काबे के काले पत्थर का रहस्य : हिंदू राजा विक्रमादित्य से जुड़ा है अरब का इतिहास

प्रति वर्ष मक्का में हज पर काबा की परिक्रमा करने लाखों मुस्लमान आते हैं. भारत से हज जाने वालों की संख्या अब दो लाख मुस्लिम प्रति वर्ष हो गयी है | ऐसा माना जाता है कि दुनिया भर के मुसलमानों के लिए काबा मात्र एक कमरा नहीं अपितु सारी कायनात के मालिक अल्लाह का घर है. और इस काबा के एक दीवार पर संगे अस्वद नाम का एक काला पत्थर लगा हुआ है | अरब के इतिहास और भारतीयों के परम्परागत में यह स्पष्ट है कि निश्चित रूप से एक पवित्र शिवलिंग ही है. यह शिव लिंग इस्लाम के प्रारम्भ होंसे से पूर्व काबा के अन्दर प्रतिष्ठित था ।

मुहम्मद के बाल्य जीवन की एक घटना में काबा की टूटी छत और फर्श के पुनर्निर्माण के बाद शिवलिंग को पुनः प्राण प्रतिष्ठित करने में कबीलों में विवाद हो गया कि किसके हाथों यह पुनीत कार्य हो । जिसे मुहम्मद की सलाह पर सभी सरदारों ने एक चादर में शिवलिंग को रखकर और फिर चादर के कोनों को सभी कबीलों के मुखियाओं ने पकड़ कर काबा के मध्य में स्थापित कर दिया | मुहम्मद के जीवनी कार इस घटना का उल्लेख करने का एक ही उद्देश्य बताते है कि छोटी आयु में भी मुहम्मद ने अपनी सूझबूझ से एक बड़ा धार्मिक खून खराबा टाल दिया ।

अब अरब के मूर्तिपूजक इतिहास को स्मरण करने में कुफ़्र के भय से उस काले पत्थर को मध्य से निकाल कर काबा की एक दीवार के कोने में इसे जड़वा दिया | अपने सनातन शैव धर्म की पहचान से खुद को बिलकुल जुदा रखने वाले उसे अन्तरिक्ष से आया एक उल्का पिंड के रूप में प्रचारित करते हैं | मुहम्मद ने मक्का पर अपना अधिकार करने के तुरंत बाद काबा से सैकड़ों मूर्तियों को खंडित कर फिंकवा दिया, किन्तु संगे असवद को मात्र स्थानांतरित कर दीवार के कोने में लगवा दिया |

मुहम्मद की मृत्यु के दो वर्ष बाद, तीसरे उत्तराधिकारी ख़लीफ़ा हज़रत उमर के शासनकाल (634-645 ई॰) ने इस पर विचार किया कि कहीं आगे चलकर लोग अज्ञानतावश या भावुक होकर इस काले पत्थर को, पत्थर से ‘कुछ अधिक’ यानी महादेव न समझने लगें, इसलिए उसने काबा में ही ‘शिवलिंग’ के सामने खड़े होकर कहा: ”तू एक पत्थर है, सिर्फ़ पत्थर ! हम तुझे बस इस वजह से चूमते हैं कि हमने पैग़म्बर मुहम्मद को तुझे चूमते हुए देखा था. इससे ज़्यादा तेरी कोई हैसियत, कोई महत्व हमारे लिए नहीं है. हमारा विश्वास है कि तू एक निर्जीव वस्तु, हमें न कोई फ़ायदा पहुंचा सकता है, न ही हानि, हम अरब वासियों का पूज्य व उपास्य होना तो दूर की बात, असंभव बात है ” ।

शारदा द्वारिका व ज्योतिर्पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी और सर्वज्ञ शारदा पीठ काश्मीर के शंकराचार्य अमृतानंद देव तीर्थ जी व अंतरराष्ट्रीय आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रवि शंकर जी, जैसे संत भी घोषित कर चुके है कि काबा का संगे असवद ही शिव लिंग है । यही बात सभी हिन्दू धर्मगुरु कहने लगे और भारत के मुल्ला वर्ग भी समझ जाए तो करोड़ों मुसलामानों की कट्टरता में बदलाव आएगा ।शैव मत के अरबी इतिहास व परम्परा को विश्व पटल पर लाने की आवश्यकता है ।

अरब में मुहम्मद पैगम्बर से पूर्व शिवलिंग को ‘लाट’ कहा जाता था । यह शिव लिंग जिस कमरे में था वह पूरी तरह वर्गाकार नहीं है. पूर्वी दीवार 48 फुट और 6 इंच है. हतीम की ओर दीवार 33 फुट है. काले पत्थर और येमेनी कोने के बीच का अंतर 30 फुट है. पश्चिमी दीवार 46.5 फुट है । मुस्लिम जन काबा को एक बैतुल्ला यानी अल्लाह का घर और, साथ ही इसे अल्लाह द्वारा बनाया गया बैतूल माअमूर यानी स्वर्ग के आकार भी मानते हैं |

इस स्थान पर पैगंबर मोहम्मद के समय से पहले कई बार निर्माण किये गए थे. मुहम्मद के जीवन काल में जब ये छोटे थे, तब एक दिन अचानक आई बाढ़ के कारण काबा क्षतिग्रस्त हो गया था और इसकी दीवारें फट गयी, और जमीन भी उबड़-खाबड़ होने के कारण पानी भी भर जाता था | इसलिए इसके पुनर्निर्माण की जरूरत आकर खड़ी हो गयी थी. यह जिम्मेदारी क़ुरैश की चार जनजातियों के बीच विभाजित की गयी. जब काबा का जीर्णोंद्धार हो गया, फिर जो शिवलिंग मध्य में स्थापित था, उसकी पुनर्प्राण प्रतिष्ठा का समय आया. तो कबीलों में युद्ध छिड़ गया. उस समय एक सुलह हुई, कि जो भी शिव भक्त अगले दिन सूर्योदय से पूर्व इस काबे में आएगा, वही इसकी प्राण प्रतिष्ठा करेगा. मुहम्मद ने सबसे पहले पहुँच कर सबको चौंका दिया | किन्तु कबीलों के सरदार इस बाद के लिए तैयार नहीं हुए कि कुरैशी खानदान का यह लड़का इस धार्मिक अनुष्ठान को करें और वे देखते रहें. फिर एक और सुलह हुई, एक चादर लेकर उसमें शिवलिंग को रखकर चारों और से चार कबीलों के सरदारों ने चादर के कोने पकड़ कर काबा में प्राण प्रतिष्ठा की. ऐसा मानते हैं कि इससे कुरैशी कबीले के बीच एक खुनी टकराव होते होते बचा ।

कुरैशी व काबा के विषय में शोध करने की आवश्यकता है ।

पुराणों की एक कथा के आधार पर वीर सावरकर ने एक लेख लिखा । जिसमें कौरवों के भारत के पश्चिमी तट से नौका द्वारा अरब जाने का उल्लेख हुआ है | कुरुक्षेत्र के युद्ध में पांडवों से हारने के बाद बचे हुए कौरवों को भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम ने द्वारिका से समुद्री मार्ग से अर्ब मरुस्थल में सुरक्षित स्थान में बसाया. जिस स्थान ‘काबा’ में आज विश्व भर से मुस्लिम लोग हज करने जाते हैं |

द्वापर युग में उस स्थान पर गुरु शुक्राचार्य की तपस्थली ‘काव्याः पीठ’ थी. शुक्राचार्य के निर्देशन में निरंतर यज्ञ, मन्त्र सिद्धि व अनेक रहस्यमय देवताओं की साधना के लिए उनके शिष्यों ने उस ‘काव्याः पीठ’ के संरक्षण हेतु ‘मुख’ नाम से एक शैव ग्राम की स्थापना की | शुक्राचार्य ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की और शिव लोक से एक विशिष्ट दिव्य ज्योतिर्लिंग प्राप्त किया, जिसको देखने मात्र से सर्व कष्ट दूर हो जाते है, यह आज भी भूलवश ‘काबा’ के कक्ष के बाहरी दीवार के कोण में लगा हुआ, जबकि इसे कक्ष के मध्य में ही होना चाहिए |

संग-ए -असवद अर्थात् अश्वेत शिला खंड की विधिवत पूजा अर्चना मुख्य रूप से कुरैशी कबीले के नियंत्रण में थी, जो कौरवों के ही वंशज हैं. इस काव्याः ज्योतिलिंग मंदिर के चारों ओर कौरव वंश और उनके राज भक्त परिवार द्वारा बसाया हुआ ‘मुख’ ग्राम आज मक्का शहर के रूप में प्रसिद्ध है |

वैदिक इतिहास के विलुप्त हो चुके अनेक पन्नों में इस बात के भी अनेक प्रमाण होंगे कि दिव्य शक्ति पाने के लिए व अमर होने के लिए संजीविनी विद्या की सिद्धि भी महादेव के श्रीचरणों में हुई होगी | यह ज्योतिर्लिंग देखने में अत्यंत विलक्षण है |

शुक्राचार्य ने भगवान शिव के आशीर्वाद से प्राप्त एक विशिष्ट ज्योतिर्लिंग को अपने जिस प्रकार भीम ने दुशासन का रक्त पान किया, और सभी भाइयों का वध कर हस्तिनापुर की सत्ता पर अधिकार किया, उससे कौरव राजपरिवार की गर्भिणी स्त्रियां व बचे हुए बुजुर्ग अपमानित जीवन जीने को विवश हो गए. विजयी सेना के अनेक संकट खड़े हो गए. अर्ब ही वर्तमान का सऊदी अरब है, हिन्दू इतिहासकारों के अनुसार वर्तमान के सऊदी अरब में स्थित मक्का की काबाः में शिवलिंग था, जिसे भगवान शिव की उपासना होती थी ।

विष्य पुराण के अनुसार, “शालिवाहन अर्थात् सात वाहन वंशी राजा भोज दिग्विजय करते हुए समुद्र पार मरुस्थल तक पहुंचे, फिर मक्का में जाकर वहां स्थित प्रसिद्ध शिव लिंग मक्केश्वर महादेव का पूजन किया था, इसका वर्णन भविष्य-पुराण में निम्न प्रकार है :-

“नृपश्चैवमहादेवं मरुस्थल निवासिनं !

गंगाजलैश्च संस्नाप्य पंचगव्य समन्विते :

चंद्नादीभीराम्भ्यचर्य तुष्टाव मनसा हरम !

इतिश्रुत्वा स्वयं देव: शब्दमाह नृपाय तं!

गन्तव्यम भोज राजेन महाकालेश्वर स्थले !!

इसके पश्चात् वहां महादेव ने स्वयं दर्शन दिए और कहा कि यहाँ मलेच्छों के इस क्षेत्र मै कैद हूँ, यहाँ से लौट जाओ ! ” इस शास्त्रीय प्रमाण हमें संकेत करते हैं, कि मुहम्मदी मत के मानने वालों से हमें निश्चित दूरी बनाकर रखनी चाहिए. इस धरती पर देवासुर संग्राम तो चलता ही आ रहा है. किसी एक नास्त्रेदमस नामक व्यक्ति की प्रसिद्ध भविष्यवाणी है कि सागर और चाँद को मानने वाले धर्म के बीच निर्णायक युद्ध होगा | इस विश्व युद्ध में सागर के नाम वाले यानी हिन्दू ही विजयी होंगे.

मुहम्मद और मुसलमानों के विषय में भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग पर्व 3, अध्याय 3, खंड 3, कलियुगीयेतिहास समुच्चय में कहा गया है—

लिंड्गच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रुधारी स दूषकः।

उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनो मम ।25।

विना कौलं च पशवस्तेषां भक्ष्या मता मम।

मुसलेनैव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति।26।।

तस्मान्मुसलवन्तो हि जातयो धर्मदूषकाः।

इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः।। (श्लोक 25-27)

इन तीन श्लोकों का सार यह है कि —” यहाँ के मनुष्यों का ख़तना होगा, वे शिखाहीन होंगे, वे दाढ़ी रखेंगे, ऊंचे स्वर में आलाप करेंगे यानी अज़ान देंगे. शाकाहारी होंगे, किन्तु उनके लिए बिना कौल यानी बिस्मिल्ला बोले बिना कोई पशु खाने योग्य नहीं होगा. ईश्वर के नाम पर अनुयायियों का मुस्लिम संस्कार होगा. उन्हीं से मुसलवन्त यानी ईमानवालों का दूषित धर्म फैलेगा और ऐसा मेरे यानी भगवान शिव के कहने से पैशाच धर्म का अंत भी होगा”

अब विचारणीय बात यह है कि राजा भोज को महादेव ने मरुस्थल से लौटा दिया. किन्तु वर्तमान में 1400 वर्ष के बाद क्या महाकाल द्वारा मुसलमानों के धर्म का अंत का समय आ गया है. क्या किसी शिव शक्ति की प्रेरणा से इस कार्य की शुरुआत हो चुकी है ?

अभी हाल ही में ईरान में वहां के निवासियों ने इस्लाम को त्यागकर स्वयं को ‘आर्य’ होने की घोषणा की. इस्लाम के प्रसार से पहले इजराइल और अन्य यहूदियों द्वारा भी वैदिक देवी-देवताओं की पूजा किए जाने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं. इराक और सीरिया में सुबी नाम से एक जाति -साईबेरियन को अरब के लोग बहुदेववादी मानते थे. ठीक से यदि प्राचीन इतिहास पर शोध हो तो विश्व भर में वैदिक काल के चिन्ह निश्चित प्राप्त होंगे । इसके बाद मक्का के गेट पर साफ-साफ लिखा था कि काफिरों का अंदर जाना गैर-कानूनी है । मक्का शहर के मार्गों में स्पष्ट रूप से आज भी लिखा गैर-मुस्लिम का प्रवेश वर्जित है. इसका मतलब है कि ईसाई, जैनी या बौद्ध धर्म को भी मानने वाले इसके अंदर नहीं जा सकते हैं ।

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