पीढ़ी को अर्थात जो व्यक्ति दादा या नाना बन गया है , उसके समक्ष एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा देती है कि अब तुझे गृहस्थ को अपनाना है या वनों में जाकर अपनी आत्मिक उन्नति करनी है ?

संन्यास संस्कार

सम्यक न्यास अर्थात विचारपूर्वक दूरी बना लेना , अथवा ऐसा भाव उत्पन्न कर लेना कि अब मैं न्यासी या ट्रस्टी हो गया हूँ । मैं निरपेक्ष हो गया हूँ । मैं राग और द्वेष से ऊपर उठ गया हूँ । अब मुझे न किसी से अधिक लगाव है ना किसी से द्वेष है । मैं अब मैं संसार को साक्षीभाव से देख रहा हूँ । यहां की प्रत्येक घटना को मैं केवल देख रहा हूँ । उसमें किसी भी प्रकार से लिप्त नहीं हूँ । ऐसी उत्कृष्ट भावना को जब व्यक्ति हृदयंगम कर लेता है तो वह संसार में रहकर भी संन्यासी हो जाता है।

संन्यास = सं + न्यास। ऐसी अवस्था को व्यक्ति जब प्राप्त कर लेता है तो वह सारे संसार को अपना घर बना लेता है और वह स्वयं में चलती फिरती एक संस्था बन जाता है । एक ऐसा विचार बन जाता है जो सबके कल्याण के भाव से ओतप्रोत होता है । एक ऐसा विश्वविद्यालय बन जाता है जो सब के लिए अपने द्वार खोल देता है । एक ऐसा गुरु बन जाता है जो सबको निरपेक्ष भाव से बिना किसी राग द्वेष के अपने ज्ञान को बांटने का काम करने लगता है ।

अब उसके पास न तो लोकैषणा है , ना वित्तैषणा है , ना पुत्रैषणा है । अब वह सारी ऐषणाओं से ऊपर उठ गया है । अब तो एक ही इच्छा है और वह इच्छा हो कर भी इसलिए इच्छा नहीं है कि उसमें केवल और केवल लोक कल्याण छुपा हुआ है और वह इच्छा भी यही है कि सबका भला हो , सब निरोग हों , सब भद्र भाव देखने वाले हों और मेरा जीवन सबके लिए समर्पित हो जाए।

जब किसी व्यक्ति के विचारों में इतनी शुद्धता , पवित्रता और परिपक्वता आ जाती है तो वह संसार के लिए मनुष्य रूप में देवता हो जाता है । तब वह श्वेत वस्त्रधारी न होकर संन्यासी के लिए नियत किए गए भगवा वस्त्रों को धारण कर लेता है। जैसे फल पककर भगवा रंग का हो जाता है , वैसे ही वह भी अब पककर भगवामय हो गया है । समझो कि अब वह लोक कल्याण के लिए समर्पित हो गया है। भारत में हिंदुत्व की इस पवित्र भावना या चेतना के इस मौलिक स्वर ने भारत को बहुत कुछ दिया है । इतना कुछ कि इसी के कारण वह संसार का गुरु बन गया। आज भी संसार के लोग यदि भारत की ओर देखते हैं तो उसके इसी भगवा के रहस्यमयी स्वरूप की ओर देखते हैं । वे भगवा को आकर्षण की दृष्टि से देखते हैं ,

क्योंकि उन्हें भगवा से बहुत कुछ मिलता है।

संन्यासी ऐसा होता है कि उसे जीवन से कोई राग नहीं होता और मृत्यु से किसी प्रकार का भय नहीं होता। वह अपने जीवन में हर स्थिति परिस्थिति में आनंदित रहने का अभ्यासी हो जाता है । वह आत्मनिष्ठ होकर जीवन जीता है। उसे मान – अपमान , हानि – लाभ , सुख – दुख के द्वन्द्वभाव किसी प्रकार से विचलित नहीं करते । वह जितेंद्रिय हो जाता है और सभी प्रकार के अंतर्द्वंद को परास्त कर देता है। सन्यासी सम्मान से उसी प्रकार डरता है जैसे कोई विष के ग्रहण करने से डरता है और अपमान को वह अमृत के समान सहर्ष पी लेता है।

अन्त्येष्टि संस्कार

मनुष्य की मृत्यु के उपरांत उसके शव को जलाने की भारत की परंपरा भी आज संसार के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनायी जानी बहुत ही आवश्यक हो गई है । यह अलग बात है कि सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के कारण लोग अभी भी शवदाह की इस वैज्ञानिक परंपरा को अपनाने से हिचक रहे हैं । भारतीय समाज में इसे अंत्येष्टि संस्कार के नाम से जाना जाता है। जिसे कभी-कभी हम नरमेध, पुरुषमेध या पुरुषयाग भी कह देते हैं ।

यह संस्कार अंतिम होने के कारण अंत्येष्टि संस्कार कहलाता है बात स्पष्ट है कि इसके पश्चात फिर करने के लिए कुछ शेष नहीं रह जाता। जब अंतिम संस्कार हो गया तो उसके पश्चात जितने भर भी क्रियाकलाप हैं वह सब लोकपरम्परा के चाहे अनुकूल हों परंतु वेदपरम्परा के अनुकूल नहीं हैं । भारत की शवदाह की इस अनूठी परंपरा को आज के सभ्य संसार के लोग बहुत ही उत्तम मान रहे हैं । कुछ लोग अपने सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों को तोड़कर भी इसे अपनाने की बात कर रहे हैं । क्योंकि उन्होंने देख लिया है कि बड़े-बड़े शहरों में या महानगरों में पूरा का पूरा एक क्षेत्र ऐसा होता है जो कब्रिस्तान के नाम पर ‘ मुर्दों का शहर’ के नाम से महानगर में अपना स्थान बना लेता है। जबकि अंत्येष्टि संस्कार के लिए बहुत थोड़ी सी जगह ही अनेकों लोगों के संस्कार के लिए पर्याप्त होती है ।

कुल मिलाकर हमारी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में पाए जाने वाले यह 16 संस्कार हमारी राष्ट्रीय चेतना के प्रबल स्रोत हैं । चाहे अब हम इन्हें पूर्ण रूप में अपना रहे हैं या नहीं अपना रहे , इसके उपरांत भी ये हमारा किसी न किसी प्रकार मार्गदर्शन करते हैं और हमारे भीतर सांस्कृतिक चेतना के उस स्वर को झंकृत किये रखते हैं जो हममें सामाजिक और राष्ट्रीय एकता को प्रबल से प्रबलतर करने की क्षमता रखता है। वैदिक संस्कृति या हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति इन सभी संस्कारों को न केवल अपनाता है बल्कि उनके माध्यम से भारत के अन्य लोगों के साथ भी अपने आपको एक ऐसी अदृश्य राष्ट्रीय एकता में बंधा हुआ पाता है जिसके सूत्र तो हमें दिखाई नहीं देते परंतु यह आभास अवश्य होता है कि हम किसी ऐसी सुखदायी श्रंखला में बंधे हुए हैं जो हमें एक ही छत के नीचे रहने के लिए प्रेरित करती है। वास्तव में यही छत और यही श्रंखला हमारी राष्ट्रीय एकता के वे सूत्र या आधारभूत स्रोत हैं जो हमारी मौलिक चेतना को जगाए रखने का कारण बनते हैं। निश्चय ही इन स्रोत – सूत्रों को बनाने में सोलह संस्कारों का प्रबलतम योगदान है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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