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इतिहास के पन्नों से

मोहम्मद बिन तुगलक के महल के बाहर कत्ल के चबूतरों पर रहते थे जल्ला तैनात

विजय मनोहर तिवारी

हम कुछ समय इब्नबतूता के साथ गुज़ारते हैं। उसने तुगलक को जितना करीब से देखा, समझा और दर्ज किया, उतना शायद ही कोई और हो। वह माेहम्मद तुगलक के साथ हिंदुस्तान के इलाकों में सफर पर भी गया है। दरबार में उसने कई साल गुज़ारे हैं। सुलतान के बारे में वह दो अहम बातें बता रहा है–

“तुगलक बेहिसाब दान और खूनखराबे के लिए मशहूर है। काेई दिन ऐसा नहीं बीतता, जिस दिन उसके दरवाजे से कोई गरीब धनी न होता हो और किसी न किसी जिंदा आदमी का कत्ल न होता हो। उसकी बेरहमी और जुल्म की कई कहानियाँ मशहूर हो चुकी हैं। उसके दरबार में इस्लाम के कायदों का पालन पूरी तरह से होता है। नमाज़ पढ़ना उसकी नज़र में बेहद ज़रूरी है और जो नमाज़ नहीं पढ़ते, उन्हें कठोर सज़ा दी जाती है।“

अपने मजहब का इतना पाबंद तुगलक हर दिन किसी न किसी जिंदा आदमी का कत्ल भी करा रहा है। अब हम इब्नबतूता के साथ ही ही दिल्ली की तफरीह करते हैं। वह हमें बताएगा कि वहाँ क्या हो रहा है। सबसे पहले दारे-सरा की सैर के लिए वह हमें ले जा रहा है। वह एक अच्छा गाइड भी है-

“यह सुलतान का महल है। इसे दारे-सरा कहते हैं। इसके कई दरवाज़े हैं। पहले दरवाज़े पर पहरे के सिपाही तैनात हैं। शहनाई, तुरही और सिंगा बजाने वाले भी यहीं बैठते हैं। जब कोई अमीर या बड़ा आदमी तशरीफ लाता है तो वे बजने लगते हैं। दूसरे और तीसरे दरवाज़े पर भी यही होता है।”

इब्नबतूता यह बताते हुए पहले दरवाज़े से बाहर आकर एक रोंगटे खड़े कर देने वाला दृश्य दिखा रहा है। तुगलक रोड से आज की दिल्ली में बरसों तक आते-जाते रहे लोगों ने ख्वाब में भी नहीं सोचा होगा कि यह रास्ता किस तुगलक को याद रखे जाने के लिए बनाया गया है। सुनिए-

“इस पहले दरवाज़े के बाहर चबूतरे हैं। इन पर जल्लाद बैठते हैं। उनका काम लोगों का कत्ल करना है। यह यहाँ का रिवाज है कि जब सुलतान किसी के कत्ल का हुक्म देता है तो महल के दरवाज़े के सामने ही उसे कत्ल किया जाता है और उसका बेजान शरीर तीन दिन तक वहीं पड़ा रहता है।”

वह पहले से दूसरे दरवाज़े के बीच लंबे-लंबे दालानों और चबूतरों से गुज़र रहा है। बजाने के लिए तैयार रखी नौबतों से होकर दूसरे दरवाज़े तक आता है। दूसरे और तीसरे दरवाज़े के बीच एक बड़े चबूतरे पर नकीबों का एक अफसर बैठा है। उसे नकीबुल नुकबा कहते हैं।

ज़रा इसकी सजधज और साजो-सामान पर खास गौर कीजिए। उसके हाथ में सोने की एक गदा है। उसके सिर पर सोने की जड़ाऊ टोपी है। इसके मुकुट मानिए। सुनहरी झालर से सजा है यह। मोर के पंख हैं उस पर। वाह, क्या झंका-मंका है!

उसके मातहत तैनात कई नकीब सामने कतार से अदब में खड़े हैं। हर एक के सिर की टोपी सुनहरी झालरवाली है। कमर में सुनहरी पेटियाँ बंधी हैं। मगर ये क्या? उनके हाथों में कोड़े हैं, जिनके पकड़ने की मूठ चमचमाते सोने की है। इसके बाद एक बहुत बड़ा कमरा है, जहाँ हैरान-परेशान या तमाशाई आम-लोग ताकाझांकी कर रहे हैं। सुलतान के जलवे देखकर वे हैरान हैं। यही लोग तुगलक की सुल्तानियत के तरह-तरह के किस्से और आँखों देखी इतिहास में दूर तक फैलाने वाले हैं।

इससे पहले कि हम तीसरे दरवाज़े पर बने शानदार चतूबरे पर ऐसे ही एक और दिलचस्प नज़ारे को देखें, जरा इन नकीबों का काम भी देखते चलिए। इब्नबतूता हमें इशारे से रोक रहा है। वह चाहता है कि आप खुद अपनी आँखों से देखें, कान खाेलकर सुनें कि वह क्या दिखाना और सुनाना चाहता है।

दरबार में जब कोई दाहिनी या बाईं तरफ अपने तय स्थान पर आने के लिए हाज़िर होता है तो सबसे पहले इन्हीं हाजिबों के पास पहुँचकर सलाम करता है और हाजिब इस सलाम करने वाले की औकात के हिसाब से ऊँचे या नीचे स्वर में बिस्मिल्लाह कहते हैं। इसके बाद ही वह अपने तय स्थान पर जाकर दाईं या बाईं तरफ जाकर खड़ा हो जाता है। उसके आगे वह जा नहीं सकता।

चौंकाने वाला दृश्य

अगर सलाम करने वाला हिंदू है तो हाजिब के साथ मिलकर यह नकीब ज़ोर से नारा बुलंद करते हैं-“हदकल्लाह!” इस महामंत्र का अर्थ है-अल्लाह तुझे रास्ता दिखाए! अब ज़रा इस मामूली से मानकर इतिहास से लुप्त कर दिए गए इस दृश्य की चीरफाड़ करें।

जिसने सलाम किया है वह एक हिंदू है। एक काफिर। बहुत अच्छी बात है कि उसे दारे-सरा में आने की इजाज़त है। उसने आकर हाजिब के सामने सलाम पेश किया। उसकी आमद ने नकीब को भी चौकन्ना कर दिया। अब हाजिब और नकीब दोनों मिलकर जयघोष कर रहे हैं- “हदकल्लाह!“

अचानक क्या हुआ? एक हिंदू को उसके सलाम के जवाब में कहा जा रहा है कि अल्लाह तुझे रास्ता दिखाए। अर्थात् प्रतिपक्ष ने मान लिया है कि आप रास्ते पर नहीं हैं। उसे यह भी पता है कि रास्ता तो उसी के पास है। उसे यह और पहले पता है कि सबको इसी रास्ते पर घसीटना है, क्योंकि यही एकमात्र और असली रास्ता भी है।

इसलिए जो दूसरे रास्तों पर हैं, उनके लिए अल्लाह से यह परम प्रार्थना कि वह उसे रास्ता दिखाए! हालाँकि वे यह इंतज़ार नहीं करते कि अल्लाह रास्ता दिखाएगा तब कोई काफिर रास्ते पर आएगा। रास्ते पर लाने के लिए उनके हाथों में यहाँ कोड़े हैं और बाहर जल्लाद बैठे हैं। जंग के लिए गए हमलावरों को तो मारना-काटना है ही।

क्या कमाल है। वह हिंदू अभी-अभी हदकअल्लाह की बुलंद आवाज़ सुनते हुए सिर झुकाकर अंदर गया है। ज़रूर वह कोई असरदार आदमी है वर्ना इस दरबार में उसकी क्या औकात कि झाँककर भी देखे। उसकी क्या हिम्मत कि वह दारे-सरा के बाहर भी फटक जाए।

हो सकता है वह कहीं का कोई हारा हुआ हिंदू राय हो, जो किसी चोट के कारण गुस्से में सीधे दरबार में आकर सुलतान से आरपार की बात करना चाहता हो। हाजिब और नकीब इनके लिए सजधज कर चबूतरों से इन पर नज़र रखते हैं। वे यह लिखते हैं कि आने वाला कौन है। दिन-भर आए-गए लोगों का यह रिकॉर्ड सुलतान खुद रोज देखता है कि कौन किस घड़ी आया। कौन नहीं आया।

हो सकता है किसी शहर का वह कोई मालदार कारोबारी हो, जिसे लूटकर बरबाद कर दिया गया हो। ऐसी घटनाएँ आम थीं। यह रोज के फसाद थे। लुटेरी फौजें दूर-दूर तक हमले करेंगी। कत्लेआम करेंगी। यह इलाके के मालदार लोगों को एक धमकी होती कि वे सरेंडर करें वर्ना आम लोगों जैसे दर्दनाक हाल उनके भी होंगे।

लेकिन वह इतनी हैसियत रखता है कि सीधे दिल्ली में सुलतान के सामने गुहार कर सके। तो ऐसा आदमी अपनी लुटी हुई दौलत या औरतों-बच्चों के गायब होने की गुहार लेकर हफ्तों या महीनों में दिल्ली चलकर कोई मालदार प्रस्ताव लेकर आया हो- सारा सोना दे दूँगा। बस, औरत-बच्चे लौटा दो।

तुगलक कुछ भी कर सकता था। हो सकता है पहले दरवाज़े के बाहर चबूतरे पर बैठे जल्लाद को काम मिल जाए। हो सकता है फौरन बाद किसी दूसरे जल्लाद को भी सतर्क रहने का इशारा आए। काफिरों के खून से सने चबूतरों के नीचे फटे-चिथे शव पड़े रहते।

अंतिम चेतावनी- सोना-चांदी तो हम लेंगे ही। अल्लाह तुम्हें सही रास्ते पर लाए। और देवियों-सज्जनों बताने की ज़रूरत नहीं कि वह एकमात्र सही रास्ता था- इस्लाम। मानो या मरो। लुटना-पिटना तो चलता ही रहेगा।

जो भी आता। वह इन्हीं हाजिब और नकीबों के बीच से होकर आगे जाता। ये हाजिब और नकीब सुलतान के सामने ही मौजूद हैं। इनकी ताकत का अंदाजा अब लगाइए। कुछ भी हो सकता है। किस्सा खत्म या सौदा या सौदे के बाद भी किस्सा खत्म।

तुगलक के इशारे पर वे औरतों-बच्चों के सामने आपका गला रेत रहे हैं। आपके सामने आपके घर की औरतों को बेइज्ज़त कर रहे हैं। मैं यह अच्छा-खासा बेइज्ज़त शब्द लिख रहा हूँ। आप समझ सकते हैं मैं क्या कह रहा हूँ।

और फिर मदद की उम्मीद में उनकी डरावनी चीखें। चीखों पर चीखें। और आखिर में शून्य में ताकती बेबस आँखें। लुटी-पिटीं। सब भूल चुकीं। बेइज्ज़त। बेजान। अब हाजिब और नकीब दूर से देख रहे हैं कि आगे का काम जल्लाद अपने खून से सने चबूतरे पर करने के लिए तैयार है।

दूसरा दृश्य

रक्तरंजित इस दृश्य के बराबर दूसरा दृश्य कुछ जायकेदार और रंगतदार है। दरबार में उधर चलिए, जहाँ सुलतान मौजूद है। अगर कोई ऐसा मालदार शख्स दरवाज़े पर आया है, जो सुलतान को कुछ तोहफे लेकर आया तो हाजिब इस क्रम से यह खुश खबरी देने सुलतान तक जाते हैं।

सबसे आगे अमीरे-हाजिब, उसके पीछे उसका नायब, फिर खास हाजिब और उसका नायब, उसके पीछे वकीलदर और उसका नायब, उनके पीछे सयिदुल हुज्जाब और शरफुल हुज्जाब। वे तीन जगहों पर सलाम कहते हैं और दरवाज़े पर आने वाले की सूचना सुलतान को देते हैं।

जब इजाज़त मिल जाती है तो उसके तोहफे लोगों के हाथों पर रखे हुए इस तरह पेश किए जाते कि सुलतान दूर से देख सके। इस माल पर नज़र करने के बाद वह देखना चाहता है कि कौन ये बेशकीमती सोने-चांदी और जवाहरात का नजराना लेकर आया। सुलतान तक पहुँचने के पहले वह तीन बार सलाम करता है। फिर हाजिबों के सामने झुक-झुककर सलामी दी जाती है।

ऐसी कुछ रस्मों के बाद सुलतान खुशी से मिलता है। बेतकल्लुफी के लिए वह किसी तोहफे की तारीफ कर सकता है। जैसे कोई गुलाम लड़की बहुत पसंद आई हो तो उसकी खूबसूरती का जिक्र। तब उसे पता चलेगा कि ये तोहफे उसे मालवे की अक्ता के लिए पेश की गए हैं।

पेश करने वालों की काबिलियत है कि वे दिल्ली पर काबिज हुए पहले तुर्की कबीले के एक खास खानसामे की औलादें हैं, जिसने बल्बन के बाद तख्त पर आए कैकुबाद या कैखुसरो की रसोई बनाई थी। कुछ गाँव और गढ़ियाँ 70 साल से उनके कब्जे में हैं। सुलतान बलबन के समय ये गाँव उन्हें मिले थे। आज भी पांच सौ गांव से वसूली उनके पास आती है। अब उन्हें एक पूरा इलाका चाहिए।

सुलतान को खुश करने के लिए ये तोहफे उसी का नज़राना है। अगर अक्ता मिल गई तो हर साल इतना माल खराज के अलावा सुलतान की खिदमत में पेश किया जाएगा और 5,000 लुटेरों की फौज हिंदुस्तान के किसी भी कोने में लूटमार के लिए एक इशारे पर चंदेरी में फौज के साथ इकट्‌ठा हो जाएगी।

सुलतान फिर तोहफे में आई काफिर लड़की के नयन-नक्श का जिक्र छेड़ देता है। उन सौदागरों को खुशी से मंजूर है। वे सुलतान का इशारा समझ गए हैं। उसे सोने-चांदी या जवाहरातों से ज्यादा दिलचस्पी किसी काफिर हसीना में है ताकि वह ईद के जलसों में अपने अमीरों में यह गनीमत का माल बाँटकर दानवीरों में दर्ज हो। अक्ता में लौटने के बाद वे यह ध्यान रखेंगे कि हारे हुए किसी काफिर राय की खास जवान लड़कियाँ ही हर खेप में पहले से ज्यादा भेजी जाएँ। शुक्र है, सुलतान को एक चीज तो पसंद आई।

ये एक बेरहम बादशाह के दरबार के इस्लामी कायदे हैं। सुलतान से कौन मिलेगा, कैसे मिलेगा, कैसे सुलतान तक यह खबर जाएगी कि कौन मिलने आया है। अगर वह हिंदू है तो हमने देखा कि कैसे उसका इस्तकबाल होगा और अगर कोई तोहफे लेकर आया है तो क्या दृश्य होगा। दरबार के भीतर की इस रौनक से बाहर आते हुए इब्नबतूता हमें तीसरे दरवाजों तक ले जाने के लिए तैयार है। बाहर खून से सने चबूतरों पर खड़े जल्लादों को देखकर उसे कुछ आता है। वह बता रहा है-

तुगलक के दरवाजे पर बहुतों के कत्ल

“सुलतान खूनखराबे में बड़ा बेरहम है। शायद ही ऐसा कोई वक्त होता हो जब उसके महल के दरवाज़े पर किसी ऐसे इंसान का शव पड़ा हुआ न मिले, जिसको कत्ल कर दिया गया हो। मैं देखा करता था कि उसके महल के दरवाज़े पर बहुत से लोगों की हत्या होती रहती थी। उनके शव पड़े रहते थे।

एक दिन मैं घोड़े से आ रहा था। मेरा घोड़ा भड़क गया। मैंने जमीन पर एक सफेद ढेर देखा। मैंने लोगों से पूछा कि यह क्या है? एक साथी ने बताया कि यह एक आदमी का धड़ है, जिसे काटकर तीन टुकड़े कर दिया गया है। वह छोटे-बड़े गुनाहों पर बिना किसी बात पर ध्यान दिए ऐसी सज़ा देता है।

रोज सैकड़ों लोग जंजीरों में जकड़कर उसके सामने सभाकक्ष में लाए जाते। जिन्हें कत्ल करने का हुक्म होता, उन्हें कत्ल कर दिया जाता। जिन्हें दारुण कष्ट देने का हुक्म होता, उन्हें वह दिए जाते। जिन्हें पीटे जाने का हुक्म होता, उनकी पिटाई की जाती। उसने नियम बना दिया था कि रोज सभी बंदियों को बंदीगृह से लाया जाए। सिर्फ जुमे के दिन नहीं लाए जाते थे। उस दिन वे आराम कर सकते थे। नहा सकते थे।”

भाई का बीच-बाजार में कत्ल, माँ को भी मरवाया

“सुलतान का एक सौतेला भाई था मसऊद खां। उसकी माँ सुलतान अलाउद्दीन की बेटी थी। मसऊद जैसा खूबसूरत आदमी मैंने संसार में नहीं देखा। सुलतान को शक हो गया कि वह बगावत करना चाहता है। उससे इस बारे में पूछताछ की गई।

मसऊद ने सजा के तौर पर दारुण तकलीफ झेलने के डर से गुनाह कुबूल कर लिया, क्योंकि जो कोई भी इस तरह लगाए गए गुनाह के इल्जाम कुबूल नहीं करता, सुलतान उसे बेरहमी से तकलीफ देकर मारता है। लोग ऐसी क्रूर मौत के डर से फौरन गुनाह कुबूल करना बेहतर समझते हैं।

सुलतान ने हुक्म दिया कि बीच-बाज़ार में मसऊद का सिर काटा जाए। कायदे के मुताबिक तीन दिन तक मसऊद का सिर कटा धड़ वहीं पड़ा रहा। दो साल पहले उसकी माँ की भी उसी जगह पर पत्थर मार-मार कर हत्या कर दी गई। उसने व्यभिचार का इल्जाम कुबूल कर लिया था। काज़ी कमालुद्दीन ने पत्थर मार-मारकर उसके कत्ल का हुक्म दिया था।”

घरों से निकालकर एक साथ 350 सैनिकों का कत्ल

“मलिक यूसुफ बुगरा के मातहत एक सेना दिल्ली की सरहद पर एक पहाड़ी पर कुछ हिंदुओं के खिलाफ युद्ध के लिए भेजी गई। यूसफु ने बड़ी फौज के साथ कूच किया। लेकिन कुछ सैनिक साथ नहीं आए। यूसुफ ने इस बारे में सुलतान को लिखकर भेज दिया। सुलतान ने जाँच का हुक्म दिया। शहर में तलाशी ली गई। 350 सैनिक बंदी बनाए गए। सबको एक साथ कत्ल करने का हुक्म हुआ तो यह हत्याकांड ऐसे ही हुआ।”

खूनखराबे के ऐसे अनगिनत किस्से हैं। तुगलक की दिल्ली में अगर अखबार छप रहे होते तो हर पेज पर हत्याकांड की खबरें होतीं। यह भी छपता कि जल्लादों के हाथों महल के बाहर आज किस-किसको कत्ल किया जाएगा? रिपोर्टर यह भी बता रहे होते कि आज किन-किनकी खाल खींची जाएगी और भुस भरवाकर किले के किस हिस्से में टाँगी जाएगी?

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