जब हिंदुओं ने काट दी थी मोहम्मद बिन तुगलक की एक लाख की सेना

मोहम्मद बिन तुगलक का शासन भारतवर्ष में 1325 से लेकर 1351 ईसवी तक माना जाता है। घटना 1337 – 38 की है । इसी वर्ष मोहम्मद बिन तुगलक ने चीन तक अपना साम्राज्य विस्तार करने की एक महत्वाकांक्षी योजना बनाई। अपनी इस योजना को सिरे चढ़ाने के लिए उसने अपने बहनोई खुसरो मलिक को एक विशाल सेना का सेनापति बना कर भेजा ।
इतिहासकार फिरिश्ता लिखता है- “सुलतान का आदेश है कि सबसे पहले हिमाचल पर कब्ज़ा कर लें। जहाँ ज़रूरत समझें किला तैयार कर आगे बढ़ते जाएँ जब तक कि चीन की सरहद तक न पहुँचें। वहाँ एक बड़ा किला बनाकर वहीं ठहर जाएँ। हिमाचल पर कब्ज़े के बाद दरबार में प्रार्थना पत्र भेजें। जब यहाँ से मदद मिल जाए तो चीन पर अधिकार जमाने की कोशिश करें।”
यद्यपि कुछ दरबारी लोगों ने बादशाह से ऐसा अभियान आरंभ न करने का आग्रह किया , परंतु उसने अपने दरबारियों के इस प्रकार के आग्रह को नकार दिया। बाध्य होकर खुसरो मलिक सेना के साथ निकला। वह अपनी एक लाख की सेना के साथ पहाड़ों तक पहुंच गया।
फिरिश्ता लिखता है कि -” जब वे हिमाचल के पहाड़ों का बहुत बड़ा भाग पार करके चीन की सीमा के शहरों में पहुँचे तो चीन का वैभव और शानोशौकत देखकर हैरान रह गए। वे उनके मजबूत किलों, संकरे रास्तों और रसद की कमी का ख्याल करके आतंकित हो गए। उन्होंने सब छोड़कर लौटने का फैसला किया।“
फिरिश्ता आगे लिखता है – “बारिश का मौसम शुरू हाे गया। जिन रास्तों से यह फौज आई थी, वे जलमग्न होकर गायब ही हो गए। उन लोगों को दूसरे रास्ते पता नहीं थे। वे बुरी तरह परेशान होकर पहाड़ी किनारों से आगे बढ़े। पहाड़ी गाँवों के हिन्दू लोगों ने अब इन लुटेरों को निशाना बनाया। मुसलमानों को मारकर उन्हें लूटा। फौज के सामने अकाल के हालात बन गए। ”
इसको कहते हैं दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करना । हिंदुओं ने ऐसा ही किया । जो दूसरों को लूटने के लिए चले थे , उन्हें ही लूटना आरम्भ कर दिया गया। जो लोग यह मानते हैं कि हिंदुओं ने अपनी दुर्बलता का परिचय देते हुए विदेशी आक्रांताओं के सामने कभी कुछ भी वीरता न दिखाई , उनके लिए हम यहां यह भी बताना चाहेंगे कि कैसे हिंदू वीरों ने तुगलक की 100000 सेना को उस समय काट कर फेंक दिया था ?
इतिहास पढ़ते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि गुरिल्ला युद्ध भारतवासियों ने अनेकों बार लड़ा है है। आप देखिए 1337 – 38 में जिस गुरिल्ला युद्ध को हमारे यह पहाड़ी हिंदू भाई अपना रहे थे ,उसी को अब से पूर्व मोहम्मद बिन बख्तियार खिलजी को आसाम में धूल चढ़ाते समय अपनाया था और इसी को आगे चलकर महाराणा प्रताप ने अपनाया। उसके बाद शिवाजी महाराज ने इसी युद्ध को 16 60 – 70 के लगभग अपने शासनकाल में महाराष्ट्र में अपनाया। इसी प्रकार ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब गुरिल्ला युद्ध को अपनाकर हिंदू वीरों ने मुस्लिम आक्रांताओं को धूल चटाई।
उपरोक्त अभियान पर निकले अमीर खुसरो वे उसकी सेना के बारे में हमें पता चलता है कि एक हफ्ते बाद मुसलमान एक बड़े मैदान तक पहुँचे तो राहत की उम्मीद नजर आई। दुर्भाग्य से उस रात तेज़ बारिश होने लगी। फौज के शिविर डूब गए। घोड़ों को तैरकर निकलना कठिन हो गया। खुसरो मलिक समेत सारे लोग 15 दिनों में खाने के सामान की कमी के चलते बरबाद हो गए।
कालीन इतिहास लेखकों से पता चलता है कि हिमाचल के लोगों को जब इनके हाल पता चले तो वे नौकाओं में सवार होकर आए खुसरो मलिक द्वारा तैनात लोगों को कत्ल कर दिया और अत्यधिक धन-संपत्ति और हथियार उनके हाथ लगे। कोई नामोनिशान नहीं छोड़ा गया। बहुत थोड़े से लोग ही बचकर लौट पाए। अब वे मोहम्मद तुगलक की तलवार के पंजे में फँस गए।”
तुगलक का एक परम विश्वसनीय सलाहकार था जियाउद्दीन बरनी। वह हमें बताता है कि यह सुलतान के दिमाग की छठी बड़ी योजना थी कि चीन और हिंदुस्तान के बीच के इस पहाड़ी इलाके पर इस्लामी परचम फहराए। वह लिखता है कि इस विचार से एक बड़ी सेना प्रतिष्ठित अमीर और नामी सेना नायकों की अधीनता में कराजिल पर फतह के लिए तैनात हुई। सुलतान के हुक्म से सेना ने दिल्ली से कूच किया। बरनी के शब्द हैं- “सेना ने कराजिल की तरफ प्रस्थान किया और वहाँ दाखिल होकर जगह-जगह अपने पड़ाव डाले। कराजिल के हिंदुओं ने वापसी के मार्ग की घाटियों पर अधिकार जमा लिए। इस प्रकार समस्त सेना का पूरी तरह विनाश हो गया। इतनी बड़ी सुव्यवस्थित और चुनी हुई सेना में से सिर्फ 10,000 सवार लौट सके।
उस समय हमारे हिंदू वीरों ने बादशाह की लौटती हुई सेना के रास्ते बंद कर दिए थे। हिंदू लोग ऊपर पहाड़ों पर चढ़ गए थे और जहां से सेना गुजर रही थी , वहाँ ऊपर से भारी – भारी पत्थरों को लुढ़का कर उसका विनाश करने लगे थे।
” इस हैरतअंगेज घटना से दिल्ली की सेना को बेहद नुकसान पहुँचा। इतनी बड़ी बदइंतजामी और नुकसान की किसी तरह से भरपाई नहीं हो सकी। सुलतान मोहम्मद की महत्वाकांक्षा से हुकूमत में ऐसी गड़बड़ी और खजाने को भारी नुकसान हुआ। खजाने का विनाश तो हुआ ही सुव्यवस्थित राज्य भी हाथ से निकल गया।“
इस घटना के विषय में इब्नबतूता ने लिखा है–
“यह लंबा-चौड़ा पहाड़ी इलाका है। इसकी लंबाई तीन महीने के सफर की है। दिल्ली से इसकी दूरी 10 दिन की है। यहाँ का राजा काफिर राजाओं में सबसे ताकतवर है। सुलतान ने मलिक नुकबिया को 1 लाख घुड़सवारों के साथ बड़ी तादाद में पदाति देकर यहाँ जंग के लिए रवाना किया। उसने पहाड़ों के नीचे जिदया नगर पर कब्ज़ा जमा लिया।
वहाँ के लोगों को बंदी बनाया गया। शहर को जलाकर राख कर दिया गया। काफिर पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों में चले गए और अपनी ज़मीन, धन-दौलत और खजाना छोड़ गए। इस पहाड़ी इलाके में केवल एक ही रास्ता है। नीचे एक घाटी है, ऊपर पहाड़ हैं। घोड़ों की सिर्फ एक कतार ही जा सकती है। मुसलमान रास्ते पर चढ़ते चले गए। पहाड़ों के ऊपर वरंगल शहर पर भी कब्ज़ा जमा लिया गया।’’
सुना है कि एक लाख में से 5-6,000 सवार ही लौट पाए।जब वे लोग सुलतान के पास पहुँचे तो उसने गुस्से में कहा कि तुम लोग जिंदा लौटकर आए क्यों हो ? तुमने भी गुफाओं में अपने प्राण क्यों नहीं त्याग दिए ? तुमने अपने साथियों को खतरे में डाल दिया। इस अपराध में सुलतान ने उनके भी सिर कटवा डाले।”
अपने गौरवपूर्ण पराक्रमी इतिहास और संस्कृति को बचाने के लिए हमारे वीर पूर्वजा ने कैसे-कैसे संघर्ष किये हैं ? इन सबका विवरण आज तैयार होना समय की आवश्यकता है । पराक्रमी योद्धाओं को जानबूझकर हमारे इतिहास से निकाल दिया गया है ।
जबकि मुस्लिम इतिहासकारों के द्वारा ही दिए गए ऐसे प्रमाण हैं कि जिन से प्रमाणित गौरवपूर्ण इतिहास तैयार हो सकता है।
आप भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति के साथ जुड़िए और अपने आंचलिक , प्रांतीय , राष्ट्रीय इतिहास के संदर्भ में यदि कोई जानकारी आपके पास है तो वह हमें उपलब्ध कराइए । आपके द्वारा दी गई ऐसी जानकारी निश्चय ही देश सेवा का एक माध्यम बनेगी।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उभरता भारत

Comment: